ज़िंदगी के रंग compleet

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rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 13 Oct 2014 16:42

सरहद पांडे शुरू से ही तन्हा रहने का आदि था. स्कूल के ज़माने से ले कर आज तक उसने ज़्यादा दोस्त नही बनाए थे और जो बनाए उन मे से भी कोई उसके ज़्यादा करीब नही था. शर्मीली तबीयत का होने का कारण वो चाहे कहीं भी जाए लोग उसे आम तोर पे नज़र अंदाज़ कर देते थे. देखने मे भी बस ठीक था. औसत कद, सांवला रंग और थोड़ी सी तोंद भी निकली हुई थी. शायद उसे शुरू से ही ये कॉंप्लेक्स था के वो देखने मे बदसूरत है. ऐसा तो खेर हरगिज़ नही था लेकिन जैसे जैसे वो बड़ा हुआ सर के बाल भी घने ना रहने के कारण उसका ये कॉंप्लेक्स और भी ज़्यादा मज़बूत होता चला गया. पढ़ाई मे भी बस ठीक ही था. ऐसा नही के काबिल नही था मगर कभी भी उसने पढ़ाई को संजीदगी से नही लिया था. उसके पिता समझ नही पाते थे के ऐसा क्यूँ है? पहले पहल तो उन्हो ने हर तरहा की कोशिश की. कभी प्यार से तो कभी गुस्से से लेकिन कुछ खास फरक नही पड़ा. आख़िर तंग आ कर उन्हो ने उसको उसके हाल पर छोड़ दिया. और तो और खेलौन मे भी वो बिल्कुल दिलचस्पी नही लेता था.



ऐसे मे बस एक ही ऐसी चीज़ थी उसकी ज़िंदगी मे जिसे वो पागलपन की हद तक पसंद करता था और वो थी किरण. वो कोई तीसरी क्लास मे था जब उसके पिता का ट्रान्स्फर देल्हीमे हो गया. नये स्कूल मे आ कर भी कुछ नही बदला था. कुछ शरारती लड़को का उसका मज़ाक उड़ाना तो कुछ टीचर का उस पे घुसा निकालना, सब कुछ तो पहले जैसा था. हां पर कुछ बदला था तो वो ये के पहली बार उसे कोई अच्छा लगने लगा था और वो थी उसकी क्लास मे ही एक हँसमुख बच्ची किरण. उस उमर मे प्यार का तो कोई वजूद ही नही होता और ना ही समझ. ये बस वैसे ही था जैसे हम किसी को मिल कर दोस्त बनाना चाहते हैं. फराक बस इतना था के अपने शर्मीलेपन की वजा से वो ये भी नही कर पाया. जो चंद एक दोस्त उसने बनाए भी वो उस जैसे ही थे. ये भी एक अजब इतेफ़ाक था के उसके पिता को भी घर कंपनी की ओर से वहीं मिला जहाँ मोना का घर बाजू मे ही था.

उसे आज भी याद था के केसे वो छुप छुप कर किरण को अपने कमरे की खिड़की से सड़क पर मोहल्ले के दूसरे बच्चो के साथ खेलते देखा करता था. दोसरी ओर किरण ने तो कभी उसे सही तरहा से देखा भी नही और अगर नज़र उस पर पड़ी भी तो नज़र अंदाज़ कर दिया. कहते हैं के समय के साथ सब कुछ बदल जाता है लेकिन कुछ चीज़े अगर बदलती भी हैं तो वो अच्छे के लिए नही होती. स्कूल के बाद दोनो ने ऐक ही कॉलेज मे दाखिला भी लिया पर इतने साल बीतने के बाद भी तो सब कुछ वैसे का वेसा ही था. आज भी वो दूर से किरण को पागलौं की तरहा देखा करता था. तन्हाई मे उसी की तस्वीर उसकी आँखौं मे घूमती थी और दूसरी ओर किरण अब जवानी मे हर ऐरे गैरे से हँसी मज़ाक करने के बावजूद भी सरहद की ओर कभी देखती तक नही थी. अगर कुछ बदला था तो वो उसके दिल मे उसके प्यार की शिदत थी. कभी कभार तो वो ये सौचता था के क्या ये प्यार है याँ जनून? वैसे उसे पसंद तो किरण की नयी दोस्त मोना भी बहुत आई थी. वो बिल्कुल किरण के बाकी के सब दोस्तों से अलग थी और उसे हैरत होती थी के उन दोनो मे दोस्ती हुई भी तो केसे? चंद ही महीनों मे उसने देखा के किरण मे तब्दीली आने लगी है और वो उस चंचल हसीना से एक समझदार लड़की बनने लगी थी. ऐसा कितना मोना की वजा से था तो कितना उमर के बढ़ने के साथ ये तो वो नही समझ पाया पर वो इस तब्दीली से खुश बहुत था. अब तो सब कुछ पहले से बेहतर होने लगा था. किरण ने लड़को से ज़्यादा बात चीत भी कम कर दी थी और कपड़े भी ढंग के पहनने लगी थी.

सरहद की खुशी का कोई ठिकाना ना रहा जब एक दिन किरण ने भी वो ही कॉलिंग सेंटर जाय्न कर लिया जहाँ वो काम करता था. अब तो उनकी थोड़ी बहुत दुआ सलाम भी होने लगी थी. फिर कुछ ही अरसे मे मोना को भी वहीं नौकरी मिल गयी. मोना और सरहद कुछ ही दीनो मे अच्छे दोस्त भी बन गये और शायद इसी लिए किरण से भी उसकी थोड़ी बहुत दोस्ती तो होने लगी थी. या फिर यौं कह लो के जिसे वो दोस्ती समझ के खुश हो रहा था वो बस दुआ सलाम तक ही थी. पर जिस लड़की के सपने वो सालो से देखता आ रहा था अब उसके साथ एक ही जगा पे काम करना और दिन मे एक आध बार बात कर लेना भी उसके लिए बहुत बड़ी बात थी. धीरे धीरे ही सही पर सब कुछ तो उसके लिए अच्छा होता जा रहा था सिवाय एक चीज़ के और वो था मनोज पटेल. कुछ साल पहले किरण के पिता के देहांत के बाद वो उनके घर किरायेदार के तौर पे आया था और अब टिक ही गया था. भला एक कारोबारी बंदे को ऐसे किसी के घर मे करायेदार बन के रहने की क्या ज़रूरत है? उसको इस बात की ही जलन थी के ऐक ही छत के नीचे वो उसकी किरण के पास ही रह रहा था. अब किरण को देख कर किस की नीयत खराब नही हो सकती थी? ये और ऐसे ही जाने कितने सवाल उसके मन मे रोज आते थे. जाने क्यूँ उसे मनोज मे कुछ अजीब सी बात नज़र आती थी. ऐसा उसकी जलन की वजा से था या सच मे दाल मे कुछ काला था?

ज़िंदगी हमेशा की तरहा वैसे ही रॅन्वा डांवा थी. हर तरफ भागम भाग थी और हर कोई दोसरे से आगे निकल जाने की दौड़ मे लगा हुआ था. इस भीड़ मे होते हुए भी आज मोना अपने आप को कितना तन्हा महसूस कर रही थी. ममता की बाते अभी तक उसे कांटो की तरहा चुभ रही थी. ग़रीबो के पास सिवाय उनकी इज़्ज़त के होता ही क्या है? और अगर लोग उसपे भी उंगली उठाए तो ये वो बर्दाशत नही कर पाते. वो धीरे धीरे एक सीध मे चली जा रही थी पर मंज़िल कहाँ थी इसका उसको भी पता नही था. दिल मे बहुत ही ज़्यादा दुख था पर आँखौं मे उसे क़ैद कर रखा था. ऐसे मे उसका मोबाइल बजता है. जब देखती है तो अली फोन कर रहा होता है.

मोना:"हेलो"

अली:"मोना कैसी हो?"

मोना:"अभी थोड़ी देर पहले तो तुम्हारे साथ थी फिर भी पूछ रहे हो के कैसी हूँ?" उसने रूखे से लहजे मे जवाब दिया. ममता का गुस्सा अभी तक गया नही था शायद.

अली:"हहे नही वो बस सोच रहा था के क्या फिल्म देखने चले? सुना है के अक्षय की बहुत अछी फिल्म आई है."

मोना:"तुम देख आओ मे नही आ पाउन्गी." धीरे से उसने कहा. अली बच्चा तो था नही, समझ गया के कुछ तो ग़लत है.

अली:"मोना सब ठीक तो है ना?" अब तक जिन आँसुओ को उसने अपनी आँखौं मे रोका हुआ था वो अब थम ना पाए आंड वो रोने लगी. उसे ऐसा रोते सुन कर अली बहुत घबरा गया.

अली:"मोना क्या हुआ है? प्लीज़ रो मत मे आ रहा हूँ." रोते हुए बड़ी मुस्किल से मोना बस ये कह पाई

मोना:"मैं घर पे नही हूँ अली."

अली:"कोई बात नही. तुम जहाँ पे भी हो बताओ मैं 2 मिनिट मे पहुच रहा हूँ." उसके चारो ओर जो लोग गुज़र रहे थे उन मे वो भी अपना तमाशा नही बनवाना चाहती थी इसलिए आँसू सॉफ करने लगी.

क्रमशः....................


rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 13 Oct 2014 16:46

ज़िंदगी के रंग--8

गतान्क से आगे..................

मोना:"मैं घर के पास जो पार्क है वहाँ तुम्हारा इंतेज़ार करोओण्घेए. प्लीज़ अली जल्दी आना."

अली:"मैं बस 2 मिनिट मे पोहन्च रहा हूँ." ये उसने कह तो दिया पर कोई उड़ान खटोला तो पास था नही, वहाँ पहुचने मे कोई 15 मिनिट तो लग ही गये. अब तक मोना अपने आप पे थोडा बहुत काबू भी कर चुकी थी. वो पार्क के बेंच पे अपने सूटकेस के साथ बैठी हुई थी. ऊसे ऐसे गमजडा बैठे देख कर अली को बहुत दुख हुआ. जिस लड़की के सपने वो दिन रात देखता था और जिस के लिए वो कुछ भी कर सकता था उससे ऐसे भला केसे वो देख सकता था?

अली:"मोना सब ठीक तो है ना और तुम ऐसे सूटकेस के साथ यहाँ क्यूँ बैठी हो?" उससे देख कर एक बार फिर जैसे ममता की कही सब बाते मोना को याद आ गयी और एक बार फिर आँखौं से आँसू बहने लगे. अली फॉरून उसके पास बैठ गया और उसके आँसू सॉफ करने लगा.

अली:"मोना प्लीज़ मत रो. सब कुछ ठीक हो जाएगा. मैं हूँ ना?"

मोना:"क्या ठीक होगा अब? मैने वो घर छोड़ दिया है."

अली:"क्यूँ क्या हुआ?"

मोना:"क्यूँ के उन्हे मैं बदचलन लगती हूँ और कहते हैं के तुम्हारे साथ अपना मुँह काला कर वा रही हूँ." अली ये सुन के गुस्से से पागल हो गया.

अली:"चलो मेरे साथ देखता हूँ किस की जुर्रत हुई तुम्हे ये कहने की?" वो ये कह कर उठने लगा लेकिन मोना ने हाथ पकड़ के बिठा लिया.

मोना:"नही अली पहले ही बहुत तमाशा हो गया है. वैसे भी वो तो कब से मुझे घर से निकालने का मौका देख रही थी. अब तो मैं भी वहाँ जाना नही चाहती."

अली:"ठीक है फिर चलो मेरे साथ. मेरे घर चलो सब ठीक हो जाएगा."

मोना:"पागल हो गये हो क्या? किस रिश्ते से साथ चालू? क्या हर दोस्त को उठा के घर ले जाते हो?"

अली:"पर हम सिर्फ़ दोस्त ही तो नही. इससे बढ़ के भी तो एक रिश्ता है हम मे."

मोना:"क्या और कैसा रिश्ता?" दोनो एक दूजे की आँखो मे खो चुके थे और समय था के बस थम सा गया था.

अली:"प्यार का रिश्ता."

मोना:"क्या और कैसा रिश्ता?"

अली:"प्यार का रिश्ता." ये बात बिना सौचे समझे उस केमुंह से निकली थी. यौं कह लो के दिल मे जो आरमान पहली बार ही मोना को देख कर पैदा हो गये था आज लबौं पे आ ही गये. ये सुन कर चंद लम्हो के लिए मोना चुप रही. पहली बार किसी ने यौं इज़हार-ए-मौहबत की थी. इन खामोश लम्हो मे जो मौहबत के पाक आहेसास को वो दोनो महसूस कर रहे थे और जो वादे आँखौं ही आँखौं मे किए जा रहे थे वो भला शब्दो मे कहाँ कहे जा सकते थे? आख़िर मोना ने ही इस खमौशी को तोड़ा धीरे से ये कह कर के

मोना:"पागल हो गये हो क्या?"

अली:"सच पूछो तो वो तो तुम्हे पहली बार ही देख कर हो गया था. फिर भी अगर किसी को पागलौं की तरह चाहना और उसी के ख्यालो मे खोए रहना और चाहे दिन हो या रात उसी के सपने देखना पागल पन है तो हां मे पागल हो गया हूँ."

मोना:"तुम ने आज तक तो ऐसा नही कहा फिर आज ये सब केसे?"

अली:"भला इतना आसान है ये क्या? तुम सौच भी नही सकती के कितनी ही बार कहने को दिल किया पर तुम्हे खो देने का डर इतना था के अपने आरमानो को दिल ही दिल मे मारता रहा और उम्मीद करता रहा उस दिन की जब तुम्हे अपना दिल दिखा सकू जिस की हर धड़कन मे तुम ही बसी हुई हो." वो ये सब सुन कर एक बार फिर पार्क के बेंच पर बैठ गयी. एक अजब आहेसास था ये. किसी को ऐसा कहते सुना के वो आप को इतना चाहते हैं. साथ ही साथ अभी तक वो ममता के दिए घाव भूल भी ना पाई थी के अली ने इतनी बड़ी बात इस मौके पे कह दी.

मोना:"तो क्या ये सही मौका है? तुम जानते हो ना के अभी कुछ ही देर पहले मेरे साथ क्या हुआ है? और अब ये सब? मुझे समझ नही आ रही के क्या कहू?"

अली:"मैं तो आज भी ना कह पाता लेकिन दिल की बात पे आज काबू ना रख सका जब तुम ने हमारे बीच क्या रिश्ता है पूछ लिया. मैं जानता हूँ तुम पे क्या बीत रही है मोना और इसी लिए तुम्हारा हाथ थामना चाहता हूँ. हो सके तो मेरा अएतबार कर लो. वादा करता हूँ के ज़िंदगी के किसी भी मोड़ पर तुम्हे ठोकर नही खाने दूँगा."

मोना:"ये सब इतना आसान नही है जितना तुम समझ रहे हो. इस प्यार मौहबत से बाहर भी एक दुनिया बसती है जिस दुनिया मे मैं एक ग़रीब टीचर की वो बेटी हूँ जो कल को अपने बुढ्ढे माता पिता और अपनी बेहन के लिए भी कुछ करना चाहती है. आज ये हाल है के मेरे पे ही कोई छत नही तो अपनी ज़िमेदारियाँ केसे निभा पवँगी? और ऐसे मे इस प्यार मौहबत के लिए कहाँ जगह है? अली तुम बहुत अच्छे लड़के हो. कौनसी ऐसी लड़की होगी जो तुम्हारे जैसा जीवन साथी नही पाना चाहेगी? पर मैं वो लड़की नही जिसे तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारे लिए पसंद करेंगे. ज़रा फरक तो देखो हम दोनो के परिवारो मे. क्यूँ ऐसा कोई रिश्ता शुरू करना चाहते हो जिस का अंजाम बस दुख दर्द पे ही ख़तम हो?"

rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 13 Oct 2014 16:47

अली:"प्यार कोई कारोबार तो नही जिस का ऩफा नुकसान सौच कर किया जाए. ये तो दिल मे जनम लेने वाला एक ऐसा आहेसास है जो लाखो करोड़ो के बीच मे बस एक चेहरे को मन मे बसा लेता है. भूल जाओ हम दोनो के दरमियाँ के फरक को. बस ये देखो के तुम्हारे सामने जो खड़ा है वो भी तुम्हारी तरहा एक इंसान है जिस के सीने मे तुम्हारे लिए ही दिल धड़कता है. क्या तुम्हारे दिल मे भी मेरे लिए प्यार है? क्या तुम भी मुझे उस दीवानगी से ही चाहती हो जैसे मे तुम्हे चाहता हूँ?" एक बार फिर दोनो के बीच मे खामोसी आ गयी. दिमाग़ था के कह रहा था मोना ना चल ऐसे रास्ते पर जिस की मंज़िल कोई नही और दिल था के कह रहा था के जिस सफ़र मे हमसफ़र ही साथ ना हो उसकी मंज़िल पे पोहन्च जाने का भी क्या फ़ायदा?

मोना:"मैं भी तुम्हे बहुत चाहती हूँ." दिल और दिमाग़ की इस जंग मे आख़िर कामयाबी दिल की ही हुई. मोना ने शर्मा कर अपनी पलके झुका ली और उसके ख़ौबसूरत गाल शर्माहट की वजा से लाल हो रहे थे. अली का दिल तो ख़ुसी से पागल हो रहा था ये सुन कर. उसने बड़े प्यार से मोना का हाथ थाम लिया.

अली:"तुम सौच भी नही सकती मोना के आज तुम ने मुझे कितनी बड़ी खुशी दी है. मे वादा करता हूँ के तुम्हे कभी तन्हा नही छोड़ूँगा."

मोना:"मुझे तुम्हारा और तुम्हारी मोहबत का आएतबार है पर अली मैं अपनी ज़िमेदारियो से मुँह नही मोड़ सकती."

अली:"आरे कह कौन रहा है तुम्हे? तुम्हारे माता पिता क्या मेरे माता पिता नही? मैं वादा करता हूँ के तुम्हारा सहारा बनूंगा और तुम्हारी सब ज़िमेदारियाँ आज से मेरी हैं. हम मिल के इन सब को निभाएँगे." उसकी बात सुन कर मोना की आँखौं से दो आँसू छलक गये. पर ये आँसू खुशी के थे. अली ने बड़े प्यार से उसके चेहरे से आँसू पौछ दिए.

अली:"आरे पगली अब रोना कैसा? अब तो हम अपने जीवन का आगाज़ करेंगे. जितना रोना था रो चुकी, अब तुम्हारी आँखौं मे आँसू नही आने चाहिए." ये सुन कर मोना कर चेहरा खिल उठा. भगवान के घर देर है पर अंधेर नही. वो सौच रही थी के वो कितनी खुशनसीब है के इतना प्यार करने वाला हम सफ़र मिल गया है उसे.

अली:"आरे कहाँ खो गयी? चलो अब क्या यहीं बैठे रहना है? घर चलते हैं."ये कह कर उसने मोना के हाथ से उसका सूटकेस पकड़ा और गाड़ी मे रखने लगा. थोड़ी ही देर मे दोनो अली के घर की जानिब गाड़ी मे बैठ कर जाने लगे. क्या उन दोनो के नये जीवन की ये शुरूवात थी?

थोड़ी देर बाद दोनो अली को घर पोहन्च गये. उसके पिता असलम सहाब दुकान पे थे और आम तौर पे तो बड़े भाई इमरान भी उतने बजे काम पे होते थे पर उस दिन तबीयात कुछ खराब होने की वजा से घर पे रुक गये थे. ड्रॉयिंग रूम मे मोना को बैठा कर अली उसके लिए कोल्ड ड्रिंक लेने चला गया. उसी दौरान इमरान मियाँ भी उनकी आवाज़ सुन कर कमरे से निकल आए. जो देखा तो एक लड़की अपने सूटकेस के साथ ड्रॉयिंग रूम मे बैठी हुई थी. दुकान दारो की यादशत बहुत पक्की होती है. एक नज़र मे ही पहचान गये के ये वोई लड़की है जो अली के साथ उनकी दुकान पे आई थी. वो दुनियादार बंदा था और एक नज़र मे ही भाँप गया के माजरा क्या है?.....

मोना ने जब इमरान को वहाँ खड़े उस घूरते देखा तो थोड़ा घबरा गयी. उस दिन दुकान पे अली ने बताया था के ये उसके बड़े भाई हैं इस लिए ये तो उसे पता था के वो कौन हैं?

मोना:"नमस्ते" उसने धीरे से उन्हे देख कर कहा. इमरान बगैर कोई जवाब दिए सीधा रसोई की तरफ चलने लगे. जब वहाँ गये तो देखा के उनकी धरम पत्नी पकोडे तल रही थी और अली ग्लासो मे कोल्ड ड्रिंक्स डाल रहा था. एक तो पहले ही से तबीयत खराब थी उपर से मोना को ऐसे देख कर उसे नज़ाने क्यूँ गुस्सा भी चढ़ गया था.

इमरान:"मैं पूछ सकता हूँ के ये क्या हो रहा है?" उस ने गुस्से से पूछा तो उसकी धरम पत्नी ने उसे शांत करने की कोशिश की.

शा:"क्या कर रहे हैं आप? घर मे मेहमान आई है कुछ तो ख़याल की जिए."

इमरान:"बिन बुलाए मेहमानो से केसे पेश आते हैं मुझे बखूबी पता है. तुम बीच मे मत बोलो."

अली:"भाई धीरे बोलिए. ये फज़ूल का तमाशा करने की क्या ज़रूरत है?"

इमरान:"मैं तमाशा कर रहा हूँ? ये लड़की जिसे तुम उसके बोरिये बिस्तरे के साथ घर ले आए हो वो क्या कोई कम तमाशा है?"

क्रमशः....................




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