कायाकल्प - Hindi sex novel
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कायाकल्प
October 1, 2015 By Indian Sex Stories Leave a Comment
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लेकिन कैसा हो यदि ऐसा कुछ वाकई होता हो? मुझे एक नशा मिला हुआ बुखार सा चढ़ गया। दिमाग में इसी लड़की का चेहरा घूमता जाता। उसकी सुन्दरता और उसके भोलेपन ने मुझे मोह लिया था – या यह कहिये की मुझे प्रेम में पागल कर दिया था। मेरे मन में आया की अपने होटल वाले को उसकी तस्वीर दिखा कर उसके बारे में पूछूँ, लेकिन यह सोच के रुक गया की कहीं लोग बुरा न मान जाएँ की यह बाहर का आदमी उनकी लड़कियों/बेटियों के बारे में क्यों पूछ रहा है। वैसे भी दूर दराज के लोग अपनी मान्यताओ और रीतियों को लेकर बहुत ही जिद्दी होते है, और मैं इस समय कोई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था।
‘हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!’ मेरे मन की उधेड़बुन जारी थी।
उसी के बारे में सोचते-सोचते देर शाम हो गयी, तो मैंने निश्चय किया की आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान मेरे मन और मस्तिष्क में कम हुआ ही नहीं! रात में अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरा सारा ध्यान सिर्फ संध्या पर ही था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था – लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था की, यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है। मुझको ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की – संध्या।
नींद नहीं आ रही थी – बस संध्या का ही ख़याल आता जा रहा था। तभी ध्यान आया की वो तो मेरे कैमरे में है! जल्दी से मैं अपने कैमरे में उतारी गयी उसकी तस्वीरों को ध्यान से देखने लगा – लम्बे बाल, और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया – छोटे-छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ – बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी… और अब मेरे सामने थी।
यह सब देखते और सोचते हुए स्वाभाविक तौर पर मेरे शरीर का रक्त मेरे लिंग में तेजी से भरने लगा, और कुछ ही क्षणों में वह स्तंभित हो गया। मेरा हाथ मेरे लिंग को मुक्त करने में व्यस्त हो गया …. मेरे मष्तिष्क में उसकी सुन्दर मुद्रा की बार-बार पुनरावृत्ति होने लगी – उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, उसके युवा स्तन… जैसे-जैसे मेरा मष्तिष्क संध्या के चित्र को निर्वस्त्र करता जा रहा था, वैसे-वैसे मेरे हाथ की गति तीव्र होती जा रही थी…. साथ ही साथ मेरे लिंग में अंदरूनी दबाव बढ़ता जा रहा था – एक नए प्रकार की हरारत पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। मेरी कल्पना मुझे आनंद के सागर में डुबोती जा रही थी। अंततः, मैं कामोन्माद के चरम पर पहुच गया – मेरे लिंग से वीर्य एक विस्फोटक लावा के समान बह निकला। हस्त-मैथुन के इन आखिरी क्षणों में मेरी ईश्वर से बस यही प्रार्थना थी, की यह कल्पना मात्र कोरी-कल्पना बन कर न रह जाए। रात नींद कब आई, याद नहीं है।
अगले दिन की सुबह इतनी मनोरम थी की आपको क्या बताऊँ। ठंडी ठंडी हवा, और उस हवा में पानी की अति-सूछ्म बूंदे (जिसको मेरी तरफ “झींसी पड़ना” भी कहते हैं) मिल कर बरस रही थी। वही दूर कहीं से – शायद किसी मंदिर से – हरीओम शरण के गाये हुए भजनों का रिकॉर्ड बज रहा था। मैं बाहर निकल आया, एक फ़ोल्डिंग कुर्सी पर बैठा और चाय पीते हुए ऐसे आनंददायक माहौल का रसास्वादन करने लगा। मेरे मन में संध्या को पुनः देखने की इच्छा प्रबल होने लगी। अनायास ही मुझे ध्यान आया की उस लड़की के स्कूल का समय हो गया होगा। मैंने झटपट अपने कपडे बदले और उस स्थान पर पहुच गया जहाँ से मुझे स्कूल जाते हुए उस लड़की के दर्शन फिर से हो सकेंगे।
मैंने मानो घंटो तक इंतज़ार किया … अंततः वह समय भी आया जब यूनिफार्म पहने लड़कियां आने लगी। कोई पांच मिनट बाद मुझे अपनी परी के दर्शन हो ही गए। वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी फूल के जैसे लग रही थी! उसके रूप का सबसे आकर्षक भाग उसका भोलापन था। उसके चेहरे में वह आकर्षण था की मेरी दृष्टि उसके शरीर के किसी और हिस्से पर गयी ही नहीं। कोई और होती तो अब तक उसकी पूरी नाप तौल बता चुका होता। लेकिन यह लड़की अलग है! मेरा इसके लिए मोह सिर्फ मोह नहीं है – संभवतः प्रेम है। आज मुझे अपने जीवन में पहली बार एक किशोर वाली भावनाएँ आ रही थीं। जब तक मुझे संध्या दिखी, तब तक उसको मैंने मन भर के देखा। दिल धाड़ धाड़ करके धड़कता रहा। उसके जाने के बाद मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा।
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कायाकल्प
October 1, 2015 By Indian Sex Stories Leave a Comment
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लेकिन कैसा हो यदि ऐसा कुछ वाकई होता हो? मुझे एक नशा मिला हुआ बुखार सा चढ़ गया। दिमाग में इसी लड़की का चेहरा घूमता जाता। उसकी सुन्दरता और उसके भोलेपन ने मुझे मोह लिया था – या यह कहिये की मुझे प्रेम में पागल कर दिया था। मेरे मन में आया की अपने होटल वाले को उसकी तस्वीर दिखा कर उसके बारे में पूछूँ, लेकिन यह सोच के रुक गया की कहीं लोग बुरा न मान जाएँ की यह बाहर का आदमी उनकी लड़कियों/बेटियों के बारे में क्यों पूछ रहा है। वैसे भी दूर दराज के लोग अपनी मान्यताओ और रीतियों को लेकर बहुत ही जिद्दी होते है, और मैं इस समय कोई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था।
‘हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!’ मेरे मन की उधेड़बुन जारी थी।
उसी के बारे में सोचते-सोचते देर शाम हो गयी, तो मैंने निश्चय किया की आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान मेरे मन और मस्तिष्क में कम हुआ ही नहीं! रात में अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरा सारा ध्यान सिर्फ संध्या पर ही था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था – लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था की, यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है। मुझको ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की – संध्या।
नींद नहीं आ रही थी – बस संध्या का ही ख़याल आता जा रहा था। तभी ध्यान आया की वो तो मेरे कैमरे में है! जल्दी से मैं अपने कैमरे में उतारी गयी उसकी तस्वीरों को ध्यान से देखने लगा – लम्बे बाल, और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया – छोटे-छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ – बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी… और अब मेरे सामने थी।
यह सब देखते और सोचते हुए स्वाभाविक तौर पर मेरे शरीर का रक्त मेरे लिंग में तेजी से भरने लगा, और कुछ ही क्षणों में वह स्तंभित हो गया। मेरा हाथ मेरे लिंग को मुक्त करने में व्यस्त हो गया …. मेरे मष्तिष्क में उसकी सुन्दर मुद्रा की बार-बार पुनरावृत्ति होने लगी – उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, उसके युवा स्तन… जैसे-जैसे मेरा मष्तिष्क संध्या के चित्र को निर्वस्त्र करता जा रहा था, वैसे-वैसे मेरे हाथ की गति तीव्र होती जा रही थी…. साथ ही साथ मेरे लिंग में अंदरूनी दबाव बढ़ता जा रहा था – एक नए प्रकार की हरारत पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। मेरी कल्पना मुझे आनंद के सागर में डुबोती जा रही थी। अंततः, मैं कामोन्माद के चरम पर पहुच गया – मेरे लिंग से वीर्य एक विस्फोटक लावा के समान बह निकला। हस्त-मैथुन के इन आखिरी क्षणों में मेरी ईश्वर से बस यही प्रार्थना थी, की यह कल्पना मात्र कोरी-कल्पना बन कर न रह जाए। रात नींद कब आई, याद नहीं है।
अगले दिन की सुबह इतनी मनोरम थी की आपको क्या बताऊँ। ठंडी ठंडी हवा, और उस हवा में पानी की अति-सूछ्म बूंदे (जिसको मेरी तरफ “झींसी पड़ना” भी कहते हैं) मिल कर बरस रही थी। वही दूर कहीं से – शायद किसी मंदिर से – हरीओम शरण के गाये हुए भजनों का रिकॉर्ड बज रहा था। मैं बाहर निकल आया, एक फ़ोल्डिंग कुर्सी पर बैठा और चाय पीते हुए ऐसे आनंददायक माहौल का रसास्वादन करने लगा। मेरे मन में संध्या को पुनः देखने की इच्छा प्रबल होने लगी। अनायास ही मुझे ध्यान आया की उस लड़की के स्कूल का समय हो गया होगा। मैंने झटपट अपने कपडे बदले और उस स्थान पर पहुच गया जहाँ से मुझे स्कूल जाते हुए उस लड़की के दर्शन फिर से हो सकेंगे।
मैंने मानो घंटो तक इंतज़ार किया … अंततः वह समय भी आया जब यूनिफार्म पहने लड़कियां आने लगी। कोई पांच मिनट बाद मुझे अपनी परी के दर्शन हो ही गए। वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी फूल के जैसे लग रही थी! उसके रूप का सबसे आकर्षक भाग उसका भोलापन था। उसके चेहरे में वह आकर्षण था की मेरी दृष्टि उसके शरीर के किसी और हिस्से पर गयी ही नहीं। कोई और होती तो अब तक उसकी पूरी नाप तौल बता चुका होता। लेकिन यह लड़की अलग है! मेरा इसके लिए मोह सिर्फ मोह नहीं है – संभवतः प्रेम है। आज मुझे अपने जीवन में पहली बार एक किशोर वाली भावनाएँ आ रही थीं। जब तक मुझे संध्या दिखी, तब तक उसको मैंने मन भर के देखा। दिल धाड़ धाड़ करके धड़कता रहा। उसके जाने के बाद मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा।
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मैं यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था, की संध्या के लिए मेरे मन में जो भी कुछ था वह लिप्सा अथवा विमोह नहीं था, अपितु शुद्ध प्रेम था। उसको देखते ही ठंडी बयार वाला एहसास, मन में शान्ति और जीवन में ठहर कर घर बसाने वाली भावना लिप्सा तो नहीं हो सकती! ऐसे ही घंटो तक तर्क वितर्क करते रहने के बाद, अंततः मैंने ठान लिया की मैं इससे या इसके घरवालों से बात अवश्य करूंगा। दोपहर बाद जब उसके स्कूल की छुट्टी हुई तो मैंने उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता करने की ठानी। आज भी मेरे साथ कल के ही जैसा हुआ। उसको तब तक देखता रहा जब तक आगे की सड़क से वह मुड़ कर ओझल न हो गयी और फिर मैंने उसका सावधानीपूर्वक पीछा करना शुरू कर दिया। मुख्य सड़क से कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक विस्तृत क्षेत्र आया, जिसमे काफी दूर तक फैला हुआ खेत था और उसमे ही बीच में एक छोटा सा घर बना हुआ था। वह लड़की उसी घर के अन्दर चली गयी।
‘तो यह है इसका घर!’
मैं करीब एक घंटे तक वहीँ निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपने बुद्धि और विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था – शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। कहीं पीटना पड़ गया तो? खैर, मेरी जिज्ञासा इतनी बलवती थी, की मैंने हर जोखिम को नज़रंदाज़ करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।
“साहब! यह तो अपने शक्ति सिंह की बेटी है।” उसने तस्वीर को देखते ही कहा। फिर थोडा रुक कर, “साहब! माज़रा क्या है? ऐसे राह चलते लड़कियों की तस्वीरें निकालना कोई अच्छी बात नहीं।” उसका स्वर मित्रतापूर्ण नहीं था।
“माज़रा? मुझे यह लड़की पसंद आ गयी है! इससे मैं शादी करना चाहता हूँ।” मैंने उसके बदले हुए स्वर को अनसुना किया।
“क्या! सचमुच?” उसका स्वर फिर से बदल गया – इस बार वह अचरज से बोला।
“हाँ! क्या शक्ति सिंह जी इसकी शादी मुझसे करना पसंद करेंगे?”
“साहब, आप सच में इससे शादी करना चाहते है? कोई मजाक तो नहीं है?”
“यार, मैं मजाक क्यों करूंगा ऐसी बातो में? अब तक कुंवारा हूँ – अच्छी खासी नौकरी है। बस अब एक साथी की ज़रुरत है। तो मैं इस लड़की से शादी क्यों नहीं कर सकता? क्या गलत है?”
“मेरा वो मतलब नहीं था! साहब, ये बहुत भले लोग हैं – सीधे सादे। शक्ति सिंह खेती करते हैं – कुल मिला कर चार जने हैं: शक्ति सिंह खुद, उनकी पत्नी और दो बेटियां। इस लड़की का नाम संध्या है। आप बस एक बात ध्यान में रखें, की ये लोग बहुत सीधे और भले लोग हैं। इनको दुःख न देना। आपके मुकाबले बहुत गरीब हैं, लेकिन गैरतमंद हैं। ऐसे लोगो की हाय नहीं लेना। अगर इनको धोखा दिया तो बहुत पछताओगे।”
“नहीं दोस्त! मेरी खुद की जिंदगी दुःख भरी रही है, और मुझे मालूम है की दूसरों को दुःख नही पहुचना चाहिए। और शादी ब्याह की बातें कोई मजाक नहीं होती। मुझे यह लड़की वाकई बहुत पसंद है।”
“अच्छी बात है। आप कहें तो मैं आपकी बात उनसे करवा दूं? ये तो वैसे भी अब शादी के लायक हो चली है।”
“नहीं! मैं अपनी बात खुद करना जानता हूँ। वैसे ज़रुरत पड़ी, तो आपसे ज़रूर कहूँगा।”
रात का खाना खाकर मैंने बहुत सोचा की क्या मैं वाकई इस लड़की, संध्या से प्रेम करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ! कहीं यह विमोह मात्र ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं की मेरी बढती उम्र के कारण मुझे किसी प्रकार का मानसिक विकार हो गया है और मैं पीडोफाइल (ऐसे लोग जो बच्चो की तरफ कामुक रुझान रखते हैं) तो नहीं बन गया हूँ? काफी समय सोच विचार करने के बाद मुझे यह सब आशंकाएं बे-सरपैर की लगीं। मैंने एक बार फिर अपने मन से पूछा, की क्या मुझे संध्या से शादी करनी चाहिए, तो मुझे मेरे मन से सिर्फ एक ही जवाब मिला, “हाँ”!
सवेरे उठने पर मन के सभी मकड़-जाल खुद-ब-खुद ही नष्ट हो गए। मैंने निश्चय कर लिया की मैं शक्ति सिंह से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था – तो आज संध्या का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने, नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहां तक पहुचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। खैर, संध्या के घर पहुच कर मैंने तीन-चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया।
‘तो यह है इसका घर!’
मैं करीब एक घंटे तक वहीँ निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपने बुद्धि और विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था – शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। कहीं पीटना पड़ गया तो? खैर, मेरी जिज्ञासा इतनी बलवती थी, की मैंने हर जोखिम को नज़रंदाज़ करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।
“साहब! यह तो अपने शक्ति सिंह की बेटी है।” उसने तस्वीर को देखते ही कहा। फिर थोडा रुक कर, “साहब! माज़रा क्या है? ऐसे राह चलते लड़कियों की तस्वीरें निकालना कोई अच्छी बात नहीं।” उसका स्वर मित्रतापूर्ण नहीं था।
“माज़रा? मुझे यह लड़की पसंद आ गयी है! इससे मैं शादी करना चाहता हूँ।” मैंने उसके बदले हुए स्वर को अनसुना किया।
“क्या! सचमुच?” उसका स्वर फिर से बदल गया – इस बार वह अचरज से बोला।
“हाँ! क्या शक्ति सिंह जी इसकी शादी मुझसे करना पसंद करेंगे?”
“साहब, आप सच में इससे शादी करना चाहते है? कोई मजाक तो नहीं है?”
“यार, मैं मजाक क्यों करूंगा ऐसी बातो में? अब तक कुंवारा हूँ – अच्छी खासी नौकरी है। बस अब एक साथी की ज़रुरत है। तो मैं इस लड़की से शादी क्यों नहीं कर सकता? क्या गलत है?”
“मेरा वो मतलब नहीं था! साहब, ये बहुत भले लोग हैं – सीधे सादे। शक्ति सिंह खेती करते हैं – कुल मिला कर चार जने हैं: शक्ति सिंह खुद, उनकी पत्नी और दो बेटियां। इस लड़की का नाम संध्या है। आप बस एक बात ध्यान में रखें, की ये लोग बहुत सीधे और भले लोग हैं। इनको दुःख न देना। आपके मुकाबले बहुत गरीब हैं, लेकिन गैरतमंद हैं। ऐसे लोगो की हाय नहीं लेना। अगर इनको धोखा दिया तो बहुत पछताओगे।”
“नहीं दोस्त! मेरी खुद की जिंदगी दुःख भरी रही है, और मुझे मालूम है की दूसरों को दुःख नही पहुचना चाहिए। और शादी ब्याह की बातें कोई मजाक नहीं होती। मुझे यह लड़की वाकई बहुत पसंद है।”
“अच्छी बात है। आप कहें तो मैं आपकी बात उनसे करवा दूं? ये तो वैसे भी अब शादी के लायक हो चली है।”
“नहीं! मैं अपनी बात खुद करना जानता हूँ। वैसे ज़रुरत पड़ी, तो आपसे ज़रूर कहूँगा।”
रात का खाना खाकर मैंने बहुत सोचा की क्या मैं वाकई इस लड़की, संध्या से प्रेम करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ! कहीं यह विमोह मात्र ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं की मेरी बढती उम्र के कारण मुझे किसी प्रकार का मानसिक विकार हो गया है और मैं पीडोफाइल (ऐसे लोग जो बच्चो की तरफ कामुक रुझान रखते हैं) तो नहीं बन गया हूँ? काफी समय सोच विचार करने के बाद मुझे यह सब आशंकाएं बे-सरपैर की लगीं। मैंने एक बार फिर अपने मन से पूछा, की क्या मुझे संध्या से शादी करनी चाहिए, तो मुझे मेरे मन से सिर्फ एक ही जवाब मिला, “हाँ”!
सवेरे उठने पर मन के सभी मकड़-जाल खुद-ब-खुद ही नष्ट हो गए। मैंने निश्चय कर लिया की मैं शक्ति सिंह से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था – तो आज संध्या का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने, नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहां तक पहुचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। खैर, संध्या के घर पहुच कर मैंने तीन-चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया।
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
दरवाज़ा संध्या ने ही खोला।
‘हे भगवान्!’ मेरा दिल धक् से हो गया। संध्या पौ फटने से समय सूरज जैसी लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था – उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी।
‘कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।’
“जी?” मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गयी हो।
“अ..अ आपके पिताजी हैं?” मैंने जैसे-तैसे अपने आपको संयत किया।
“आप अन्दर आइए … मैं उनको अभी भेजती हूँ।”
“जी, ठीक है”
संध्या ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गयी। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो चुका था। करीब दो मिनट बाद शक्ति सिंह बैठक में आये। शक्ति सिंह साधारण कद-काठी के पुरुष थे, उम्र करीब बयालीस के आस-पास रही होगी। खेत में काम करने से सर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था। ‘एक आत्मसम्मानी पुरुष!’ मैंने मन ही मन आँकलन किया, ‘बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।’
“नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?” शक्ति सिंह ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।
“नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ….. लेकिन मेरी एक विनती है, की आप मेरी पूरी बात सुन लीजिये। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।”
“अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने ही वाले थे, आप आ गए हैं – तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर अपनी बात कहिये।”
“नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान् ने चाहा तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।”
“अच्छा बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?”
“ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है… जी वो मैं आपसे यह कहने आया था की ….” बोलते बोलते मैं रुक गया। गला ख़ुश्क हो गया।
“बोलिए न?”
“जी वो मैं …. मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ!” मेरे मुंह से यह बात ट्रेन की गति से निकल गई..
‘मारे गए अब!’
“क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।”
मैंने दो तीन गहरी साँसे भरीं और अपने आपको काफी संयत किया, “जी मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ।”
“…………………………………….”
“मैं इसीलिए आपसे मिलना चाहता था।”
“आप संध्या को जानते हैं?”
“जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।”
“और इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?” शक्ति सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।
“जी।”
“मैं पूछ सकता हूँ की आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते है?”
“मैंने आपके बारे में पूछा है और मुझे मालूम है की आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है की आप मेरी बात सुन लीजिये। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे सब मंज़ूर रहेगा।”
“हम्म! देखिये, आप हमारे मेहमान भी है और … शादी का प्रस्ताव भी लाये हैं। तो हमारी मर्यादा यह कहती है की आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। …. आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।” यह कह कर शक्ति सिंह अन्दर चले गए।
मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। पिटूँगा तो नहीं। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एकसाथ आ गए।
‘अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।’
शक्ति सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।
“यह मेरी छोटी बेटी नीलम है।” नीलम करीब चौदह-पंद्रह साल की रही होगी।
“नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं? आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं?” नीलम नें एक ही सांस में न जाने कितने ही प्रश्न दाग दिए।
मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया… बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।
“मुझे आपकी स्माइल पसंद है …” नीलम ने बाल-सुलभ सहजता से कह दिया।
‘हे भगवान्!’ मेरा दिल धक् से हो गया। संध्या पौ फटने से समय सूरज जैसी लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था – उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी।
‘कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।’
“जी?” मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गयी हो।
“अ..अ आपके पिताजी हैं?” मैंने जैसे-तैसे अपने आपको संयत किया।
“आप अन्दर आइए … मैं उनको अभी भेजती हूँ।”
“जी, ठीक है”
संध्या ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गयी। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो चुका था। करीब दो मिनट बाद शक्ति सिंह बैठक में आये। शक्ति सिंह साधारण कद-काठी के पुरुष थे, उम्र करीब बयालीस के आस-पास रही होगी। खेत में काम करने से सर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था। ‘एक आत्मसम्मानी पुरुष!’ मैंने मन ही मन आँकलन किया, ‘बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।’
“नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?” शक्ति सिंह ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।
“नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ….. लेकिन मेरी एक विनती है, की आप मेरी पूरी बात सुन लीजिये। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।”
“अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने ही वाले थे, आप आ गए हैं – तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर अपनी बात कहिये।”
“नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान् ने चाहा तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।”
“अच्छा बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?”
“ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है… जी वो मैं आपसे यह कहने आया था की ….” बोलते बोलते मैं रुक गया। गला ख़ुश्क हो गया।
“बोलिए न?”
“जी वो मैं …. मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ!” मेरे मुंह से यह बात ट्रेन की गति से निकल गई..
‘मारे गए अब!’
“क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।”
मैंने दो तीन गहरी साँसे भरीं और अपने आपको काफी संयत किया, “जी मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ।”
“…………………………………….”
“मैं इसीलिए आपसे मिलना चाहता था।”
“आप संध्या को जानते हैं?”
“जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।”
“और इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?” शक्ति सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।
“जी।”
“मैं पूछ सकता हूँ की आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते है?”
“मैंने आपके बारे में पूछा है और मुझे मालूम है की आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है की आप मेरी बात सुन लीजिये। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे सब मंज़ूर रहेगा।”
“हम्म! देखिये, आप हमारे मेहमान भी है और … शादी का प्रस्ताव भी लाये हैं। तो हमारी मर्यादा यह कहती है की आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। …. आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।” यह कह कर शक्ति सिंह अन्दर चले गए।
मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। पिटूँगा तो नहीं। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एकसाथ आ गए।
‘अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।’
शक्ति सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।
“यह मेरी छोटी बेटी नीलम है।” नीलम करीब चौदह-पंद्रह साल की रही होगी।
“नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं? आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं?” नीलम नें एक ही सांस में न जाने कितने ही प्रश्न दाग दिए।
मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया… बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।
“मुझे आपकी स्माइल पसंद है …” नीलम ने बाल-सुलभ सहजता से कह दिया।