कायाकल्प - Hindi sex novel
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
अंडमान में मानव जीवन हजारों सालों से है – तब से जब से मानव-जाति अफ्रीका से बाकी विश्व में प्रवास कर रही थी। वहां पर मिलने वाले पुरातात्विक प्रमाण कोई ढाई हज़ार साल पुराने हैं। माना जाता है की प्राचीन ग्रीक भूगोलवेत्ता टालमी को इनके बारे में मालूम था। महान चोल राजाओं को भी इनके बारे में मालूम था और वे इन द्वीप समूहों को ‘अशुद्ध द्वीप’ कहते थे। खैर, उनके लिए इन द्वीपों की आवश्यकता एक नौसेना छावनी से अधिक नहीं थी। बाद में महान मराठा योद्धा, शिवाजी महाराज ने भी इन द्वीपों पर राज किया। अंततः अंग्रेजों ने 1780 के आस पास इन पर अपना प्रभुत्त्व जमा लिया, और इनका प्रयोग एक दण्ड-विषयक कॉलोनी जैसे करना आरम्भ किया। 1857 की क्रान्ति के बाद अनगिनत युद्ध बंदियों को यहाँ पर कारावास दिया गया और अंततः, आजादी की लड़ाई के समय बहुत से महत्त्वपूर्ण राजनीतिकी बंदियों को यहाँ बनायीं हुई ‘सेलुलर जेल’ में बंधक बना कर रखा गया। इसी अतीत के कारण, इनको ‘काला पानी’ कहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के समय थोड़े समय के लिए जापानियों ने इन पर कब्ज़ा कर लिया था, जिनके अवशेष वहां अभी भी मौजूद हैं। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात इनको केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा मिला, और तब से यह स्थान शान्ति से है।
अंडमान की सबसे ख़ास बात यह है की पूरे भारत में यही एक जगह है, जिसको सही मायने में अवकाश वाली जगह कहा जा सकता है। पूरा देश, जब टी-टी पो-पो के शोर से, गंदगी और दुर्गन्ध से, और हर प्रकार के प्रदूषण से दो चार होता रहता है, तब साफ़, स्वच्छ, उच्च-दृश्य, और नीले पानी से घिरा यह स्थान, हमको सच में आनंदित करता है। देश के काफी पूर्वी हिस्से में रहने के कारण यहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त दिल्ली या मुंबई के मुकाबले कम से कम एक घंटे पहले होता है।
“चलिए, आपको इन कपड़ों से छुट्टी दिलाते हैं?” आर्डर देते ही मैंने जैसे ही संध्या की तरफ हाथ बढाया, वह झट से पीछे हट गई।
“धत्त! आप भी न, जब देखो तब शुरू हो जाते हैं! आपके छुन्नू पर आपका कोई कंट्रोल नहीं है!”
“छुन्नू? ये छुन्नू है?” कहते हुए मैंने संध्या का हाथ पकड़ कर अपने सख्त होते लिंग पर फ़िराया…. “जानेमन, इसको लंड कहते हैं…. क्या कहते हैं?”
“मुझे नहीं मालूम।“ संध्या ने ठुनकते हुए कहा।
“अरे! अभी तो बताया – इसको ल्ल्ल्लंड कहते हैं।“ मैंने थोडा महत्व देकर बोला। “अब बोलो।“
अब तक मैं बिस्तर के कोने पर बैठ गया था, और संध्या मेरे बांहों के घेरे में थी।
“नहीं नहीं!.. मैं नहीं बोल सकती!”
मैंने संध्या के नितम्ब पर एक हल्की सी चपत लगाई, “बोलो न! प्लीईईज्! क्या कहते हैं इसको?”
संध्या, हिचकते और शर्माते हुए, “ल्ल्ल्लंड…”
“वेरी गुड! और लंड कहाँ जाता है?”
“मेरे अन्दर…”
“नहीं, ऐसे कहो, ‘मेरी चूत के अन्दर..’ …. कहाँ?”
संध्या अब तक शर्मसार हो चली थी, लेकिन गन्दी भाषा का प्रयोग हम दोनों के ही लिए बहुत ही रोमांचक था, “मेरी .. चूत.. के अन्दर…”
“गुड! कल ही आपने कहा था की मैं चाहूँ तो दिन के चौबीसों घंटे आपकी चूत में अपना लंड डाल सकता हूँ, और आप बिलकुल भी मना नहीं करेंगी! कहा था न?”
“मैंने कहा था? कब?” संध्या भी खेल में शामिल हो गई।
“जब आप मेरे लंड को अपनी चूत में डाल कर उछल-कूद कर रहीं थी तब…” मैंने संध्या की साड़ी का फेंटा उसके पेटीकोट के अंदर से निकाल लिया और ज़मीन पर फेंक दिया। “बोलिए न, मुझे रोज़ डालने देंगी?”
“आप भी न! जाइए, मैं अब और कुछ नहीं बोलूंगी..”
“अरे! मुझसे क्या शर्माना? यहाँ मेरे सिवाय और कौन है यह सब सुनने को? बोलिए न!”
“नहीं! आप बहुत गंदे हैं! और, मैं अब कुछ नहीं बोलूंगी…. जो बोलना था, वो सब बोल दिया।“
अब उसकी पेटीकोट का नाडा खुल गया और खुलते ही पेटीकोट नीचे सरक गया। संध्या सिर्फ ब्लाउज और चड्ढी में मेरे सामने खड़ी हुई थी।
“ऐसे मत सताओ! प्लीज! बोलो न!”
“हाँ!”
“क्या हाँ? ऐसे बोलो, ‘हाँ, मैं तुमको रोज़ डालने दूंगी’…”
“छी! मुझे शरम आती है।“
“कल तो बड़ी-बड़ी बाते कह रही थी, और आज इतना शर्मा रही हैं! अब क्या शरमाना? ये देखो, मेरी उंगली आपकी चूत के अन्दर घुस रही है! और कुछ ही देर में मेरा लंड भी घुस जाएगा! अब बोल दो प्लीज। मेंरे कान तरस रहे हैं!” संध्या की चड्ढी मैंने थोड़ा नीचे सरका दी और उसकी योनि को अपनी तर्जनी से प्यार से स्पर्श कर रहा था।
“बोलो न!”
“हाँ, मैं रोज़ डालने दूंगी।“
“कभी मना नहीं करोगी?”
“कभी नहीं… जब आपका मन हो, तब डाल लीजिये!”
अंडमान की सबसे ख़ास बात यह है की पूरे भारत में यही एक जगह है, जिसको सही मायने में अवकाश वाली जगह कहा जा सकता है। पूरा देश, जब टी-टी पो-पो के शोर से, गंदगी और दुर्गन्ध से, और हर प्रकार के प्रदूषण से दो चार होता रहता है, तब साफ़, स्वच्छ, उच्च-दृश्य, और नीले पानी से घिरा यह स्थान, हमको सच में आनंदित करता है। देश के काफी पूर्वी हिस्से में रहने के कारण यहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त दिल्ली या मुंबई के मुकाबले कम से कम एक घंटे पहले होता है।
“चलिए, आपको इन कपड़ों से छुट्टी दिलाते हैं?” आर्डर देते ही मैंने जैसे ही संध्या की तरफ हाथ बढाया, वह झट से पीछे हट गई।
“धत्त! आप भी न, जब देखो तब शुरू हो जाते हैं! आपके छुन्नू पर आपका कोई कंट्रोल नहीं है!”
“छुन्नू? ये छुन्नू है?” कहते हुए मैंने संध्या का हाथ पकड़ कर अपने सख्त होते लिंग पर फ़िराया…. “जानेमन, इसको लंड कहते हैं…. क्या कहते हैं?”
“मुझे नहीं मालूम।“ संध्या ने ठुनकते हुए कहा।
“अरे! अभी तो बताया – इसको ल्ल्ल्लंड कहते हैं।“ मैंने थोडा महत्व देकर बोला। “अब बोलो।“
अब तक मैं बिस्तर के कोने पर बैठ गया था, और संध्या मेरे बांहों के घेरे में थी।
“नहीं नहीं!.. मैं नहीं बोल सकती!”
मैंने संध्या के नितम्ब पर एक हल्की सी चपत लगाई, “बोलो न! प्लीईईज्! क्या कहते हैं इसको?”
संध्या, हिचकते और शर्माते हुए, “ल्ल्ल्लंड…”
“वेरी गुड! और लंड कहाँ जाता है?”
“मेरे अन्दर…”
“नहीं, ऐसे कहो, ‘मेरी चूत के अन्दर..’ …. कहाँ?”
संध्या अब तक शर्मसार हो चली थी, लेकिन गन्दी भाषा का प्रयोग हम दोनों के ही लिए बहुत ही रोमांचक था, “मेरी .. चूत.. के अन्दर…”
“गुड! कल ही आपने कहा था की मैं चाहूँ तो दिन के चौबीसों घंटे आपकी चूत में अपना लंड डाल सकता हूँ, और आप बिलकुल भी मना नहीं करेंगी! कहा था न?”
“मैंने कहा था? कब?” संध्या भी खेल में शामिल हो गई।
“जब आप मेरे लंड को अपनी चूत में डाल कर उछल-कूद कर रहीं थी तब…” मैंने संध्या की साड़ी का फेंटा उसके पेटीकोट के अंदर से निकाल लिया और ज़मीन पर फेंक दिया। “बोलिए न, मुझे रोज़ डालने देंगी?”
“आप भी न! जाइए, मैं अब और कुछ नहीं बोलूंगी..”
“अरे! मुझसे क्या शर्माना? यहाँ मेरे सिवाय और कौन है यह सब सुनने को? बोलिए न!”
“नहीं! आप बहुत गंदे हैं! और, मैं अब कुछ नहीं बोलूंगी…. जो बोलना था, वो सब बोल दिया।“
अब उसकी पेटीकोट का नाडा खुल गया और खुलते ही पेटीकोट नीचे सरक गया। संध्या सिर्फ ब्लाउज और चड्ढी में मेरे सामने खड़ी हुई थी।
“ऐसे मत सताओ! प्लीज! बोलो न!”
“हाँ!”
“क्या हाँ? ऐसे बोलो, ‘हाँ, मैं तुमको रोज़ डालने दूंगी’…”
“छी! मुझे शरम आती है।“
“कल तो बड़ी-बड़ी बाते कह रही थी, और आज इतना शर्मा रही हैं! अब क्या शरमाना? ये देखो, मेरी उंगली आपकी चूत के अन्दर घुस रही है! और कुछ ही देर में मेरा लंड भी घुस जाएगा! अब बोल दो प्लीज। मेंरे कान तरस रहे हैं!” संध्या की चड्ढी मैंने थोड़ा नीचे सरका दी और उसकी योनि को अपनी तर्जनी से प्यार से स्पर्श कर रहा था।
“बोलो न!”
“हाँ, मैं रोज़ डालने दूंगी।“
“कभी मना नहीं करोगी?”
“कभी नहीं… जब आपका मन हो, तब डाल लीजिये!”
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
क्या डाल लीजिये?”
“जो आप थोड़ी देर में डालने वाले हैं!”
“क्या डालने वाले हैं?”
इस बार थोड़ी कम हिचक से, “ल्ल्ल्लंड…”
“गुड! और कहाँ डालने वाले हैं?” कहते हुए मैंने संध्या के भगोष्ट को सहलाते हुए उसकी योनि में अपनी तर्जनी प्रविष्ट करा दी।
“अआह्हह! मेरी चूत में!”
“वेरी वेरी गुड! अब पूरा बोलो!”
संध्या फिर से सकुचा गई, “मैं रोज़ आपका लंड…. अपनी चूत में… डालने दूँगी! और…. कभी मना नहीं करूँगी।”
यह सुन कर मैंने संध्या को अपनी ओर भींच लिया और उसके सपाट पेट पर एक जबरदस्त चुम्बन दिया। हमारी ‘डर्टी टॉक’ से वह बहुत उत्तेजित हो गयी थी। एक दो और चुम्बन जड़ने के बाद मैंने संध्या को बिस्तर पर पेट के ही बल पटक दिया और उसकी चड्ढी उतार फेंकी।
संध्या को बिस्तर पर लिटा कर मैंने उसकी दोनों जांघें कुछ इस प्रकार फैलाईं जिससे उसकी योनि और गुदा दोनों के ही द्वार खुल गए। इससे एक और बात हुई, संध्या के नितम्ब ऊपर की तरफ थोडा उभर आये और थोड़ा और गोल हो गए। सुडौल नितम्ब..! स्वस्थ और युवा नितम्ब। जैसा की मैंने पहले भी बताया है, संध्या के नितम्ब स्त्रियोचित फैलाव लिए हुए प्रतीत होते थे, जिसका प्रमुख कारण यह है की उसकी कमर पतली थी।
मैंने पहले अधिक ध्यान नहीं दिया, लेकिन संध्या के नितम्ब भी उसके स्तनों के सामान ही लुभावने थे। मैंने उसके दोनों नितम्बों को अपनी दोनों हथेलियों में जितना हो सकता था, भर लिया और उनको प्रेम भरे तरीके से दबाने कुचलने लगा। कुछ देर ऐसे ही दबाने के बाद उसके नितम्बों के बीच की दरार की पूरी लम्बाई में अपनी तर्जनी फिराई। उसकी योनि पर जैसे ही मेरी उंगली पहुंची, मुझे वहां पर उसकी उत्तेजना का प्रमाण मिल गया – योनि रस के स्राव से योनि मुख चिकना हो गया था। मैंने उसकी योनि रस में अपनी तर्जनी भिगो कर उसकी गुदा पर कई बार फिराया। हर बार जैसे ही मैं उसकी गुदा को छूता, स्वप्रतिक्रिया में उसका द्वार बंद हो जाता।
“और इस काम को क्या कहते हैं?”
“आह! … सेक्स!”
“नहीं, बोलो, चुदाई! क्या कहते हैं?”
“चुदाई! आह!”
“हाँ! अभी पक्का हो गया। मुझे रोज़ आपकी चूत में मेरा लंड डाल कर चुदाई करने का एग्रीमेंट मिल गया है… क्यों ठीक है न?”
“आह… जीईई..!”
हम आगे कुछ और करते, की दरवाज़े पर दस्तक हुई, “रूम सर्विस!”
मैंने हड़बड़ा कर बोला, “एक मिनट!”
संध्या सिर्फ ब्लाउज पहने हुए ही भाग कर बाथरूम में छुप गई। वो तो कहो मैंने भी अपने कपड़े नहीं उतारे थे, नहीं तो बहुत ही लज्जाजनक स्थिति हो जाती। खैर, संध्या के बाथरूम में जाते ही मैंने दरवाज़ा खोल दिया। वेटर खाने की ट्रे, पानी, टिश्यु इत्यादि लेकर आ गया था। उसने अन्दर आते हुए एक नज़र फर्श पर डाली, और वहां पर साड़ी, पेटीकोट, चड्ढी यूँ ही पड़ी हुई देख कर उसने एक हल्की सी मुस्कान फेंकी – उसको शायद ऐसे दृश्य देखने की आदत हो गयी होगी। उसने अब तक न जाने कितने ही नवदंपत्ति देख लिए होंगे!
उसने टेबल पर खाने की प्लेट, डिशेस, पानी इत्यादि रखा और जाते-जाते कह गया की शाम को एक ऑटोरिक्शा हमको राधानगर बीच ले जाने के लिए बुक कर दिया गया है। मैंने उसको धन्यवाद कहा और उससे विदा ली। दरवाज़ा बंद करने के बाद मैंने संध्या को बाहर आने को कहा – उसको ऐसे सिर्फ ब्लाउज पहने देखना बहुत ही हास्यकर प्रतीत हो रहा था।
“मैं इसीलिए कह रहा था की आपके कपड़ों की छुट्टी कर देते हैं.. लेकिन आप ही नहीं मानी!”
“और वो आप जो मुझे वो नए नए शब्द सिखाकर टाइम वेस्ट कर रहे थे, उसका क्या?”
“हा हा! अरे! आपने कुछ नया सीखा, उसका कुछ नहीं!”
“आप मुझे कुछ भी सिखा नहीं रहे हैं, … बल्कि सिर्फ बिगाड़ रहे हैं! अब चलिए, मुझे कुछ पहनने दीजिये!”
“अरे, मैं तो यह ब्लाउज भी उतारने वाला था – आराम से, फ्री हो कर लंच करिए!”
“आपका बस चले तो मुझे हमेशा ऐसे नंगी ही करके रखें!”
“हाँ! आप हैं ही इतनी खूबसूरत!”
“हाय मेरी किस्मत! मेरे पापा ने सोचा की लड़की को अच्छे घर भेज रहे हैं। कमाऊ जवैं और एकलौता लड़का देख कर उन्होंने सोचा की उनकी लाडली राज करेगी! और यहाँ असलियत यह है की उस बेचारी को तो कपड़े पहनना भी नसीब नहीं हो रहा!” संध्या ने ठिठोली की।
“उतना ही नहीं, उस बेचारी के ऊपर तो न जाने कैसे कैसे सितम हो रहे हैं! बेचारी की चूत में रोज़….”
मैंने जैसे ही उस पर हो रहे अत्याचारों की सूची कुछ जोड़ना चाहा तो संध्या ने बीच में ही काट दिया, “छीह्ह! आपकी सुई तो वहीँ पर अटकी रहती है।”
“जो आप थोड़ी देर में डालने वाले हैं!”
“क्या डालने वाले हैं?”
इस बार थोड़ी कम हिचक से, “ल्ल्ल्लंड…”
“गुड! और कहाँ डालने वाले हैं?” कहते हुए मैंने संध्या के भगोष्ट को सहलाते हुए उसकी योनि में अपनी तर्जनी प्रविष्ट करा दी।
“अआह्हह! मेरी चूत में!”
“वेरी वेरी गुड! अब पूरा बोलो!”
संध्या फिर से सकुचा गई, “मैं रोज़ आपका लंड…. अपनी चूत में… डालने दूँगी! और…. कभी मना नहीं करूँगी।”
यह सुन कर मैंने संध्या को अपनी ओर भींच लिया और उसके सपाट पेट पर एक जबरदस्त चुम्बन दिया। हमारी ‘डर्टी टॉक’ से वह बहुत उत्तेजित हो गयी थी। एक दो और चुम्बन जड़ने के बाद मैंने संध्या को बिस्तर पर पेट के ही बल पटक दिया और उसकी चड्ढी उतार फेंकी।
संध्या को बिस्तर पर लिटा कर मैंने उसकी दोनों जांघें कुछ इस प्रकार फैलाईं जिससे उसकी योनि और गुदा दोनों के ही द्वार खुल गए। इससे एक और बात हुई, संध्या के नितम्ब ऊपर की तरफ थोडा उभर आये और थोड़ा और गोल हो गए। सुडौल नितम्ब..! स्वस्थ और युवा नितम्ब। जैसा की मैंने पहले भी बताया है, संध्या के नितम्ब स्त्रियोचित फैलाव लिए हुए प्रतीत होते थे, जिसका प्रमुख कारण यह है की उसकी कमर पतली थी।
मैंने पहले अधिक ध्यान नहीं दिया, लेकिन संध्या के नितम्ब भी उसके स्तनों के सामान ही लुभावने थे। मैंने उसके दोनों नितम्बों को अपनी दोनों हथेलियों में जितना हो सकता था, भर लिया और उनको प्रेम भरे तरीके से दबाने कुचलने लगा। कुछ देर ऐसे ही दबाने के बाद उसके नितम्बों के बीच की दरार की पूरी लम्बाई में अपनी तर्जनी फिराई। उसकी योनि पर जैसे ही मेरी उंगली पहुंची, मुझे वहां पर उसकी उत्तेजना का प्रमाण मिल गया – योनि रस के स्राव से योनि मुख चिकना हो गया था। मैंने उसकी योनि रस में अपनी तर्जनी भिगो कर उसकी गुदा पर कई बार फिराया। हर बार जैसे ही मैं उसकी गुदा को छूता, स्वप्रतिक्रिया में उसका द्वार बंद हो जाता।
“और इस काम को क्या कहते हैं?”
“आह! … सेक्स!”
“नहीं, बोलो, चुदाई! क्या कहते हैं?”
“चुदाई! आह!”
“हाँ! अभी पक्का हो गया। मुझे रोज़ आपकी चूत में मेरा लंड डाल कर चुदाई करने का एग्रीमेंट मिल गया है… क्यों ठीक है न?”
“आह… जीईई..!”
हम आगे कुछ और करते, की दरवाज़े पर दस्तक हुई, “रूम सर्विस!”
मैंने हड़बड़ा कर बोला, “एक मिनट!”
संध्या सिर्फ ब्लाउज पहने हुए ही भाग कर बाथरूम में छुप गई। वो तो कहो मैंने भी अपने कपड़े नहीं उतारे थे, नहीं तो बहुत ही लज्जाजनक स्थिति हो जाती। खैर, संध्या के बाथरूम में जाते ही मैंने दरवाज़ा खोल दिया। वेटर खाने की ट्रे, पानी, टिश्यु इत्यादि लेकर आ गया था। उसने अन्दर आते हुए एक नज़र फर्श पर डाली, और वहां पर साड़ी, पेटीकोट, चड्ढी यूँ ही पड़ी हुई देख कर उसने एक हल्की सी मुस्कान फेंकी – उसको शायद ऐसे दृश्य देखने की आदत हो गयी होगी। उसने अब तक न जाने कितने ही नवदंपत्ति देख लिए होंगे!
उसने टेबल पर खाने की प्लेट, डिशेस, पानी इत्यादि रखा और जाते-जाते कह गया की शाम को एक ऑटोरिक्शा हमको राधानगर बीच ले जाने के लिए बुक कर दिया गया है। मैंने उसको धन्यवाद कहा और उससे विदा ली। दरवाज़ा बंद करने के बाद मैंने संध्या को बाहर आने को कहा – उसको ऐसे सिर्फ ब्लाउज पहने देखना बहुत ही हास्यकर प्रतीत हो रहा था।
“मैं इसीलिए कह रहा था की आपके कपड़ों की छुट्टी कर देते हैं.. लेकिन आप ही नहीं मानी!”
“और वो आप जो मुझे वो नए नए शब्द सिखाकर टाइम वेस्ट कर रहे थे, उसका क्या?”
“हा हा! अरे! आपने कुछ नया सीखा, उसका कुछ नहीं!”
“आप मुझे कुछ भी सिखा नहीं रहे हैं, … बल्कि सिर्फ बिगाड़ रहे हैं! अब चलिए, मुझे कुछ पहनने दीजिये!”
“अरे, मैं तो यह ब्लाउज भी उतारने वाला था – आराम से, फ्री हो कर लंच करिए!”
“आपका बस चले तो मुझे हमेशा ऐसे नंगी ही करके रखें!”
“हाँ! आप हैं ही इतनी खूबसूरत!”
“हाय मेरी किस्मत! मेरे पापा ने सोचा की लड़की को अच्छे घर भेज रहे हैं। कमाऊ जवैं और एकलौता लड़का देख कर उन्होंने सोचा की उनकी लाडली राज करेगी! और यहाँ असलियत यह है की उस बेचारी को तो कपड़े पहनना भी नसीब नहीं हो रहा!” संध्या ने ठिठोली की।
“उतना ही नहीं, उस बेचारी के ऊपर तो न जाने कैसे कैसे सितम हो रहे हैं! बेचारी की चूत में रोज़….”
मैंने जैसे ही उस पर हो रहे अत्याचारों की सूची कुछ जोड़ना चाहा तो संध्या ने बीच में ही काट दिया, “छीह्ह! आपकी सुई तो वहीँ पर अटकी रहती है।”
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
सुई नहीं… ल्ल्ल्लंड… सब भूल जाती हो!”
संध्या ने कृत्रिम निराशा में माथा पीट लिया – वह अलग बात है की मेरी बात पर वह खुद भी बेरोक मुस्कुरा रही थी। खैर, मैंने जब तक खाना सर्व किया, संध्या ब्लाउज उतार कर, और एक स्पोर्ट्स पजामा और टी-शर्ट पहन कर खाने आ गयी। खाते-खाते मैंने संध्या को अपने हनीमून के प्लान के बारे में बताया – उसको यह जान कर राहत हुई की हमारे हनीमून में सिर्फ सेक्स ही नहीं, बल्कि काफी घूमना-फिरना और एडवेंचर स्पोर्ट्स भी शामिल रहेंगे।
भोजन समाप्त कर हम बीच की सैर पर निकले – इस समय समुद्र में भाटा आया हुआ था, जिसके कारण काफी दूर तक सिर्फ गीली, बलुई और पत्थरों से अटी भूमि ही दिख रही थी। हम लोग यूँ ही बाते करते, शंख, सीपियाँ और रंगीन पत्थर बीनते काफी दूर निकल गए। बातों में हमारे सर पर चमक रहे चटक सूर्य का भी ध्यान नहीं रहा – कहने का मतलब यह, की उन डेढ़-दो घंटों में ही धूप से हम लोगों का रंग भी साँवला हो गया। और आगे जाते, लेकिन अचानक ही हमको पानी वापस आता महसूस हुआ, तो हमने वापस रिसोर्ट जाने में ही भलाई समझी। हम दोनों के हाथ शंख और सीपियों से भर गए थे, इसलिए यह उचित था, की उनमें से सबसे अच्छे वाले चुन लिए जाएँ और बाकी सब वापस समुद्र के हवाले कर के हम वापस आ गए।
वापस आते हुए मैंने दो-तीन विदेशी जोड़ों से बात-चीत करी और उनके अंडमान के अनुभवों के बारे में पूछ-ताछ की। संध्या के लिए भी यह एक नया अनुभव था – शायद ही उसने किसी विदेशी से पहले कभी बात करी हो, इसलिए उसको थोडा मुश्किल लग रहा था। लेकिन फिर भी, वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही थी। कमरे में आ कर मैंने दो कप चाय मंगाई – चाय पीते-पीते ही ऑटो-रिक्शा वाला भी आ गया। मैंने हाफ-पैंट और टी-शर्ट पहना और संध्या को भी स्कर्ट और टी-शर्ट पहनने को कहा। संध्या की स्कर्ट, दरअसल, सूती के हलके कपड़े की बनी हुई थी और उसके हलके हरे रंग के कपड़े पर काले रंग के छोटे छोटे बिखरे हुए प्रिंट्स थे। यह स्कर्ट मैंने बीच पर पहनने की दृष्टि से ही लिया था। वैसे, संध्या के लिए ऐसी स्कर्ट पहनना, जो उसके घुटने तक भी न आ सके, थोड़ा सा भिन्न, या यह कह लीजिये की अटपटा अनुभव था। लेकिन, मेरे साथ बिताये गए कुछ ही दिनों में उसको समझ आ गया था की इस प्रकार के अनुभवों का होना अभी बस शुरू ही हुआ है। इसलिए, उसने कोई हील-हुज्जत नहीं करी और कुछ ही देर में हम लोग राधानगर बीच की तरफ रवाना हो गए।
रिसोर्ट से बीच का रास्ता काफी अधिक था – या यह कह लीजिये की ऑटो की टरटराती (?) तीव्र गति और खाली सड़क के कारण अधिक लग रहा हो। यह रास्ता भी बहुत ही मनोरंजक था – सड़क के दोनों तरफ हरे भरे पेड़ और दूर दूर तक सिर्फ हरियाली ही दिख रही थी। खैर, कोई पंद्रह मिनट में हम राधानगर बीच पहुँच गए। यहाँ की एक ख़ास बात है – इस बीच को टाइम मैगज़ीन ने एशिया के सबसे सुन्दर बीचों में एक घोषित किया है। वहां पहुँच कर तुरंत ही समझ आ गया की ऐसा क्यों है – मुलायम सफ़ेद बालू, शुद्ध फ़िरोज़ी समुद्र, साफ़ सुथरा और सुन्दर बीच, और ऊपर से अपूर्व शान्ति – कुल मिला कर एक बहुत ही असाधारण अनुभव! संध्या के चेहरे पर आते-जाते भाव देखते ही बन रहे थे। पहाड़ों पर रहने वाली लड़की, आज अथाह समुद्र का आनंद ले रही थी।
नम और हल्की गर्म हवा बहुत ही अच्छी लग रही थी। सूर्यास्त होने में कुछ और समय था, इसलिए मैंने समुद्र में नहाने की सोची – संध्या डर रही थी, इसलिए कैमरा देखने का बहाना कर के तक पर ही खड़ी रही। लेकिन इसमें क्या मज़ा! मैंने अपनी टी-शर्ट उतारी, और अपने कैमरा बैग में रख कर बीच के ही एक दूकानदार के पास रख दिया। उसने मुझे आश्वस्त किया की उसके पास यह सुरक्षित रहेगा, और संध्या को खींच कर समुद्र में ले गया। बीच की गीली रेत जब पानी के आवागमन से पैरों के नीचे से खिसकती है तो संतुलन बनाना बहुत मुश्किल होता है, ख़ास-तौर पर तब जब आप इस अनुभव के लिए बिलकुल नए हों। न तो मुझे, और न ही संध्या को समुद्र और बीच का कोई अनुभव था, इसलिए पहली बार में ही हम दोनों पानी में गिर गए। नहाने ही आये थे, इसलिए गीला होने में कोई बुराई नहीं लगी।
हम दोनों को ही तैरना आता था, इसलिए कुछ ही देर में समुद्री लहरों से निबटने का तरीका आ गया और हमने कोई आधे घंटे तक तट पर ही तैराकी करी। इतने में ही सूर्यास्त होने का समय भी निकट आ गया इसलिए मैंने वापस बीच पर खड़े होकर कुछ फोटोग्राफी करने की सोची।
संध्या ने कृत्रिम निराशा में माथा पीट लिया – वह अलग बात है की मेरी बात पर वह खुद भी बेरोक मुस्कुरा रही थी। खैर, मैंने जब तक खाना सर्व किया, संध्या ब्लाउज उतार कर, और एक स्पोर्ट्स पजामा और टी-शर्ट पहन कर खाने आ गयी। खाते-खाते मैंने संध्या को अपने हनीमून के प्लान के बारे में बताया – उसको यह जान कर राहत हुई की हमारे हनीमून में सिर्फ सेक्स ही नहीं, बल्कि काफी घूमना-फिरना और एडवेंचर स्पोर्ट्स भी शामिल रहेंगे।
भोजन समाप्त कर हम बीच की सैर पर निकले – इस समय समुद्र में भाटा आया हुआ था, जिसके कारण काफी दूर तक सिर्फ गीली, बलुई और पत्थरों से अटी भूमि ही दिख रही थी। हम लोग यूँ ही बाते करते, शंख, सीपियाँ और रंगीन पत्थर बीनते काफी दूर निकल गए। बातों में हमारे सर पर चमक रहे चटक सूर्य का भी ध्यान नहीं रहा – कहने का मतलब यह, की उन डेढ़-दो घंटों में ही धूप से हम लोगों का रंग भी साँवला हो गया। और आगे जाते, लेकिन अचानक ही हमको पानी वापस आता महसूस हुआ, तो हमने वापस रिसोर्ट जाने में ही भलाई समझी। हम दोनों के हाथ शंख और सीपियों से भर गए थे, इसलिए यह उचित था, की उनमें से सबसे अच्छे वाले चुन लिए जाएँ और बाकी सब वापस समुद्र के हवाले कर के हम वापस आ गए।
वापस आते हुए मैंने दो-तीन विदेशी जोड़ों से बात-चीत करी और उनके अंडमान के अनुभवों के बारे में पूछ-ताछ की। संध्या के लिए भी यह एक नया अनुभव था – शायद ही उसने किसी विदेशी से पहले कभी बात करी हो, इसलिए उसको थोडा मुश्किल लग रहा था। लेकिन फिर भी, वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही थी। कमरे में आ कर मैंने दो कप चाय मंगाई – चाय पीते-पीते ही ऑटो-रिक्शा वाला भी आ गया। मैंने हाफ-पैंट और टी-शर्ट पहना और संध्या को भी स्कर्ट और टी-शर्ट पहनने को कहा। संध्या की स्कर्ट, दरअसल, सूती के हलके कपड़े की बनी हुई थी और उसके हलके हरे रंग के कपड़े पर काले रंग के छोटे छोटे बिखरे हुए प्रिंट्स थे। यह स्कर्ट मैंने बीच पर पहनने की दृष्टि से ही लिया था। वैसे, संध्या के लिए ऐसी स्कर्ट पहनना, जो उसके घुटने तक भी न आ सके, थोड़ा सा भिन्न, या यह कह लीजिये की अटपटा अनुभव था। लेकिन, मेरे साथ बिताये गए कुछ ही दिनों में उसको समझ आ गया था की इस प्रकार के अनुभवों का होना अभी बस शुरू ही हुआ है। इसलिए, उसने कोई हील-हुज्जत नहीं करी और कुछ ही देर में हम लोग राधानगर बीच की तरफ रवाना हो गए।
रिसोर्ट से बीच का रास्ता काफी अधिक था – या यह कह लीजिये की ऑटो की टरटराती (?) तीव्र गति और खाली सड़क के कारण अधिक लग रहा हो। यह रास्ता भी बहुत ही मनोरंजक था – सड़क के दोनों तरफ हरे भरे पेड़ और दूर दूर तक सिर्फ हरियाली ही दिख रही थी। खैर, कोई पंद्रह मिनट में हम राधानगर बीच पहुँच गए। यहाँ की एक ख़ास बात है – इस बीच को टाइम मैगज़ीन ने एशिया के सबसे सुन्दर बीचों में एक घोषित किया है। वहां पहुँच कर तुरंत ही समझ आ गया की ऐसा क्यों है – मुलायम सफ़ेद बालू, शुद्ध फ़िरोज़ी समुद्र, साफ़ सुथरा और सुन्दर बीच, और ऊपर से अपूर्व शान्ति – कुल मिला कर एक बहुत ही असाधारण अनुभव! संध्या के चेहरे पर आते-जाते भाव देखते ही बन रहे थे। पहाड़ों पर रहने वाली लड़की, आज अथाह समुद्र का आनंद ले रही थी।
नम और हल्की गर्म हवा बहुत ही अच्छी लग रही थी। सूर्यास्त होने में कुछ और समय था, इसलिए मैंने समुद्र में नहाने की सोची – संध्या डर रही थी, इसलिए कैमरा देखने का बहाना कर के तक पर ही खड़ी रही। लेकिन इसमें क्या मज़ा! मैंने अपनी टी-शर्ट उतारी, और अपने कैमरा बैग में रख कर बीच के ही एक दूकानदार के पास रख दिया। उसने मुझे आश्वस्त किया की उसके पास यह सुरक्षित रहेगा, और संध्या को खींच कर समुद्र में ले गया। बीच की गीली रेत जब पानी के आवागमन से पैरों के नीचे से खिसकती है तो संतुलन बनाना बहुत मुश्किल होता है, ख़ास-तौर पर तब जब आप इस अनुभव के लिए बिलकुल नए हों। न तो मुझे, और न ही संध्या को समुद्र और बीच का कोई अनुभव था, इसलिए पहली बार में ही हम दोनों पानी में गिर गए। नहाने ही आये थे, इसलिए गीला होने में कोई बुराई नहीं लगी।
हम दोनों को ही तैरना आता था, इसलिए कुछ ही देर में समुद्री लहरों से निबटने का तरीका आ गया और हमने कोई आधे घंटे तक तट पर ही तैराकी करी। इतने में ही सूर्यास्त होने का समय भी निकट आ गया इसलिए मैंने वापस बीच पर खड़े होकर कुछ फोटोग्राफी करने की सोची।