एक बाइक आकर घर के कॉंपाउंड के गेट के सामने रुकी. बाइक के पीछे की सीट से मीनू उतर गयी. उसने सामने बैठे शरद के गाल का चुंबन लिया और वह गेट की तरफ निकल दी.
घर के अंदरसे, खिड़की से मीनू के पिता वह सब नज़ारा देख रहे थे. उनके चेहरे से ऐसा लग रहा था कि वे गुस्से से आगबबूला हो रहे थे. अपनी बेटी का कोई बॉय फ्रेंड है यह उनको गुस्सा आने का कारण नही था. कारण कुछ अलग ही था.
हॉल मे सोफेपर मीनू के पिता बैठे हुए थे और उनके सामने गर्दन झुका कर मीनू खड़ी थी.
"इस लड़की के अलावा तुम्हे दूसरा कोई नही मिला क्या...?" उनका गुस्से से भरा गंभीर स्वर गूंजा.
मीनू के मुँह से शब्द नही निकल पा रहा था. वह अपने पिता से बात करने के लिए हिम्मत जुटाने का प्रयास कर रही थी. उतने मे मीनू का भाई अंकित, उम्र लगभग तीस के आस पास, गंभीर व्यक्ति, हमेशा किसी सोच मे खोया हुआ, ढीला ढालसा रहन सहन, घर मे से वहाँ आ गया. वह मीनू के बगल मे जाकर खड़ा हो गया. मीनू के गर्दन अभी भी झुकी हुई थी. उसका भाई बगल मे आकर खड़ा होने से उसमे थोड़ा धाँढस बँध गया. वह गर्दन नीचे ही रख कर अपनी हिम्मत जुटाकर एक एक शब्द तोल्मोल कर बोली, "वह एक अच्छा लड़का है... आप उसे एक बार मिल तो लो..."
"चुप बैठो... मूर्ख... मुझे उससे मिलने की बिल्कुल इच्छा नही... अगर तुम्हे इस घर मे रहना है तो तुम मुझे दुबारा उसके साथ दिखनी नही चाहिए... समझी..." उसके पिता ने अपना अंतिम फ़ैसला सुना दिया.
मीनू के आँखों मे आँसू आगये और वहाँ से अपने छिपते हुए वह घर के अंदर दौड़ पड़ी. अंकित सहानुभूति से उसे अंदर जाते हुए देखता रहा.
घर मे किसी की भी पिताजी से बहस करने की हिम्मत नही थी.
अंकित हिम्मत जुटाकर उसके पिताजी से बोला, "पॅपा.... आपको ऐसा नही लगता कि आप थोड़े ज़्यादा ही कठोर हो रहे हो... आपने कम से कम मीनू क्या बोलना चाहती है यह सुनना चाहिए... और एक बार वक्त निकाल कर उस लड़के से मिलने मे क्या हर्ज़ है..?"
"में उसका बाप हूँ... उसका भला बुरा मेरे सिवा और कौन जान सकता है...? और तुम्हारी नसीहत तुम्हारे पास ही रखो... मुझे उसके तुम्हारे जैसे हुए हाल देखने की बिल्कुल इच्छा नही है... तुमने भी एक दूसरी कास्ट वाली लड़की से शादी की थी.. आख़िर क्या हुआ...? तुम्हारी सब प्रॉपर्टी हड़प कर उसने तुम्हे भगवान भरोसे छोड़ दिया..." उसके पिताजी तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए गुस्से से कमरे से बाहर जाने लगे.
"पॅपा आदमी का स्वाभाव आदमी-आदमी मे फ़र्क लाता है... ना कि उसका रंग, या उसकी कास्ट..." अंकित उसके पिताजी को बाहर जाते हुए उनकी पीठ की तरफ देख कर बोला.
उसके पिताजी जाते जाते अचानक दरवाजे मे रुक गये और उधर ही मुँह रखते हुए कठोर लहजे मे बोले, "और तुम्हे उसकी पैरवी करने की बिल्कुल ज़रूरत नही... और ना ही उसे सपोर्ट करने की..."
अंकित कुछ बोले इसके पहले ही उसके पिताजी वहाँ से जा चुके थे.
इधर मीनू के घर के बाहर अंधेरे मे खिड़की के पास छिप कर एक काला साया अंदर चल रहा यह सारा नज़ारा देख और सुन रहा था.
क्लास मे एक लेडी टीचर पढ़ा रही थी. क्लास मे कॉलेज के छात्र ध्यान देकर उन्हे सुन रहे थे. उन्ही छात्रों मे शरद और मीनू बैठे हुए थे.
"सो दा मौरल ऑफ दा स्टौरी ईज़... कुछ भी फ़ैसला ना लेते हुए बिचमे ही लटकने से अच्छा है कुछ तो एक फ़ैसला लेना..." टीचर ने अबतक पढ़ाए पाठ का निष्कर्ष संक्षेप मे बताया.
मीनू ने छुप कर एक कटाक्ष शरद की तरफ डाला. दोनो की आँखें मिल गयी. दोनो भी एक दूसरे की तरफ देख मुस्कुराए. मीनू ने एक नोटबुक का पन्ना शरद को दिखाया. उस नोटबुक के पन्ने पर बड़े अक्षरों मे लिखा था 'लाइब्ररी'. शरद ने हाँ मे अपना सर हिलाया. उतने मे पीरियड बेल बजी. पहले टीचर और बाद मे छात्र धीरे धीरे क्लास से बाहर जाने लगे.
शरद हमेशा की तरह जब लाइब्ररी मे गया तब ब्रेक टाइम होने से वहाँ कोई भी छात्र नही थे. उसने मीनू को ढूँढने के लिए इधर उधर नज़र दौड़ाई. मीनू एक कोने मे बैठकर किताब पढ़ रही थी. या कम से कम वैसा दिखावा करने की चेष्टा कर रही थी. मीनू ने आहट होतेही किताब से सर उपर उठाकर उधर देखा.
दोनो की नज़रे मिलते ही वह वहाँ से उठ कर किताबों के रॅक के पीछे जाने लगी. शरद भी उसके पीछे पीछे जाने लगा. एक दूसरे से कुछ भी ना बोलते हुए या कुछ भी इशारा ना करते हुए सबकुछ हो रहा था. उनका यह शायद रोज का दिन क्रम होगा. मीनू कुछ ना बोलते हुए भले ही रॅक के पीछे जा रही थी लेकिन उसके दिमाग़ मे विचारों का तूफान उमड़ पड़ा था.
जो भी हो आज कुछ तो आखरी फ़ैसला लेना ही है...
ऐसे कितने दिन तक ना इधर ना उधर इस हाल मे रहेंगे...
टीचर ने जो पढ़ाए पाठ का संक्षेप मे निष्कर्ष बताया था... वही सही था...
हमे कुछ तो ठोस निर्णय लेना ही होगा...
आर या पार....
बस अब बहुत हो गया...
उसके पीछे पीछे शरद रॅक के पीछे कुछ ना बोलते हुए जा रहा था. लेकिन उसके दिमाग़ मे भी विचारों का सैलाब उमड़ पड़ा था.
हमेशा मीनू पीरियड होने के बाद लाइब्ररी मे मिलने के लिए इशारा करती थी…
लेकिन आज उसने पीरियड शुरू थी तब ही इशारा किया…
उसके घर मे कुछ अघटित तो नही घटा…
उसके चेहरे से वह किसी दुविधामे लग रही थी…
अपने घर के दबाव मे आकर वह मुझे छोड़ तो नही देगी…
अलग अलग प्रकार के विचार उसके दिमाग़ मे घूम रहे थे.
क्रमशः…………………..
Thriller -इंतकाम की आग compleet
Re: Thriller -इंतकाम की आग
इंतकाम की आग--9
गतान्क से आगे………………………
रॅक के पीछे कोने मे किसी के नज़र मे नही आए ऐसी जगह पर मीनू पहुँच गयी और पीछे से दीवार को अपना एक पैर लगा कर वह शरद की राह देखने लगी.
शरद उसके पास जाकर पहुँचा और उसके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करते हुए उसके सामने खड़ा हो गया.
“तो फिर तय हुआ… आज रात 11 बजे तैय्यार रहो…” मीनू ने कहा.
चलो मतलब अब भी मीनू अपने घर के लोगों के दबाव मे नही आई थी.
शरद को सुकून सा महसूस हुआ.
लेकिन उसने सुझाया हुआ यह दूसरा रास्ता कहाँ तक सही है…?
यह एकदम चरम भूमि का तो नही हो रही है…?
“मीनू तुम्हे नही लगता कि हम ज़रा जल्दी ही कर रहे है.. हम कुछ दिन रुकेंगे… और देखते है कुछ बदलता है क्या…” शरद ने कहा.
“शरद चीज़े अपने आप नही बदलती… हमे उन्हे बदलना पड़ता है…” मीनू ने दृढ़ता से कहा.
उनकी बहुत देर तक चर्चा चलती रही. शरद को अभी भी उसकी भूमिका सही नही लग रही थी. लेकिन एक तरह से उसका सही भी था. कभी कभी ताबड़तोड़ निर्णय लेना ही अच्छा होता है.. शरद सोच रहा था.
लेकिन इस फ़ैसले के लिए में अब भी पूरी तरह से तैय्यार नही हूँ…
मुझे मेरे घर के लोगों के बारे मे भी सोचना चाहिए…
लेकिन नही हम कितने दिन तक इस तरह बीच मे लटके रहेंगे…
हमे कुछ तो ठोस कदम उठाना ज़रूरी है…
शरद अपना एक फ़ैसले पर पहूचकर दृढ़ता से उसपर कायम रहने का प्रयास कर रहा था.
उधर रॅक के पीछे उन दोनो की चर्चा चल रही थी और इधर दो रॅक छोड़ कर एक साया उन दोनो की सब बातें सुन रह था.
शरद के दिमाग़ मे विचारों की कशमश चल रही थी. अब वह जो फ़ैसला लेनेवाला था उसकी वजह से होनेवाले सब परिणामों के बारे मे वह सोच रहा था. मीनू के साथ लाइब्ररी मे किए चर्चा से दो-तीन टेट एकदम सॉफ हो गयी थी -
एक तो मीनू भले ही उपर से ना लगे लेकिन अंदर से वह बहुत गंभीर और ज़बान की पक्की है....
वह किसी भी हाल मे मुझे नही छोड़ेगी....
या फिर वैसा सोचेगी भी नही....
लेकिन अब उसे अपने आपका ही भरोसा नही लग रहा था...
में भी उसकी तरह अंदर से गंभीर और पक्का हूँ क्या...?
बुरे वक्त मे मेरा उसके प्रति प्रेम वैसा ही कायम रहेगा क्या...?
या बुरे वक्त मे वह बदल सकता है...?
वह अब खुद को ही आजमा रहा था. वक्त ही वैसा आया था की उसे खुद का ही विश्वास नही लग रहा था.
परंतु नही...
मुझे ऐसा ढीला ढाला रहकर नही चलेगा...
मुझे भी कुछ ठोस फ़ैसला लेना होगा...
और एक बार निर्णय लिया तो फिर बाद मे उसके कुछ भी परिणाम हो, मुझे उसपर कायम रहना होगा...
शरद ने आख़िर मन ही मन एक ठोस फ़ैसला लिया...
अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर वह उसे जिसकी ज़रूरत पड़ेगी वह सारी चीज़ें अपने बॅग मे भरने लगा...
सब कुछ ठीक तो होगा ना...?
मुझे मेरे घरवालों को सब बताना चाहिए क्या...?
सोचते सोचते उसने अपनी सारी चीज़ें बॅग मे भर दी...
गतान्क से आगे………………………
रॅक के पीछे कोने मे किसी के नज़र मे नही आए ऐसी जगह पर मीनू पहुँच गयी और पीछे से दीवार को अपना एक पैर लगा कर वह शरद की राह देखने लगी.
शरद उसके पास जाकर पहुँचा और उसके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करते हुए उसके सामने खड़ा हो गया.
“तो फिर तय हुआ… आज रात 11 बजे तैय्यार रहो…” मीनू ने कहा.
चलो मतलब अब भी मीनू अपने घर के लोगों के दबाव मे नही आई थी.
शरद को सुकून सा महसूस हुआ.
लेकिन उसने सुझाया हुआ यह दूसरा रास्ता कहाँ तक सही है…?
यह एकदम चरम भूमि का तो नही हो रही है…?
“मीनू तुम्हे नही लगता कि हम ज़रा जल्दी ही कर रहे है.. हम कुछ दिन रुकेंगे… और देखते है कुछ बदलता है क्या…” शरद ने कहा.
“शरद चीज़े अपने आप नही बदलती… हमे उन्हे बदलना पड़ता है…” मीनू ने दृढ़ता से कहा.
उनकी बहुत देर तक चर्चा चलती रही. शरद को अभी भी उसकी भूमिका सही नही लग रही थी. लेकिन एक तरह से उसका सही भी था. कभी कभी ताबड़तोड़ निर्णय लेना ही अच्छा होता है.. शरद सोच रहा था.
लेकिन इस फ़ैसले के लिए में अब भी पूरी तरह से तैय्यार नही हूँ…
मुझे मेरे घर के लोगों के बारे मे भी सोचना चाहिए…
लेकिन नही हम कितने दिन तक इस तरह बीच मे लटके रहेंगे…
हमे कुछ तो ठोस कदम उठाना ज़रूरी है…
शरद अपना एक फ़ैसले पर पहूचकर दृढ़ता से उसपर कायम रहने का प्रयास कर रहा था.
उधर रॅक के पीछे उन दोनो की चर्चा चल रही थी और इधर दो रॅक छोड़ कर एक साया उन दोनो की सब बातें सुन रह था.
शरद के दिमाग़ मे विचारों की कशमश चल रही थी. अब वह जो फ़ैसला लेनेवाला था उसकी वजह से होनेवाले सब परिणामों के बारे मे वह सोच रहा था. मीनू के साथ लाइब्ररी मे किए चर्चा से दो-तीन टेट एकदम सॉफ हो गयी थी -
एक तो मीनू भले ही उपर से ना लगे लेकिन अंदर से वह बहुत गंभीर और ज़बान की पक्की है....
वह किसी भी हाल मे मुझे नही छोड़ेगी....
या फिर वैसा सोचेगी भी नही....
लेकिन अब उसे अपने आपका ही भरोसा नही लग रहा था...
में भी उसकी तरह अंदर से गंभीर और पक्का हूँ क्या...?
बुरे वक्त मे मेरा उसके प्रति प्रेम वैसा ही कायम रहेगा क्या...?
या बुरे वक्त मे वह बदल सकता है...?
वह अब खुद को ही आजमा रहा था. वक्त ही वैसा आया था की उसे खुद का ही विश्वास नही लग रहा था.
परंतु नही...
मुझे ऐसा ढीला ढाला रहकर नही चलेगा...
मुझे भी कुछ ठोस फ़ैसला लेना होगा...
और एक बार निर्णय लिया तो फिर बाद मे उसके कुछ भी परिणाम हो, मुझे उसपर कायम रहना होगा...
शरद ने आख़िर मन ही मन एक ठोस फ़ैसला लिया...
अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर वह उसे जिसकी ज़रूरत पड़ेगी वह सारी चीज़ें अपने बॅग मे भरने लगा...
सब कुछ ठीक तो होगा ना...?
मुझे मेरे घरवालों को सब बताना चाहिए क्या...?
सोचते सोचते उसने अपनी सारी चीज़ें बॅग मे भर दी...
Re: Thriller -इंतकाम की आग
कपड़े वाईगेरह बदल कर उसने कुछ बचा नही इसकी तसल्ली की. आख़िरी बची हुई एक चीज़ डालकर उसने बॅग की चैन लगाई. चैन का एक बस हिक्फ ऐसा आवाज़ हुआ. उसने वह बॅग उठाकर सामने टेबल पर रख दिया और टेबल के सामने रखे कुरसीपर थोड़ा सुसताने के लिए बैठ गया. वह एक-दो पल ही बैठा होगा कि इतने मे उसका मोबाइल विब्रेट हो गया. उसने जेब से मोबाइल निकाल कर उसका डिसप्ले देख. डिसप्ले पर उसे 'मीनू' ऐसे डिजिटल शब्द दिखाई दिए. वह तुरंत कुर्सी से उठ खड़ा हुआ. मोबाइल बंद किया, बॅग उठाई और धिरेसे कमरे से बाहर निकल गया.
इधर उधर देखते हुए सावधानी से शरद मुख्य दरवाजे से बाहर आ गया और उसने दरवाजा बाहर से खींचकर बंद कर लिया. फिर जॉगिंग किए जैसे वह कंधे पर बॅग लेकर कॉंपाउंड के गेट के पास गया. बाहर रास्ते पर उसे एक टॅक्सी रुकी हुई दिखाई दी. कॉंपाउंड के गेट से बाहर निकल कर उसने गेट भी खींचकर बंद कर लिया. टॅक्सी के पास पहुँचते ही उसे टॅक्सी मे पिछली सीट पर बैठकर उसकी राह देख रही मीनू दिखाई दी. दोनो की नज़रे मिली. दोनो एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुराए. झट से जाकर वह बॅग के साथ मीनू के बगल मे टॅक्सी मे घुस गया. टॅक्सी के दरवाजे की ज़्यादा आवाज़ ना हो इसका ख़याल रखते हुए उसने सावधानी से दरवाजा धीरे से खींच लिया. दोनो एक दूसरे की बाहों मे घुस गये. उनके चेहरे पर एक विजय हास्य फैल गया था.
अब उनकी टॅक्सी घर से बहुत दूर तेज़ी दौड़ रही थी. वे दोनो तेज़ी से दौड़ती टॅक्सी के खिड़की से आ रहे तेज हवा के झोंके का आनंद ले रहे थे. लेकिन उन्हे क्या पता था कि एक काला साया पीछे एक दूसरी टॅक्सी मे बैठकर उनका पीछा कर रहा था...
... इंस्पेक्टर धरम हक़ीक़त बयान करते हुए रुक गया. इंस्पेक्टर राज ने वह क्यों रुका यह जान ने के लिए उसके तरफ देखा. इंस्पेक्टर धरम ने सामने रखा ग्लास उतार कर पानी का एक घूँट लिया. तब तक ऑफीस बॉय चाइ पानी लाया था. इंस्पेक्टर धरम ने वह उसके सामने बैठे इंस्पेक्टर राज और उसके साथ आए पवन को परोसने के लिए ऑफीस बॉय को इशारा किया.
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ऑफीस बॉय चाइ पानी लेकर आने से धरम जो हक़ीक़त बता रहा था उसमे व्यवधान पड़ गया. राज को और उसके साथी पवन को आगे की कहानी सुन ने की बड़ी उत्सुकता हो रही थी. सब लोगों का चाइ पानी होने के बाद इंस्पेक्टर धरम फिर से आगे की कहानी बता ने लगा....
.... शरद की और मीनू की टॅक्सी रेलवे स्टेशन पर पहुँच गयी. दोनो टॅक्सी से उतर गये. टॅक्सी वाले का किराया चुका कर वे अपना सामान लेकर टिकेट की खिड़की के पास चले गये. कहाँ जाना है यह उन्होने अब तक तय नही किया था. बस यहाँ से निकल जाना है इतना ही उन्होने तय किया था. एक ट्रेन प्लॅटफार्म पर खड़ी ही थी. शरद ने जल्दी से उसी ट्रेन का टिकेट निकाला.
प्लॅटफार्म पर वे अपना टिकेट लेकर अपना रेलवे डिब्बा ढूँढने लगे. डिब्बा ढूँढने के लिए उन्हे ज़्यादा मशक्कत नही करनी पड़ी. मुख्य दरवाजे से उनका डिब्बा नज़दीक ही था. ट्रेन निकल ने का समय हो गया था इसलिए वे तुरंत डब्बे मे चढ़ गये. डिब्बे मे चढ़ने के बाद उन्होने अपनी सीट्स ढूँढ ली. अपने सीट के पास आपना सारा सामान रख दिया. उतने मे गाड़ी हिलने लगी. गाड़ी निकलने का वक्त हो चुका था. जैसे ही गाड़ी निकलने लगी वैसे मीनू शरद को लेकर डिब्बे के दरवाजे के पास गयी. उसे वहाँ से जाने से पहले अपने शहर को एक बार जी भर के देख लेना था...
ट्रेन मे मीनू और शरद एक दम पास पास बैठे थे. उन्हे दोनो को एक दूसरे का सहारा चाहिए था. आख़िर उन्होने जो फ़ैसला किया था उसके बाद उन्हे बस एक दूसरे का ही तो सहारा था. अपने घर से सारे रिश्ते, सारे बंधन तोड़कर वे बहुत दूर जा रहे थे. मीनू ने आपना सर शरद के कंधे पर रख दिया.
"फिर.... अब कैसा लग रहा है..." शरद ने माहौल थोड़ा हल्का करने के उद्देश्य से पूछा.
"ग्रेट..." मीनू भी झूठ मूठ हंसते हुए बोली.
शरद समझ सकता था कि भले ही वह उपर से दिखा रही हो लेकिन घर छोड़ने का दुख उसको होना लाजमी था. उसे साहारा देने के उद्देश्य से उसने उसे कस कर पकड़ लिया...
"तुम्हे कुछ याद आ रहा है...?" शरद ने उसे और भी कस कर पकड़ते हुए पूछा.
मीनू ने प्रश्नर्थक मुद्रा मे उसकी तरफ देखा.
"नही मतलब कोई घटना कोई प्रसंग... जब मैने तुम्हे ऐसे ही कस कर पकड़ा था.."
"में कैसे भूल सकती हूँ उस घटना को..."मीनू उसने जब ब्लंकेट से लपेट कर उसे कस कर पकड़ा था वह प्रसंग याद कर बोली.
"और तुम भी..."मीनू उसके गाल पर हाथ मलते हुए उसे मारे हुए थप्पड़ की याद देते हुए बोली.
दोनो खिलखिला कर हंस पड़े.
जब दोनो का हँसना थम गया मीनू इतराते हुए उसे बोली, "आइ लव यू..."
"आइ लव यू टू..." उसने उसे और नज़दीक खींचते हुए कहा.
दोनो भी कस कर एक दूसरे के आलिंगन मे बँध हो गये.
मीनू ने ट्रेन की खिड़की से झाँक कर देखा. बाहर सब अंधेरा छाया हुआ था. शरद ने मीनू की तरफ देखा.
"तुम्हे पता है... तुम्हे माफी माँगते वक्त वह फूलों का गुलदस्ता मैं क्यों लाया था...?" शरद फिर से उसे वह माफी माँग ने का प्रसंग याद दिलाते हुए बोला. वह प्रसंग वह कैसे भूल सकता था...? उसी पल मे तो प्रेम के बीज बोए गये थे.
"जाहिर है माफी ज़्यादा एफेक्टिव होना चाहिए इसलिए..." मीनू ने कहा...
"नही... अगर में सच कहूँ तो तुम्हे विश्वास नही होगा..." शरद ने कहा.
"फिर ... क्यों लाया था...?"
"मेरे हाथ फिर से कोई अजीब इशारे कर गड़बड़ ना कर दे इसलिए... नही तो फिर से शायद और एक थप्पड़ मिला होता..." शरद ने कहा.
मीनू और शरद फिर से खिल खिलाकर हंस पड़े.
धीरे धीरे उनकी हँसी थम गयी. फिर थोड़ी देर सब सन्नाटा छाया रहा. सिर्फ़ रेलवे का आवाज़ आता रहा. उस सन्नाटे मे ना जाने क्यूँ मीनू को लगा कि कोई इस ट्रेन मे बैठकर अपना पीछा तो नही कर रहा है...
नही...कैसे मुमकिन है...
हम भाग जानेवाले है यह सिर्फ़ शरद और उसके सिवा और किसी को भी तो पता नही था...
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इधर उधर देखते हुए सावधानी से शरद मुख्य दरवाजे से बाहर आ गया और उसने दरवाजा बाहर से खींचकर बंद कर लिया. फिर जॉगिंग किए जैसे वह कंधे पर बॅग लेकर कॉंपाउंड के गेट के पास गया. बाहर रास्ते पर उसे एक टॅक्सी रुकी हुई दिखाई दी. कॉंपाउंड के गेट से बाहर निकल कर उसने गेट भी खींचकर बंद कर लिया. टॅक्सी के पास पहुँचते ही उसे टॅक्सी मे पिछली सीट पर बैठकर उसकी राह देख रही मीनू दिखाई दी. दोनो की नज़रे मिली. दोनो एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुराए. झट से जाकर वह बॅग के साथ मीनू के बगल मे टॅक्सी मे घुस गया. टॅक्सी के दरवाजे की ज़्यादा आवाज़ ना हो इसका ख़याल रखते हुए उसने सावधानी से दरवाजा धीरे से खींच लिया. दोनो एक दूसरे की बाहों मे घुस गये. उनके चेहरे पर एक विजय हास्य फैल गया था.
अब उनकी टॅक्सी घर से बहुत दूर तेज़ी दौड़ रही थी. वे दोनो तेज़ी से दौड़ती टॅक्सी के खिड़की से आ रहे तेज हवा के झोंके का आनंद ले रहे थे. लेकिन उन्हे क्या पता था कि एक काला साया पीछे एक दूसरी टॅक्सी मे बैठकर उनका पीछा कर रहा था...
... इंस्पेक्टर धरम हक़ीक़त बयान करते हुए रुक गया. इंस्पेक्टर राज ने वह क्यों रुका यह जान ने के लिए उसके तरफ देखा. इंस्पेक्टर धरम ने सामने रखा ग्लास उतार कर पानी का एक घूँट लिया. तब तक ऑफीस बॉय चाइ पानी लाया था. इंस्पेक्टर धरम ने वह उसके सामने बैठे इंस्पेक्टर राज और उसके साथ आए पवन को परोसने के लिए ऑफीस बॉय को इशारा किया.
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ऑफीस बॉय चाइ पानी लेकर आने से धरम जो हक़ीक़त बता रहा था उसमे व्यवधान पड़ गया. राज को और उसके साथी पवन को आगे की कहानी सुन ने की बड़ी उत्सुकता हो रही थी. सब लोगों का चाइ पानी होने के बाद इंस्पेक्टर धरम फिर से आगे की कहानी बता ने लगा....
.... शरद की और मीनू की टॅक्सी रेलवे स्टेशन पर पहुँच गयी. दोनो टॅक्सी से उतर गये. टॅक्सी वाले का किराया चुका कर वे अपना सामान लेकर टिकेट की खिड़की के पास चले गये. कहाँ जाना है यह उन्होने अब तक तय नही किया था. बस यहाँ से निकल जाना है इतना ही उन्होने तय किया था. एक ट्रेन प्लॅटफार्म पर खड़ी ही थी. शरद ने जल्दी से उसी ट्रेन का टिकेट निकाला.
प्लॅटफार्म पर वे अपना टिकेट लेकर अपना रेलवे डिब्बा ढूँढने लगे. डिब्बा ढूँढने के लिए उन्हे ज़्यादा मशक्कत नही करनी पड़ी. मुख्य दरवाजे से उनका डिब्बा नज़दीक ही था. ट्रेन निकल ने का समय हो गया था इसलिए वे तुरंत डब्बे मे चढ़ गये. डिब्बे मे चढ़ने के बाद उन्होने अपनी सीट्स ढूँढ ली. अपने सीट के पास आपना सारा सामान रख दिया. उतने मे गाड़ी हिलने लगी. गाड़ी निकलने का वक्त हो चुका था. जैसे ही गाड़ी निकलने लगी वैसे मीनू शरद को लेकर डिब्बे के दरवाजे के पास गयी. उसे वहाँ से जाने से पहले अपने शहर को एक बार जी भर के देख लेना था...
ट्रेन मे मीनू और शरद एक दम पास पास बैठे थे. उन्हे दोनो को एक दूसरे का सहारा चाहिए था. आख़िर उन्होने जो फ़ैसला किया था उसके बाद उन्हे बस एक दूसरे का ही तो सहारा था. अपने घर से सारे रिश्ते, सारे बंधन तोड़कर वे बहुत दूर जा रहे थे. मीनू ने आपना सर शरद के कंधे पर रख दिया.
"फिर.... अब कैसा लग रहा है..." शरद ने माहौल थोड़ा हल्का करने के उद्देश्य से पूछा.
"ग्रेट..." मीनू भी झूठ मूठ हंसते हुए बोली.
शरद समझ सकता था कि भले ही वह उपर से दिखा रही हो लेकिन घर छोड़ने का दुख उसको होना लाजमी था. उसे साहारा देने के उद्देश्य से उसने उसे कस कर पकड़ लिया...
"तुम्हे कुछ याद आ रहा है...?" शरद ने उसे और भी कस कर पकड़ते हुए पूछा.
मीनू ने प्रश्नर्थक मुद्रा मे उसकी तरफ देखा.
"नही मतलब कोई घटना कोई प्रसंग... जब मैने तुम्हे ऐसे ही कस कर पकड़ा था.."
"में कैसे भूल सकती हूँ उस घटना को..."मीनू उसने जब ब्लंकेट से लपेट कर उसे कस कर पकड़ा था वह प्रसंग याद कर बोली.
"और तुम भी..."मीनू उसके गाल पर हाथ मलते हुए उसे मारे हुए थप्पड़ की याद देते हुए बोली.
दोनो खिलखिला कर हंस पड़े.
जब दोनो का हँसना थम गया मीनू इतराते हुए उसे बोली, "आइ लव यू..."
"आइ लव यू टू..." उसने उसे और नज़दीक खींचते हुए कहा.
दोनो भी कस कर एक दूसरे के आलिंगन मे बँध हो गये.
मीनू ने ट्रेन की खिड़की से झाँक कर देखा. बाहर सब अंधेरा छाया हुआ था. शरद ने मीनू की तरफ देखा.
"तुम्हे पता है... तुम्हे माफी माँगते वक्त वह फूलों का गुलदस्ता मैं क्यों लाया था...?" शरद फिर से उसे वह माफी माँग ने का प्रसंग याद दिलाते हुए बोला. वह प्रसंग वह कैसे भूल सकता था...? उसी पल मे तो प्रेम के बीज बोए गये थे.
"जाहिर है माफी ज़्यादा एफेक्टिव होना चाहिए इसलिए..." मीनू ने कहा...
"नही... अगर में सच कहूँ तो तुम्हे विश्वास नही होगा..." शरद ने कहा.
"फिर ... क्यों लाया था...?"
"मेरे हाथ फिर से कोई अजीब इशारे कर गड़बड़ ना कर दे इसलिए... नही तो फिर से शायद और एक थप्पड़ मिला होता..." शरद ने कहा.
मीनू और शरद फिर से खिल खिलाकर हंस पड़े.
धीरे धीरे उनकी हँसी थम गयी. फिर थोड़ी देर सब सन्नाटा छाया रहा. सिर्फ़ रेलवे का आवाज़ आता रहा. उस सन्नाटे मे ना जाने क्यूँ मीनू को लगा कि कोई इस ट्रेन मे बैठकर अपना पीछा तो नही कर रहा है...
नही...कैसे मुमकिन है...
हम भाग जानेवाले है यह सिर्फ़ शरद और उसके सिवा और किसी को भी तो पता नही था...
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