कायाकल्प - Hindi sex novel
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
रिसेप्शन में होता ही क्या है? खाना-पीना, नाच-गाना, और मदिरा। कोई तीन घंटे तक सबने खूब मस्ती करी। मेरे मित्र-गण मुझे और संध्या को पकड़ कर डांस-फ्लोर पर ले गए जहाँ हमने दो-तीन धुनों पर नृत्य किया। नाचने में मैं तो खैर काफी बेढंगा हूँ, लेकिन संध्या को सुर-ताल-और-लय पर नाचना आता है। बड़ा मज़ा आया। समारोह के बाद सबने विदा ली। मैंने अपने बॉस को बोला की वो अपने मित्र को कह दें की हम कल सवेरे पोर्ट ब्लेयर पहुँच जायेंगे, और हमारे लिए इंतजाम कर दे। बॉस ने कहा की उन्होंने पहले ही अपने मित्र को कह दिया है, और अभी वो फिर से बात कर लेंगे। फिर उन्होंने अपने मित्र का भी नंबर दिया और मुझसे बात करायी। उन्होंने फ़ोन पर मुझे बताया की उन्होंने एक कमरा बुक कर रखा है और हमारे आनंद की पूरी व्यवस्था कर दी गयी है। उन्होंने मुझे आगे का प्लान बताया और कहा की हम लोग पोर्ट ब्लेयर से सीधा हेवलॉक द्वीप पहुँच जाएँ। हमारे लिए फेरी का टिकट भी प्लान कर लिया गया है। ये होती है निर्बाध व्यवस्था!
लोगों के दिए गए उपहारों को समेट कर घर आते-आते पुनः रात के बारह बज गए। देर तक सोने का समय ही नहीं बचा। सबसे पहले अपने कपड़े बदले, दो बैग तैयार किये, अपना कैमरा और लैपटॉप रखा। सोने का कोई सवाल ही नहीं था, इसलिए मैं संध्या को लेकर अपनी बालकनी में आ गया।
“कितनी शान्ति है – लगता ही नहीं की यह वही शहर है जहाँ दिन भर इतना शोर होता रहता है।“ संध्या ने कहा।
“हा हा! हाँ, रात में ही लोगो को ठंडक पड़ती है यहाँ तो! पूरा दिन बदहवासी में भटकते रहते हैं सब! आपने अभी मुंबई शहर नहीं देखा – देखेंगी तो डर जाएँगी।”
“इतना खराब है?”
“खराब छोटा शब्द है! बहुत खराब है।”
कुछ देर चुप रहने के बाद,
“आप क्यों इतना खर्च कर रहे हैं? मैं … हम, अपने घर में, मतलब यहीं क्यों नहीं रह सकते?”
“जानेमन, अपने ही घर में रहेंगे। हनीमून घर में नहीं मनाते! और इसी बहाने कहीं घूम भी आयेंगे!! मैंने अपनी पूरी लाइफ में सिर्फ एक ही यात्रा की है – और उसमें ही भगवान को इतनी दया आ गयी की आपको मेरे जीवन में भेज दिया। सोचा, की एक बार और अपने लक को ट्राई कर लेता हूँ। न जाने और क्या क्या मिल जाए! हा हा!”
“अच्छा, तो आपका मन मुझसे अभी से भर गया, की अब दूसरी की खोज में निकल पड़े?” संध्या ने मुझे छेड़ा।
“दूसरी की खोज! अरे नहीं बाबा! फिलहाल तो पहली की ही खोज चल रही है! न तो आपने कभी बीच देखे, और न ही मैंने! बीच भी देखेंगे, और…. और भी काफी कुछ!” मैंने आँख मारते हुए कहा।
“काफी कुछ मतलब?”
उत्तर में मैंने संध्या के कुरते के ऊपर से उसके स्तन को उंगली से तीन चार बार छुआ।
“आप थके नहीं अभी तक?” संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
“ऐसी बीवी हो तो कोई गधा हस्बैंड ही होगा जो थकेगा! तो बताओ, मैं गधा हूँ क्या?”
संध्या ने प्यार से मेरे गले में गलबैंयां डालते हुए कहा, “नहीं… आप तो मेरे शेर हैं!”
“आपको मालूम है की शेर और शेरनी दिन भर में कोई 40-50 बार सेक्स करते हैं?”
“क्या?… आप सचमुच, बहुत बदमाश हैं! न जाने कैसे ऐसी बाते मालूम रहती हैं आपको!”
“इंटरेस्टिंग बाते मुझको हमेशा मालूम रहती हैं!”
“तो, जब आपने मान ही लिया है, की मैंने आपका शेर हूँ…. और आप… मेरी शेरनी… तो….”
“हःहःहःह…” संध्या हल्का सा हंसी, “शेर आपके जैसा हो, और शेरनी मेरे जैसी, तो शेरनी तो बेचारी मर ही जाए!”
मैंने कुछ और खींचने की ठानी, “मेरे जैसा मतलब?”
“जब हमारी शादी पास आ रही थी, तो पास-पड़ोस की ‘भाभियां’ मुझे…. सेक्स… सिखाने के लिए न जाने क्या-क्या बताती रहती थीं।“
“आएँ! आपको भाभियाँ यह सब सिखाती है?”
“तो और कौन बतायेगा? उनके कारण मुझे कम से कम कुछ तो मालूम पड़ा – भले ही उन्होंने सब कुछ उल्टा पुल्टा बताया हो! अब तो लगता है की शायद उनको ही ठीक से नहीं मालूम!”
मुझे संध्या की बात में कुछ दिलचस्पी आई, “अच्छा, ऐसा क्या बताया उन्होंने जो आपको उल्टा पुल्टा लगा? मुझे भी मालूम पड़े!”
संध्या थोड़ा शरमाई, और फिर बोली, “उन्होंने मुझे बताया की पुरुषों का… ‘वो’.. ककड़ी के जैसा होता है। मैं तो उसी बात से डर गयी! मैंने तो सिर्फ बच्चों के ही… ‘छुन्नू’ देखे थे, लेकिन उस दिन जब मैंने पहली बार आपका…. देखा, तो समझ आया की ‘वो’ उनके बताये जैसा तो बिलकुल भी नहीं था। आपका साइज़ तो बहुत बड़ा है! मुझे लगा की मेरी जान निकल जाएगी। और फिर आप इतनी देर तक करते हैं की…..!”
लोगों के दिए गए उपहारों को समेट कर घर आते-आते पुनः रात के बारह बज गए। देर तक सोने का समय ही नहीं बचा। सबसे पहले अपने कपड़े बदले, दो बैग तैयार किये, अपना कैमरा और लैपटॉप रखा। सोने का कोई सवाल ही नहीं था, इसलिए मैं संध्या को लेकर अपनी बालकनी में आ गया।
“कितनी शान्ति है – लगता ही नहीं की यह वही शहर है जहाँ दिन भर इतना शोर होता रहता है।“ संध्या ने कहा।
“हा हा! हाँ, रात में ही लोगो को ठंडक पड़ती है यहाँ तो! पूरा दिन बदहवासी में भटकते रहते हैं सब! आपने अभी मुंबई शहर नहीं देखा – देखेंगी तो डर जाएँगी।”
“इतना खराब है?”
“खराब छोटा शब्द है! बहुत खराब है।”
कुछ देर चुप रहने के बाद,
“आप क्यों इतना खर्च कर रहे हैं? मैं … हम, अपने घर में, मतलब यहीं क्यों नहीं रह सकते?”
“जानेमन, अपने ही घर में रहेंगे। हनीमून घर में नहीं मनाते! और इसी बहाने कहीं घूम भी आयेंगे!! मैंने अपनी पूरी लाइफ में सिर्फ एक ही यात्रा की है – और उसमें ही भगवान को इतनी दया आ गयी की आपको मेरे जीवन में भेज दिया। सोचा, की एक बार और अपने लक को ट्राई कर लेता हूँ। न जाने और क्या क्या मिल जाए! हा हा!”
“अच्छा, तो आपका मन मुझसे अभी से भर गया, की अब दूसरी की खोज में निकल पड़े?” संध्या ने मुझे छेड़ा।
“दूसरी की खोज! अरे नहीं बाबा! फिलहाल तो पहली की ही खोज चल रही है! न तो आपने कभी बीच देखे, और न ही मैंने! बीच भी देखेंगे, और…. और भी काफी कुछ!” मैंने आँख मारते हुए कहा।
“काफी कुछ मतलब?”
उत्तर में मैंने संध्या के कुरते के ऊपर से उसके स्तन को उंगली से तीन चार बार छुआ।
“आप थके नहीं अभी तक?” संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
“ऐसी बीवी हो तो कोई गधा हस्बैंड ही होगा जो थकेगा! तो बताओ, मैं गधा हूँ क्या?”
संध्या ने प्यार से मेरे गले में गलबैंयां डालते हुए कहा, “नहीं… आप तो मेरे शेर हैं!”
“आपको मालूम है की शेर और शेरनी दिन भर में कोई 40-50 बार सेक्स करते हैं?”
“क्या?… आप सचमुच, बहुत बदमाश हैं! न जाने कैसे ऐसी बाते मालूम रहती हैं आपको!”
“इंटरेस्टिंग बाते मुझको हमेशा मालूम रहती हैं!”
“तो, जब आपने मान ही लिया है, की मैंने आपका शेर हूँ…. और आप… मेरी शेरनी… तो….”
“हःहःहःह…” संध्या हल्का सा हंसी, “शेर आपके जैसा हो, और शेरनी मेरे जैसी, तो शेरनी तो बेचारी मर ही जाए!”
मैंने कुछ और खींचने की ठानी, “मेरे जैसा मतलब?”
“जब हमारी शादी पास आ रही थी, तो पास-पड़ोस की ‘भाभियां’ मुझे…. सेक्स… सिखाने के लिए न जाने क्या-क्या बताती रहती थीं।“
“आएँ! आपको भाभियाँ यह सब सिखाती है?”
“तो और कौन बतायेगा? उनके कारण मुझे कम से कम कुछ तो मालूम पड़ा – भले ही उन्होंने सब कुछ उल्टा पुल्टा बताया हो! अब तो लगता है की शायद उनको ही ठीक से नहीं मालूम!”
मुझे संध्या की बात में कुछ दिलचस्पी आई, “अच्छा, ऐसा क्या बताया उन्होंने जो आपको उल्टा पुल्टा लगा? मुझे भी मालूम पड़े!”
संध्या थोड़ा शरमाई, और फिर बोली, “उन्होंने मुझे बताया की पुरुषों का… ‘वो’.. ककड़ी के जैसा होता है। मैं तो उसी बात से डर गयी! मैंने तो सिर्फ बच्चों के ही… ‘छुन्नू’ देखे थे, लेकिन उस दिन जब मैंने पहली बार आपका…. देखा, तो समझ आया की ‘वो’ उनके बताये जैसा तो बिलकुल भी नहीं था। आपका साइज़ तो बहुत बड़ा है! मुझे लगा की मेरी जान निकल जाएगी। और फिर आप इतनी देर तक करते हैं की…..!”
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“मतलब आपको मज़ा नहीं आता?” मैंने आश्चर्य से कहा – मुझे लगा की मैंने संध्या को बहुत मज़े दे रहा हूँ! कहीं देर तक करने के कारण उसको तकलीफ तो नहीं होती!
“नहीं! प्लीज! ऐसा न कहिये! मैं सिर्फ यह कह रही हूँ की आप वैसे बिलकुल भी नहीं हैं, जैसा मुझे भाभियों ने मर्दों के बारे में बताया है! भाभियों के हिसाब से सेक्स…. बस दो-चार मिनट में ख़तम हो जाता है, और यह भी की यह मर्दों के अपने मज़े के लिए है। लेकिन आप…. आप एक तो कम से कम पंद्रह-बीस मिनट से कम नहीं करते, और आप हमेशा मेरे मज़े को तरजीह देते हैं। और बात सिर्फ सेक्स की नहीं है……”
संध्या थोड़ी भावुक हो कर रुक गई, “मेरे शेर तो आप ही हैं!” कहते हुए संध्या ने मेरे लिंग को अपने हाथ की गिरफ्त में ले लिया – मेरा लिंग फूलता जा रहा था।
“आई ऍम सो लकी! …. और अगर मैं यह बात आपको बोलूँ, तो आप मेरे बारे में न जाने क्या सोचेंगे! लेकिन फिर भी मुझे कहना ही है की मैं आपकी फैन हूँ! फैन ही नहीं, गुलाम! आप मेरे हीरो हैं… आप जो कुछ भी कहेंगे मैं करूंगी। आज आपने मुझे जब कपड़े उतारने को कहा, तो मुझे डर या शंका नहीं हुई। मुझे मालूम था की आप मेरे लिए वहां हैं, और मुझे कोई नुक्सान नहीं होने देंगे। और… आप चाहे तो दिन के चौबीसों घंटे मेरे साथ सेक्स कर सकते हैं, और मैं बिलकुल भी मना नहीं करूंगी!”
“हम्म्म्म! गुड!” फिर कुछ सोच कर, “… लगता है आपकी भाभियों को मेरे पीनस (लिंग) का स्वाद देना पड़ेगा!”
“न न ना! आप बहुत गंदे हैं!” संध्या ने मेरे लिंग पर अपनी गिरफ्त और मज़बूत करते हुए कहा, “ऐसा सोचिएगा भी नहीं। ये सिर्फ मेरा है!”
कह कर संध्या ने मेरे लिंग को दबाया, सहलाया और हल्का सा झटका दिया।
“ये करना आपकी भाभियों ने सिखाया है?” मैंने शरारत से पूछा।
“चलिए, आपको थकाते हैं!” संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
मैंने भी मुस्कुराते हुए संध्या को चूमने के लिए उसकी कमर को पकड़ कर अपनी तरफ खीचा और उसके मुँह में मुँह डाल कर उसको चूमने लगा। कुछ देर चूमने के बाद मैंने संध्या का कुरता उसके शरीर से खींच कर अलग किया और अपना भी टी-शर्ट उतार दिया। मेरी हुस्न-परी के स्तन अब मेरे सामने परोसे हुए थे – मैंने संध्या के दाहिने निप्पल को अपनी जीभ से कुछ देर तक चुभलाया, फिर मुँह में भर लिया। संध्या के मुँह से मीठी सिसकारी निकल पड़ी। मैं बारी-बारी से उसके स्तनों को चूमता और चूसता गया – जब मैं एक स्तन को अपने मुँह से दुलारता, तो दूसरे को अपनी उँगलियों से। उसके निप्पल उत्तेजना से मारे कड़े हो गए, और सांसे तेज हो गईं। अब समय था अगले वार का – मैंने अपने खाली हाथ को उसकी शलवार के अन्दर डाल दिया, और उसकी योनि को टटोला। योनि पर हाथ जाते ही मुझे वहां पर गीलेपन का एहसास हुआ। कुछ देर उसको सहलाने के बाद मैंने अपनी उंगली संध्या की योनि में डाल कर अन्दर-बाहर करना शुरू कर दिया।
संध्या कुछ देर आँखें बंद करके आनंद लेती रही, फिर उसने मेरे लिंग को मुक्त कर दिया – मैं पूरी तरह उत्तेजित था। कुछ देर संध्या ने मेरे लिंग को अपने हाथ से पकड़ कर मैथुन किया, और फिर झुक कर उसको अपने मुँह में भर लिया। दोस्तों, लिंग को चूसे जाने का एहसास अत्यंत आंदोलित करने वाला होता है। उत्तेजना के उन्माद में मैं बालकनी की रेलिंग के सहारे आधा लेट गया, और लिंग चुसवाता रहा। संध्या कोई निपुण नहीं थी – लेकिन उसका अनाड़ीपन, और मुझे प्रसन्न करने की उसकी कोशिश मुझे अभूतपूर्व आनंद दे रही थी। कुछ देर के बाद संध्या ने चूसना रोक दिया, और अपनी शलवार और चड्ढी उतार फेंकी। फिर उसने वो किया जो मैंने कभी सोचा भी नहीं – मेरे दोनों तरफ अपनी टांगे फैला कर वह मेरे लिंग को अपनी नम योनि में डाल कर धीरे-धीरे नीचे बैठने गयी।
“आअह्ह्ह्ह….” उन्माद में संध्या की साँसे उखड गयी।
संध्या ने उत्साह के साथ मैथुन करना प्रारंभ कर दिया – मैं वैसे भी दो दिन से भरा बैठा था, इसलिए वैसे भी बहुत कामोत्तेजित हो गया था। मेरा लिंग एकदम कड़क हो गया, और संध्या की पहल भरी यौन-क्रिया से और भी दमदार हो गया। मैं बस संध्या के स्तनों और नितम्बो को बारी-बारी से दबाता रहा। इस बीच संध्या पूरे अनाड़ीपन में मेरे लिंग पर ऊपर-नीचे होती रही – कभी कभी लिंग उसकी योनि से बाहर भी निकल जाता। वैसा होने पर मैं वापस उसको अन्दर डाल देता। संध्या को संभवतः एक पूर्व संसर्ग की याद हो आई हो – वह अपने नितम्बो को न केवल ऊपर नीचे, बल्कि गोलाकार गति में भी घुमा रही थी – इससे मेरे लिंग का दो-आयामी दोहन होने लगा था। इससे उसके भगनासे का भी बराबर उत्तेजन हो रहा था। उसकी गति भी बढ़ने लगी थी – सम्भवतः वह स्खलित होने ही वाली थी। बस अगले 2 ही मिनटों में संध्या का शरीर चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर थरथराने लगा, और उसी समय मैं भी अपने उन्माद के आखिरी सिरे पर पहुँच गया। कुछ ही धक्को में मैं स्खलित हो गया। संध्या जैसी सौंदर्य की देवी की योनि में वीर्य की धाराएँ छोड़ने का एहसास बहुत ही सुखद था।
“नहीं! प्लीज! ऐसा न कहिये! मैं सिर्फ यह कह रही हूँ की आप वैसे बिलकुल भी नहीं हैं, जैसा मुझे भाभियों ने मर्दों के बारे में बताया है! भाभियों के हिसाब से सेक्स…. बस दो-चार मिनट में ख़तम हो जाता है, और यह भी की यह मर्दों के अपने मज़े के लिए है। लेकिन आप…. आप एक तो कम से कम पंद्रह-बीस मिनट से कम नहीं करते, और आप हमेशा मेरे मज़े को तरजीह देते हैं। और बात सिर्फ सेक्स की नहीं है……”
संध्या थोड़ी भावुक हो कर रुक गई, “मेरे शेर तो आप ही हैं!” कहते हुए संध्या ने मेरे लिंग को अपने हाथ की गिरफ्त में ले लिया – मेरा लिंग फूलता जा रहा था।
“आई ऍम सो लकी! …. और अगर मैं यह बात आपको बोलूँ, तो आप मेरे बारे में न जाने क्या सोचेंगे! लेकिन फिर भी मुझे कहना ही है की मैं आपकी फैन हूँ! फैन ही नहीं, गुलाम! आप मेरे हीरो हैं… आप जो कुछ भी कहेंगे मैं करूंगी। आज आपने मुझे जब कपड़े उतारने को कहा, तो मुझे डर या शंका नहीं हुई। मुझे मालूम था की आप मेरे लिए वहां हैं, और मुझे कोई नुक्सान नहीं होने देंगे। और… आप चाहे तो दिन के चौबीसों घंटे मेरे साथ सेक्स कर सकते हैं, और मैं बिलकुल भी मना नहीं करूंगी!”
“हम्म्म्म! गुड!” फिर कुछ सोच कर, “… लगता है आपकी भाभियों को मेरे पीनस (लिंग) का स्वाद देना पड़ेगा!”
“न न ना! आप बहुत गंदे हैं!” संध्या ने मेरे लिंग पर अपनी गिरफ्त और मज़बूत करते हुए कहा, “ऐसा सोचिएगा भी नहीं। ये सिर्फ मेरा है!”
कह कर संध्या ने मेरे लिंग को दबाया, सहलाया और हल्का सा झटका दिया।
“ये करना आपकी भाभियों ने सिखाया है?” मैंने शरारत से पूछा।
“चलिए, आपको थकाते हैं!” संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
मैंने भी मुस्कुराते हुए संध्या को चूमने के लिए उसकी कमर को पकड़ कर अपनी तरफ खीचा और उसके मुँह में मुँह डाल कर उसको चूमने लगा। कुछ देर चूमने के बाद मैंने संध्या का कुरता उसके शरीर से खींच कर अलग किया और अपना भी टी-शर्ट उतार दिया। मेरी हुस्न-परी के स्तन अब मेरे सामने परोसे हुए थे – मैंने संध्या के दाहिने निप्पल को अपनी जीभ से कुछ देर तक चुभलाया, फिर मुँह में भर लिया। संध्या के मुँह से मीठी सिसकारी निकल पड़ी। मैं बारी-बारी से उसके स्तनों को चूमता और चूसता गया – जब मैं एक स्तन को अपने मुँह से दुलारता, तो दूसरे को अपनी उँगलियों से। उसके निप्पल उत्तेजना से मारे कड़े हो गए, और सांसे तेज हो गईं। अब समय था अगले वार का – मैंने अपने खाली हाथ को उसकी शलवार के अन्दर डाल दिया, और उसकी योनि को टटोला। योनि पर हाथ जाते ही मुझे वहां पर गीलेपन का एहसास हुआ। कुछ देर उसको सहलाने के बाद मैंने अपनी उंगली संध्या की योनि में डाल कर अन्दर-बाहर करना शुरू कर दिया।
संध्या कुछ देर आँखें बंद करके आनंद लेती रही, फिर उसने मेरे लिंग को मुक्त कर दिया – मैं पूरी तरह उत्तेजित था। कुछ देर संध्या ने मेरे लिंग को अपने हाथ से पकड़ कर मैथुन किया, और फिर झुक कर उसको अपने मुँह में भर लिया। दोस्तों, लिंग को चूसे जाने का एहसास अत्यंत आंदोलित करने वाला होता है। उत्तेजना के उन्माद में मैं बालकनी की रेलिंग के सहारे आधा लेट गया, और लिंग चुसवाता रहा। संध्या कोई निपुण नहीं थी – लेकिन उसका अनाड़ीपन, और मुझे प्रसन्न करने की उसकी कोशिश मुझे अभूतपूर्व आनंद दे रही थी। कुछ देर के बाद संध्या ने चूसना रोक दिया, और अपनी शलवार और चड्ढी उतार फेंकी। फिर उसने वो किया जो मैंने कभी सोचा भी नहीं – मेरे दोनों तरफ अपनी टांगे फैला कर वह मेरे लिंग को अपनी नम योनि में डाल कर धीरे-धीरे नीचे बैठने गयी।
“आअह्ह्ह्ह….” उन्माद में संध्या की साँसे उखड गयी।
संध्या ने उत्साह के साथ मैथुन करना प्रारंभ कर दिया – मैं वैसे भी दो दिन से भरा बैठा था, इसलिए वैसे भी बहुत कामोत्तेजित हो गया था। मेरा लिंग एकदम कड़क हो गया, और संध्या की पहल भरी यौन-क्रिया से और भी दमदार हो गया। मैं बस संध्या के स्तनों और नितम्बो को बारी-बारी से दबाता रहा। इस बीच संध्या पूरे अनाड़ीपन में मेरे लिंग पर ऊपर-नीचे होती रही – कभी कभी लिंग उसकी योनि से बाहर भी निकल जाता। वैसा होने पर मैं वापस उसको अन्दर डाल देता। संध्या को संभवतः एक पूर्व संसर्ग की याद हो आई हो – वह अपने नितम्बो को न केवल ऊपर नीचे, बल्कि गोलाकार गति में भी घुमा रही थी – इससे मेरे लिंग का दो-आयामी दोहन होने लगा था। इससे उसके भगनासे का भी बराबर उत्तेजन हो रहा था। उसकी गति भी बढ़ने लगी थी – सम्भवतः वह स्खलित होने ही वाली थी। बस अगले 2 ही मिनटों में संध्या का शरीर चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर थरथराने लगा, और उसी समय मैं भी अपने उन्माद के आखिरी सिरे पर पहुँच गया। कुछ ही धक्को में मैं स्खलित हो गया। संध्या जैसी सौंदर्य की देवी की योनि में वीर्य की धाराएँ छोड़ने का एहसास बहुत ही सुखद था।
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
सम्भोग का ज्वार थमते ही संध्या मेरे सीने पर गिर कर हांफने लगी! मेरे तेजी से सिकुड़ते लिंग पर उसकी योनि का मादक संकुचन – मानो उसकी मालिश हो रही हो।
“बाप रे! आप कैसे करते हैं, इतना देर! ….. आपका तो नहीं मालूम, लेकिन मैं थक गयी! आअह्ह!”
हम दोनों ही इस बात पर हंसने लगे। फिर संध्या को कुछ याद आया,
“अच्छा, आपने बताया ही नहीं की उस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?”
“किस कहानी से?” मैंने दिमाग पर जोर डाला, “अच्छा, वो! हा हा हा! तो आपको याद आ ही गया। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है की साँवली लड़कियाँ सेक्स में बहुत तेज़ होती हैं… और… गोरी लड़कियों को सिखाना पड़ता है!”
“छी! धत्त! आप न! आपके साथ दो दिन क्या रह ली, मैं भी बेशरम हो गई हूँ!”
“हा हा! बेशरम? कैसे?”
“ऐसे ही आपके सामने नंगी पड़ी हूँ।“
“तो फिर किसके सामने नंगा पड़ा होना था आपको?”
“किसी के सामने नहीं! नंगा होना क्या ज़रूरी है? और तो और, उस दिन तो नीलम ने भी देख लिया। और आप भी पूरे बेशरम हो कर उसको दिखाते रहे।”
“अरे! देख लिया तो देख लिया! बच्ची है वह! सीखने के दिन हैं… अच्छा है, हमसे सीख रही है!”
“जी नहीं! कोई ज़रुरत नहीं!”
हम लोग ऐसी ही फ़िज़ूल की बातें कुछ देर तक करते रहे। नव-विवाहितों के बीच में शुरू शुरू में एक दीवार होती है। हमारे बीच में वह दीवार अब नहीं थी। ये सब शिकायतें, छेड़खानी, हंसी-मज़ाक, सब कुछ मृदुलता और नेकदिली से हो रहा था। हमारे बीच की अंतरंगता अब सिर्फ शारीरिक नहीं रह गई थी। मैंने एक कैब सर्विस को फ़ोन कर बैंगलोर हवाई अड्डे के लिए टैक्सी मंगाई, और हम दोनों एक साथ नहाने के लिए गुसलखाने में चले गए।
संध्या भले ही न दिखा रही हो, लेकिन वह हनीमून को लेकर उतना ही रोमांचित थी, जितना की मैं। मैंने जब भी द्वीपों के बारे में सोचा, मुझे बस यही लगता की वह कोई ऐसी एकांत जगह होगी, जहाँ सफ़ेद बलुई बीच होंगे, लहराते ताड़ और नारियल के पेड़ होंगे, और गरम उजले दिन होंगे! सच मानिए, उन तीन चार दिनों की ठंडी में ही मेरा मन भर गया। इतने दिनों तक बैंगलोर की सम जलवायु में रहते हुए उस प्रकार की कड़क ठंडक से दो-चार होने की हिम्मत मुझमे नहीं थी। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह बिलकुल वैसी जगह थी, जहाँ मैं अभी जाना पसंद करता। संध्या का साथ, इस यात्रा में सोने पर सुहागा थी।
बैंगलोर हवाई-अड्डे पर पुनः कोई समस्या नहीं हुई। बस यही की चेक-इन काउंटर पर बैठी ऑफिसर, संध्या जैसी अल्पवय तरुणी को विवाहित सोच कर उत्सुकता पूर्वक देख रही थी। मेरे लाख मन करने के बावजूद आज भी संध्या ने साड़ी-ब्लाउज़ पहना हुआ था – हाथों में मेहंदी, सुहाग की चूड़ियाँ, सिन्दूर, मंगलसूत्र, इत्यादि सब पहना हुआ था उसने। मैंने लाख समझाया की गहनों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है, फिर भी! अल्प-वय पत्नी होने के अपने ही नुकसान हैं – लोग कैसी कैसी नज़रों से देखते रहते हैं! और तो और, सारे मॉडर्न कपड़े-लत्ते खरीदना बेकार सिद्ध हो रहा था। जवान लोगो के शौक होते हैं… लेकिन ये तो परंपरागत परिधान छोड़ ही नहीं रही है।
फ्लाइट अपने निर्धारित समय पर निकली – मैंने संध्या को विंडो सीट पर बैठाया, जिससे वो बाहर के नज़ारे देख सके। बंगाल की खाड़ी पर उड़ते समय कुछ भी साफ़ नहीं दिख रहा था – अधिक रोशनी और धूल-भरी धुंध के कारण कुछ भी नहीं समझ आ रहा था। लेकिन, जब हम द्वीप समूह के निकट पहुंचे, तब नजारे एकदम से अलग दिखने लगे। नीले रंग का पानी, उसके बीच में अनगिनत हरे रंग के टापू, नीला आसमान, उसमें छिटपुट सफ़ेद बादल! फ्लाइट पूरा समय सुगम रूप से चली, लेकिन आखिरी पंद्रह मिनट किसी एयर-पॉकेट के कारण हमको झटके लगते रहे। बेचारी संध्या ने डर के मारे मेरा हाथ कस के पकड़ रखा था (अब कोई किसी को कैसे समझाए की अगर हवाई जहाज गिर जाए, तो कुछ भी पकड़ने का कोई फायदा नहीं!)।
खैर, उतरते समय नीचे का जो भी दृश्य दिखा वो अत्यंत मनोरम था। एअरपोर्ट पर हवाई पट्टी के चहुँओर छोटे-छोटे पहाड़ी टीले थे, जिन पर प्रचुर मात्रा में हरे हरे पेड़ लगे हुए थे। देख कर ऐसा लग रहा था की यहाँ बहुत ठंडक होगी, लेकिन सूरज की गर्मी और समुद्री प्रभाव के कारण वातावरण गुनगुना गरम था। उत्तराँचल की ठंडी (जो की मेरे दिलोदिमाग में बस गई थी) से तुरंत ही बहुत राहत मिली।
कुछ शब्द अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के बारे में:
“बाप रे! आप कैसे करते हैं, इतना देर! ….. आपका तो नहीं मालूम, लेकिन मैं थक गयी! आअह्ह!”
हम दोनों ही इस बात पर हंसने लगे। फिर संध्या को कुछ याद आया,
“अच्छा, आपने बताया ही नहीं की उस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?”
“किस कहानी से?” मैंने दिमाग पर जोर डाला, “अच्छा, वो! हा हा हा! तो आपको याद आ ही गया। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है की साँवली लड़कियाँ सेक्स में बहुत तेज़ होती हैं… और… गोरी लड़कियों को सिखाना पड़ता है!”
“छी! धत्त! आप न! आपके साथ दो दिन क्या रह ली, मैं भी बेशरम हो गई हूँ!”
“हा हा! बेशरम? कैसे?”
“ऐसे ही आपके सामने नंगी पड़ी हूँ।“
“तो फिर किसके सामने नंगा पड़ा होना था आपको?”
“किसी के सामने नहीं! नंगा होना क्या ज़रूरी है? और तो और, उस दिन तो नीलम ने भी देख लिया। और आप भी पूरे बेशरम हो कर उसको दिखाते रहे।”
“अरे! देख लिया तो देख लिया! बच्ची है वह! सीखने के दिन हैं… अच्छा है, हमसे सीख रही है!”
“जी नहीं! कोई ज़रुरत नहीं!”
हम लोग ऐसी ही फ़िज़ूल की बातें कुछ देर तक करते रहे। नव-विवाहितों के बीच में शुरू शुरू में एक दीवार होती है। हमारे बीच में वह दीवार अब नहीं थी। ये सब शिकायतें, छेड़खानी, हंसी-मज़ाक, सब कुछ मृदुलता और नेकदिली से हो रहा था। हमारे बीच की अंतरंगता अब सिर्फ शारीरिक नहीं रह गई थी। मैंने एक कैब सर्विस को फ़ोन कर बैंगलोर हवाई अड्डे के लिए टैक्सी मंगाई, और हम दोनों एक साथ नहाने के लिए गुसलखाने में चले गए।
संध्या भले ही न दिखा रही हो, लेकिन वह हनीमून को लेकर उतना ही रोमांचित थी, जितना की मैं। मैंने जब भी द्वीपों के बारे में सोचा, मुझे बस यही लगता की वह कोई ऐसी एकांत जगह होगी, जहाँ सफ़ेद बलुई बीच होंगे, लहराते ताड़ और नारियल के पेड़ होंगे, और गरम उजले दिन होंगे! सच मानिए, उन तीन चार दिनों की ठंडी में ही मेरा मन भर गया। इतने दिनों तक बैंगलोर की सम जलवायु में रहते हुए उस प्रकार की कड़क ठंडक से दो-चार होने की हिम्मत मुझमे नहीं थी। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह बिलकुल वैसी जगह थी, जहाँ मैं अभी जाना पसंद करता। संध्या का साथ, इस यात्रा में सोने पर सुहागा थी।
बैंगलोर हवाई-अड्डे पर पुनः कोई समस्या नहीं हुई। बस यही की चेक-इन काउंटर पर बैठी ऑफिसर, संध्या जैसी अल्पवय तरुणी को विवाहित सोच कर उत्सुकता पूर्वक देख रही थी। मेरे लाख मन करने के बावजूद आज भी संध्या ने साड़ी-ब्लाउज़ पहना हुआ था – हाथों में मेहंदी, सुहाग की चूड़ियाँ, सिन्दूर, मंगलसूत्र, इत्यादि सब पहना हुआ था उसने। मैंने लाख समझाया की गहनों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है, फिर भी! अल्प-वय पत्नी होने के अपने ही नुकसान हैं – लोग कैसी कैसी नज़रों से देखते रहते हैं! और तो और, सारे मॉडर्न कपड़े-लत्ते खरीदना बेकार सिद्ध हो रहा था। जवान लोगो के शौक होते हैं… लेकिन ये तो परंपरागत परिधान छोड़ ही नहीं रही है।
फ्लाइट अपने निर्धारित समय पर निकली – मैंने संध्या को विंडो सीट पर बैठाया, जिससे वो बाहर के नज़ारे देख सके। बंगाल की खाड़ी पर उड़ते समय कुछ भी साफ़ नहीं दिख रहा था – अधिक रोशनी और धूल-भरी धुंध के कारण कुछ भी नहीं समझ आ रहा था। लेकिन, जब हम द्वीप समूह के निकट पहुंचे, तब नजारे एकदम से अलग दिखने लगे। नीले रंग का पानी, उसके बीच में अनगिनत हरे रंग के टापू, नीला आसमान, उसमें छिटपुट सफ़ेद बादल! फ्लाइट पूरा समय सुगम रूप से चली, लेकिन आखिरी पंद्रह मिनट किसी एयर-पॉकेट के कारण हमको झटके लगते रहे। बेचारी संध्या ने डर के मारे मेरा हाथ कस के पकड़ रखा था (अब कोई किसी को कैसे समझाए की अगर हवाई जहाज गिर जाए, तो कुछ भी पकड़ने का कोई फायदा नहीं!)।
खैर, उतरते समय नीचे का जो भी दृश्य दिखा वो अत्यंत मनोरम था। एअरपोर्ट पर हवाई पट्टी के चहुँओर छोटे-छोटे पहाड़ी टीले थे, जिन पर प्रचुर मात्रा में हरे हरे पेड़ लगे हुए थे। देख कर ऐसा लग रहा था की यहाँ बहुत ठंडक होगी, लेकिन सूरज की गर्मी और समुद्री प्रभाव के कारण वातावरण गुनगुना गरम था। उत्तराँचल की ठंडी (जो की मेरे दिलोदिमाग में बस गई थी) से तुरंत ही बहुत राहत मिली।
कुछ शब्द अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के बारे में: