कायाकल्प - Hindi sex novel

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sexy
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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 02 Oct 2015 08:13

वाकई शक्ति सिंह के घर में लोग बहुत सीधे और भले हैं – मैंने सोचा। कितना सच्चापन है सभी में। कोई मिलावट नहीं, कोई बनावट नहीं। नीलम एकदम चंचल बच्ची थी, लेकिन उसमे भी शालीनता कूट कूट कर भरी हुई थी। खैर, मुझे उससे कुछ तो बात करनी ही थी, इसलिए मैंने कहा, “नमस्ते नीलम। मेरा नाम रूद्र है। मैं अभी आपको और आपके माता पिता को अपने बारे में सब बताने वाला हूँ।”

लड़की के पिता वहीँ पर खड़े थे, और हमारी बातें सुन रहे थे। इतने में शक्ति सिंह जी की धर्मपत्नी भी बाहर आ गईं। उन्होंने अपना सर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था।

“जी नमस्ते!” मैंने उठते हुए कहा।

“नमस्ते! बैठिये न।” उन्होंने बस इतना ही कहा। परिश्रमी और आत्मसम्मानी पुरुष की सच्ची साथी प्रतीत हो रही थीं।

मुझे इतना तो समझ में आ गया की यह परिवार वाकई भला है। माता पिता दोनों ही स्वाभिमानी हैं, और सरल हैं। इसलिए बिना किसी लाग लपेट के बात करना ही ठीक रहेगा। हम चारो लोग अभी बस बैठे ही थे की उधर से संध्या नाश्ते की ट्रे लिए बैठक में आई। मैंने उसकी तरफ बस एक झलक भर देखा और फिर अपनी नज़रें बाकी लोगो की तरफ कर लीं – ऐसा न हो की मैं मूर्खों की तरह उसको पुनः एकटक देखने लगूं, और मेरी बिना वजह फजीहत हो जाय।

“और ये संध्या है – हमारी बड़ी बेटी। खैर, इसको तो आप जानते ही हैं। नीलम बेटा! जाओ दीदी का हाथ बटाओ।”

दोनों लड़कियों ने कुछ ही देर में नाश्ता जमा दिया। लगता है की वो बेचारे मेरे आने से पहले खाने जा रहे थे, लेकिन मेरे आने से उनका खाने का गणित गड़बड़ हो गया। खैर, मैं क्या ही खाता! मेरी भूख तो नहीं के बराबर थी – नाश्ता तो किया ही हुआ था और अभी थोडा घबराया हुआ भी था। लेकिन साथ में खाने पर बैठना आवश्यक था – कहीं ऐसा न हो की वो यह समझें की मैं उनके साथ खाना नहीं चाहता। खाते हुए बस इतनी ही बात हुई की मैं उत्तराँचल में क्या करने आया, कहाँ से आया, क्या करता हूँ, कितने दिन यहाँ पर हूँ ….. इत्यादि इत्यादि। नाश्ता समाप्त होने पर सभी लोग बैठक में आकर बैठ गए।

शक्ति सिंह थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, “रूद्र, मेरा यह मानना है की अगर लड़की की शादी की बात चल रही हो तो उसको भी पूरा अधिकार है की अपना निर्णय ले सके। इसलिए संध्या यहाँ पर रहेगी। उम्मीद है की आपको कोई आपत्ति नहीं।”

“जी, बिलकुल ठीक है। भला मुझे क्यों आपत्ति होगी?” मैंने संध्या की ओर देखकर बोला। उसके होंठो पर एक बहुत हलकी सी मुस्कान आ गयी और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए।

फिर मैंने उनको अपने बारे में बताना शुरू किया की मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ, मैंने देश के सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान और अभियांत्रिकी संस्थान से पढाई की है। बैंगलोर में रहता हूँ। मेरा पैत्रिक घर कभी मेरठ में था, लेकिन अब नहीं है। परिवार के बारे में बात चल पड़ी तो बहुत सी कड़वी, और दुःखदाई बातें भी निकल पड़ी। मैंने देखा की मेरे माँ-बाप की मृत्यु, मेरे संबंधियों के अत्याचार और मेरे संघर्ष के बारे में सुन कर शक्ति सिंह की पत्नी और संध्या दोनों के ही आँखों से आंसू निकल आये। मैंने यह भी घोषित किया की मेरे परिवार में मेरे अलावा अब कोई और नहीं है।

उन्होंने ने भी अपने घर के बारे में बताया की वो कितने साधारण लोग हैं, छोटी सी खेती है, लेकिन गुजर बसर हो जाती है। उनके वृहत परिवार के फलाँ फलाँ व्यक्ति विभिन्न स्थानों पर हैं। इत्यादि इत्यादि।

“रूद्र, आपसे मुझे बस एक ही बात पूछनी है। आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते हैं? आपके लिए तो लड़कियों की कोई कमी नहीं।” शक्ति सिंह ने पूछा।

मैंने कुछ सोच के बोला, “ऊपर से मैं चाहे कैसा भी लगता हूँ, लेकिन अन्दर से मैं बहुत ही सरल साधारण आदमी हूँ। मुझे वैसी ही सरलता संध्या में दिखी। इसलिए।”

फिर मैंने बात आगे जोड़ी, “आप बेशक मेरे बारे में पूरी तरह पता लगा लें। आप मेरा कार्ड रखिये – इसमें मेरी कंपनी का पता लिखा है। अगर आप बैंगलोर जाना चाहते हैं तो मैं सारा प्रबंध कर दूंगा। और यह मेरे घर का पता है (मैंने अपने विसिटिंग कार्ड के पीछे घर का पता भी लिख दिया था) – वैसे तो मैं अकेला रहता हूँ, लेकिन आप मेरे बारे में वहां पूछताछ कर सकते हैं। मैं यहाँ, उत्तराँचल में, मैं वैसे भी अगले दो-तीन सप्ताह तक हूँ। इसलिए अगर आप आगे कोई बात करना चाहते हैं, तो आसानी से हो सकती है।”

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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 02 Oct 2015 08:13

शक्ति सिंह ने सर हिलाया, फिर कुछ सोच कर बोले, “संध्या और आप आपस में कुछ बात करना चाहते हैं, तो हम बाहर चले जाते हैं।” और ऐसा कह कर तीनो लोग बैठक से बाहर चले गए।

अब वहां पर सिर्फ मैं और संध्या रह गए थे। ऐसे ही किसी और पुरुष के साथ एक कमरे में अकेले रह जाने का संध्या का यह पहला अनुभव था। घबराहट और संकोच से उसने अपना सर नीचे कर लिया। मैंने देखा की वो अपने पांव के अंगूठे से फर्श को कुरेद रही थी। उसके कुर्ते की आस्तीन से गोरी गोरी बाहें निकल कर आपस में उलझी जा रही थी।

“संध्या! मेरी तरफ देखिए।” उसने बड़े जतन से मेरी तरफ देखा।

“आपको मुझसे कुछ पूछना है?” मैंने पूछा।

उसने सिर्फ न में सर हिलाया।

“तो मैं आपसे कुछ पूछूं?” उसने सर हिला के हाँ कहा।

“आप मुझसे शादी करेंगी?”

मेरे इस प्रश्न पर मानो उसके शरीर का सारा खून उसके चेहरे में आ गया। घबराहट में उसका चेहरा एकदम गुलाबी हो चला। वो शर्म के मारे उठी और भाग कर कमरे से बाहर चली गयी। कुछ देर में शक्ति सिंह अन्दर आये, उन्होंने मुझे अपना फ़ोन नंबर और पता लिख कर दिया और बोले की वो मुझे फ़ोन करेंगे। जाते जाते उन्होंने अपने कैमरे से मेरी एक तस्वीर भी खीच ली। मुझे समझ आ गया की आगे की तहकीकात के लिए यह प्रबंध है। अच्छा है – एक पिता को अपनी पूरी तसल्ली कर लेनी चाहिए। आखिर अपनी लड़की किसी और के सुपुर्द कर रहे हैं!

मैं अगले दो दिन तक वहीँ रहा लेकिन मुझे शक्ति सिंह का फ़ोन नहीं आया। मैं कोई व्यग्रता और अतिआग्रह नहीं दर्शाना चाहता था, इसलिए मैंने उनको उन दो दिनों तक फोन नहीं किया, और न ही संध्या का पीछा किया। मैं नहीं चाहता था की वो मेरे कारण लज्जित हो। मेरा मन अब तक काफी हल्का हो गया था की कम से कम मन की बात कह तो दी। अब मैं आगे की यात्रा आरम्भ करना चाह रहा था। इसलिए मैं आगे की यात्रा पर निकल पड़ा और कौसानी पहुच गया। निकलने से पहले मैंने शक्ति सिंह जी को फोन करके बता दिया। उनके शब्दों से मुझे किसी प्रकार की तल्खी नहीं सुनाई दी – यह अच्छी बात थी।

कौसानी तक आते-आते उत्तराँचल के क्षेत्र अलग हो जाते हैं – संध्या का घर गढ़वाल में था, और कौसानी कुमाऊँ में। वहां तक की यात्रा मेरे लिए ठिठुराने वाली थी – एक तो बेहद घुमावदार सड़कें, और ऊपर से ठंडी ठंडी वर्षा। लेकिन मेरे आनंद में कोई कमी नहीं थी। कौसानी को महात्मा गाँधी जी ने “भारत का स्विट्ज़रलैंड” की उपाधि दी थी। इतनी सुन्दर जगह हिमालय में शायद ही कहीं मिलेगी। यहाँ की प्राकृतिक भव्यता की कोई मिसाल नहीं दी जा सकती है – देवदार के घने वृक्षों से घिरे इस पहाड़ी स्थल से हिमालय के तीन सौ किलोमीटर चौड़े विहंगम दृश्य को देखा जा सकता है। मैं दिन में बाहर जा कर पैदल यात्रा करता और रात में अपने होटल के कमरे से बाहर के अँधेरे में आकाशगंगा देखने का प्रयास करता।

लेकिन मेरे दिलो-दिमाग पर बस संध्या ही छायी हुई थी। ‘क्या उन लोगो को याद भी है मेरे बारे में?’ मैं यह अक्सर सोचता। कौसानी में अत्यंत शान्ति थी, अतः कुछ दिन वहीँ रहने का निश्चय किया। वैसे भी उत्तराँचल घूमने की मेरी कोई निश्चित योजना नहीं थी। जहाँ मन रम जाय, वहीँ रहने लगो! वहां रहते हुए, करीब पांच दिन बाद मुझे शक्ति सिंह के नंबर से रात में फ़ोन आया।

“हेल्लो!” मैंने कहा।

“जी….. मैं संध्या बोल रही हूँ।”

“संध्या? आप ठीक हैं? घर में सभी ठीक हैं?” मैंने जल्दी जल्दी प्रश्न दाग दिए। लेकिन वो जैसे कुछ नहीं सुन रही हो।

“जी…. हमें आपसे कुछ कहना था।”

“हाँ कहिये न?” मेरा दिल न जाने क्यों जोर जोर से धड़कने लगा।

“जी….. हम आपसे प्रेम करते हैं।” कहकर उसने फोन काट दिया।

मुझे अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हो रहा था – ये क्या हुआ? ज़रूर शक्ति सिंह ने मेरे बारे में तहकीकात करी होगी, और यह सोचा होगा की संध्या और मेरा अच्छा मेल है। हाँ, ज़रूर यही बात रही होगी। पारंपरिक भारतीय समाज में आज भी, यदि माता-पिता अपनी लड़की का विवाह तय कर देते हैं, तो वह लड़की अपने होने वाले पति को विवाह से पूर्व ही पति मान लेती है।

‘वो भी मुझसे प्रेम करती है!’

संध्या के फोन ने मेरे दिल के तार कुछ इस प्रकार झनझना दिए की रात भर नींद नहीं आई। मैंने पलट कर फोन नहीं किया। हो सकता है की ऐसा करने पर वो लोग मुझे असंस्कृत समझें। बहुत ही बेचैनी में करवटें बदलते हुए मेरी रात किसी प्रकार बीत ही गयी। ‘संध्या का कैसा हाल होगा?’ यह विचार मेरे मन में बार बार आता।

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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 02 Oct 2015 08:13

अगले दिन मेरे ऑफिस से मेरे बॉस, और मेरे हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी का फ़ोन आया। उन लोगो ने बताया की कोई मेरे बारे में पूछताछ कर रहे थे। मैंने उन लोगो को सारी बात का विवरण दे दिया। दोनों ही लोग बहुत खुश हो गए – दरअसल सभी को मेरी चिंता खाए जाती थी। खासतौर पर मेरा बॉस – उसको लगता था की कहीं मैं वैरागी न बन जाऊं। काम मैं अच्छा कर लेता हूँ, इसलिए उसको मुझे खोने का डर लगा रहता था। इसी तरह हाउसिंग सोसाइटी का सेक्रेटरी सोचता की रहता तो इतने बड़े घर में है, लेकिन अकेले रहते रहते कहीं उसको खराब न कर दूं। लेकिन, अगर मैं शादी कर लेता, तो उन लोगो की अपनी अपनी चिंता समाप्त हो जाती। इसलिए उन लोगो ने मौका मिलते ही मेरे बारे में जांच करने वाले व्यक्ति को अच्छी-अच्छी बातें बताई और मेरी इतनी बढाई कर दी जैसे मुझसे बेहतर कोई और आदमी न बना हो। शायद यही बाते शक्ति सिंह को भी पता चली हों और उन्होंने अपने घर में मेरे बारे में विचार विमर्श किया हो।

सारे संकेत सकारात्मक थे। अवश्य ही शक्ति सिंह के घर में मुझको पसंद किया गया हो। संध्या के फोन के बाद मुझे अब शक्ति सिंह के फोन का इंतज़ार था। पूरे दिन इंतज़ार किया, लेकिन कोई फोंन नहीं आया। आखिरकार, शाम को करीब तीन बजे शक्ति सिंह का फोन आया।

“हेल्लो… रूद्र जी, मैं शक्ति सिंह बोल रहा हूँ ..”

“जी.. नमस्ते! हाँ… बोलिए… आप कैसे हैं?”

“आपसे एक बहुत ज़रूरी बात करनी है। आप हमारे यहाँ एक बार फिर से आ सकते हैं?”

“जी.. बिलकुल आ सकता हूँ। लेकिन मुझे दो दिन का समय तो लगेगा। अभी कौसानी में ही हूँ!”

“कोई बात नहीं। आप आराम से आइये। लेकिन मिलना ज़रूरी है, क्योंकि यह बात फोन पर नहीं हो सकती।”

“जी.. ठीक है” कह कर मैंने फोन काट दिया, और मन ही मन शक्ति सिंह को धिक्कारा। ‘अरे यार! यह बात सवेरे बता देते तो कम से कम मैं एक तिहाई रास्ता पार चुका होता अब तक!’

खैर, इतने शाम को ड्राइव करना मुश्किल काम था, इसलिए मैंने सुबह तड़के ही निकलने की योजना बनायीं। अपना सामान पैक किया, और रात का खाना खा कर लेटा ही था, की मुझे फिर से शक्ति सिंह के नंबर से कॉल आया। मैंने तुरंत उठाया – दूसरी तरफ संध्या थी।

“संध्या जी, आप कैसी हैं?” मैंने कहा।

“जी….. मैं ठीक हूँ। …. आप कैसे हैं?”

“मैं बिलकुल ठीक हूँ … आपको फिर से देखने के लिए बेकरार हूँ…”

उधर से कोई जवाब तो नहीं आया, लेकिन मुझे लगा की संध्या शर्म के मारे लाल हो गयी होगी।

“संध्या?” मैंने पुकारा।

“जी… मैं हूँ यहाँ।“

“तो आप कुछ बोलती क्यों नहीं?”

“….. आपको मालूम है की आपको पिताजी ने क्यों बुलाया है?”

“कुछ कुछ आईडिया तो है। लेकिन पूरा आप ही बता दीजिये।”

“जी… पिताजी आपसे हमारे बारे में बात करना चाहते हैं…..” जब मैंने जवाब में कुछ नहीं कहा, तो संध्या ने कहना जारी रखा, “…. आप सच में मुझसे शादी करेंगे?”

“आपको लगता है की मैंने मजाक कर रहा हूँ? आपसे मैं ऐसा मजाक क्यों करूंगा?”

“नहीं नहीं… मेरा वो मतलब नहीं था। हम लोग बहुत ही साधारण लोग हैं… आपके मुकाबले बहुत गरीब! और… मैं तो आपके लायक बिल्कुल भी नहीं हूँ… न आपके जितना पढ़ी लिखी, और न ही आपके तौर तरीके जानती हूँ..”

“संध्या… शादी का मतलब अंत नहीं है … यह तो हमारी शुरुआत है। मैं तो चाहता हूँ की आप अपनी पढाई जारी रखिये। खूब पढ़िए – मुझसे ज्यादा पढ़िए। भला मैं क्यों रोकूंगा आपको। रही बात मेरे तौर तरीके सीखने की, तो भई, मेरा तो कोई तरीका नहीं है… बस मस्त रहता हूँ! ठीक है?”

“जी…”

“तो फिर जल्दी ही मिलते हैं.. ओके?”

“ओ.. के..”

“और हाँ, एक बात… आई लव यू टू”

जवाब में उधर से खिलखिला कर हंसने की आवाज़ आई।

अगली सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ ही मैं संध्या से मिलने निकल पड़ा। मौसम अच्छा था – हलकी बारिश और मंद मंद बयार। ऐसे में तो पूरे चौबीस घंटे ड्राइव किया जा सकता है। लेकिन, पहाड़ों पर थोड़ी मुश्किल आती है। खैर, मन की उमंग पर नियंत्रण रखते हुए मैंने जैसे तैसे ड्राइव करना जारी रखा – बीच बीच में खाने पीने और शरीर की अन्य जरूरतों के लिए ही रुका। ऐसे करते हुए शाम ढल गयी, लेकिन फिर भी संध्या का घर कम से कम पांच घंटे के रास्ते पर था। बारिश के मौसम में, और वह भी शाम को, पहाडो पर ड्राइव करने के लिए बहुत ही अधिक कौशल चाहिए। अतः मैंने वह रात एक छोटे से होटल में बिताई। अगली सुबह नहा धोकर और नाश्ता कर मैंने फिर से ड्राइव करना शुरू किया और करीब छह घंटे बाद शक्ति सिंह के घर पहुँचा।

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