कायाकल्प - Hindi sex novel
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
सभी लोग मेरी तरफ उत्सुकतापूर्वक देख रहे थे… लेकिन अगर मेरी नज़र किसी की नज़र से मिलती तो वो तुरंत अपनी नज़र नीची कर लेते – मानो को कोई चोरी पकड़ी गयी हो। एक-दो औरतें लेकिन बड़ी ढिठाई से मुझे घूरे जा रही थी। मैंने उनको नज़रंदाज़ करना ही उचित समझा। शक्ति सिंह से आगे कोई बात नहीं हो पायी … वो आगे के इंतजाम के लिए कमरे से बाहर चले गए थे। लिहाज़ा, अब मेरे पास चाय आने के इंतज़ार के अतिरिक्त और कोई काम नहीं बचा था।
मुझे अब ठण्ड लगने लग गयी थी… मेरे पास इस समय कोई गरम कपड़ा नहीं था। मेरा सामान कहीं नहीं दिख रहा था। ‘इतनी ठण्ड में तो जान निकल जायेगी’ मैंने सोचा।
“जीजू, आपकी चाय….” यह सुन कर मेरी जान में जान आई।
“थैंक यू!” मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
“.. और ये है आपके लिए शाल!” नीलम ने बाल-सुलभ चंचलता के साथ कहा।
“नीलम! यू आर अन एंजेल! …. फ़रिश्ता हो तुम!” मैंने मुस्कुराते हुए मन से आभार प्रकट किया।
नीलम के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी।
“जीजू … आपकी स्माइल मुझे बहुत पसंद है …” नीलम ने चंचलता से कहना जारी रखा, “… और आपसे मैं एक बात कहूँ?”
“हाँ .. बोलो न” मैंने चाय की पहली चुस्की लेते हुए कहा।
“मैं आपको जीजू न बोलूँ तो चलेगा?”
“बिलकुल!”
“मैं आपको दाजू कहूँ?”
“कह सकती हो .. लेकिन इसका मतलब क्या होता है?”
“दाजू होता है बड़ा भाई … आप मेरे बड़े भैया ही तो हैं न…” नीलम की इस स्नेह भरी बात ने मेरे ह्रदय के न जाने कैसे अनजान तार छेड़ दिए। मेरा मन हुआ की इस बच्ची को जोर से गले लगा लूँ! एक रोड-ट्रिप पर निकला था, और आज एक पूरा परिवार है मेरे पास!
मेरे चाय पीने, नहा-धो कर नाश्ता करने तक के अंतराल तक संध्या मेरे सामने नहीं आई। वह अन्दर ही थी … अपने परिजनों के साथ बात-चीत कर रही होगी। खैर, जब वह बाहर निकली, तो उसने नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी। बाकी का पहनावा कल के जैसा ही था। नई-नवेली दुल्हन को वैसे भी सोलह श्रृंगार करना शोभा भी देता है। बस एक अंतर था – आज उसने मेरी दी हुई करधनी भी पहनी हुई थी। कोई आश्चर्य नहीं की वहां उपस्थित कई लोगों की नज़र उसी करधन पर थी। मैंने कुर्ता और चूड़ीदार पजामा पहना हुआ था। हम दोनों ने ही शाल ओढ़ा हुआ था। दिन में भी ठंडक काफी थी। आज की व्यवस्था यह थी की इस कसबे की मानी हुई संरक्षक देवी के दर्शन और पूजा-पाठ करनी थी। उनका मंदिर घर से कोई एक किलोमीटर दूर पहाड़ के ऊपर बना था। लिहाज़ा वहां पर जाने के लिए पैदल ही रास्ता था। अगर मुझे मालूम होता, तो संध्या को इतना परेशान न करता। खैर, अब किया भी क्या जा सकता था।
पहाड़ी रास्ते पर चलते हुए मैंने संध्या से पूछा की क्या वह ठीक से चल पा रही है …. जिसका उत्तर उसने हाँ में दिया। रास्ते में मेरे ससुर जी, सासु माँ और नीलम मुझसे कुछ न कुछ बातें करते जा रहे थे – मुझे या तो उस जगह के बारे में बताते, या फिर अपनी पहचान के लोगो से मेरा परिचय भी करते। कुछ देर चलते रहने के बाद मंदिर आया। वहां पंडित जी पहले से ही तैयार थे, और हमारे आते ही उनके मंत्रोच्चारण शुरू हो गए। कुछ देर में पूजा सम्पन्न हुई और हम लोग मंदिर के बाहर एक चौरस मैदान में आकर रुके। पंडित जी यहाँ भी आकर मंत्र पढने लगे और कुछ ही देर में उन्होंने मुझे एक पौधा दिया, और मुझे उसको रोपने को बोला। मुझे उस समय याद आया की उत्तराँचल में कुछ वर्षो से एक आन्दोलन जैसा चला हुआ है, जिसको “मैती” कहा जाता है।
आज के दौर में “ग्लोबल वार्मिंग” मानवता और धरती दोनों के लिए एक बड़ी समस्या बनकर उभरा, ऐसे में मैती आंदोलन अपने आप में एक बड़ी मिसाल है। कुछ लोगों के लिए यह सिर्फ रस्म भर हो सकता हैं, लेकिन वास्तविकता में यह एक ऐसा भावनात्मक पर्यावरणीय आंदोलन है जिसे अगर व्यापक प्रचार मिले तो पर्यावरण प्रदूषित ही ना हो। इस रीति में शादी के समय वैदिक मंत्रेच्चार के बीच दूल्हा-दुल्हन द्वारा फलदार पौधों का रोपण किया जाता है। जब भी उत्तराँचल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है, तो विदाई के समय दूल्हा-दुल्हन को गांव के एक निश्चित स्थान पर ले जाकर फलदार पौधा लगवाया जाता है। दूल्हा पौधो को रोपित करता है और दुल्हन इसे पानी से सींचती है, फिर गाँव के बड़े बूढ़े लोग नव-दम्पत्ति को आशीर्वाद देते हैं।
मुझे अब ठण्ड लगने लग गयी थी… मेरे पास इस समय कोई गरम कपड़ा नहीं था। मेरा सामान कहीं नहीं दिख रहा था। ‘इतनी ठण्ड में तो जान निकल जायेगी’ मैंने सोचा।
“जीजू, आपकी चाय….” यह सुन कर मेरी जान में जान आई।
“थैंक यू!” मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
“.. और ये है आपके लिए शाल!” नीलम ने बाल-सुलभ चंचलता के साथ कहा।
“नीलम! यू आर अन एंजेल! …. फ़रिश्ता हो तुम!” मैंने मुस्कुराते हुए मन से आभार प्रकट किया।
नीलम के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी।
“जीजू … आपकी स्माइल मुझे बहुत पसंद है …” नीलम ने चंचलता से कहना जारी रखा, “… और आपसे मैं एक बात कहूँ?”
“हाँ .. बोलो न” मैंने चाय की पहली चुस्की लेते हुए कहा।
“मैं आपको जीजू न बोलूँ तो चलेगा?”
“बिलकुल!”
“मैं आपको दाजू कहूँ?”
“कह सकती हो .. लेकिन इसका मतलब क्या होता है?”
“दाजू होता है बड़ा भाई … आप मेरे बड़े भैया ही तो हैं न…” नीलम की इस स्नेह भरी बात ने मेरे ह्रदय के न जाने कैसे अनजान तार छेड़ दिए। मेरा मन हुआ की इस बच्ची को जोर से गले लगा लूँ! एक रोड-ट्रिप पर निकला था, और आज एक पूरा परिवार है मेरे पास!
मेरे चाय पीने, नहा-धो कर नाश्ता करने तक के अंतराल तक संध्या मेरे सामने नहीं आई। वह अन्दर ही थी … अपने परिजनों के साथ बात-चीत कर रही होगी। खैर, जब वह बाहर निकली, तो उसने नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी। बाकी का पहनावा कल के जैसा ही था। नई-नवेली दुल्हन को वैसे भी सोलह श्रृंगार करना शोभा भी देता है। बस एक अंतर था – आज उसने मेरी दी हुई करधनी भी पहनी हुई थी। कोई आश्चर्य नहीं की वहां उपस्थित कई लोगों की नज़र उसी करधन पर थी। मैंने कुर्ता और चूड़ीदार पजामा पहना हुआ था। हम दोनों ने ही शाल ओढ़ा हुआ था। दिन में भी ठंडक काफी थी। आज की व्यवस्था यह थी की इस कसबे की मानी हुई संरक्षक देवी के दर्शन और पूजा-पाठ करनी थी। उनका मंदिर घर से कोई एक किलोमीटर दूर पहाड़ के ऊपर बना था। लिहाज़ा वहां पर जाने के लिए पैदल ही रास्ता था। अगर मुझे मालूम होता, तो संध्या को इतना परेशान न करता। खैर, अब किया भी क्या जा सकता था।
पहाड़ी रास्ते पर चलते हुए मैंने संध्या से पूछा की क्या वह ठीक से चल पा रही है …. जिसका उत्तर उसने हाँ में दिया। रास्ते में मेरे ससुर जी, सासु माँ और नीलम मुझसे कुछ न कुछ बातें करते जा रहे थे – मुझे या तो उस जगह के बारे में बताते, या फिर अपनी पहचान के लोगो से मेरा परिचय भी करते। कुछ देर चलते रहने के बाद मंदिर आया। वहां पंडित जी पहले से ही तैयार थे, और हमारे आते ही उनके मंत्रोच्चारण शुरू हो गए। कुछ देर में पूजा सम्पन्न हुई और हम लोग मंदिर के बाहर एक चौरस मैदान में आकर रुके। पंडित जी यहाँ भी आकर मंत्र पढने लगे और कुछ ही देर में उन्होंने मुझे एक पौधा दिया, और मुझे उसको रोपने को बोला। मुझे उस समय याद आया की उत्तराँचल में कुछ वर्षो से एक आन्दोलन जैसा चला हुआ है, जिसको “मैती” कहा जाता है।
आज के दौर में “ग्लोबल वार्मिंग” मानवता और धरती दोनों के लिए एक बड़ी समस्या बनकर उभरा, ऐसे में मैती आंदोलन अपने आप में एक बड़ी मिसाल है। कुछ लोगों के लिए यह सिर्फ रस्म भर हो सकता हैं, लेकिन वास्तविकता में यह एक ऐसा भावनात्मक पर्यावरणीय आंदोलन है जिसे अगर व्यापक प्रचार मिले तो पर्यावरण प्रदूषित ही ना हो। इस रीति में शादी के समय वैदिक मंत्रेच्चार के बीच दूल्हा-दुल्हन द्वारा फलदार पौधों का रोपण किया जाता है। जब भी उत्तराँचल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है, तो विदाई के समय दूल्हा-दुल्हन को गांव के एक निश्चित स्थान पर ले जाकर फलदार पौधा लगवाया जाता है। दूल्हा पौधो को रोपित करता है और दुल्हन इसे पानी से सींचती है, फिर गाँव के बड़े बूढ़े लोग नव-दम्पत्ति को आशीर्वाद देते हैं।
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मुझे पता चला की दूल्हा अपनी इच्छा अनुसार मैती संरक्षकों (जिनको मैती बहन कहा जाता है) को पैसे भी देता है, जो की रस्म के बाद रोपे गए पौधों की रक्षा करती हैं, खाद, पानी देती हैं, जानवरों से बचाती हैं। मैती बहनों को जो पैसा दूल्हों के द्वारा इच्छानुसार मिलता है, उसे रखने के लिए मैती बहनों द्वारा संयुक्त रूप से खाता खुलवाया जाता है। उसमें यह राशि जमा होती है। खाते में अधिक धानराशि जमा होने पर इसे गरीब बच्चों की पढ़ाई पर भी खर्च किया जाता है। ‘ऐसे प्रयास के लिए तो मैं कितने ही पैसे दे सकता हूँ’ मैंने सोचा, लेकिन उस समय मेरी जेब में इतने पैसे नहीं थे। इसलिए मैंने उन लोगो को घर पर अपने साथ बुलाया। वहां पर मैंने एक लाख रुपये का चेक काट कर उनको दिया। मुझे लगा की आज का दिन कुछ सार्थक हुआ।
आज का कार्यक्रम अब समाप्त हो गया था, खाना-पीना करने के बाद अब मेरे पास कुछ भी करने को नहीं था। मुझे संध्या का साथ चाहिए था, लेकिन यहाँ पर लोगों का जमावड़ा था। जो भी अंतरंगता और एकांत मुझे उसके साथ मिला था, वह सिर्फ रात को सोते समय ही था। मैं उसके साथ कहीं खुले में या अकेले बिताना चाहता था। मैं अपनी कुर्सी से उठ कर अन्दर के कमरे में गया, जहाँ संध्या थी। मैंने देखा की अनगिनत औरतें और लड़कियां उसको घेर कर बैठी हुई थी। मुझे उनको देख कर चिढ़ हो गयी। मुझे वहां दरवाज़े पर सभी ने खड़ा हुआ देखा … संध्या ने भी। मैंने उसको इशारे से मेरी ओर आने को कहा। संध्या उठी, और अपना पल्लू ठीक करती हुई मेरी तरफ आई।
“जी?”
“संध्या … कहीं बाहर चलते हैं।”
“कहाँ?”
“मुझे क्या मालूम? आपका शहर है …. आपको जो ठीक लगे, मुझे दिखाइए ….”
“लेकिन, यहाँ पर इतने सारे लोग हैं …”
“अरे! इनसे तो आप रोज़ मिलती होंगी। मुझे आपके साथ कुछ अकेले में समय चाहिए …”
संध्या के गाल यह सुन कर सुर्ख लाल हो गए। संभवतः, उसको रात और सुबह की याद हो आई हो।
“जी, ठीक है।”
“और एक बात, यह साड़ी उतार दीजिये।”
“जी???”
“अरे! मेरा मतलब है की शलवार कुरता पहन कर आओ। चलने फिरने में आसानी रहेगी। हाँ, मुझे आप शलवार कुर्ते में ज्यादा पसंद हैं ….” मैंने उसको आँख मारते हुए कहा।
“जी, ठीक है। मैं थोड़ी देर में बाहर आ जाऊंगी।”
मुझे नहीं पता की उसने शलवार कुर्ता पहन कर बाहर आने के लिए अपने घर में क्या क्या झिक झिक करी होगी, लेकिन क्योंकि यह आदेश मेरी तरफ से आया था, कोई उसका विरोध नहीं कर सका। संध्या ने हलके हरे रंग का बूटेदार शलवार कुर्ता और उससे मिलान किया हुआ दुपट्टा पहना हुआ था। उसके ऊपर उसने लगभग मिलते रंग का स्वेटर पहना हुआ था। इस पहनावे और लाल रंग की चूड़ियों में वह बला की खूबसूरत लग रही थी। इस समय दोपहर के डेढ़ बज रहे थे। ठंडक और दोपहर होने के कारण आस पास कोई लोग भी नहीं दिखाई दे रहे थे। अच्छी बात यह थी की ठंडी हवा नहीं चल रही थी, नहीं तो यूँ बाहर घूमने से तबियत भी बिगड़ सकती थी। संध्या मुझे मुख्या सड़क से पृथक, पहाड़ी रास्तों से प्रकृति के सुन्दर दृश्यों के दर्शन करने को ले गयी। कुछ देर तक पैदल चढ़ाई करनी पड़ी, लेकिन एक समय पर समतल मैदान जैसा भी आ गया। संध्या ने बताया की इसको बुग्याल बोलते हैं। इन चौरस घास के मैदानों में हरी घास और मौसमी फूलों की मानो एक कालीन सी बिछी हुई रहती है। यहाँ से चारों तरफ दूर-दूर तक ऊंचे-ऊंचे देवदार और चीड के पेड़ देखे जा सकते थे।
“क्या मस्त जगह है …” कहते हुए मैंने संध्या का हाथ थाम लिया, और उसने भी मेरा हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया।
“मैं आपको अपनी सबसे फेवरिट जगह ले चलूँ?” संध्या ने उत्साह के साथ पूछा।
“बिलकुल! इसीलिए तो आपके साथ बाहर आया हूँ।”
इस समय अचानक ही किसी तरफ से करारी ठंडी हवा चली।
“अगर ऐसे ही हवा चलती रही तो ठंडक बढ़ जायेगी” मैंने कहा। संध्या ने सहमती में सर हिलाया।
“हाँ, इस समय तक पहाडो पर बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है…. लेकिन अभी ठीक है… चार बजे से पहले लौट चलेंगे लेकिन, नहीं तो बहुत ठंडक हो जायेगी।” उसने कहा, और बुग्याल में एक तरफ को चलती रही। कोई पांच-छः मिनट चलने पर मुझे सामने की तरफ एक झील दिखने लगी। उसके बगल में ही एक झोपड़ा भी बना हुआ था। संध्या वहां जा कर रुक गयी। पास से देखने पर यह झोपड़ा नहीं, एक घर जैसा लग रहा था। कहने को तो एकदम वीरान जगह थी, लेकिन कितनी रोमांटिक! एक भी आदमी नहीं था आस पास।
आज का कार्यक्रम अब समाप्त हो गया था, खाना-पीना करने के बाद अब मेरे पास कुछ भी करने को नहीं था। मुझे संध्या का साथ चाहिए था, लेकिन यहाँ पर लोगों का जमावड़ा था। जो भी अंतरंगता और एकांत मुझे उसके साथ मिला था, वह सिर्फ रात को सोते समय ही था। मैं उसके साथ कहीं खुले में या अकेले बिताना चाहता था। मैं अपनी कुर्सी से उठ कर अन्दर के कमरे में गया, जहाँ संध्या थी। मैंने देखा की अनगिनत औरतें और लड़कियां उसको घेर कर बैठी हुई थी। मुझे उनको देख कर चिढ़ हो गयी। मुझे वहां दरवाज़े पर सभी ने खड़ा हुआ देखा … संध्या ने भी। मैंने उसको इशारे से मेरी ओर आने को कहा। संध्या उठी, और अपना पल्लू ठीक करती हुई मेरी तरफ आई।
“जी?”
“संध्या … कहीं बाहर चलते हैं।”
“कहाँ?”
“मुझे क्या मालूम? आपका शहर है …. आपको जो ठीक लगे, मुझे दिखाइए ….”
“लेकिन, यहाँ पर इतने सारे लोग हैं …”
“अरे! इनसे तो आप रोज़ मिलती होंगी। मुझे आपके साथ कुछ अकेले में समय चाहिए …”
संध्या के गाल यह सुन कर सुर्ख लाल हो गए। संभवतः, उसको रात और सुबह की याद हो आई हो।
“जी, ठीक है।”
“और एक बात, यह साड़ी उतार दीजिये।”
“जी???”
“अरे! मेरा मतलब है की शलवार कुरता पहन कर आओ। चलने फिरने में आसानी रहेगी। हाँ, मुझे आप शलवार कुर्ते में ज्यादा पसंद हैं ….” मैंने उसको आँख मारते हुए कहा।
“जी, ठीक है। मैं थोड़ी देर में बाहर आ जाऊंगी।”
मुझे नहीं पता की उसने शलवार कुर्ता पहन कर बाहर आने के लिए अपने घर में क्या क्या झिक झिक करी होगी, लेकिन क्योंकि यह आदेश मेरी तरफ से आया था, कोई उसका विरोध नहीं कर सका। संध्या ने हलके हरे रंग का बूटेदार शलवार कुर्ता और उससे मिलान किया हुआ दुपट्टा पहना हुआ था। उसके ऊपर उसने लगभग मिलते रंग का स्वेटर पहना हुआ था। इस पहनावे और लाल रंग की चूड़ियों में वह बला की खूबसूरत लग रही थी। इस समय दोपहर के डेढ़ बज रहे थे। ठंडक और दोपहर होने के कारण आस पास कोई लोग भी नहीं दिखाई दे रहे थे। अच्छी बात यह थी की ठंडी हवा नहीं चल रही थी, नहीं तो यूँ बाहर घूमने से तबियत भी बिगड़ सकती थी। संध्या मुझे मुख्या सड़क से पृथक, पहाड़ी रास्तों से प्रकृति के सुन्दर दृश्यों के दर्शन करने को ले गयी। कुछ देर तक पैदल चढ़ाई करनी पड़ी, लेकिन एक समय पर समतल मैदान जैसा भी आ गया। संध्या ने बताया की इसको बुग्याल बोलते हैं। इन चौरस घास के मैदानों में हरी घास और मौसमी फूलों की मानो एक कालीन सी बिछी हुई रहती है। यहाँ से चारों तरफ दूर-दूर तक ऊंचे-ऊंचे देवदार और चीड के पेड़ देखे जा सकते थे।
“क्या मस्त जगह है …” कहते हुए मैंने संध्या का हाथ थाम लिया, और उसने भी मेरा हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया।
“मैं आपको अपनी सबसे फेवरिट जगह ले चलूँ?” संध्या ने उत्साह के साथ पूछा।
“बिलकुल! इसीलिए तो आपके साथ बाहर आया हूँ।”
इस समय अचानक ही किसी तरफ से करारी ठंडी हवा चली।
“अगर ऐसे ही हवा चलती रही तो ठंडक बढ़ जायेगी” मैंने कहा। संध्या ने सहमती में सर हिलाया।
“हाँ, इस समय तक पहाडो पर बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है…. लेकिन अभी ठीक है… चार बजे से पहले लौट चलेंगे लेकिन, नहीं तो बहुत ठंडक हो जायेगी।” उसने कहा, और बुग्याल में एक तरफ को चलती रही। कोई पांच-छः मिनट चलने पर मुझे सामने की तरफ एक झील दिखने लगी। उसके बगल में ही एक झोपड़ा भी बना हुआ था। संध्या वहां जा कर रुक गयी। पास से देखने पर यह झोपड़ा नहीं, एक घर जैसा लग रहा था। कहने को तो एकदम वीरान जगह थी, लेकिन कितनी रोमांटिक! एक भी आदमी नहीं था आस पास।
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
“यहाँ मैं बचपन में कई बार आती थी …. यह घर मेरे दादाजी ने बनवाया था, लेकिन दादाजी के बाद पिताजी नीचे कस्बे में रहने लगे – वहां हमारी खेती है। पिछले दस साल से हम लोग यहाँ नहीं रहते हैं। लेकिन मैं यहाँ अक्सर आती हूँ। मुझे यह जगह बहुत पसंद है।”
“क्या बात है!” मैंने एक बाल-सुलभ उत्साह से कहा, “मैंने इससे सुन्दर जगह नहीं देखी …” मैंने रुकते हुए कहा, “और मैंने आपसे सुन्दर लड़की आज तक नहीं देखी।”
संध्या उत्तर में हलके से मुस्कुरा दी। घर के सामने, झील के लगा हुआ पत्थर का बैठने का स्थान बना हुआ था। हम दोनों उसी पर बैठ गए। इसी समय बदल का एक छोटा सा टुकड़ा सूरज के सामने आ गया और एक ताज़ी बयार भी चली। मौसम एकदम से रोमांटिक हो चला। ऐसे में एक सुन्दर सी झील के सामने, अपनी प्रेमिका के साथ बैठ कर आनंद उठाना अत्यंत सुखद था।
“संध्या, आई ऍम कम्प्लीटली इन लव विद यू! जब मैंने आपको पहली बार स्कूल जाते हुए देखा, तभी से।” मुझे लगा की आज यह पहला मौका है जब हम दोनों पहली बार एक दूसरे से खुल कर बात चीत कर सकते हैं। तो इस अवसर को मैं गंवाना नहीं चाहता था। “मुझे कभी कभी शक भी हुआ की कहीं यह ऐसे ही लालसा तो नहीं – लेकिन मेरे मन ने मुझे हर बार बस यही कहा की ऐसा नहीं हो सकता। और यह की मुझे आपसे वाकई बेहद बेहद मोहब्बत है।“
संध्या मेरी हर बात को अपनी मनमोहक भोली मुस्कान के साथ सुन रही थी। मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में ले लिया और कहना जारी रखा,
“और मैं आपसे वादा करता हूँ की मैं आपको बहुत खुश रखूंगा, और आपके हर सपने को पूरा करूंगा।”
“मेरा सपना तो आप हैं! आप जिस दिन हमारे घर आये, उस दिन से आज तक मैं हर दिन यही सोचती हूँ की ये कोई सपना तो नहीं! वो दिन, वो पल इतना अद्भुत था, की मेरी बोलती ही बंद हो गयी थी।”
“मेरा भी यही हाल था, जब मैंने आपको पहली बार देखा। मैंने उसी क्षण में प्यार महसूस किया।”
हम दोनों कुछ पल यूँ ही चुप-चाप बैठे रहे, फिर मैंने पूछा,
“संध्या, आपसे एक बात पूछूं? व्हाट डू वांट इन लाइफ?”
मेरे इस प्रश्न पर संध्या ने पहली बार मेरी आँखों में आँखे डाल कर देखा। वह कुछ देर सोचती रही, और फिर बोली,
“हैप्पीनेस!”
“और आप हैप्पी कैसे होंगी?”
“मेरी ख़ुशी आपसे है – आप मेरे जीवन में आ गए, और मैं खुश हो गयी। आपका प्यार और आपको प्यार करना मुझे ख़ुश रखेगा। आप मेरे सब कुछ है – आपके साथ मैं बहुत सेफ हूँ! ये बात मुझे बहुत ख़ुश करती है। और यह भी की मेरा परिवार साथ में हो और सुरक्षित, स्वस्थ हो।”
संध्या की भोली बातें सुन कर मैं भाव-विभोर हो गया।
“मैं आपको बहुत प्यार करूंगा! आई विल कीप यू एंड योर फॅमिली सेफ! एंड आई विल बी एवरीथिंग एंड मोर फॉर यू!”
“यू आलरेडी आर द होल वर्ल्ड फॉर मी!”
संध्या की इस बात पर मैंने उसको जोर से भींच कर अपने गले से लगा लिया। हम लोग काफी देर तक ऐसे ही एक दूसरे को पकडे हुए बातें करते रहे – कोई भी विशेष बात नहीं। बस मैंने उसको अपने रोज़मर्रा के काम, बैंगलोर शहर, और उत्तराँचल में जो भी जगहें देखीं, उसके बारे में देर तक बताता रहा। संध्या ने भी मुझे अपने परिवार, बचपन, और अन्य विषयों के बारे में बताया। मेरे बचपन में कोई भी ऐसी बात नहीं हुई जिसको मैं वहाँ बताता, और ऐसे अच्छे मौसम में बने मूड का सत्यानाश करता।
संध्या बहुत ख़ुश थी। वह अभी खुल कर मेरे साथ बात कर रही थी, और लगातार मुस्कुरा रही थी। मैं निश्चित रूप से कह सकता था की वह हमारी इस नयी अंतरंगता को पसंद कर रही थी। जब हम एक रिश्ते में शुरूआती नाज़ुक दौर – जिसमें एक दूसरे को जानने की प्रक्रिया चल रही होती है – को पार कर लेते हैं, तो हममें एक प्रकार की शान्ति और ताजगी आ जाती है। इस समय हम दोनों अपने सम्बन्ध के दूसरे चरण में थे, जिसमें हम हमारे मासूम प्रेम का कोमल एहसास था।
मेरे मन में एक कल्पना थी – और वह यह की खुले में – संभवतः किसी खेत में या किसी एकांत, निर्जन जगह में – सम्भोग करना। यह स्थान कुछ वैसा ही था। वैसे यह बहुत संभव था की गाँव और कसबे का कोई व्यक्ति यहाँ आ सकता, लेकिन मेरे हिसाब से इस समय और इस मौसम में यह होने की सम्भावना थोड़ी कम थी। यह देख कर मेरे दिमाग में अपनी कल्पना को मूर्त रूप देने की संभावना जाग उठी। ताज़ी, सुगन्धित हवा ने मेरे अन्दर एक नया जोश भर दिया था। कुछ तो बात होती है नए विवाहित जोड़ों में – उनमें उत्साह और जोश भरा हुआ रहता है। हमने अभी कुछ ही घंटों पहले ही सेक्स किया था, लेकिन अभी पुनः करने की तगड़ी इच्छा जाग गयी।
“क्या बात है!” मैंने एक बाल-सुलभ उत्साह से कहा, “मैंने इससे सुन्दर जगह नहीं देखी …” मैंने रुकते हुए कहा, “और मैंने आपसे सुन्दर लड़की आज तक नहीं देखी।”
संध्या उत्तर में हलके से मुस्कुरा दी। घर के सामने, झील के लगा हुआ पत्थर का बैठने का स्थान बना हुआ था। हम दोनों उसी पर बैठ गए। इसी समय बदल का एक छोटा सा टुकड़ा सूरज के सामने आ गया और एक ताज़ी बयार भी चली। मौसम एकदम से रोमांटिक हो चला। ऐसे में एक सुन्दर सी झील के सामने, अपनी प्रेमिका के साथ बैठ कर आनंद उठाना अत्यंत सुखद था।
“संध्या, आई ऍम कम्प्लीटली इन लव विद यू! जब मैंने आपको पहली बार स्कूल जाते हुए देखा, तभी से।” मुझे लगा की आज यह पहला मौका है जब हम दोनों पहली बार एक दूसरे से खुल कर बात चीत कर सकते हैं। तो इस अवसर को मैं गंवाना नहीं चाहता था। “मुझे कभी कभी शक भी हुआ की कहीं यह ऐसे ही लालसा तो नहीं – लेकिन मेरे मन ने मुझे हर बार बस यही कहा की ऐसा नहीं हो सकता। और यह की मुझे आपसे वाकई बेहद बेहद मोहब्बत है।“
संध्या मेरी हर बात को अपनी मनमोहक भोली मुस्कान के साथ सुन रही थी। मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में ले लिया और कहना जारी रखा,
“और मैं आपसे वादा करता हूँ की मैं आपको बहुत खुश रखूंगा, और आपके हर सपने को पूरा करूंगा।”
“मेरा सपना तो आप हैं! आप जिस दिन हमारे घर आये, उस दिन से आज तक मैं हर दिन यही सोचती हूँ की ये कोई सपना तो नहीं! वो दिन, वो पल इतना अद्भुत था, की मेरी बोलती ही बंद हो गयी थी।”
“मेरा भी यही हाल था, जब मैंने आपको पहली बार देखा। मैंने उसी क्षण में प्यार महसूस किया।”
हम दोनों कुछ पल यूँ ही चुप-चाप बैठे रहे, फिर मैंने पूछा,
“संध्या, आपसे एक बात पूछूं? व्हाट डू वांट इन लाइफ?”
मेरे इस प्रश्न पर संध्या ने पहली बार मेरी आँखों में आँखे डाल कर देखा। वह कुछ देर सोचती रही, और फिर बोली,
“हैप्पीनेस!”
“और आप हैप्पी कैसे होंगी?”
“मेरी ख़ुशी आपसे है – आप मेरे जीवन में आ गए, और मैं खुश हो गयी। आपका प्यार और आपको प्यार करना मुझे ख़ुश रखेगा। आप मेरे सब कुछ है – आपके साथ मैं बहुत सेफ हूँ! ये बात मुझे बहुत ख़ुश करती है। और यह भी की मेरा परिवार साथ में हो और सुरक्षित, स्वस्थ हो।”
संध्या की भोली बातें सुन कर मैं भाव-विभोर हो गया।
“मैं आपको बहुत प्यार करूंगा! आई विल कीप यू एंड योर फॅमिली सेफ! एंड आई विल बी एवरीथिंग एंड मोर फॉर यू!”
“यू आलरेडी आर द होल वर्ल्ड फॉर मी!”
संध्या की इस बात पर मैंने उसको जोर से भींच कर अपने गले से लगा लिया। हम लोग काफी देर तक ऐसे ही एक दूसरे को पकडे हुए बातें करते रहे – कोई भी विशेष बात नहीं। बस मैंने उसको अपने रोज़मर्रा के काम, बैंगलोर शहर, और उत्तराँचल में जो भी जगहें देखीं, उसके बारे में देर तक बताता रहा। संध्या ने भी मुझे अपने परिवार, बचपन, और अन्य विषयों के बारे में बताया। मेरे बचपन में कोई भी ऐसी बात नहीं हुई जिसको मैं वहाँ बताता, और ऐसे अच्छे मौसम में बने मूड का सत्यानाश करता।
संध्या बहुत ख़ुश थी। वह अभी खुल कर मेरे साथ बात कर रही थी, और लगातार मुस्कुरा रही थी। मैं निश्चित रूप से कह सकता था की वह हमारी इस नयी अंतरंगता को पसंद कर रही थी। जब हम एक रिश्ते में शुरूआती नाज़ुक दौर – जिसमें एक दूसरे को जानने की प्रक्रिया चल रही होती है – को पार कर लेते हैं, तो हममें एक प्रकार की शान्ति और ताजगी आ जाती है। इस समय हम दोनों अपने सम्बन्ध के दूसरे चरण में थे, जिसमें हम हमारे मासूम प्रेम का कोमल एहसास था।
मेरे मन में एक कल्पना थी – और वह यह की खुले में – संभवतः किसी खेत में या किसी एकांत, निर्जन जगह में – सम्भोग करना। यह स्थान कुछ वैसा ही था। वैसे यह बहुत संभव था की गाँव और कसबे का कोई व्यक्ति यहाँ आ सकता, लेकिन मेरे हिसाब से इस समय और इस मौसम में यह होने की सम्भावना थोड़ी कम थी। यह देख कर मेरे दिमाग में अपनी कल्पना को मूर्त रूप देने की संभावना जाग उठी। ताज़ी, सुगन्धित हवा ने मेरे अन्दर एक नया जोश भर दिया था। कुछ तो बात होती है नए विवाहित जोड़ों में – उनमें उत्साह और जोश भरा हुआ रहता है। हमने अभी कुछ ही घंटों पहले ही सेक्स किया था, लेकिन अभी पुनः करने की तगड़ी इच्छा जाग गयी।