कथा चक्रवर्ती सम्राट की - hindi sex novel
Posted: 13 Oct 2015 09:29
पुंसवक नगरी का प्राचीन काल से ही बड़ा नाम था . कहते हैं इस राज्य के राजा महाराज षिशिन्ध्वज एक चक्रवर्ती सम्राट हैं उन्होने अपने युवा काल में आस पास के कई राज्यों को जीत कर अपने राज्य में मिला लिए थे उनके राज्य में प्रजा को कभी किसी वस्तु की कमी न थी. दुख तो महाराज और उनकी रानियों को था के उनके
कोई संतान न थी.इस कारण महाराज षिशिन्ध्वज बड़े उदास रहते .
एक दिन दरबार के बाद जब वह अपने सेवकों के साथ भवन की ओर जाने लगे तो उनके मंत्री द्वितवीर्य ने उन्हे टोका “महाराज” तेज तेज कदमो से चलते हुए आमती द्वितवीर्या महाराज के निकट पंहुचे “महाराज गुप्तचर गान और राज वैद्य श्री वनसवान आपसे भेंट तत्क्षण करना चाहते हैं , करपया आज्ञा दें.
महाराज यह सुन कर चिंतित हुए की अचानक क्या बातो गयी जो गुप्तचर गान और राज वैद्या को उनसे त्वरित चर्चा करनी है परंतु अपनी व्यग्रता प्रकट न करते हुए वह शांत भाव से आमतया द्वितवीर्या को बोले “उचित है मंत्री जी उन्हे आप हमारे भवन के स्वागत कक्ष में अबसे ठीक २ घड़ी बाद उपस्थित रहने को कहिए , हम
अपने सांध्य स्मरण के पश्चात उनसे वहीं भेंट करेंगे.”
“जो आज्ञा महाराज” अमात्य बोले और वैद्या वनसवान को सूचित करने के लिए वहाँ से चले गये.
इधर महाराज अपने भवन में पंहुचे . आज सोमवार था संध्या का पहला प्रहर शुरू होने को था , यह समय महाराज के समय पत्र में आमोद प्रमोद का था. किंतु आजकल महाराज इसमे विशेष रूचि न लेते .
वह अपने कक्ष में पंहुचे और राजमुकुट उन्होने उतार कर सेविका को पकड़ा दिया और वस्त्र बदल कर वह स्नानगार की ओर चल पड़े.
राज भवन का स्नानगर बहुत विशाल था और भवन के बीचो बीच स्थित था उसके मध्य में ताज़े पानी का सरोवर था जिसका जल अति निर्मल और सुगंधित होता था. महाराज प्रतिदिन इसमे स्नान कर तनावों और चिंताओं से मुक्त हो कर बड़े उल्लासित होते थे. आज वह राज वैद्य से होने वाली भेंट को ले कर चिंतित थे . सरोवर के
तट पर वह पंहुचे तो उन्होने एक अनुपम द्रिश्य देखा.
देवी ज्योत्सना सरोवर में कमल के फूलों के मध्य खड़ी थी उनके श्वेत वस्त्र पानी से भीगने के कारण पारदर्शक हो गये थे उनके गोल उरोज किसी पके हुए संतरे के भाँति पुष्ट थे. उन्होने मुँह धोने के लिए सरोवरका जल अपनी अंजुलि में लिया और अपने मुख पर फेंका . पानी के शीतल आघात से बचने के लिए उन्होने अपनी आँखें
बंद कर ली. उनका पूरा मुख पानी से भीग गया इसके पश्चात उन्होने पानी में डुबकी लगाई और हाथ जोड़ कर बाहर निकलीं उनके काले लंबे घने केशों से पानी टपक रहा था . अब वह हाथ जोड़ कर ही कोई मंत्र पढ़ने लगीं . यह उनकी सांध्य वंदना का समय था जिसके लिए वह शुचिर्भूत हो रही थी.
महाराज सरोवरसे कुछ दूरी पर खड़े हो गये और देवी ज्योत्सना के मादक सौंदर्य का अपने नैनों से रसपान करने लगे.
अचानक उनको अपने अंगरक्षक और वहाँ उपस्थित परिचारिकाएँ का ध्यान आया . उन्होनें ताली बजा कर उनको वहाँ से जाने का संकेत किया .
उधर देवी ज्योत्सना अभी भी आँखें मुन्दे कुछ अस्पष्ट सा बुदबुदा रहीं थी. उन्होने शीतल जल में पुन एक बार डुबकी लगाई.
ज्योत्सना के गीले केशों की सुंगंधित महक महाराज के नथूनों तक पंहुची और महाराज व्यग्र हो उठे . उनका मन किया कि वह निर्वस्त्र हो कर पानी में उतर जाएँ और देवी ज्योत्सना के लंबे काले घने केशों को सूंघते हुए अपना शिशिन उनके नितंबों पर टीका दें
इधर देवी ज्योत्सना महाराज की उपस्थिति से अनभिज्ञ अभी भी स्नान संध्या कर रहीं थी . इस बार पुन उन्होने अपनी अंजुलि में पानी लिया और तीसरी बार डुबकी लगा ली.
अब महाराज संयत हो उठे उन्हें मालूम था कि देवी का स्नान लगभग ख़त्म हो चुका है , वह सम्हले इससे पूर्व ही उनके करणों में देवी ज्योत्सना का मधुर स्वर पड़ा “देवी चंचला , देवी कुन्तला कृपया मेरे अंतर्वस्त्र ले आइए”
महाराज हड़बड़ा गये उन्होने ही वहाँ उपस्थित परिचारिकाओं को जाने को कह दिया था. अब देवी ज्योत्सना को उनके अंतर्वस्त्र कैसे मिले ? उधर जब देवी ज्योत्सना को उनकी पुकार का कोई उत्तर न मिला तो तनिक तेज़ आवाज़ में बोली “चंचला , कुन्तला ???? क्या आपको हमारी वाणी सुनाई न दी ? ” महाराज ने देखा किनारे
पर ही देवी ज्योत्सना के अंतर्वस्त्र एक परात में रखे हुए थे , उन्होने चुपचाप परात उठाई और पानी में उतर गये .
कोई संतान न थी.इस कारण महाराज षिशिन्ध्वज बड़े उदास रहते .
एक दिन दरबार के बाद जब वह अपने सेवकों के साथ भवन की ओर जाने लगे तो उनके मंत्री द्वितवीर्य ने उन्हे टोका “महाराज” तेज तेज कदमो से चलते हुए आमती द्वितवीर्या महाराज के निकट पंहुचे “महाराज गुप्तचर गान और राज वैद्य श्री वनसवान आपसे भेंट तत्क्षण करना चाहते हैं , करपया आज्ञा दें.
महाराज यह सुन कर चिंतित हुए की अचानक क्या बातो गयी जो गुप्तचर गान और राज वैद्या को उनसे त्वरित चर्चा करनी है परंतु अपनी व्यग्रता प्रकट न करते हुए वह शांत भाव से आमतया द्वितवीर्या को बोले “उचित है मंत्री जी उन्हे आप हमारे भवन के स्वागत कक्ष में अबसे ठीक २ घड़ी बाद उपस्थित रहने को कहिए , हम
अपने सांध्य स्मरण के पश्चात उनसे वहीं भेंट करेंगे.”
“जो आज्ञा महाराज” अमात्य बोले और वैद्या वनसवान को सूचित करने के लिए वहाँ से चले गये.
इधर महाराज अपने भवन में पंहुचे . आज सोमवार था संध्या का पहला प्रहर शुरू होने को था , यह समय महाराज के समय पत्र में आमोद प्रमोद का था. किंतु आजकल महाराज इसमे विशेष रूचि न लेते .
वह अपने कक्ष में पंहुचे और राजमुकुट उन्होने उतार कर सेविका को पकड़ा दिया और वस्त्र बदल कर वह स्नानगार की ओर चल पड़े.
राज भवन का स्नानगर बहुत विशाल था और भवन के बीचो बीच स्थित था उसके मध्य में ताज़े पानी का सरोवर था जिसका जल अति निर्मल और सुगंधित होता था. महाराज प्रतिदिन इसमे स्नान कर तनावों और चिंताओं से मुक्त हो कर बड़े उल्लासित होते थे. आज वह राज वैद्य से होने वाली भेंट को ले कर चिंतित थे . सरोवर के
तट पर वह पंहुचे तो उन्होने एक अनुपम द्रिश्य देखा.
देवी ज्योत्सना सरोवर में कमल के फूलों के मध्य खड़ी थी उनके श्वेत वस्त्र पानी से भीगने के कारण पारदर्शक हो गये थे उनके गोल उरोज किसी पके हुए संतरे के भाँति पुष्ट थे. उन्होने मुँह धोने के लिए सरोवरका जल अपनी अंजुलि में लिया और अपने मुख पर फेंका . पानी के शीतल आघात से बचने के लिए उन्होने अपनी आँखें
बंद कर ली. उनका पूरा मुख पानी से भीग गया इसके पश्चात उन्होने पानी में डुबकी लगाई और हाथ जोड़ कर बाहर निकलीं उनके काले लंबे घने केशों से पानी टपक रहा था . अब वह हाथ जोड़ कर ही कोई मंत्र पढ़ने लगीं . यह उनकी सांध्य वंदना का समय था जिसके लिए वह शुचिर्भूत हो रही थी.
महाराज सरोवरसे कुछ दूरी पर खड़े हो गये और देवी ज्योत्सना के मादक सौंदर्य का अपने नैनों से रसपान करने लगे.
अचानक उनको अपने अंगरक्षक और वहाँ उपस्थित परिचारिकाएँ का ध्यान आया . उन्होनें ताली बजा कर उनको वहाँ से जाने का संकेत किया .
उधर देवी ज्योत्सना अभी भी आँखें मुन्दे कुछ अस्पष्ट सा बुदबुदा रहीं थी. उन्होने शीतल जल में पुन एक बार डुबकी लगाई.
ज्योत्सना के गीले केशों की सुंगंधित महक महाराज के नथूनों तक पंहुची और महाराज व्यग्र हो उठे . उनका मन किया कि वह निर्वस्त्र हो कर पानी में उतर जाएँ और देवी ज्योत्सना के लंबे काले घने केशों को सूंघते हुए अपना शिशिन उनके नितंबों पर टीका दें
इधर देवी ज्योत्सना महाराज की उपस्थिति से अनभिज्ञ अभी भी स्नान संध्या कर रहीं थी . इस बार पुन उन्होने अपनी अंजुलि में पानी लिया और तीसरी बार डुबकी लगा ली.
अब महाराज संयत हो उठे उन्हें मालूम था कि देवी का स्नान लगभग ख़त्म हो चुका है , वह सम्हले इससे पूर्व ही उनके करणों में देवी ज्योत्सना का मधुर स्वर पड़ा “देवी चंचला , देवी कुन्तला कृपया मेरे अंतर्वस्त्र ले आइए”
महाराज हड़बड़ा गये उन्होने ही वहाँ उपस्थित परिचारिकाओं को जाने को कह दिया था. अब देवी ज्योत्सना को उनके अंतर्वस्त्र कैसे मिले ? उधर जब देवी ज्योत्सना को उनकी पुकार का कोई उत्तर न मिला तो तनिक तेज़ आवाज़ में बोली “चंचला , कुन्तला ???? क्या आपको हमारी वाणी सुनाई न दी ? ” महाराज ने देखा किनारे
पर ही देवी ज्योत्सना के अंतर्वस्त्र एक परात में रखे हुए थे , उन्होने चुपचाप परात उठाई और पानी में उतर गये .