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नेहा बड़े चाव से आइस-क्रीम खाने लगी, मेरा नेहा के प्रति प्यार देख भाभी ने मुझसे कहा:
"मानु.. मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूँ|"
मैं: हाँ बोलो ...
भाभी: पता नहीं तुम विश्वास करोगे या नहीं.. तुम्हें तो याद ही होगा उस रात जब हम दोनों हंसी-मजाक कर रहे थे... (इतना कहते हुए भाभी रुक गईं|)
मैं: भौजी मैं आपकी कही हर बात का विश्वास करूँगा.... आप बोलो तो सही ... अपने अंदर कुछ मत छुपाओ....
भाभी: मैंने उस रात के बाद तुम्हारे भैया के साथ कभी भी शारीरिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये!!!
ये सुनते ही मैं दंग रह गया.... भाभी ने अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा ...
भाभी: यही कारन है की अब तुम्हारे भैया ओर मेरे बीच में पटती नहीं है| वे ना तो मुझे अब इस बारे में कुछ कहते हैं .. न ही मैं उनसे इस बारे में कुछ कहती हूँ| हमारे बीच केवल मौखिक रूप से ही बातचीत होती है| यही कारन है की वो अब मेरे साथ कहीं आते-जाते भी नहीं| जब मैंने दिल्ली आने की जिद्द की तो वे बिगड़ गए .. इसीलिए मैंने नेहा को पढ़ाया की वो ससुर जी से जिद्द करे तुम से मिलने की, तुम्हारे भैया ससुर जी का कहना हमेशा मानते हैं|
अब मेरी समझ में आया की आखिर भैया क्यों नहीं आये...
आगे मैं कुछ कह पता इतने में चन्दर भैया मुझे आते हुए नजर आये| भैया मुझसे गले मिले ओर हाल-चाल लिया, जब मैंने उनसे घर ना आने का रन पूछा तो उन्होंने बात टाल दी| भाभी की बात सुन के अब मुझे उनके लिए डर सताने लगा की कहीं भैया भाभी पर हाथ तो नहीं उठाते? मैं इसी उधेड़-बन में था की भैया ने विदा ली और मैं अपनी कश्मकश से बहार आया और कहा की मैं आपको बस में बिठा देता हूँ| बस खचा-खच भरी हुई थी मुझे दो औरतों के बीच एक जगह मिली और मैंने वहां भाभी को बैठा दिया, भैया अभी भी खड़े थे| मैंने भैया को बहार बुलाया और कंडक्टर से बात कराई की जैसे ही जगह मिले मेरे भैया को सीट सबसे पहले दें इसके लिए मैंने कंडक्टर को एक हरी पत्ती भी दे दी| कंडक्टर खुश हो गया और बोला:
" सहब आप चिंता मत करो भाईसाहब को मैं अपनी सीट पर बैठा देता हूँ|"
भैया ये सब देख के खुश थे उन्होंने टिकट के पैसे देने के लिए पैसे आगे बढ़ाये तो मैंने उन्हें मन कर दिया और कहा:
"भैया पिताजी ने कहा था की टिकट मैं ही खरीदूं| आप ये लो टिकट और अंदर कंडक्टर साहब की सीट पे बैठो|"
कंडक्टर से निपट के मैं अंदर आया और भैया से पूछा की आप कुछ खाने के लिए लोगे तो उन्होंने मना कर दिया... मैं भाभी की ओर बढ़ा ओर भाभी से पूछा तो उन्होंने भी मना कर दिया पर मैं मानने वाला कहाँ था मैं झट से नीचे उतरा और दो पैकेट चिप्स और दो ठंडी कोका कोला की बोतल ले आया और एक बोतल और चिप्स भैया को थम दिया और दूसरी बोतल और चिप्स भाभी को दे दी| भाभी न-नकुर करने लगी पर मैंने उन्हें अपनी कसम दे कर जबरदस्ती की| आखिर भाभी मान गईं फिर नेहा की एक पप्पी ले कर भाभी को इशारे में कहा की मैं जल्दी आऊंगा कहके मैं उतर गया|
समय का चक्का एक बार फिर घुमा! मेरी परीक्षा खत्म हुई और मैं पिताजी के पीछे पड़ गया की इस साल गांव जाना है और साथ ही साथ मंदिरों की यात्रा भी करनी है| मैं यूँ ही कभी पिताजी से मांग नहीं करता था और इस बार तो ग्यारहवीं के पेपर वैसे ही बहुत अच्छे हुए थे तो इनाम स्वरुप पिताजी भी तैयार हो गए और उन्होंने गांंव जाने की टिकट निकाल ली| गाँव जाने में अभी केवल दस दिन रह गए थे और मैं मन ही मन अपनी इच्छाओं की लिस्ट बना रहा था|अचानक खबर आई की मेरे दूर के रिश्तेदारी में एक भैया जो गुजरात रहते हैं और वो आज हमसे मिलने दिल्ली आ रहे हैं| मैं और भैया बचपन में एक साथ खेले थे, लड़े थे, झगडे थे... और हमारे बीच में दोस्तों और भाइयों जैसा प्यार था| उनके आने की खबर सुन के थोड़ा सा अचम्भा जर्रूर लगा की यूँ अचानक वो क्यों आ रहे हैं ... और एक डर सताने लगा की कहीं पिताजी इस चक्कर में गांव जाना रद्द न कर दें| मेरा मन एक अजीब सी दुविधा में फंस गया क्योंकि एक तरफ भैया हैं जिनसे मेरी अच्छी पटती है और दूसरी तरफ भाभी हैं जो शायद मेरा कौमार्य भांग कर दें| खेर मेरे हाथ में कुछ नहीं था, इसलिए उन्हें लेने स्वयं पिताजी स्टेशन पहुंचे और वे दोनों घर आ गए| मैंने उनका स्वागत किया और हम बैठके गप्पें मारने लगे| मैं बहुत ही सामान्य तरीके से बात कर रहा था और अपने अंदर उमड़ रहे तूफ़ान को थामे हुए था|
बातों ही बातों में पता चला की वे ज्यादा दिन नहीं रुकेंगे, उनका प्लान केवल 2-4 दिन का ही है| ये सुन के मेरी जान में जान आई की काम से काम गांव जाने का प्लान तो रद्द नहीं होगा| उनके जाने से ठीक एक दिन पहले की बात. मैं और भैया कमरे में बैठे पुराने दिन याद कर रहे थे और खाना खा रहे थे| तभी बातों ही बातों में भैया के मुख से कुछ ऐसा निकला जिससे सुन के मन सन्न रह गया|
भैया: मानु अब तुम बड़े हो गए हो ... मैं तुम्हें एक बात बताना चाहता हूँ| जिंदगी में ऐसे बहुत से क्षण आते हैं जब मनुष्य गलत फैसले लेता है| वो ऐसी रह चुनता है जिसके बारे में वो जानता है की उसे बुराई की और ले जायेगी| तुम ऐसी बुराई से दूर रहना क्योंकि बुराई एक ऐसा दलदल है जिस में जो भी गिरता है वो फंस के रह जाता है|
मैं: आपने बिलकुल सही कहा भैया और मैं ये ध्यान रखूँगा की मैं ऐसा कोई गलत फैसला न लूँ|
उस समय तो मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, परन्तु रात्रि भोज के बाद जब मैं छत पर सैर कर रहा था तब उनकी कही बात के बारे में सोचने लगा| मन असमन्झस स्थिति में पड़ चूका था और दिमाग भैया की बात को सही मान कर मुझे भाभी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने से रोक रहा था| मित्रों मन पे काबू करना इतना आसन होता तो मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कभी न करता| यही कारन था की मैंने मन की बात मानी और फिर से भाभी और अपने सुहाने सपने सजोने लग पड़ा|
आखिर वो दिन आ ही गया जिस दिन हम गांव पहुंचे|
एक अनोखा बंधन
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Re: एक अनोखा बंधन
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अब आगे....
घर पहुँचते ही सब हमारी आव भगत में जुट गए और इस बार मेरी नजरें भाभी को और भी बेसब्री से ढूंढने लगीं| भाभी मेरे लिए अपने हाथों से बना लस्सी की गिलास लेकर आई और मेरे हाथों में थमते हुए अपनी कटीली मुस्कान से मुझे घायल कर गईं| जब वो वापस आई तो उनके हाथ में वही परत का बर्तन था जिसमें वो मेरे पैर धोना चाहती थीं| पर मैं भी अपनी आदत से मजबूर था, मैंने अपने पाँव मोड़ लिए और आलथी-पालथी मार के बैठ गया| भाभी के मुख पे बनावटी गुसा था पर वो बोलीं कुछ नहीं| कुछ देर बाद जब लोगों का मजमा खत्म हुआ तो वो मेरे पास आईं और अपने बनावटी गुस्से में बोलीं:
भाभी: मानु ... मैं तुम से नाराज हूँ|
मैं: पर क्यों? मैंने ऐसा क्या कर दिया?
भाभी: तुमने मुझे अपने पैर क्यों नहीं धोने दिए?
मैं: भाभी आपकी जगह मेरे दिल में है पैरों में नहीं!
(मेरा डायलाग सुन भाभी हंस दी)
भाभी: कौन सी पिक्चर का डायलाग है?
मैं: पता नहीं... पिक्चर देखे तो एक जमाना हो गया|
भाभी: अच्छा जी!
मैं: भाभी अप वचन याद है ना?
भाभी: हाँ बाबा सब याद है... आज ही तो आये हो थोड़ा आराम करो|
मैं: भाभी मेरी थकान तो आपको देखते ही काफूर हो गई और जो कुछ बची-कूची थी भी वो आपके लस्सी के गिलास ने मिटा दी|
हम ज्यादा बात कर पाते इससे पहले ही हमारे गाँव के ठाकुर मुझसे मिलने आ गए| उन्हें देख भाभी ने घूँघट किया और थोड़ी दूर जमीन पर बैठके कुछ काम करने लगीं| एक तो मैं उस ठाकुर को जानता नहीं था और न ही मेरा मन था उससे मिलने का| जब भी गाँव में वो किसी के घर जाता तो सब खड़े हो के उसे प्रणाम करते और पहले वो बैठता उसके बाद उसकी आव-भगत होती| पर यहाँ तो मेरा रवैया देख वो थोड़ा हैरान हुआ और आके सीधा मेरे पास बैठा और मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए बोला:
ठाकुर: और बताओ मुन्ना क्या हाल चाल है| कैसी चल रही है पढ़ाई-लिखाई?
मैं: (मैंने उखड़े स्वर में जवाब दिया) ठीक चल रही है|
ठाकुर: अरे भई अब तो उम्र हो गई शादी ब्याह की और तुम पढ़ाई में जुटे हो| मेरी बात मानो झट से शादी कर लो|
उनका इतना कहना था की भाभी का मुँह बन गया|
ठाकुर: मेरी बेटी से शादी करोगे? ये देखो फोटो... जवान है, सुशील है, खाना बनाने में माहिर है और दसवीं तक पढ़ी भी है वो भी अंग्रेजी स्कूल से|
अब भाभी का मुँह देखने लायक था, उन्हें देख के ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी सौत लाने का प्रस्ताव लेकर आया हो और वो भी उनके सामने|….. शायद अब भाभी को मेरे जवाब का इन्तेजार था...
मैं: देखिये ... आप ये तस्वीर अपने पास रखिये न तो मेरा आपकी बेटी में कोई इंटरेस्ट है और न ही शादी करने का अभी कोई विचार है| मैं अभी और पढ़ना चाहता हूँ.. कुछ बनना चाहता हूँ|
मैंने तस्वीर बिना देखे ही उन्हें लौटा दी थी और मेरा जवाब सुन भाभी को बड़ी तस्सल्ली हुई| ठाकुर अपनी बेइज्जती सुन तिलमिला गया और गुस्से में मेरे पिताजी से मेरी शिकायत करने चला गया|
सच कहूँ तो मैंने ये बात सिर्फ और सिर्फ भाभी को खुश करने को बोली थी... और शयद भाभी मेरी होशियारी समझ चुकी थी... क्योंकि उनका चेहरा मुस्कान से खिल उठा था| फिर भी उन्होंने मुझे छेड़ते हुए पूछा:
"क्यों मानु, तुम्हें लड़कियों में दिलचस्पी नहीं है?"
मैं: भौजी... मुझे तो आप में दिलचस्पी है|
ये बात बिलकुल सच थी... और भाभी मेरा जवाब सुन के खिल-खिला के हँस पड़ी|
सूरज अस्त हो रहा था और अब मेरा मन भाभी को पाने के लिए बेचैन था और मुझे केवल इन्तेजार था तो बस सही मौके का| मेरे भाई जिनकी शादियां हो चुकी थीं उनके बच्चे मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे और मैं विवश हो उनको कुछ कह भी नहीं सकता था| आखिर भाभी ने उन्हें खाना खाने के बहाने बुला लिया और वे सभी मुझे खींचते हुए भाभी के पास रसोई में ले आये| ऐसा लगा जैसे सुहागरात के समय भाभियाँ अपने देवर को कमरे के अंदर धकेल देती हैं| भाभी ने मुझे भी खाना खाने के लिए कहा परन्तु मेरा मन तो कुछ और चाहता था.. मैंने ना में सर हिला दिया| भाभी दबाव डालने लगीं.. परन्तु मैंने उनसे कह दिया:
"भौजी मैं आपके साथ खाना खाऊंगा|" मेरा जवाब सुन भाभी थोड़ा सुन रह गईं.... क्योंकि मैंने इतना धड़ले से उन्हें जवाब दिया था और वो भी उन सभी बच्चों के सामने| वो तो गनीमत थी की बच्चे तब तक खाना खाने बैठ चुके थे और उन्होंने मेरी बात पर ज्यादा गौर नहीं किया| मैं भी भाभी के भाव देख हैरान था की मैंने कौन सा पाप कर दिया... सिर्फ उनके साथ खाना ही तो खाना चाहता हूँ| भाभी ने मुझे इशारे से कुऐं के पास बुलाया और मैं ख़ुशी-ख़ुशी वहां चला गया| अमावस की रात थी.... काफी अँधेरा था... और मेरे मन में मस्ती सूझ रही थी क्योंकि कुऐं के आस-पास रात होने के बाद कोई नहीं जाता था क्योंकि कुऐं में गिरना का खतरा था| जब मैं कुऐं के पास पहुंचा तो देखा भाभी खेतों की तरफ देख रही थी और मैंने पीछे से जाकर भाभी को अपनी बाँहों में जकड़ लिया| भाभी अचानक हुए इस हमले से सकपका गई और मेरी गिरफ्त से छूटती हुई दूर खड़ी हो गई| मैं तो उनका व्यवहार देख हैरान हो गया.. आखिर उन्हें हो क्या गया.. अब कोन सी मक्खी ने उन्हें लात मार दी|
इससे पहले की मैं उनसे कुछ पूछता, वे खुद ही बोलीं:
"मानु तुम्हें अपने ऊपर थोड़ा काबू रखना होगा| ये गावों है.. शहर नहीं.. यहाँ लोग हमें लेकर तरह-तरह की बातें करेंगे| "
मैं: पर भौजी हुआ क्या?
भाभी: अभी तुम ने जो कहा ...की तुम मेरे साथ खाना खाओगे| और अभी तुमने जो मुझे पीछे से पकड़ लिया उसके लिए...
मैं: पर भाभी....
भाभी: पर-वार कुछ नहीं...
मैं: ठीक है| मुझसे गलती हो गई.. मुझे माफ़ कर दो|
इतना कह के मैं वहाँ से चल दिया.. और भाभी मुझे देखती रह गई| शायद उन्हें अपने कहे गए शब्दों पे पछतावा था| मैं वापस आँगन में अपना मुंह लटकाये लौट आया... मन में जितने भी तितलियाँ उड़ रहीं थी उनपे भाभी ने मॉर्टिन स्प्रे मार दिया था| *(मॉर्टिन स्प्रे = कीड़े मारने के काम आता है|)
मैंने अपना बिस्ता स्वयं बिछाने लगा.. तभी चन्दर भैया ने पूछा:
"मानु भैया खाना खा लिया?"
मैं: नहीं भैया... भूख नहीं है|
चन्दर भैया: किसी ने कुछ कहा तुमसे?
मैं: नहीं तो.. पर क्यों?
चन्दर भैया: नहीं भैया कुछ तो बात है जो तुम खाना नहीं खा रहे| मैं अभी सबसे पूछता हूँ की किस ने तुम्हें दुःख दिया है|
मैं: भैया ऐसी कोई बात नहीं है... दरअसल दोपहर में मैंने थोड़ा डट के खाना खा लिया था... इसीलिए भूख नहीं है| ये देखो मैं हाजमोला खाने जा रहा हूँ...
ये कहते हु मैं हाजमोला की शीशी से गोलियां निकाली और खाने लगा| मैं मन ही मन में सोच रहा था की कहाँ तो आज मेरा कौमार्य भांग होना था और कहाँ मैं आज भूके पेट सो रहा हूँ वो भी हाजमोला खा के .... अब पेट में कुछ हो तब तो हाजमोला काम करे| मैंने अपनी चारपाई आँगन में एक कोने पर बिछाई.. बाकि सब से दूर क्योंकि मैं आज अकेला रहना चाहता था| अशोक और अजय भैया ने कहा:
"मानु भैया ... इतनी दूर क्यों सो रहे हो| अपनी चारपाई हमारे पास ले आओ..."
मैं: (बात बनाते जुए) भैया आप लोग बहत थके हुए हो... और थकावट में नींद बड़ी जबरदस्त आती है... और साथ-साथ खरांटे भी|
मेरी बात सुन दोनों खिल-खिला के हंसने लगे और मैं अपने सर पे हाथ रख के सोने की कोशिश करने लगा| पर दोस्तों जब पेट खाली होता है तो नींद नहीं आती... मन उधेड़-बन में लगा हुआ था की काम से काम भाभी मेरी बात तो सुन लेती| मैंने अगर उनके साथ खाना खाने की बात कही तो इसमें बुरा ही क्या था| पहले भी तो हम दोनों एक ही थाली में खाना खाते थे ... अभी मैं अपने मूल्यांकन से बहार ही नहीं आए था की मेरे कानों में खुस-फुसाहट सी आवाज सुनाई पड़ी....
"मानु.. चलो खाना खा लो|"
ये आवाज भाभी की थी.. और मैं अभी भी नाराज था.... इसीलिए मैं कोई जवाब नहीं दिया और ऐसा दिखाया जैसे मैं सो रहा हूँ" तभी उन्होंने मुझे थोड़ा हिलाया....
"मानु मैं जानती हूँ तुम सोये नहीं हो.. भूखे पेट कभी नींद नहीं आती..."
मैं अब भी कुछ नहीं बोला...
"मानु .. मुझे माफ़ कर दो... मेरा गुस्सा खाने पर मत निकालो| देखो कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खान बनाया है|"
मैं अब भी खामोश था...
"देखो अगर तुमने खाना नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊँगी... मैं भी भूखे पेट सो जाउंगी|"
मेर गुस्सा शांत नहीं होने वाल था... मैं अब भी किसी निर्जीव शरीर की तरह पड़ा रहा| भाभी को दर था की कोई हमें इस तरह देख लेगा तो बातें बनाने लगेगा इसीलिए वो वहाँ से उठ के चली गईं| सच कहूँ तो मित्रों मैं उनके साथ जाना चाहता था परन्तु मैं अपने ही द्वारा बोले झूठ में फंस चूका था| अब यदि चन्दर भैया मुझे खाना खाते हुए देख लेता तो समझ लेता की मैंने झूठ बोला था की मेरा पेट भरा हुआ है| अब अगर मैं शहर में अपने घर में होता तो रसोई से कुछ न कुछ खा ही लेता पर गावों में ये काम करने से बहुत डर लग रहा था इसीलिए मैंने सोने की कोशिश की| इस कोशिश को कामयाबी मिलने में बहुत समय लगा .. और मुश्किल से तीन घंटे ही सो पाया की सुबह हो गई|
गावों में तो सभी सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं| मुझे भी मजबूरन उठना पड़ा... अशोक भैया लोटा लेके सोच के लिए जाते दिखाई दिए और मुझे भी साथ आने के लिए कहा| मैंने मन कर दिया... अब उन्हें कैसे कहूँ की पेट में कुछ है ही नहीं तो निकलेगा क्या ख़ाक?!!!
नहा-धो के एक दम टिप-टॉप होक तैयार हो गया की अब सुबह की चाय मिलेगी उससे रात की भूख कुछ शांत होगी| भाभी अपने हाथ में दो चाय ले के मेरा समक्ष प्रकट हो गईं ... मुझसे पूछने लगीं की नींद कैसी आई ? नाराजगी आप भी मन में दही की तरह जमी बैठी थी ... और मैंने उनके हाथ से चाय का कप लेते हुए कहा
"बहुत बढ़िया... इतनी बढ़िया की ... क्या बताऊँ... सोच रहा था की मैं यहाँ आया ही क्यों? इससे अच्छा तो शहर में रहता| "
इतना कहते हुए मैं कप अपने होठों तक लाया की तभी नेहा दौड़ती हुई आई और मेरी टांगों से लिपट गई.. इस अचानक हुई हरकत से मेरे हाथ से कप छूट गया और गर्म-गर्म चाय मेरे तथा नेहा के ऊपर गिर गई| मैं तो जलन सह गया पर नेहा एक दम रो पड़ी.. और भाभी एक दम से तमतमति हुई नेहा को देखने लगी और उसे डाटने लगी,
"ये क्या हरकत है?? .. देख तूने सारी चाय गिरा दी| तुझे पता भी है चाचा ने रात से कुछ नहीं खाया और सुबह की चाय भी तूने गिरा दी... तू ऐसे नहीं मैंने वाली"...
और मारने के लिए हाथ उठाया| नेहा अपनी माँ के मुख पे गुस्सा देख मेरे पीछे छुप गई और सुबक ने लगी| मैंने भाभी का हाथ हवा में ही रोक दिया और नेहा को उठा के मैं अंदर ले आया ताकि जहाँ-जहाँ चाय गिरी थी उस जगह पे दवाई लगा सकूँ| भाभी भी मेरे पीछे-पीछे आई और अपनी चाय मुझे देने लगी:
"इसे छोडो ... ये लो मानु तुम ये चाय पी लो... मैं इसे डआई लगा देती हूँ|"
मैं: नहीं रहने दो... जब मैं आपके साथ खाना नहीं खा सकता तो चाय कैसे पीऊं???
भाभी: अच्छा बाबा मैं दूसरी चाय ले आती हूँ|
ये कहते हुए भाभी मेरे लिए दूसरी चाय लेने चली गईं... और मैं नेहा को चुप करा उसके हाथ पोछें और दवाई लगा दी| नेहा अभी भी सुबक रही थी... मैंने उसे गले लगाया और वो अपनी सुबकती हुई जबान में बोली:
"सॉरी चाचू...."
मैंने उसे कहा की
"कोई बात नहीं.. मैं जब तुम्हारी उम्र का था तो मैं तुमसे भी ज्यादा शरारत करता था| चलो जाके खेलो...मैं तब तक ये कप के टुकड़े हटा देता हूँ नहीं तो किसी के पावों में चुभ जायेंगे|"
अब आगे....
घर पहुँचते ही सब हमारी आव भगत में जुट गए और इस बार मेरी नजरें भाभी को और भी बेसब्री से ढूंढने लगीं| भाभी मेरे लिए अपने हाथों से बना लस्सी की गिलास लेकर आई और मेरे हाथों में थमते हुए अपनी कटीली मुस्कान से मुझे घायल कर गईं| जब वो वापस आई तो उनके हाथ में वही परत का बर्तन था जिसमें वो मेरे पैर धोना चाहती थीं| पर मैं भी अपनी आदत से मजबूर था, मैंने अपने पाँव मोड़ लिए और आलथी-पालथी मार के बैठ गया| भाभी के मुख पे बनावटी गुसा था पर वो बोलीं कुछ नहीं| कुछ देर बाद जब लोगों का मजमा खत्म हुआ तो वो मेरे पास आईं और अपने बनावटी गुस्से में बोलीं:
भाभी: मानु ... मैं तुम से नाराज हूँ|
मैं: पर क्यों? मैंने ऐसा क्या कर दिया?
भाभी: तुमने मुझे अपने पैर क्यों नहीं धोने दिए?
मैं: भाभी आपकी जगह मेरे दिल में है पैरों में नहीं!
(मेरा डायलाग सुन भाभी हंस दी)
भाभी: कौन सी पिक्चर का डायलाग है?
मैं: पता नहीं... पिक्चर देखे तो एक जमाना हो गया|
भाभी: अच्छा जी!
मैं: भाभी अप वचन याद है ना?
भाभी: हाँ बाबा सब याद है... आज ही तो आये हो थोड़ा आराम करो|
मैं: भाभी मेरी थकान तो आपको देखते ही काफूर हो गई और जो कुछ बची-कूची थी भी वो आपके लस्सी के गिलास ने मिटा दी|
हम ज्यादा बात कर पाते इससे पहले ही हमारे गाँव के ठाकुर मुझसे मिलने आ गए| उन्हें देख भाभी ने घूँघट किया और थोड़ी दूर जमीन पर बैठके कुछ काम करने लगीं| एक तो मैं उस ठाकुर को जानता नहीं था और न ही मेरा मन था उससे मिलने का| जब भी गाँव में वो किसी के घर जाता तो सब खड़े हो के उसे प्रणाम करते और पहले वो बैठता उसके बाद उसकी आव-भगत होती| पर यहाँ तो मेरा रवैया देख वो थोड़ा हैरान हुआ और आके सीधा मेरे पास बैठा और मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए बोला:
ठाकुर: और बताओ मुन्ना क्या हाल चाल है| कैसी चल रही है पढ़ाई-लिखाई?
मैं: (मैंने उखड़े स्वर में जवाब दिया) ठीक चल रही है|
ठाकुर: अरे भई अब तो उम्र हो गई शादी ब्याह की और तुम पढ़ाई में जुटे हो| मेरी बात मानो झट से शादी कर लो|
उनका इतना कहना था की भाभी का मुँह बन गया|
ठाकुर: मेरी बेटी से शादी करोगे? ये देखो फोटो... जवान है, सुशील है, खाना बनाने में माहिर है और दसवीं तक पढ़ी भी है वो भी अंग्रेजी स्कूल से|
अब भाभी का मुँह देखने लायक था, उन्हें देख के ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी सौत लाने का प्रस्ताव लेकर आया हो और वो भी उनके सामने|….. शायद अब भाभी को मेरे जवाब का इन्तेजार था...
मैं: देखिये ... आप ये तस्वीर अपने पास रखिये न तो मेरा आपकी बेटी में कोई इंटरेस्ट है और न ही शादी करने का अभी कोई विचार है| मैं अभी और पढ़ना चाहता हूँ.. कुछ बनना चाहता हूँ|
मैंने तस्वीर बिना देखे ही उन्हें लौटा दी थी और मेरा जवाब सुन भाभी को बड़ी तस्सल्ली हुई| ठाकुर अपनी बेइज्जती सुन तिलमिला गया और गुस्से में मेरे पिताजी से मेरी शिकायत करने चला गया|
सच कहूँ तो मैंने ये बात सिर्फ और सिर्फ भाभी को खुश करने को बोली थी... और शयद भाभी मेरी होशियारी समझ चुकी थी... क्योंकि उनका चेहरा मुस्कान से खिल उठा था| फिर भी उन्होंने मुझे छेड़ते हुए पूछा:
"क्यों मानु, तुम्हें लड़कियों में दिलचस्पी नहीं है?"
मैं: भौजी... मुझे तो आप में दिलचस्पी है|
ये बात बिलकुल सच थी... और भाभी मेरा जवाब सुन के खिल-खिला के हँस पड़ी|
सूरज अस्त हो रहा था और अब मेरा मन भाभी को पाने के लिए बेचैन था और मुझे केवल इन्तेजार था तो बस सही मौके का| मेरे भाई जिनकी शादियां हो चुकी थीं उनके बच्चे मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे और मैं विवश हो उनको कुछ कह भी नहीं सकता था| आखिर भाभी ने उन्हें खाना खाने के बहाने बुला लिया और वे सभी मुझे खींचते हुए भाभी के पास रसोई में ले आये| ऐसा लगा जैसे सुहागरात के समय भाभियाँ अपने देवर को कमरे के अंदर धकेल देती हैं| भाभी ने मुझे भी खाना खाने के लिए कहा परन्तु मेरा मन तो कुछ और चाहता था.. मैंने ना में सर हिला दिया| भाभी दबाव डालने लगीं.. परन्तु मैंने उनसे कह दिया:
"भौजी मैं आपके साथ खाना खाऊंगा|" मेरा जवाब सुन भाभी थोड़ा सुन रह गईं.... क्योंकि मैंने इतना धड़ले से उन्हें जवाब दिया था और वो भी उन सभी बच्चों के सामने| वो तो गनीमत थी की बच्चे तब तक खाना खाने बैठ चुके थे और उन्होंने मेरी बात पर ज्यादा गौर नहीं किया| मैं भी भाभी के भाव देख हैरान था की मैंने कौन सा पाप कर दिया... सिर्फ उनके साथ खाना ही तो खाना चाहता हूँ| भाभी ने मुझे इशारे से कुऐं के पास बुलाया और मैं ख़ुशी-ख़ुशी वहां चला गया| अमावस की रात थी.... काफी अँधेरा था... और मेरे मन में मस्ती सूझ रही थी क्योंकि कुऐं के आस-पास रात होने के बाद कोई नहीं जाता था क्योंकि कुऐं में गिरना का खतरा था| जब मैं कुऐं के पास पहुंचा तो देखा भाभी खेतों की तरफ देख रही थी और मैंने पीछे से जाकर भाभी को अपनी बाँहों में जकड़ लिया| भाभी अचानक हुए इस हमले से सकपका गई और मेरी गिरफ्त से छूटती हुई दूर खड़ी हो गई| मैं तो उनका व्यवहार देख हैरान हो गया.. आखिर उन्हें हो क्या गया.. अब कोन सी मक्खी ने उन्हें लात मार दी|
इससे पहले की मैं उनसे कुछ पूछता, वे खुद ही बोलीं:
"मानु तुम्हें अपने ऊपर थोड़ा काबू रखना होगा| ये गावों है.. शहर नहीं.. यहाँ लोग हमें लेकर तरह-तरह की बातें करेंगे| "
मैं: पर भौजी हुआ क्या?
भाभी: अभी तुम ने जो कहा ...की तुम मेरे साथ खाना खाओगे| और अभी तुमने जो मुझे पीछे से पकड़ लिया उसके लिए...
मैं: पर भाभी....
भाभी: पर-वार कुछ नहीं...
मैं: ठीक है| मुझसे गलती हो गई.. मुझे माफ़ कर दो|
इतना कह के मैं वहाँ से चल दिया.. और भाभी मुझे देखती रह गई| शायद उन्हें अपने कहे गए शब्दों पे पछतावा था| मैं वापस आँगन में अपना मुंह लटकाये लौट आया... मन में जितने भी तितलियाँ उड़ रहीं थी उनपे भाभी ने मॉर्टिन स्प्रे मार दिया था| *(मॉर्टिन स्प्रे = कीड़े मारने के काम आता है|)
मैंने अपना बिस्ता स्वयं बिछाने लगा.. तभी चन्दर भैया ने पूछा:
"मानु भैया खाना खा लिया?"
मैं: नहीं भैया... भूख नहीं है|
चन्दर भैया: किसी ने कुछ कहा तुमसे?
मैं: नहीं तो.. पर क्यों?
चन्दर भैया: नहीं भैया कुछ तो बात है जो तुम खाना नहीं खा रहे| मैं अभी सबसे पूछता हूँ की किस ने तुम्हें दुःख दिया है|
मैं: भैया ऐसी कोई बात नहीं है... दरअसल दोपहर में मैंने थोड़ा डट के खाना खा लिया था... इसीलिए भूख नहीं है| ये देखो मैं हाजमोला खाने जा रहा हूँ...
ये कहते हु मैं हाजमोला की शीशी से गोलियां निकाली और खाने लगा| मैं मन ही मन में सोच रहा था की कहाँ तो आज मेरा कौमार्य भांग होना था और कहाँ मैं आज भूके पेट सो रहा हूँ वो भी हाजमोला खा के .... अब पेट में कुछ हो तब तो हाजमोला काम करे| मैंने अपनी चारपाई आँगन में एक कोने पर बिछाई.. बाकि सब से दूर क्योंकि मैं आज अकेला रहना चाहता था| अशोक और अजय भैया ने कहा:
"मानु भैया ... इतनी दूर क्यों सो रहे हो| अपनी चारपाई हमारे पास ले आओ..."
मैं: (बात बनाते जुए) भैया आप लोग बहत थके हुए हो... और थकावट में नींद बड़ी जबरदस्त आती है... और साथ-साथ खरांटे भी|
मेरी बात सुन दोनों खिल-खिला के हंसने लगे और मैं अपने सर पे हाथ रख के सोने की कोशिश करने लगा| पर दोस्तों जब पेट खाली होता है तो नींद नहीं आती... मन उधेड़-बन में लगा हुआ था की काम से काम भाभी मेरी बात तो सुन लेती| मैंने अगर उनके साथ खाना खाने की बात कही तो इसमें बुरा ही क्या था| पहले भी तो हम दोनों एक ही थाली में खाना खाते थे ... अभी मैं अपने मूल्यांकन से बहार ही नहीं आए था की मेरे कानों में खुस-फुसाहट सी आवाज सुनाई पड़ी....
"मानु.. चलो खाना खा लो|"
ये आवाज भाभी की थी.. और मैं अभी भी नाराज था.... इसीलिए मैं कोई जवाब नहीं दिया और ऐसा दिखाया जैसे मैं सो रहा हूँ" तभी उन्होंने मुझे थोड़ा हिलाया....
"मानु मैं जानती हूँ तुम सोये नहीं हो.. भूखे पेट कभी नींद नहीं आती..."
मैं अब भी कुछ नहीं बोला...
"मानु .. मुझे माफ़ कर दो... मेरा गुस्सा खाने पर मत निकालो| देखो कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खान बनाया है|"
मैं अब भी खामोश था...
"देखो अगर तुमने खाना नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊँगी... मैं भी भूखे पेट सो जाउंगी|"
मेर गुस्सा शांत नहीं होने वाल था... मैं अब भी किसी निर्जीव शरीर की तरह पड़ा रहा| भाभी को दर था की कोई हमें इस तरह देख लेगा तो बातें बनाने लगेगा इसीलिए वो वहाँ से उठ के चली गईं| सच कहूँ तो मित्रों मैं उनके साथ जाना चाहता था परन्तु मैं अपने ही द्वारा बोले झूठ में फंस चूका था| अब यदि चन्दर भैया मुझे खाना खाते हुए देख लेता तो समझ लेता की मैंने झूठ बोला था की मेरा पेट भरा हुआ है| अब अगर मैं शहर में अपने घर में होता तो रसोई से कुछ न कुछ खा ही लेता पर गावों में ये काम करने से बहुत डर लग रहा था इसीलिए मैंने सोने की कोशिश की| इस कोशिश को कामयाबी मिलने में बहुत समय लगा .. और मुश्किल से तीन घंटे ही सो पाया की सुबह हो गई|
गावों में तो सभी सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं| मुझे भी मजबूरन उठना पड़ा... अशोक भैया लोटा लेके सोच के लिए जाते दिखाई दिए और मुझे भी साथ आने के लिए कहा| मैंने मन कर दिया... अब उन्हें कैसे कहूँ की पेट में कुछ है ही नहीं तो निकलेगा क्या ख़ाक?!!!
नहा-धो के एक दम टिप-टॉप होक तैयार हो गया की अब सुबह की चाय मिलेगी उससे रात की भूख कुछ शांत होगी| भाभी अपने हाथ में दो चाय ले के मेरा समक्ष प्रकट हो गईं ... मुझसे पूछने लगीं की नींद कैसी आई ? नाराजगी आप भी मन में दही की तरह जमी बैठी थी ... और मैंने उनके हाथ से चाय का कप लेते हुए कहा
"बहुत बढ़िया... इतनी बढ़िया की ... क्या बताऊँ... सोच रहा था की मैं यहाँ आया ही क्यों? इससे अच्छा तो शहर में रहता| "
इतना कहते हुए मैं कप अपने होठों तक लाया की तभी नेहा दौड़ती हुई आई और मेरी टांगों से लिपट गई.. इस अचानक हुई हरकत से मेरे हाथ से कप छूट गया और गर्म-गर्म चाय मेरे तथा नेहा के ऊपर गिर गई| मैं तो जलन सह गया पर नेहा एक दम रो पड़ी.. और भाभी एक दम से तमतमति हुई नेहा को देखने लगी और उसे डाटने लगी,
"ये क्या हरकत है?? .. देख तूने सारी चाय गिरा दी| तुझे पता भी है चाचा ने रात से कुछ नहीं खाया और सुबह की चाय भी तूने गिरा दी... तू ऐसे नहीं मैंने वाली"...
और मारने के लिए हाथ उठाया| नेहा अपनी माँ के मुख पे गुस्सा देख मेरे पीछे छुप गई और सुबक ने लगी| मैंने भाभी का हाथ हवा में ही रोक दिया और नेहा को उठा के मैं अंदर ले आया ताकि जहाँ-जहाँ चाय गिरी थी उस जगह पे दवाई लगा सकूँ| भाभी भी मेरे पीछे-पीछे आई और अपनी चाय मुझे देने लगी:
"इसे छोडो ... ये लो मानु तुम ये चाय पी लो... मैं इसे डआई लगा देती हूँ|"
मैं: नहीं रहने दो... जब मैं आपके साथ खाना नहीं खा सकता तो चाय कैसे पीऊं???
भाभी: अच्छा बाबा मैं दूसरी चाय ले आती हूँ|
ये कहते हुए भाभी मेरे लिए दूसरी चाय लेने चली गईं... और मैं नेहा को चुप करा उसके हाथ पोछें और दवाई लगा दी| नेहा अभी भी सुबक रही थी... मैंने उसे गले लगाया और वो अपनी सुबकती हुई जबान में बोली:
"सॉरी चाचू...."
मैंने उसे कहा की
"कोई बात नहीं.. मैं जब तुम्हारी उम्र का था तो मैं तुमसे भी ज्यादा शरारत करता था| चलो जाके खेलो...मैं तब तक ये कप के टुकड़े हटा देता हूँ नहीं तो किसी के पावों में चुभ जायेंगे|"
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Re: एक अनोखा बंधन
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अब आगे....
मैं कप के टुकड़े इकठ्ठा करने लगा... तभी भाभी आईं और वाही अपना कप मेरी तरफ बढ़ा दिया... मुझे शक हुआ तो मैंने पूछ लिया:
मैं: आपकी चाय कहाँ है?
भाभी: मैंने पी ली... तुम ये चाय पीओ मैं ये टुकड़े उठती हूँ|
ना जाने क्यों पर भाभी मुझसे नजरें चुरा रही थी...
मैं: खाओ मेरी कसम की आपने चाय पी ली?
भाभी: क्यों? मैं कोई कसम- वसम नहीं खाती .. तुम ये चाय पी लो|
मैं: भाभी जूठ मत बोलो ... मैं जानता हूँ तुमने चाय नहीं पी क्योंकि चाय खत्म हो चुकी है|
तभी वहाँ मेरा भाई गट्टू आ गया, वो मुझसे तकरीबन 1 साल बड़ा था|
गट्टू: अरे ये कप कैसे टुटा?
मैं: मुझसे छूट गया... और तुम सुनाओ क्या हाल-चाल है| (मैंने बात पलटते हुए कहा)
गट्टू: मनु चलो मेरे साथ.. तुम दोस्तों से मिलता हूँ|
मैं: हाँ चलो....
भाभी: अरे गट्टू कहाँ ले जा रहे हो मानु को... चाय तो पी लेने दो.. कल रात से कुछ नहीं खाया|
मैं: तू चल भाई... मैंने चाय पी ली है.. ये भाभी की चाय है|
इतना कहता हुए हम दोनों निकल पड़े| इसे कहते हैं मित्रों की होठों तक आती हुई चाय भी नसीब नहीं हुई|
गट्टू के मित्रों से मिलने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी... पर अब भाभी का सामना करने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी| दोपहर हुई और भोजन के लिए मैं गट्टू के साथ घर लौट आया.... भोजन हमेशा की तरह भाभी ने बनाया था... और न जाने क्यों पर खाने की इच्छा नहीं हुई| रह-रह कर भाभी की बातें दिल में सुई की तरह चुभ रही थी और मैं भाभी से नजरें चुरा रहा था| बहार सब लोग रसोई के पास बैठे भोजन कर रहे थे और इधर मैं अपने कमरे में आगया और चारपाई पर बैठ कुछ सोचने लगा| भूख तो अब जैसे महसूस ही नहीं हो रही थी... माँ मुझे ढूंढते हुए कामे में आ गई और भोजन के लिए जोर डालने लगी| माँ ये तो समझ चुकी थी की कुछ तो गड़बड़ है मेरे साथ... पर क्या इसका अंदाजा नहीं था उन्हें| माँ जानती थी की गाओं में केवल एक ही मेरा सच्चा दोस्त है और वो है "भाभी"! माँ भाभी को बुलाने गई और इतने में भाभी भोजन की दो थालियाँ ले आई|
मैं समझ चूका था की भाभी मेरे और मम्मी के लिए भोजन परोस के लाइ हैं| भाभी ने दोनों थालियाँ सामने मेज पर राखी और मेरे सामने आकर अपने घुटनों पे आइन और मेरा चेहरा जो नीचे झुका हुआ था उसे उठाते हुए मेरी आँखों में देखते हुए रुँवाँसी होके बोली....
"मानु .... मुझे माफ़ कर दो!"
मैं: आखिर मेरा कसूर ही क्या था??? सिर्फ आपके साथ भोजन ही तो करना चाहता था... जैसे हम पहले साथ-साथ भोजन किया करते थे.... इसके लिए भी आपको दुनिया दारी की चिंता है??? तो ठीक है आप सम्भालो दुनिया दारी को... मुझे तो लगा था की आप मुझसे प्यार करते हो पर आपने तो अपने और मेरे बीच में लकीर ही खींच दी ....
भाभी: मानु... मेरी बात तो एक बार सुन लो... उसके बाद तुम जो सजा दोगे मुझे मंजूर है|
मैं चुप हो गया और उन्हें अपनी बात कहने का मौका देने लगा...
भाभी: (भाभी ने अपना सीधा हाथ मेरे सर पे रख दिया और कहने लगीं) तुम्हारे भैया कल दोपहर को मेरे साथ सम्भोग करना चाहते थे... जब मैंने उन्हें मन किया तो वो भड़क गए और मेरी और उनकी तू-तू मैं-मैं हो गई! और उनका गुस्सा मैंने गलती से तुम पे निकाल दिया... इसके लिए मुझे माफ़ कर दो| कल रात से तुम्हारे साथ मैंने भी कुछ नहीं खाया... सुबह की चाय तक नहीं...
मैं: आपको कसम खाने की कोई जर्रूरत नहीं है... मैं आप पर आँख मुंड के विश्वास करता हूँ|
और मैंने अपने हाथ से भाभी के आंसूं पोंछें| तभी माँ भी आ गईं.. शुक्र था की माँ ने हमारी कोई बात नहीं सुनी थी.... भाभी ने एक थाली माँ को दे दी और दूसरी थाली ले कर मेरे सामने पलंग पे बैठ गईं| मैं थोड़ा हैरान था...
भाभी: चलो मानु शुरू करो...
मैं: आप मेरे साथ एक ही थाली में खाना खाओगी?
भाभी: क्यों? तुम मेरे झूठा नहीं खाओगे?
माँ: जब छोटा था तो भाभी का पीछा नहीं छोड़ता था... भाभी ही तुझे खाना खिलाती थी और अब ड्रामे तो देखो इसके...
माँ की बात सुन भाभी मुस्कुरा दीं.. और मैं ही मुस्कुरा दिया.... माँ ने खाना जल्दी खत्म किया और अपने बर्तन लेकर रसोई की तरफ चल दीं| कमरे में केवल मैं और भाभी ही रह गए थे.. मुझे शरारत सूझी और मैंने भाभी से कहा:
"भाभी खाना तो हो गया... पर मीठे में क्या है?" भाभी: मीठे में एक बड़ी ख़ास चीज है...
मैं: वो क्या?
भाभी: अपनी आँखें बंद करो!!!
मैं : लो कर ली
भाभी धीरे-धीरे आगे बढ़ीं और मेरे थर-थराते होंठों पे अपने होंठ रख दिए| भाभी की प्यास मैं साफ़ महसूस कर प् रहा था... मैं उनके लबों को अपने मुझ में भर के उनका रस पीना चाहता था परन्तु उन्होंने मेरे होठों को निचोड़ना शुरू कर दिया था और मैं इस मर्दन को रोकना नहीं चाहता था| भाभी सच में बहुत प्यासी थी... इतनी प्यासी की एक पल केलिए तो मुझे लगा की भाभी को अगर मौका मिल गया तो वो मुझे खा जाएँगी|भाभी ने तो मुझे सँभालने का मौका भी नहीं दिया था... और बारी-बारी मेरे होंठों को चूसने में लगीं थी| मैं मदहोश होता जा रहा था... मैंने तो अपने जीवन में ऐसे सुख की कल्पना भी नहीं की थी| नीचे मेरे लंड का हाल मुझसे भी बत्तर था... वो तो जैसे फटने को तैयार था| मैंने अपना हाथ भाभी के स्तन पे रखा और उन्हें धीरे-धीरे मसलने लगा| भाभी ने चुम्बन तोडा.... और उनके मुख से सिकरिया फुट पड़ीं...
" स्स्स्स्स....मानु...आअह्ह्ह्ह ! रुको......"
मेरा अपने ऊपर से काबू छूट रहा था और मैं मर्यादा लांघने के लिए तैयार था... शायद भाभी का भी यही हाल था|
उन्होंने अचानक ही मुझे झिंझोड़ के रोक दिया...
"मानु अभी नहीं... कोई आ जायेगा| आज रात जब सब सो जायेंगे तब जो चाहे कर लेना .. मैं नहीं रोकूँगी.."
मैं: भौजी मुँह मीठा कर के मजा आ गया|
भाभी: अच्छा??
मैं: भौजी इस बार तो कहीं आप अपने मायके तो नहीं भाग जाओगी?
भाभी: नहीं मानु...वादा करती हूँ ...और अगर गई भी तो तुम्हें साथ ले जाउंगी|
मैं: और अपने घर में सब से क्या कहोगी की मुझे अपने संग क्यों लाई हो?
भाभी: कह दूंगी की ससुराल से दहेज़ में तुम मिले हो....
और हम दोनों खिल-खिला के हंसने लगे|
मैं: अब शाम तक इन्तेजार कैसे करूँ?
भाभी: मानु सब्र का फल मीठा होता है!
इतना कह के भाभी मुस्कुराते हुए उठीं... मैंने जैसे-तैसे अपने आप को रोका ... अपनी इच्छाओं पे काबू पाना इतना आसान नहीं होता| खेर भाभी भी अपनी थाली ले कर रसोई की ओर चलीं गईं| मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया...
शाम होने का इन्तेजार करना बहुत मुश्किल था.... एक-एक क्षण मानो साल जैसा प्रतीत हो रहा था| मैंने सोचा की अगर रात को जो होगा सो होगा काम से काम अभी तो भाभी के साथ थोड़ी मस्ती की जाए|भाभी बर्तन रसोई में रख अपने कमरे में थी.. और संदूक में कपडे रख रही थी| मैंने पीछे से भाभी को फिर से दबोच लिया और अपने हाथ उनके वक्ष पे रख उन्हें होल-होल दबाने लगा| भाभी मेरी बाँहों में कसमसा रही थी और छूटने की नाकाम कोशिश करने लगी|
"स्स्स्स्स ....उम्म्म्म्म ... छोड़ो...ना..!!!!"
मैंने बेदर्दी ना दिखाते हुए उन्हें जल्दी ही अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया... पर मुझे ये नहीं पता था की ये तो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जो हर स्त्री में होती है| अंदर ही अंदर तो भाभी चाहती होंगी की हम कभी अलग ही ना हों|
भाभी: मानु तुम से सब्र नहीं होता ना....
मैं: भाभी अपने ही तो आग लगाईं थी... अब आग इतनी जल्दी शांत कैसे होगी|
भाभी को दर था की कहीं कोई हमें एक कमरे में अकेले देख ले तो लोग बातें बनाएंगे.. इसलिए वो बहार चली आईं और मैं भी उनके पीछे-पीछे बहार आ गया|
अब मैं आपको जरा घर के बाकी सदस्यों के बारे में विस्तार में परिचित कराता हूँ:
१. अशोक भैया (चन्दर भैया से छोटे) उनकी शादी हो चुकी थी... उनकी पत्नी का नाम संगीता है और उनके पुत्र का नाम : श्याम और शहर में एक कंपनी में चपरासी हैं| वे गाँव केवल जून के महीने में ही आते हैं|
२. अजय भैया (अशोक भैया से छोटे) उनकी शादी भी हो चुकी है और उनकी पत्नी का नाम रसिका है और एक पुत्र जिसका नाम: वरुण है और वे खेती-बाड़ी सँभालते हैं|
३. अनिल भैया के रिश्ते की बात अभी चल रही है और वे चंडीगढ़ में होटल में बावर्ची हैं|
४. गट्टू और मेरी उम्र में ज्यादा अंतर नहीं है इसलिए उसकी अभी शादी नहीं हुई और अभी पढ़ रहा है|
मित्रों मैं आपको एक नक़्शे द्वारा समझाना चाहूंगा की हमारा गांव आखिर दीखता कैसा है:
चन्दर भैया की शादी सबसे पहले हुई थी और वे परिवार के सबसे बड़े लड़के थे इसीलिए उनका घर अलग है| उनके घर में केवल एक कमरा ..एक छोटा सा आँगन और नहाने के लिए एक स्नान गृह है|
बाकी भाई सब बड़े घर में ही रहते हैं| उस घर में बीच में एक आँगन है और पाँच कमरे हैं| हमसभी उसी घर में ठहरे हैं| सभी लोग घर के प्रमुख आँगन में ही सोते हैं परन्तु सब की चारपाई का कोई सिद्ध स्थान नहीं है.. कोई भी कहीं भी सो सकता है|
आप लोग भी सोचते होंगे की मैं कैसा भतीजा हूँ जो अपने मझिले दादा (बीच वाले चाचा जी) को भूल गया और उनके परिवार के बारे में कुछ नहीं बताया| तो मित्रों दरअसल जब मैंने लिखना शुरू किया था तब ये नहीं सोचा था की मैं अपनी आप बीती को पूरा कर पाउँगा... क्योंकि मुझे लगा था की आप सभी श्रोता ऊब जायेंगे.. क्योंकि मेरी आप बीती में कोई लम्बा इरोटिक सीन ही नहीं है... परन्तु आप सबके प्यार के कारन मैं अपनी आप बीती खत्म होने पर कुछ रोचक मोड़ अवश्य लाऊंगा की आप सभी श्रोता खुश हो जायेंगे|
अजय भैया और रसिका भाभी में बिलकुल नहीं बनती थी... और दोनों छोटी-छोटी बात पे लड़ते रहते थे| रसिका भाभी अपना गुस्सा अपने बच्चे वरुण पे उतारती| वो बिचारा दोनों के बीच में घुन की तरह पीस रहा था... पिताजी और माँ ने बहुत कोशिश की परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ|
मैं जब से गावों आया था तब से मेरी रसिका भाभी से बात करने की हिम्मत नहीं होती... वो ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती... घर का कोई काम नहीं करती| जब कोई काम करने को कहता तो अपनी बिमारी का बहन बना लेती| बाकी बच्चों की तरह वरुण भी मेरी ही गोद में खेलता रहता... मैं तो अपने गावों का जगत चाचा बन गया था.. हर बच्चा मेरे साथ ही रहना चाहता था इसी कारन मुझे भाभी के साथ अकेले रहने का समय नहीं मिल पता था|
शाम को फिर से अजय भैया और रसिका भाभी का झगड़ा हो गया... और बिचारा वरुण रोने लगा| भाभी ने मुझे वरुण को अपने पास ले आने को कहा.. और मैं फटा-फैट वरुण को अपने साथ बहार ले आया| वरुण का रोना चुप ही नहीं हो रहा था... बड़ी मुश्किल से मैंने उसे पुचकार के आधा किलोमीटर घुमाया और जब मुझे लगा की वो सो गया है तब मैंने उसे भाभी को सौंप दिया| जब भाभी मेरी गोद से वरुण को ले रही थी तो मैंने शरारत की.. और उनके निप्पलों को अपने अंगूठे में भर हल्का सा मसल दिया| भाभी विचलित हो उठी और मुस्कुराती हुई प्रमुख आँगन में पड़ी चारपाई इ वरुण को लिटा दिया|
रात हो चुकी थी और अँधेरा हो चूका था... भाभी जानती थी की मैं खाना उनके साथ ही खाऊंगा परन्तु सब के सामने??? उनकी चिंता का हल मैंने ही कर दिया:
मैं: भौजी मुझे भी खाना दे दो....
भाभी मेरा खाना परोस के लाई और खुस-फुसते हुए कहने लगी:
भाभी: मानु क्या नाराज हो मुझ से?
मैं: नहीं तो!
भाभी: तो आज मेरे साथ खाना नहीं खाओगे?
मैं: भाभी आप भी जानते हो की दोपहर की बात और थी ... अभी आप मेरे साथ खाना खाओगी तो चन्दर भैया नाराज होंगे| .....
भाभी मेरी ओर देखते हुए मुस्कुराई ओर मेरी ठुड्डी पकड़ी ओर प्यार से हिलाई!!!
भाभी: बहुत समझदार हो गए हो?
मैं: वो तो है.. सांगत ही ऐसी मिली है.. ओर वैसे भी आप मेरे हिस्से का खाना खा जाती हो|
(मैंने उन्हें छेड़ते हुए कहा|)
भाभी ने अपनी नाराज़गी ओर प्यार दिखाते हुए प्यार से मेरी पीठ पे थप-थपाया| मैंने जल्दी-जल्दी से खाना खाया और अपने बिस्तर पे लेट गया और ऐसे जताया जैसे मुझे नींद आ गई हो| असल मुझे बस इन्तेजार था की कब भाभी खाना खाएं और कब बाकी सब घर वाले अपने-अपने बिस्तर में घुस घोड़े बेच सो जाएं| और तब मैं और भाभी अपना काम पूरा कर लें| इसीलिए मैं आँखें बंद किये सोने का नाटक करने लगा ... पेट भरा होने के कारन नींद आने लगी थी... मैं बाथरूम जाने के बहाने उठा की देखूं की भाभी ने खाना खया है की नहीं... तभी भाभी और अम्मा मुझे खाना कहते हुए दिखाई दिए| मैं बाथरूम जाने के बाद जानबूझ के रसोई की तरफ से आया ताकि भाभी मुझे देख ले और उन्हें ये पक्का हो जाये की मैं सोया नहीं हूँ और साथ ही साथ मैंने मोआयने कर लिया था की कौन-कौन जाग रहा है और कौन-कौन सो गया है|
अब आगे....
मैं कप के टुकड़े इकठ्ठा करने लगा... तभी भाभी आईं और वाही अपना कप मेरी तरफ बढ़ा दिया... मुझे शक हुआ तो मैंने पूछ लिया:
मैं: आपकी चाय कहाँ है?
भाभी: मैंने पी ली... तुम ये चाय पीओ मैं ये टुकड़े उठती हूँ|
ना जाने क्यों पर भाभी मुझसे नजरें चुरा रही थी...
मैं: खाओ मेरी कसम की आपने चाय पी ली?
भाभी: क्यों? मैं कोई कसम- वसम नहीं खाती .. तुम ये चाय पी लो|
मैं: भाभी जूठ मत बोलो ... मैं जानता हूँ तुमने चाय नहीं पी क्योंकि चाय खत्म हो चुकी है|
तभी वहाँ मेरा भाई गट्टू आ गया, वो मुझसे तकरीबन 1 साल बड़ा था|
गट्टू: अरे ये कप कैसे टुटा?
मैं: मुझसे छूट गया... और तुम सुनाओ क्या हाल-चाल है| (मैंने बात पलटते हुए कहा)
गट्टू: मनु चलो मेरे साथ.. तुम दोस्तों से मिलता हूँ|
मैं: हाँ चलो....
भाभी: अरे गट्टू कहाँ ले जा रहे हो मानु को... चाय तो पी लेने दो.. कल रात से कुछ नहीं खाया|
मैं: तू चल भाई... मैंने चाय पी ली है.. ये भाभी की चाय है|
इतना कहता हुए हम दोनों निकल पड़े| इसे कहते हैं मित्रों की होठों तक आती हुई चाय भी नसीब नहीं हुई|
गट्टू के मित्रों से मिलने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी... पर अब भाभी का सामना करने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी| दोपहर हुई और भोजन के लिए मैं गट्टू के साथ घर लौट आया.... भोजन हमेशा की तरह भाभी ने बनाया था... और न जाने क्यों पर खाने की इच्छा नहीं हुई| रह-रह कर भाभी की बातें दिल में सुई की तरह चुभ रही थी और मैं भाभी से नजरें चुरा रहा था| बहार सब लोग रसोई के पास बैठे भोजन कर रहे थे और इधर मैं अपने कमरे में आगया और चारपाई पर बैठ कुछ सोचने लगा| भूख तो अब जैसे महसूस ही नहीं हो रही थी... माँ मुझे ढूंढते हुए कामे में आ गई और भोजन के लिए जोर डालने लगी| माँ ये तो समझ चुकी थी की कुछ तो गड़बड़ है मेरे साथ... पर क्या इसका अंदाजा नहीं था उन्हें| माँ जानती थी की गाओं में केवल एक ही मेरा सच्चा दोस्त है और वो है "भाभी"! माँ भाभी को बुलाने गई और इतने में भाभी भोजन की दो थालियाँ ले आई|
मैं समझ चूका था की भाभी मेरे और मम्मी के लिए भोजन परोस के लाइ हैं| भाभी ने दोनों थालियाँ सामने मेज पर राखी और मेरे सामने आकर अपने घुटनों पे आइन और मेरा चेहरा जो नीचे झुका हुआ था उसे उठाते हुए मेरी आँखों में देखते हुए रुँवाँसी होके बोली....
"मानु .... मुझे माफ़ कर दो!"
मैं: आखिर मेरा कसूर ही क्या था??? सिर्फ आपके साथ भोजन ही तो करना चाहता था... जैसे हम पहले साथ-साथ भोजन किया करते थे.... इसके लिए भी आपको दुनिया दारी की चिंता है??? तो ठीक है आप सम्भालो दुनिया दारी को... मुझे तो लगा था की आप मुझसे प्यार करते हो पर आपने तो अपने और मेरे बीच में लकीर ही खींच दी ....
भाभी: मानु... मेरी बात तो एक बार सुन लो... उसके बाद तुम जो सजा दोगे मुझे मंजूर है|
मैं चुप हो गया और उन्हें अपनी बात कहने का मौका देने लगा...
भाभी: (भाभी ने अपना सीधा हाथ मेरे सर पे रख दिया और कहने लगीं) तुम्हारे भैया कल दोपहर को मेरे साथ सम्भोग करना चाहते थे... जब मैंने उन्हें मन किया तो वो भड़क गए और मेरी और उनकी तू-तू मैं-मैं हो गई! और उनका गुस्सा मैंने गलती से तुम पे निकाल दिया... इसके लिए मुझे माफ़ कर दो| कल रात से तुम्हारे साथ मैंने भी कुछ नहीं खाया... सुबह की चाय तक नहीं...
मैं: आपको कसम खाने की कोई जर्रूरत नहीं है... मैं आप पर आँख मुंड के विश्वास करता हूँ|
और मैंने अपने हाथ से भाभी के आंसूं पोंछें| तभी माँ भी आ गईं.. शुक्र था की माँ ने हमारी कोई बात नहीं सुनी थी.... भाभी ने एक थाली माँ को दे दी और दूसरी थाली ले कर मेरे सामने पलंग पे बैठ गईं| मैं थोड़ा हैरान था...
भाभी: चलो मानु शुरू करो...
मैं: आप मेरे साथ एक ही थाली में खाना खाओगी?
भाभी: क्यों? तुम मेरे झूठा नहीं खाओगे?
माँ: जब छोटा था तो भाभी का पीछा नहीं छोड़ता था... भाभी ही तुझे खाना खिलाती थी और अब ड्रामे तो देखो इसके...
माँ की बात सुन भाभी मुस्कुरा दीं.. और मैं ही मुस्कुरा दिया.... माँ ने खाना जल्दी खत्म किया और अपने बर्तन लेकर रसोई की तरफ चल दीं| कमरे में केवल मैं और भाभी ही रह गए थे.. मुझे शरारत सूझी और मैंने भाभी से कहा:
"भाभी खाना तो हो गया... पर मीठे में क्या है?" भाभी: मीठे में एक बड़ी ख़ास चीज है...
मैं: वो क्या?
भाभी: अपनी आँखें बंद करो!!!
मैं : लो कर ली
भाभी धीरे-धीरे आगे बढ़ीं और मेरे थर-थराते होंठों पे अपने होंठ रख दिए| भाभी की प्यास मैं साफ़ महसूस कर प् रहा था... मैं उनके लबों को अपने मुझ में भर के उनका रस पीना चाहता था परन्तु उन्होंने मेरे होठों को निचोड़ना शुरू कर दिया था और मैं इस मर्दन को रोकना नहीं चाहता था| भाभी सच में बहुत प्यासी थी... इतनी प्यासी की एक पल केलिए तो मुझे लगा की भाभी को अगर मौका मिल गया तो वो मुझे खा जाएँगी|भाभी ने तो मुझे सँभालने का मौका भी नहीं दिया था... और बारी-बारी मेरे होंठों को चूसने में लगीं थी| मैं मदहोश होता जा रहा था... मैंने तो अपने जीवन में ऐसे सुख की कल्पना भी नहीं की थी| नीचे मेरे लंड का हाल मुझसे भी बत्तर था... वो तो जैसे फटने को तैयार था| मैंने अपना हाथ भाभी के स्तन पे रखा और उन्हें धीरे-धीरे मसलने लगा| भाभी ने चुम्बन तोडा.... और उनके मुख से सिकरिया फुट पड़ीं...
" स्स्स्स्स....मानु...आअह्ह्ह्ह ! रुको......"
मेरा अपने ऊपर से काबू छूट रहा था और मैं मर्यादा लांघने के लिए तैयार था... शायद भाभी का भी यही हाल था|
उन्होंने अचानक ही मुझे झिंझोड़ के रोक दिया...
"मानु अभी नहीं... कोई आ जायेगा| आज रात जब सब सो जायेंगे तब जो चाहे कर लेना .. मैं नहीं रोकूँगी.."
मैं: भौजी मुँह मीठा कर के मजा आ गया|
भाभी: अच्छा??
मैं: भौजी इस बार तो कहीं आप अपने मायके तो नहीं भाग जाओगी?
भाभी: नहीं मानु...वादा करती हूँ ...और अगर गई भी तो तुम्हें साथ ले जाउंगी|
मैं: और अपने घर में सब से क्या कहोगी की मुझे अपने संग क्यों लाई हो?
भाभी: कह दूंगी की ससुराल से दहेज़ में तुम मिले हो....
और हम दोनों खिल-खिला के हंसने लगे|
मैं: अब शाम तक इन्तेजार कैसे करूँ?
भाभी: मानु सब्र का फल मीठा होता है!
इतना कह के भाभी मुस्कुराते हुए उठीं... मैंने जैसे-तैसे अपने आप को रोका ... अपनी इच्छाओं पे काबू पाना इतना आसान नहीं होता| खेर भाभी भी अपनी थाली ले कर रसोई की ओर चलीं गईं| मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया...
शाम होने का इन्तेजार करना बहुत मुश्किल था.... एक-एक क्षण मानो साल जैसा प्रतीत हो रहा था| मैंने सोचा की अगर रात को जो होगा सो होगा काम से काम अभी तो भाभी के साथ थोड़ी मस्ती की जाए|भाभी बर्तन रसोई में रख अपने कमरे में थी.. और संदूक में कपडे रख रही थी| मैंने पीछे से भाभी को फिर से दबोच लिया और अपने हाथ उनके वक्ष पे रख उन्हें होल-होल दबाने लगा| भाभी मेरी बाँहों में कसमसा रही थी और छूटने की नाकाम कोशिश करने लगी|
"स्स्स्स्स ....उम्म्म्म्म ... छोड़ो...ना..!!!!"
मैंने बेदर्दी ना दिखाते हुए उन्हें जल्दी ही अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया... पर मुझे ये नहीं पता था की ये तो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जो हर स्त्री में होती है| अंदर ही अंदर तो भाभी चाहती होंगी की हम कभी अलग ही ना हों|
भाभी: मानु तुम से सब्र नहीं होता ना....
मैं: भाभी अपने ही तो आग लगाईं थी... अब आग इतनी जल्दी शांत कैसे होगी|
भाभी को दर था की कहीं कोई हमें एक कमरे में अकेले देख ले तो लोग बातें बनाएंगे.. इसलिए वो बहार चली आईं और मैं भी उनके पीछे-पीछे बहार आ गया|
अब मैं आपको जरा घर के बाकी सदस्यों के बारे में विस्तार में परिचित कराता हूँ:
१. अशोक भैया (चन्दर भैया से छोटे) उनकी शादी हो चुकी थी... उनकी पत्नी का नाम संगीता है और उनके पुत्र का नाम : श्याम और शहर में एक कंपनी में चपरासी हैं| वे गाँव केवल जून के महीने में ही आते हैं|
२. अजय भैया (अशोक भैया से छोटे) उनकी शादी भी हो चुकी है और उनकी पत्नी का नाम रसिका है और एक पुत्र जिसका नाम: वरुण है और वे खेती-बाड़ी सँभालते हैं|
३. अनिल भैया के रिश्ते की बात अभी चल रही है और वे चंडीगढ़ में होटल में बावर्ची हैं|
४. गट्टू और मेरी उम्र में ज्यादा अंतर नहीं है इसलिए उसकी अभी शादी नहीं हुई और अभी पढ़ रहा है|
मित्रों मैं आपको एक नक़्शे द्वारा समझाना चाहूंगा की हमारा गांव आखिर दीखता कैसा है:
चन्दर भैया की शादी सबसे पहले हुई थी और वे परिवार के सबसे बड़े लड़के थे इसीलिए उनका घर अलग है| उनके घर में केवल एक कमरा ..एक छोटा सा आँगन और नहाने के लिए एक स्नान गृह है|
बाकी भाई सब बड़े घर में ही रहते हैं| उस घर में बीच में एक आँगन है और पाँच कमरे हैं| हमसभी उसी घर में ठहरे हैं| सभी लोग घर के प्रमुख आँगन में ही सोते हैं परन्तु सब की चारपाई का कोई सिद्ध स्थान नहीं है.. कोई भी कहीं भी सो सकता है|
आप लोग भी सोचते होंगे की मैं कैसा भतीजा हूँ जो अपने मझिले दादा (बीच वाले चाचा जी) को भूल गया और उनके परिवार के बारे में कुछ नहीं बताया| तो मित्रों दरअसल जब मैंने लिखना शुरू किया था तब ये नहीं सोचा था की मैं अपनी आप बीती को पूरा कर पाउँगा... क्योंकि मुझे लगा था की आप सभी श्रोता ऊब जायेंगे.. क्योंकि मेरी आप बीती में कोई लम्बा इरोटिक सीन ही नहीं है... परन्तु आप सबके प्यार के कारन मैं अपनी आप बीती खत्म होने पर कुछ रोचक मोड़ अवश्य लाऊंगा की आप सभी श्रोता खुश हो जायेंगे|
अजय भैया और रसिका भाभी में बिलकुल नहीं बनती थी... और दोनों छोटी-छोटी बात पे लड़ते रहते थे| रसिका भाभी अपना गुस्सा अपने बच्चे वरुण पे उतारती| वो बिचारा दोनों के बीच में घुन की तरह पीस रहा था... पिताजी और माँ ने बहुत कोशिश की परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ|
मैं जब से गावों आया था तब से मेरी रसिका भाभी से बात करने की हिम्मत नहीं होती... वो ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती... घर का कोई काम नहीं करती| जब कोई काम करने को कहता तो अपनी बिमारी का बहन बना लेती| बाकी बच्चों की तरह वरुण भी मेरी ही गोद में खेलता रहता... मैं तो अपने गावों का जगत चाचा बन गया था.. हर बच्चा मेरे साथ ही रहना चाहता था इसी कारन मुझे भाभी के साथ अकेले रहने का समय नहीं मिल पता था|
शाम को फिर से अजय भैया और रसिका भाभी का झगड़ा हो गया... और बिचारा वरुण रोने लगा| भाभी ने मुझे वरुण को अपने पास ले आने को कहा.. और मैं फटा-फैट वरुण को अपने साथ बहार ले आया| वरुण का रोना चुप ही नहीं हो रहा था... बड़ी मुश्किल से मैंने उसे पुचकार के आधा किलोमीटर घुमाया और जब मुझे लगा की वो सो गया है तब मैंने उसे भाभी को सौंप दिया| जब भाभी मेरी गोद से वरुण को ले रही थी तो मैंने शरारत की.. और उनके निप्पलों को अपने अंगूठे में भर हल्का सा मसल दिया| भाभी विचलित हो उठी और मुस्कुराती हुई प्रमुख आँगन में पड़ी चारपाई इ वरुण को लिटा दिया|
रात हो चुकी थी और अँधेरा हो चूका था... भाभी जानती थी की मैं खाना उनके साथ ही खाऊंगा परन्तु सब के सामने??? उनकी चिंता का हल मैंने ही कर दिया:
मैं: भौजी मुझे भी खाना दे दो....
भाभी मेरा खाना परोस के लाई और खुस-फुसते हुए कहने लगी:
भाभी: मानु क्या नाराज हो मुझ से?
मैं: नहीं तो!
भाभी: तो आज मेरे साथ खाना नहीं खाओगे?
मैं: भाभी आप भी जानते हो की दोपहर की बात और थी ... अभी आप मेरे साथ खाना खाओगी तो चन्दर भैया नाराज होंगे| .....
भाभी मेरी ओर देखते हुए मुस्कुराई ओर मेरी ठुड्डी पकड़ी ओर प्यार से हिलाई!!!
भाभी: बहुत समझदार हो गए हो?
मैं: वो तो है.. सांगत ही ऐसी मिली है.. ओर वैसे भी आप मेरे हिस्से का खाना खा जाती हो|
(मैंने उन्हें छेड़ते हुए कहा|)
भाभी ने अपनी नाराज़गी ओर प्यार दिखाते हुए प्यार से मेरी पीठ पे थप-थपाया| मैंने जल्दी-जल्दी से खाना खाया और अपने बिस्तर पे लेट गया और ऐसे जताया जैसे मुझे नींद आ गई हो| असल मुझे बस इन्तेजार था की कब भाभी खाना खाएं और कब बाकी सब घर वाले अपने-अपने बिस्तर में घुस घोड़े बेच सो जाएं| और तब मैं और भाभी अपना काम पूरा कर लें| इसीलिए मैं आँखें बंद किये सोने का नाटक करने लगा ... पेट भरा होने के कारन नींद आने लगी थी... मैं बाथरूम जाने के बहाने उठा की देखूं की भाभी ने खाना खया है की नहीं... तभी भाभी और अम्मा मुझे खाना कहते हुए दिखाई दिए| मैं बाथरूम जाने के बाद जानबूझ के रसोई की तरफ से आया ताकि भाभी मुझे देख ले और उन्हें ये पक्का हो जाये की मैं सोया नहीं हूँ और साथ ही साथ मैंने मोआयने कर लिया था की कौन-कौन जाग रहा है और कौन-कौन सो गया है|