गोदान -प्रेमचंद

Contains all kind of sex novels in Hindi and English.
Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 18:49

सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक्त वह संपूर्ण एकांत चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी, मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गए। उस पर बच्चा रोने लगा।

मेहता ने समीप आ कर विस्मय से पूछा - आप इस वक्त यहाँ कैसे आ गईं?

गोविंदी ने बालक को चुप कराते हुए कहा - उसी तरह जैसे आप आ गए?

मेहता ने मुस्करा कर कहा - मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चुप करा दूँ।

'आपने यह कला कब सीखी?'

'अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी।'

'अच्छा! परीक्षा के दिन करीब आ गए?'

'यह तो मेरी तैयारी पर है। जब तैयार हो जाऊँगा, बैठ जाऊँगा। छोटी-छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़-पढ़ कर आँखें फोड़ लिया करते हैं। यह तो जीवन-व्यापार की परीक्षा है।'

'अच्छी बात है, मैं भी देखूँगी, आप किस ग्रेड में पास होते हैं।'

यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उन्होंने बच्चे को कई बार उछाला, तो वह चुप हो गया। बालकों की तरह डींग मार कर बोले - देखा आपने, कैसा मंतर के जोर से चुप कर दिया। अब मैं भी कहीं से एक बच्चा लाऊँगा।

गोविंदी ने विनोद किया - बच्चा ही लाइएगा, या उसकी माँ भी।

मेहता ने विनोद-भरी निराशा से सिर हिला कर कहा - ऐसी औरत तो कहीं मिलती ही नहीं।

'क्यों, मिस मालती नहीं हैं? सुंदरी, शिक्षिता, गुणवती, मनोहारिणी, और आप क्या चाहते हैं?'

'मिस मालती में वह एक बात नहीं है, जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूँ।'

गोविंदी ने इस कुत्सा का आनंद लेते हुए कहा - उसमें क्या बुराई है, सुनूँ। भौंरे तो हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने सुना है, आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसंद आती हैं।

मेहता ने बच्चे के हाथों से अपने मूँछों की रक्षा करते हुए कहा - मेरी स्त्री कुछ और ही ढंग की होगी। वह ऐसी होगी, जिसकी मैं पूजा कर सकूँगा।

गोविंदी अपने हँसी न रोक सकी - तो आप स्त्री नहीं, कोई प्रतिमा चाहते हैं। स्त्री तो ऐसी शायद ही कहीं मिले।

'जी नहीं, ऐसी एक देवी इसी शहर में है।'

'सच! मैं भी उसके दर्शन करती, और उसी तरह बनने की चेष्टा करती।'

'आप उसे खूब जानती हैं। यह एक लखपती की पत्नी है, पर विलास को तुच्छ समझती है, जो उपेक्षा और अनादर सह कर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है कि उसकी प्रतिमा बना कर पूजी जाए।'

गोविंदी के हृदय में आनंद का कंपन हुआ। समझ कर भी न समझने का अभिनय करते हुए बोली - ऐसी स्त्री की आप तारीफ करते हैं। मेरी समझ में तो वह दया के योग्य है।

मेहता ने आश्चर्य से कहा - दया के योग्य! आप उसका अपमान करती हैं। वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती है, वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है।

'लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है।'

'वह आदर्श सनातन है और अमर है। मनुष्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है।

गोविंदी का अंत:करण खिला जा रहा था। ऐसी फुरेरियाँ वहाँ कभी न उठीं थीं। जितने आदमियों से उसका परिचय था, उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊँचा था। उनके मुख से यह प्रोत्साहन पा कर वह मतवाली हुई जा रही थी।

उसी नशे में बोली - तो चलिए, मुझे उनके दर्शन करा दीजिए।

मेहता ने बालक के कपोलों में मुँह छिपा कर कहा - वह तो यहीं बैठी हुई हैं।

'कहाँ, मैं तो नहीं देख रही हूँ।'

'मैं उसी देवी से बोल रहा हूँ।'

गोविंदी ने जोर से कहकहा मारा - आपने आज मुझे बनाने की ठान ली, क्यों?

मेहता ने श्रद्धानत हो कर कहा - देवी जी, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं, और मुझसे ज्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैं, जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता हूँ, वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूँ, आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।

गोविंदी की आँखों से आनंद के आँसू निकल पड़े। इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति का सामना न करेगी? उसके रोम-रोम में जैसे मृदु-संगीत की ध्वनि निकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबा कर कहा - आप दार्शनिक क्यों हुए मेहता जी - आपको तो कवि होना चाहिए था।

मेहता सरलता से हँस कर बोले - क्या आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है? दर्शन तो केवल बीच की मंजिल है।

'तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं, लेकिन आप यह भी जानते हैं, कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता?'

'जिसे संसार दु:ख कहता है, वही कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि, ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहाँ जरा भी आकर्षण नहीं है, उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा, उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है। मैंने आपकी दो-चार कविताएँ पढ़ी हैं और उनमें जितनी पुलक, जितना कंपन, जितनी मधुर व्यथा, जितना रुलाने वाला उन्माद पाया है, वह मैं ही जानता हूँ। प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप-जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनाई।

गोविंदी ने हसरत भरे स्वर में कहा - नहीं मेहता जी, यह आपका भ्रम है। ऐसी नारियाँ यहाँ आपको गली-गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गई-बीती हूँ। जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, वह भी कोई स्त्री है? मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ कि मालती से यह कला सीखूँ। जहाँ मैं असफल हूँ, वहाँ वह सफल है। मैं अपनों को भी अपना नहीं बना सकती, वह दूसरों को भी अपना बना लेती है। क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहीं?

मेहता ने मुँह बना कर कहा - शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसीलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शांत करता है?

गोविंदी ने विनोद की शरण ले कर कहा - कुछ भी हो, मैं तो यह देखती हूँ कि पानी मारा-मारा फिरता है और शराब के लिए घर-द्वार बिक जाते हैं, और शराब जितनी ही तेज और नशीली हो, उतनी ही अच्छी। मैं तो सुनती हूँ, आप भी शराब के उपासक हैं?

गोविंदी निराशा की उस दशा में पहुँच गई थी, जब आदमी को सत्य और धर्म में भी संदेह होने लगता है, लेकिन मेहता का ध्यान उधर न गया। उनका ध्यान तो वाक्य के अंतिम भाग पर ही चिमट कर रह गया। अपने मद-सेवन पर उन्हें जितनी लज्जा और क्षोभ आज हुआ, उतना बड़े-बड़े उपदेश सुन कर भी न हुआ था। तर्कों का उनके पास जवाब था और मुँह-तोड़, लेकिन इस मीठी चुटकी का उन्हें कोई जवाब न सूझा। वह पछताए कि कहाँ उन्हें शराब की युक्ति सूझी। उन्होंने खुद मालती की शराब से उपमा दी थी। उनका वार अपने ही सिर पर पड़ा।

लज्जित हो कर बोले - हाँ देवी जी, मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें यह आसक्ति है। मैं अपने लिए उसकी जरूरत बतला कर और उसके विचारोतेजक गुणों के प्रमाण दे कर गुनाह का उज्र न करूँगा, जो गुनाह से भी बदतर है। आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि शराब की एक बूँद भी कंठ के नीचे न जाने दूँगा।

गोविंदी ने सन्नाटे में आ कर कहा - यह आपने क्या किया मेहता जी! मैं ईश्वर से कहती हूँ, मेरा यह आशय न था, मुझे इसका दु:ख है।

'नहीं, आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपने एक व्यक्ति का उद्धार कर दिया।'

'मैंने आपका उद्धार कर दिया। मैं तो खुद आपसे अपने उद्धार की याचना करने जा रही हूँ।'

'मुझसे? धन्य भाग।'

गोविंदी ने करुण स्वर में कहा - हाँ, आपके सिवा मुझे कोई ऐसा नहीं नजर आता, जिसे मैं अपनी कथा सुनाऊँ। देखिए, यह बात अपने ही तक रखिएगा, हालाँकि आपको यह याद दिलाने की जरूरत नहीं। मुझे अब अपना जीवन असह्य हो गया है। मुझसे अब तक जितनी तपस्या हो सकी, मैंने की, लेकिन अब नहीं सहा जाता। मालती मेरा सर्वनाश किए डालती है। मैं अपने किसी शस्त्र से उस पर विजय नहीं पा सकती। आपका उस पर प्रभाव है। वह जितना आपका आदर करती है, शायद और किसी मर्द का नहीं करती। अगर आप किसी तरह मुझे उसके पंजे से छुड़ा दें, तो मैं जन्म-भर आपकी ऋणी रहूँगी। उसके हाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा रहा है। आप अगर मेरी रक्षा कर सकते हैं, तो कीजिए। मैं आज घर से यह इरादा करके चली थी कि फिर लौट कर न आऊँगी। मैंने बड़ा जोर मारा कि मोह के सारे बंधनों को तोड़ कर फेंक दूँ, लेकिन औरत का हृदय बड़ा दुर्बल है मेहता जी! मोह उसका प्राण है। जीवन रहते मोह को तोड़ना उसके लिए असंभव है। मैंने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखी, लेकिन आज मैं आपसे आँचल फैला कर भिक्षा माँगती हूँ। मालती से मेरा उद्धार कीजिए। मैं इस मायाविनी के हाथों मिटी जा रही हूँ।

उसका स्वर आँसुओं में डूब गया। वह फूट-फूट कर रोने लगी।

मेहता अपनी नजरों में कभी इतने ऊँचे न उठे थे, उस वक्त भी नहीं, जब उनकी रचना को फ्रांस की एकाडमी ने शताब्दी की सबसे उत्तम कृति कह कर उन्हें बधाई दी थी। जिस प्रतिमा की वह सच्चे दिल से पूजा करते थे, जिसे मन में वह अपनी इष्टदेवी समझते थे और जीवन के असूझ प्रसंगों में जिससे आदेश पाने की आशा रखते थे, वह आज उनसे भिक्षा माँग रही थी। उन्हें अपने अंदर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ कि वह पर्वत को भी फाड़ सकते हैं, समुद्र को तैर कर पार कर सकते हैं। उन पर नशा-सा छा गया, जैसे बालक काठ के घोड़े पर सवार हो कर समझ रहा हो, वह हवा में उड़ रहा है। काम कितना असाध्य है, इसकी सुधि न रही। अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या करनी पड़ेगी, बिलकुल खयाल न रहा। आश्वासन के स्वर में बोले - आप मालती की ओर से निश्चिंत रहें। वह आपके रास्ते से हट जायगी। मुझे न मालूम था कि आप उससे इतनी दु:खी हैं। मेरी बुद्धि का दोष, आँखों का दोष, कल्पना का दोष। और क्या कहूँ, वरना आपको इतनी वेदना क्यों सहनी पड़ती।

गोविंदी को शंका हुई। बोली - लेकिन सिंहनी से उसका शिकार छीनना आसान नहीं है, यह समझ लीजिए।

मेहता ने दृढ़ता से कहा - नारी हृदय धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती है, कड़वापन भी। उसके अंदर पड़ने वाले बीज में जैसी शक्ति हो।

'आप पछता रहे होंगे, कहाँ से आज इससे मुलाकात हो गई।'

'मैं अगर कहूँ कि मुझे आज ही जीवन का वास्तविक आनंद मिला है, तो शायद आपको विश्वास न आए!'

'मैंने आपके सिर पर इतना बड़ा भार रख दिया।'

मेहता ने श्रद्धा-मधुर स्वर में कहा - आप मुझे लज्जित कर रही हैं देवी जी! मैं कह चुका, मैं आपका सेवक हूँ। आपके हित में मेरे प्राण भी निकल जाएँ, तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा। इसे कवियों का भावावेश न समझिए, यह मेरे जीवन का सत्य है। मेरे जीवन का क्या आदर्श है, आपको यह बतला देने का मोह मुझसे नहीं रूक सकता। मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ, जो प्रसन्न हो कर हँसता है, दु:खी हो कर रोता है और क्रोध में आ कर मार डालता है। जो दु:ख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमजोरी और हँसने को हल्कापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनंदमय क्रीड़ा है, सरल, स्वच्छंद, जहाँ कुत्सा, ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं। मैं भूत की चिंता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है, भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवन की शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर, रूढ़ियों और विश्वासों और इतिहासों के मलबे के नीचे दबे पड़े हैं, उठने का नाम ही नहीं लेते, वह सामर्थ्य ही नहीं रही। जो शक्ति, जो स्फूर्ति मानव-धर्म को पूरा करने में लगनी चाहिए थी, सहयोग में, भाई-चारे में, वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप-दादों का ॠण चुकाने की भेंट हो जाती है। और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है, इस पर तो मुझे हँसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किए डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है, और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना है, और मोक्ष है। ज्ञानी कहता है, होंठों पर मुस्कराहट न आए, आँखों में आँसू न आए। मैं कहता हूँ, अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं है, कोल्हू है। मगर क्षमा कीजिए, मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया। अब देर हो रही है, चलिए, मैं आपको पहुँचा दूँ। बच्चा भी मेरी गोद में सो गया।

गोविंदी ने कहा - मैं तो ताँगा लाई हूँ।

'ताँगे को यहीं से विदा कर देता हूँ।'

मेहता ताँगे के पैसे चुका कर लौटे, तो गोविंदी ने कहा - लेकिन आप मुझे कहाँ ले जाएँगे?

मेहता ने चौंक कर पूछा - क्यों, आपके घर पहुँचा दूँगा।

'वह मेरा घर नहीं है मेहता जी!'

'और क्या मिस्टर खन्ना का घर है?'

'यह भी क्या पूछने की बात है? अब वह घर मेरा नहीं रहा। जहाँ अपमान और धिक्कार मिले, उसे मैं अपना घर नहीं कह सकती, न समझ सकती हूँ।'

मेहता ने दर्द-भरे स्वर में, जिसका एक-एक अक्षर उनके अंत:करण से निकल रहा था, कहा - नहीं देवी जी, वह घर आपका है, और सदैव रहेगा। उस घर की आपने सृष्टि की है, उसके प्राणियों की सृष्टि की है। और प्राण जैसे देह का संचालन करता है, उसी तरह आपने उसका संचालन किया है। प्राण निकल जाय, तो देह की क्या गति होगी? मातृत्व महान गौरव का पद है देवी जी! और गौरव के पद में कहाँ अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? माता का काम जीवन-दान देना है। जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति है, उसे इसकी क्या परवा कि कौन उससे रूठता है, कौन बिगड़ता है। प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकती, उसी तरह प्राण का भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है। मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूँ? आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं। मैं तो यही कहूँगा कि.......

गोविंदी ने अधीर हो कर कहा - लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूँ, नारी भी तो हूँ?

मेहता ने एक मिनट तक मौन रहने के बाद कहा - हाँ, हैं, लेकिन मैं समझता हूँ कि नारी केवल माता है, और इसके उपरांत वह जो कुछ है, वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र है। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूँगा - जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी। आप मिस्टर खन्ना के विषय में इतना ही समझ लें कि वह अपने होश में नहीं हैं। वह जो कुछ कहते हैं या करते हैं, वह उन्माद की दशा में करते हैं, मगर यह उन्माद शांत होने में बहुत दिन न लगेंगे, और वह समय बहुत जल्द आएगा, जब वह आपको अपनी इष्टदेवी समझेंगे।

गोविंदी ने इसका कुछ जवाब न दिया। धीरे-धीरे कार की ओर चली। मेहता ने बढ़ कर कार का द्वार खोल दिया। गोविंदी अंदर जा बैठी। कार चली, मगर दोनों मौन थे।

गोविंदी जब अपने द्वार पर पहुँच कर कार से उतरी, तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखा, उसकी आँखें सजल हैं।

बच्चे घर में से निकल आए और अम्माँ-अम्माँ कहते हुए माता से लिपट गए। गोविंदी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्योति चमक उठी।

उसने मेहता से कहा - इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद। और सिर नीचा कर लिया। आँसू की एक बूँद उसके कपोल पर आ गिरी थी।

मेहता की आँखें भी सजल हो गईं - इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी-हृदय कितना दुखी है!

Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 18:50

भाग 19

मिर्जा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन-भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिर्जा ने एक छप्पर डलवा कर अखाड़ा बनवा दिया है, वहाँ नित्य सौ-पचास लड़ंतिए आ जुटते हैं। मिर्जा जी भी उनके साथ जोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियाँ-बीबी और सास-बहू और भाई-भाई के झगड़े-टंटे यही चुकाए जाते हैं। मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केंद्र है और राजनीतिक आंदोलन का भी। आए दिन सभाएँ होती रहती हैं। यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं, यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनैतिक संचालन होता है। पिछले जलसे में मालती नगर-कांग्रेस-कमेटी की सभानेत्री चुन ली गई है। तब से इस स्थान की रौनक और भी बढ़ गई।

गोबर को यहाँ रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा-साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दाँत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है, लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गई है। उसने पहले महीने में तो केवल मजूरी की और आधा पेट खा कर थोड़े से रुपए बचा लिए। फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोंचे लगाने लगा। इधर ज्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी। गर्मियों में शर्बत और बरफ की दुकान भी खोल दी। लेन-देन में खरा था, इसलिए उसकी साख जम गई। जाड़े आए, तो उसने शर्बत की दुकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोजाना आमदनी ढाई-तीन रुपए से कम नहीं है। उसने अंग्रेजी फैशन के बाल कटवा लिए हैं, महीन धोती और पंप-शू पहनता है। एक लाल ऊनी चादर खरीद ली और पान-सिगरेट का शौकीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निंदा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आए दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूर, मुँह छिपाए पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उससे भी कहीं निंदास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुँह चुराए।

इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता-पिता को रुपए-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपए पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे! दादा को तुरंत गया करने की और अम्माँ को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपए नहीं हैं। अब वह छोटा-मोटा महाजन है। पड़ोस के एक्केवालों, गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपए उधर देता है। इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं ला कर रखने की बात सोच रहा है।

तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहा कर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुर्शेद आ कर द्वार पर खड़े हो गए। गोबर अब उनका नौकर नहीं है, पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जा कर पूछा - क्या हुक्म है सरकार?

मिर्जा ने खड़े-खड़े कहा - तुम्हारे पास कुछ रुपए हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है।

गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिर्जा जी को रुपए दिए थे, पर अब तक वसूल न सका था। तकाजा करते डरता था और मिर्जा जी रुपए ले कर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपए टिकते ही न थे। इधर आए, उधर गायब। यह तो न कह सका, मैं रुपए न दूँगा या मेरे पास रुपए नहीं हैं, शराब की निंदा करने लगा - आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फायदा होता है?

मिर्जा जी ने कोठरी के अंदर आ कर खाट पर बैठते हुए कहा - तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक से पीता हूँ। मैं इसके बगैर जिंदा नहीं रह सकता। तुम अपने रूपयों के लिए न डरो। मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूँगा।

गोबर अविचलित रहा - मैं सच कहता हूँ मालिक! मेरे पास इस समय रुपए होते तो आपसे इनकार करता?

'दो रुपए भी नहीं दे सकते?'

'इस समय तो नहीं हैं।'

मेरी अंगूठी गिरो रख लो।'

गोबर का मन ललचा उठा, मगर बात कैसे बदले?

बोला - यह आप क्या कहते हैं मालिक, रुपए होते तो आपको दे देता, अंगूठी की कौन बात थी।

मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भर कर कहा - मैं फिर तुमसे कभी न माँगूँगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी जिद पड़ गई है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़े, इसे छोड़ूँगा नहीं।

जब गोबर ने अबकी बार इनकार किया, तो मिर्जा साहब निराश हो कर चले गए। शहर में उनके हजारों मिलने वाले थे। कितने ही उनकी बदौलत बन गए थे। कितनों ही की गाढ़े समय पर मदद की थी, पर ऐसों से वह मिलना भी न पसंद करते थे। उन्हें ऐसे हजारों लटके मालूम थे, जिनसे वह समय-समय पर रूपयों के ढेर लगा देते थे, पर पैसे की उनकी निगाह में कोई कद्र न थी। उनके हाथ में रुपए जैसे काटते थे। किसी-न-कसी बहाने उड़ा कर ही उनका चित्त शांत होता था।

गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अंदर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में रहता है, वह मिर्जा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रूपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल-भर से उसमें रहता है, लेकिन मिर्जा ने न कभी किराया माँगा, न उसने दिया। उन्हें शायद खयाल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है।

थोड़ी देर में एक एक्केवाला रुपए माँगने आया। अलादीन नाम था, सिर घुटा हुआ, खिचड़ी दाढ़ी, उसकी लड़की विदा हो रही थी। पाँच रुपए की उसे जरूरत थी। गोबर ने उसे एक आना रूपया सूद पर दे दिए।

अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा - भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो। कब तक हाथ से ठोंकते रहोगे।

गोबर ने शहर के खर्च का रोना रोया - थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी?

अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला - खरच अल्लाह देगा भैया! सोचो, कितना आराम मिलेगा। मैं तो कहता हूँ, जितना तुम अकेले खरच करते हो, उसी में गृहस्थी चल जायगी। औरत के हाथ में बड़ी बरक्कत होती है। खुदा कसम, जब मैं अकेला यहाँ रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊँ, खा-पी सब बराबर। बीड़ी-तमाखू को भी पैसा न रहता। उस पर हैरानी। थके-माँदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ। फिर नानबाई की दुकान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गई है, उसी कमाई में उसकी रोटियाँ भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है। आखिर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है। जब जान खपा कर भी आराम न मिला, तो जिंदगी ही गारत हो गई। मैं तो कहता हूँ, तुम्हारी कमाई बढ़ जायगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो, उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है। रात को लेटोगे तो घरवाली पाँव दबाएगी। सारी थकान मिट जायगी।

यह बात गोबर के मन में बैठ गई। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को ला कर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़े रह गए और उसने घर चलने की तैयारी कर दी, मगर याद आया कि होली आ रही है, इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोल कर खर्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गई। आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था। वह माँ, बहनों और झुनिया सबके लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए एक जापानी गुड़िया और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिंदूर और आइना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ्राक, जो बाजार में बना-बनाया मिलता है। उसने रुपए निकाले और बाजार चला। दोपहर तक सारी चीजें आ गईं। बिस्तर भी बँधा गया, मुहल्ले वालों को खबर हो गई, गोबर घर जा रहा है। कई मर्द-औरतें उसे विदा करने आए। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा - तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूँ। भगवान ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूँगा।

एक युवती ने मुस्करा कर कहा - मेहरिया को बिना लिए न आना, नहीं घर में न घुसने पाओगे।

दूसरी प्रौढ़ा ने शिक्षा दी - हाँ, और क्या, बहुत दिनों तक चूल्हा फूँक चुके। ठिकाने से रोटी तो मिलेगी!

गोबर ने सबको राम-राम किया। हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी में मित्रभाव था, सब एक-दूसरे के दु:ख-दर्द के साथी थे। रोजा रखने वाले रोजा रखते थे। एकादशी रखने वाले एकादशी। कभी-कभी विनोद-भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज को उठा-बैठी कहता, अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंगों को बटखरे बनाता, लेकिन सांप्रदायिक द्वेष का नाम भी न था। गोबर घर जा रहा है। सब उसे हँसी-खुशी विदा करना चाहते हैं।

इतने में भूरे इक्का ले कर आ गया। अभी दिन-भर का धावामार कर आया था। खबर मिली, गोबर जा रहा है। वैसे ही एक्का इधर फेर दिया। घोड़े ने आपत्ति की। उसे कई चाबुक लगाए। गोबर ने एक्के पर सामान रखा, एक्का बढ़ा, पहुँचाने वाले गली के मोड़ तक पहुँचाने आए, तब गोबर ने सबको राम-राम किया और एक्के पर बैठ गया।

सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था। गोबर घर जाने की खुशी में मस्त था। भूरे उसे घर पहुँचाने की खुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार। उड़ा चला जा रहा था। बात की बात में स्टेशन आ गया।

गोबर ने प्रसन्न हो कर एक रूपया कमर से निकाल कर भूरे की तरफ बढ़ा कर कहा - लो, घर वालों के लिए मिठाई लेते जाना।

भूरे ने कृतज्ञता-भरे तिरस्कार से उसकी ओर देखा - तुम मुझे गैर समझते हो भैया! एक दिन जरा एक्के पर बैठ गए तो मैं तुमसे इनाम लूँगा। जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे, वहाँ खून गिराने को तैयार हूँ। इतना छोटा दिल नहीं पाया है। और ले भी लूँ तो घरवाली मुझे जीता न छोड़ेगी?

गोबर ने फिर कुछ न कहा, लज्जित हो कर अपना असबाब उतारा और टिकट लेने चल दिया।

Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 18:50

फागुन अपने झोली में नवजीवन की विभूति ले कर आ पहुँचा था। आम के पेड़ दोनों हाथों से बौर के सुगंध बाँट रहे थे, और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी।

गाँवों में ऊख की बोआई लग गई थी। अभी धूप नहीं निकली, पर होरी खेत में पहुँच गया। धनिया, सोना, रूपा, तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गट्ठे निकाल-निकाल कर खेत में ला रही हैं, और होरी गँड़ासे से ऊख के टुकड़े कर रहा है। अब वह दातादीन की मजूरी करने लगा है। अब वह किसान नहीं, मजूर है। दातादीन से अब उसका पुरोहित-जजमान का नाता नहीं, मालिक-मजदूर का नाता है।

दातादीन ने आ कर डाँटा - हाथ और फुरती से चलाओ होरी! इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे।

होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा - चला ही तो रहा हूँ महाराज, बैठा तो नहीं हूँ।

दातादीन मजूरों से रगड़ कर काम लेते थे, इसलिए उनके यहाँ कोई मजूर टिकता न था। होरी उनका स्वभाव जानता था, पर जाता कहाँ।

पंडित उसके सामने खड़े हो कर बोले - चलाने-चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन-भर में भी एक बोझ ऊख न कटे।

होरी ने विष का घूँट पी कर और जोर से हाथ चलाना शुरू किया। इधर महीनों से उसे पेट-भर भोजन न मिलता था। प्राय: एक जून तो चबेने पर ही कटता था। दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला, कभी कड़ाका हो गया। कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी-जल्दी उठे, मगर हाथ जवाब दे रहा था। इस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता, तो ताजा हो जाता, लेकिन दम कैसे ले? घुड़कियाँ पड़ने का भय था।

धनियाँ और दोनों लड़कियाँ ऊख के गट्ठे लिए गीली साड़ियों से लथपथ, कीचड़ में सनी हुई आईं, और गट्ठे पटक कर दम मारने लगीं कि दातादीन ने डाँट बताई - यहाँ तमासा क्या देख रही है धनिया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर भर में तू एक खेप लाई है। इस हिसाब से तो दिन-भर में भी ऊख न ढुल पाएगी।

धनिया ने त्योरी बदल कर कहा - क्या जरा दम भी न लेने दोगे महाराज! हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गए। जरा मूड़ पर एक गट्ठा लाद कर लाओ तो हाल मालूम हो।

दातादीन बिगड़ उठे - पैसे देते हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम लेना है, तो घर जा कर लो।

धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई - तू जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?

धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा - जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।

दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं - जान पड़ता है, अभी मिजाज ठंडा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो।

धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी - तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाती।

दातादीन ने पैने स्वर में कहा - अगर यही हाल रहा तो भीख भी माँगोगी।

धनिया के पास जवाब तैयार था, पर सोना उसे खींच कर तलैया की ओर ले गई, नहीं बात बढ़ जाती, लेकिन आवाज की पहुँच के बाहर जा कर दिल की जलन निकाली - भीख माँगो तुम, जो भिखमंगों की जात हो। हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे, वही चार पैसे पाएँगे।

सोना ने उसका तिरस्कार किया - अम्माँ जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखतीं, बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो।

होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गँड़ासा उठा-उठा कर ऊख के टुकड़ों के ढेर करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गई थी। उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था, वह इस समय जैसे भाप बन कर उसे यंत्र की-सी अंध-शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी-सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यंत्र की गति से, बिना थके, बिना रुके, उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धार निकल रही थी, मुँह से फिचकुर छूट रहा था, और सिर में धम-धम का शब्द हो रहा था, पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।

सहसा उसकी आँखों में निविड़ अंधकार छा गया। मालूम हुआ, वह जमीन में धँसा जा रहा है। उसने सँभलने की चेष्टा में शून्य में हाथ फैला दिए और अचेत हो गया। गँड़ासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुँह जमीन पर पड़ गया।

उसी वक्त धनिया ऊख का गट्ठा लिए आई। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था - मालिक, तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए, जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा।

धनिया ऊख का गट्ठा पटक पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गई, और उसका सिर अपने जाँघ पर रख कर विलाप करने लगी - तुम मुझे छोड़ कर कहाँ जाते हो? अरी सोना, दौड़ कर पानी ला और जा कर सोभा से कह दे, दादा बेहाल हैं। हाय भगवान! अब किसकी हो कर रहूँगी, कौन मुझे धनिया कह कर पुकारेगा।........

लाला पटेश्वरी भागे हुए आए और स्नेह-भरी कठोरता से बोले - क्या करती है धनिया, होस सँभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गरमी से अचेत हो गए हैं। अभी होस आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी तो कैसे काम चलेगा?

धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिए और रोती हुई बोली - क्या करूँ लाला जी, जी नहीं मानता। भगवान ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गई। अब सबर नहीं होता। हाय रे, मेरा हीरा!

सोना पानी लाई। पटेश्वरी ने होरी के मुँह पर पानी के छींटे दिए। कई आदमी अपने-अपने अँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठंडी पड़ गई थी। पटेश्वरी को भी चिंता हुई, पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे।

धनिया अधीर हो कर बोली - ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला, कभी नहीं।

पटेश्वरी ने पूछा - रात कुछ खाया था?

धनिया बोली - हाँ, रात रोटियाँ पकाई थीं, लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ, जान रख कर काम करो, लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।

सहसा होरी ने आँखें खोल दीं और उड़ती हुई नजरों से इधर-उधर ताका।

धनिया जैसे जी उठी। विह्वल हो कर उसके गले से लिपट कर बोली - अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गए थे।

होरी ने कातर स्वर में कहा - अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।

धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा - देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान दे कर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे!

पटेश्वरी ने हँस कर कहा - धनिया तो रो-पीट रही थी।

होरी ने आतुरता से पूछा - सचमुच तू रोती थी धनिया?

धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेल कर कहा - इन्हें बकने दो तुम। पूछो, यह क्यों कागद छोड़ कर घर से दौड़े आए थे?

पटेश्वरी ने चिढ़ाया - तुम्हें हीरा-हीरा कह कर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।

होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा - पगली है और क्या! अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाए रखना चाहती है।

दो आदमी होरी को टिका कर घर लाए और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़ कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पी कर होरी में जैसे जान आ गई।

उसी वक्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखाई दिया।

गाँव के कुत्ते पहले तो भूँकते हुए उसकी तरफ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे। रूपा ने कहा - भैया आए, भैया आए', और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन कदम आगे बढ़ी, पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गई। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गई।

गोबर ने माँ-बाप के चरण छुए और रूपा को गोद में उठा कर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपने छाती से लगा कर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गई। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखे, उसका मुख देखे, उसका हृदय देखे, उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़ कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था, गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देख कर मानो उसको जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है, मगर होरी ने मुँह फेर लिया था।

गोबर ने पूछा - दादा को क्या हुआ है, अम्माँ?

धनिया घर का हाल कह कर उसे दु:खी न करना चाहती थी। बोली - कुछ नहीं है बेटा, जरा सिर में दर्द है। चलो, कपड़े उतारो, हाथ-मुँह धोओ। कहाँ थे तुम इतने दिन? भला, इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी? आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आँखें फूट गईं। यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन आएगा और कब तुम्हें देखूँगी। कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुन कर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिन?

गोबर ने शरमाते हुए कहा - कहीं दूर नहीं गया था अम्माँ, यहाँ लखनऊ में तो था।

'और इतने नियरे रह कर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी?'

उधर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोल कर चीज का बाँट-बखरा करने में लगी हुई थीं, लेकिन झुनिया दूर खड़ी थी। उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा है। गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार किया है, आज वह उसका बदला लेगी। असामी को देख कर महाजन उससे वह रुपए वसूल करने को भी व्याकुल हो रहा है, जो उसने बट्टेखाते में डाल दिए थे। बच्चा उन चीजों की ओर लपक रहा था और चाहता था, सब-का-सब एक साथ मुँह में डाल ले, पर झुनिया उसे गोद से उतरने न देती थी।

सोना बोली - भैया तुम्हारे लिए ऐना-कंघी लाए हैं भाभी।

झुनिया ने उपेक्षा भाव से कहा - मुझे ऐना-कंघी न चाहिए। अपने पास रखे रहें।

रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली - ओ हो! यह तो चुन्नू की टोपी है। और उसे बच्चे के सिर पर रख दिया।

झुनिया ने टोपी उतार कर फेंक दी और सहसा गोबर को अंदर आते देख कर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में चली गई। गोबर ने देखा, सारा सामान खुला पड़ा है। उसका जी तो चाहता है, पहले झुनिया से मिल कर अपना अपराध क्षमा कराए, लेकिन अंदर जाने का साहस नहीं होता। वहीं बैठ गया और चीजें निकाल-निकाल हर एक को देने लगा। मगर रूपा इसलिए फूल गई कि उसके लिए चप्पल क्यों नहीं आए, और सोना उसे चिढ़ाने लगी, तू क्या करेगी चप्पल ले कर, अपनी गुड़िया से खेल। हम तो तेरी गुड़िया देख कर नहीं रोते, तू मेरी चप्पल देख कर क्यों रोती है? मिठाई बाँटने की जिम्मेदारी धनिया ने अपने ऊपर ली। इतने दिनों के बाद लड़का कुशल से घर आया है। वह गाँव-भर में बैना बटवाएगी। एक गुलाबजामुन रूपा के लिए ऊँट के मुँह में जीरे के समान था। वह चाहती थी, हाँडी उसके सामने रख दी जाय, वह कूद-कूद खाय।

अब संदूक खुला और उसमें से साड़ियाँ निकलने लगीं। सभी किनारदारी थीं, जैसी पटेश्वरी लाला के घर में पहनी जाती हैं, मगर हैं बड़ी हल्की। ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन चलेंगी। बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे पहनें। उनकी मेहरियों को बैठने और सोने के सिवा और कौन काम है! यहाँ तो खेत-खलिहान सभी कुछ है। अच्छा! होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक दुपट्टा भी है।

धनिया प्रसन्न हो कर बोली - यह तुमने बड़ा अच्छा काम किया बेटा! इनका दुपट्टा बिलकुल तार-तार हो गया था।

गोबर को उतनी देर में घर की परिस्थिति का अंदाज हो गया था। धनिया की साड़ी में कई पैबंद लगे हुए थे। सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उसमें से उसके बाल दिखाई दे रहे थे। रूपा की धोती में चारों तरफ झालरें-सी लटक रही थीं। सभी के चेहरे रूखे, किसी की देह पर चिकनाहट नहीं। जिधर देखो, विपन्नता का साम्राज्य था।

लड़कियाँ तो साड़ियों में मगन थीं। धनिया को लड़के के लिए भोजन की चिंता हुई। घर में थोड़ा-सा जौ का आटा साँझ के लिए संच कर रखा हुआ था। इस वक्त तो चबेने पर कटती थी, मगर गोबर अब वह गोबर थोड़े ही है। उससे जौ का आटा खाया भी जायगा? परदेस में न जाने क्या-क्या खाता-पीता रहा होगा। जा कर दुलारी की दुकान से गेहूँ का आटा, चावल-घी उधार लाई। इधर महीनों से सहुआइन एक पैसे की चीज उधार न देती थी, पर आज उसने एक बार भी न पूछा, पैसे कब दोगी।

उसने पूछा - गोबर तो खूब कमा के आया है न?

धनिया बोली - अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी! अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न समझा। हाँ, सबके लिए किनारदार साड़ियाँ लाया है। तुम्हारे आसिरबाद से कुसल से लौट आया, मेरे लिए तो यही बहुत है।

दुलारी ने असीस दिया - भगवान करे, जहाँ रहे कुसल से रहे। माँ-बाप को और क्या चाहिए, लड़का समझदार है। और छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है। हमारे रुपए अभी न मिलें, तो ब्याज तो दे दो। दिन-दिन बोझ बढ़ ही तो रहा है।

इधर सोना चुन्नू को उसका फ्राक और टोप और जूता पहना कर राजा बना रही थी। बालक इन चीजों को पहनने से ज्यादा हाथ में ले कर खेलना पसंद करता था। अंदर गोबर और झुनिया के मान-मनौवल का अभिनय हो रहा था।

झुनिया ने तिरस्कार-भरी आँखों से देख कर कहा - मुझे ला कर यहाँ बैठा दिया। आप परदेस की राह ली। फिर न खोज न खबर ली कि मरती है या जीती है। साल-भर के बाद अब जा कर तुम्हारी नींद टूटी है। कितने बड़े कपटी हो तुम! मैं तो सोचती हूँ कि तुम मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो और आप उड़े, तो साल-भर के बाद लौटे। मरदों का विस्वास ही क्या, कहीं कोई और ताक ली होगी, सोचा होगा, एक घर के लिए है ही, एक बाहर के लिए भी हो जाए।

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