कथा भोगावती नगरी की
Re: कथा भोगावती नगरी की
सुवर्णा यह सुन कर अपना क्रोध रोक न सकी महाराज के टटटे मसल्ते हुए बोली “आपके भी लिंग पर चाँदी की तारें लपेट कर उसमें विद्युत प्रवाहित करनी चाहिए , भोगवती की स्त्रियों पर ऐसे अमानुष बलात्कार का यही उचित दंड होगा , क्यों वनसवान जी?”
वनसवान जी बोले “इसमें महाराज का कोई दोष नहीं देवी कड़कती बिजली और दो पैरों के बीच फुंफाकरते नाग को भला कौन
संभाल पाया है? बड़े बड़े आत्म संयमी और ज्ञानी इसमें असफल हो जाते हैं”
“नहीं वनसवान जी नहीं , किसी भी स्त्री के लिए बलपूर्वक संभोग अति पीड़ादाई होता है. हमारे समाज में यौन शुचिता को वैसे ही बहुत माना जाता है ऐसे में यदि स्त्रियाँ यौन छल्ले लगवा कर अपनी योनि की रक्षा करतीं हैं तो इसमें क्या ग़लत है? ऐसे में महाराज जैसे कामपीपासु अपने सैनिकों को स्त्रियों से बलपूर्वक चोदन की आज्ञा देते हैं क्या यह ग़लत नहीं ? क्या यह ग़लत नहीं कि आम जनता से वसूले गये कर और जनता की सुरक्षा करने वाली सेना अपने अभियांत्रियों की प्रतिभा का उपयोग कर ऐसे उपकरण बनाए जिससे जनता का जीवन स्तर सुधरे? सुवर्णा क्रोध से बड़बड़ा रही थी.
“देवी मैं आपकी पीड़ा से अवगत हूँ परंतु महाराज भी नियती द्वारा दिए गये दंड को भोग रहे हैं?” वनसवान ने समझाना चाहा
“नहीं वनसवान जी नहीं , यदि महाराज इस रोग से स्वस्थ हो गये तब भी इनके पापों के लिए मैं इन्हें अवश्य दंड दूँगी” सुवर्णा क्रोध ने बोली
“आहह… तो अभी क्यों पीड़ा दे रही हो देवी?” महाराज ने मरी सी आवाज़ में कहा “आपके हीरे जडित कंगन मेरे अंडकोषों को चुभ रहे हैं कृपया इन्हें हटाइए” महाराज पीड़ा से कराहे.
“ऐसे काम पीपासु भोग विलासी पुरुष की पत्नी कहलाने से तो मर जाना ही अच्छा है” देवी सुवर्णा की आँखें छलक आईं
“देवी क्या यह अच्छा नहीं क़ि महाराज अपने कुकृत्यों को आपके सामने स्वीकार कर रहे हैं ? उन्हें कह तो लेने दीजिए इसके बाद आप जो निर्णय लेना चाहें ले लीजिएगा ” वनसवान ने कहा.
“कहिए महाराज और कहाँ कहाँ मुँह काला किया आपने?” देवी सुवर्णा ने अपनी आँखें पोंछते हुए पूछा “आगे बताइए क्या हुआ”
” जब यौन छल्ले भी बेकार हो गये तो सैनिकों ने हमारी आज्ञा का पालन किया , भोगवती की स्त्रियाँ हमारी अंकित हो गयीं , सैनिकों ने जब देखा की उनका गर्भ ठहर गया तो उन्होने उनको अपनी पत्नी बना लिया , उस वर्ष हमारे सैनिकों के घर किल्कारियाँ गूँज उठीं तब हमने भोगवती का नाम बदल कर पुंसवक नगरी कर दिया. किंतु हमारे नपुंसक सैनिकों ने नगरी का नाम बदलने को लेकर विरोध किया क्यूंकी हमारे आज्ञापालन के कारण वे सब ‘ठूंठ’ बन चुके थे”
“फिरक्या हुआ ?”
“हमने विद्रोहियों की हत्या करवा दी” महाराज बोले.
“और बृहदलिंग उनका क्या हुआ” सुवर्णा ने व्यग्रता से पूछा “वह कहीं गुप्त हो गया हमारे गुप्तचर और सैनिक उसका पता न लगा पाए” महारजने उत्तर दिया.यह सुन कर सुवर्णा ने चैन की सांस ली कि बृहदलिंग का महाराज कुछ पता न लगा पाए.
“अच्छा महाराज अब आप विश्राम करें हम चलते हैं” वनसवान ने कहा और देवी सुवर्णा भी प्रसन्नचित मन से बाहर चल पड़ीं.
कक्ष से बाहर आते आते वनसवान जी बोले “सुना देवी महाराज ने क्या कहा ? बृहदलिंग गुमशुदा हो गये हैं”
“हाँ , यह तो खुश खबरी है हमारे लिए वरना हम तो यही समझतीं रहीं कि ‘उन्हें’ महाराज ने मरवा दिया” सुवर्णा बोली
“परंतु यह तो और चिंता का विषय हो गया यदि बृहदलिंग जी कोमहाराज ने नहीं मरवाया तो फिर क्या वो आज भी जीवित हैं? और यदि वे जीवित हैं तो प्रकट क्यों नहीं हुए अभी तक” सुवर्णा ने सोचते हुए कहा.
“संभव है उनके प्रकट होने का उचित समय न आया हो” वनसवान ने कहा “हाँ यह अवश्य हो सकता है , इस संभावना से इनकार नही किया जा सकता” सुवर्णा ने जवाब दिया.
“अच्छा देवी अब आज्ञा दें , मैं अपनी औषधिशाला जाना चाहूँगा , बहुत कार्य शेष पड़ा है” वनसवान ने हाथ जोड़ कर कहा
“उचित है” कह कर देवी सुवर्णा ने आज्ञा दी. वनसवान अपनी औषधि शाला निकल गये और सुवर्णा अपने कक्ष में आ पंहुचि.
आज वह काफ़ी थक गयीं थी , महाराज के द्वारा यह सुनकर वह काफ़ी प्रसन्न थी कि राजगुरु बृहदलिंग शायद आज भी जीवित है. अपने केशों को खोल कर वह शैया पर लेट गयी , यूँ ही सोचते सोचते उसे उन दिनों की याद हो आई जब वह
नवयौवना थी. भोगावती नगरी की स्थापित प्रथा के अनुसार उसकी २१ वीं वर्षगाँठ पर उसे राज्य संभालना था. भोगावती में स्त्रियाँ ही राज करतीं थी , पुरुषों के ज़िम्मे युद्ध और व्यापार , पौरोहित्य जैसे कार्य होते थे. संतान प्राप्ति के लिए महारानी किसी मजबूत पुरुष के साथ वर्ष में ४बार संभोग करतीं. इस वर्ष देवी श्रेवती निवृत्त होने वाली थी और उनका स्थान उनकी पुत्री स्वर्णकाँता लेने वाली थी किंतु स्वर्णकाँता के राज्याभिषेक से पूर्व उसे अपने लिए किसीपुरुष का चुनाव करना आवश्यक था.
वनसवान जी बोले “इसमें महाराज का कोई दोष नहीं देवी कड़कती बिजली और दो पैरों के बीच फुंफाकरते नाग को भला कौन
संभाल पाया है? बड़े बड़े आत्म संयमी और ज्ञानी इसमें असफल हो जाते हैं”
“नहीं वनसवान जी नहीं , किसी भी स्त्री के लिए बलपूर्वक संभोग अति पीड़ादाई होता है. हमारे समाज में यौन शुचिता को वैसे ही बहुत माना जाता है ऐसे में यदि स्त्रियाँ यौन छल्ले लगवा कर अपनी योनि की रक्षा करतीं हैं तो इसमें क्या ग़लत है? ऐसे में महाराज जैसे कामपीपासु अपने सैनिकों को स्त्रियों से बलपूर्वक चोदन की आज्ञा देते हैं क्या यह ग़लत नहीं ? क्या यह ग़लत नहीं कि आम जनता से वसूले गये कर और जनता की सुरक्षा करने वाली सेना अपने अभियांत्रियों की प्रतिभा का उपयोग कर ऐसे उपकरण बनाए जिससे जनता का जीवन स्तर सुधरे? सुवर्णा क्रोध से बड़बड़ा रही थी.
“देवी मैं आपकी पीड़ा से अवगत हूँ परंतु महाराज भी नियती द्वारा दिए गये दंड को भोग रहे हैं?” वनसवान ने समझाना चाहा
“नहीं वनसवान जी नहीं , यदि महाराज इस रोग से स्वस्थ हो गये तब भी इनके पापों के लिए मैं इन्हें अवश्य दंड दूँगी” सुवर्णा क्रोध ने बोली
“आहह… तो अभी क्यों पीड़ा दे रही हो देवी?” महाराज ने मरी सी आवाज़ में कहा “आपके हीरे जडित कंगन मेरे अंडकोषों को चुभ रहे हैं कृपया इन्हें हटाइए” महाराज पीड़ा से कराहे.
“ऐसे काम पीपासु भोग विलासी पुरुष की पत्नी कहलाने से तो मर जाना ही अच्छा है” देवी सुवर्णा की आँखें छलक आईं
“देवी क्या यह अच्छा नहीं क़ि महाराज अपने कुकृत्यों को आपके सामने स्वीकार कर रहे हैं ? उन्हें कह तो लेने दीजिए इसके बाद आप जो निर्णय लेना चाहें ले लीजिएगा ” वनसवान ने कहा.
“कहिए महाराज और कहाँ कहाँ मुँह काला किया आपने?” देवी सुवर्णा ने अपनी आँखें पोंछते हुए पूछा “आगे बताइए क्या हुआ”
” जब यौन छल्ले भी बेकार हो गये तो सैनिकों ने हमारी आज्ञा का पालन किया , भोगवती की स्त्रियाँ हमारी अंकित हो गयीं , सैनिकों ने जब देखा की उनका गर्भ ठहर गया तो उन्होने उनको अपनी पत्नी बना लिया , उस वर्ष हमारे सैनिकों के घर किल्कारियाँ गूँज उठीं तब हमने भोगवती का नाम बदल कर पुंसवक नगरी कर दिया. किंतु हमारे नपुंसक सैनिकों ने नगरी का नाम बदलने को लेकर विरोध किया क्यूंकी हमारे आज्ञापालन के कारण वे सब ‘ठूंठ’ बन चुके थे”
“फिरक्या हुआ ?”
“हमने विद्रोहियों की हत्या करवा दी” महाराज बोले.
“और बृहदलिंग उनका क्या हुआ” सुवर्णा ने व्यग्रता से पूछा “वह कहीं गुप्त हो गया हमारे गुप्तचर और सैनिक उसका पता न लगा पाए” महारजने उत्तर दिया.यह सुन कर सुवर्णा ने चैन की सांस ली कि बृहदलिंग का महाराज कुछ पता न लगा पाए.
“अच्छा महाराज अब आप विश्राम करें हम चलते हैं” वनसवान ने कहा और देवी सुवर्णा भी प्रसन्नचित मन से बाहर चल पड़ीं.
कक्ष से बाहर आते आते वनसवान जी बोले “सुना देवी महाराज ने क्या कहा ? बृहदलिंग गुमशुदा हो गये हैं”
“हाँ , यह तो खुश खबरी है हमारे लिए वरना हम तो यही समझतीं रहीं कि ‘उन्हें’ महाराज ने मरवा दिया” सुवर्णा बोली
“परंतु यह तो और चिंता का विषय हो गया यदि बृहदलिंग जी कोमहाराज ने नहीं मरवाया तो फिर क्या वो आज भी जीवित हैं? और यदि वे जीवित हैं तो प्रकट क्यों नहीं हुए अभी तक” सुवर्णा ने सोचते हुए कहा.
“संभव है उनके प्रकट होने का उचित समय न आया हो” वनसवान ने कहा “हाँ यह अवश्य हो सकता है , इस संभावना से इनकार नही किया जा सकता” सुवर्णा ने जवाब दिया.
“अच्छा देवी अब आज्ञा दें , मैं अपनी औषधिशाला जाना चाहूँगा , बहुत कार्य शेष पड़ा है” वनसवान ने हाथ जोड़ कर कहा
“उचित है” कह कर देवी सुवर्णा ने आज्ञा दी. वनसवान अपनी औषधि शाला निकल गये और सुवर्णा अपने कक्ष में आ पंहुचि.
आज वह काफ़ी थक गयीं थी , महाराज के द्वारा यह सुनकर वह काफ़ी प्रसन्न थी कि राजगुरु बृहदलिंग शायद आज भी जीवित है. अपने केशों को खोल कर वह शैया पर लेट गयी , यूँ ही सोचते सोचते उसे उन दिनों की याद हो आई जब वह
नवयौवना थी. भोगावती नगरी की स्थापित प्रथा के अनुसार उसकी २१ वीं वर्षगाँठ पर उसे राज्य संभालना था. भोगावती में स्त्रियाँ ही राज करतीं थी , पुरुषों के ज़िम्मे युद्ध और व्यापार , पौरोहित्य जैसे कार्य होते थे. संतान प्राप्ति के लिए महारानी किसी मजबूत पुरुष के साथ वर्ष में ४बार संभोग करतीं. इस वर्ष देवी श्रेवती निवृत्त होने वाली थी और उनका स्थान उनकी पुत्री स्वर्णकाँता लेने वाली थी किंतु स्वर्णकाँता के राज्याभिषेक से पूर्व उसे अपने लिए किसीपुरुष का चुनाव करना आवश्यक था.
Re: कथा भोगावती नगरी की
सवर्णकाँता इस मसले को ले कर उदासीन थी , उसकी रूचि राजनीति और समाजशास्त्र से अधिक संगीत और कला विषयों में अधिक थी. कामकला का उसे बिल्कुल भी ज्ञान न था. स्वर्णकाँता की आयु २१ वर्ष की होचुकी थी. उसकी आयु में देवी श्रेवती प्रति छह मास के हिसाब से अब तक ८ भिन्न पुरुषों को भोग कर उनसे संतान प्राप्ति कर चुकी थी.
स्वर्णकाँता के पिता नीतिशास्त्र के अधिवक्ता थे जिन्हें श्रेवती ने अपने लिए चुन लिया था. सवर्णकाँता के २ वर्ष के होने के उपरांत ही प्रचलित मान्यताओं के अनुसार उनको काले पानी भेज दिया गया था जिससे वे श्रेवती के अन्य पुरुषों के साथ संबंधों को लेकर बवाल न कर सकें.
उस दिन माघ मास की सप्तमी थी . राज्य में बड़ा आयोजन था , एक अनुष्ठान कियाजा रहा था जिसकी समाप्ति पर स्वर्णकाँता का राज्याभिषेक होना था.
तभी गुप्तचर ने सूचना दी कि शिशन्धवज अपनी विराट सेना को लेकर भोगावती राज्य पर आक्रमण करने आ रहे हैं.
यह सुनकर देवी श्रेवती चिंतित हुईं , राज्य में पुरुषों की संख्या न के बराबर थी , पुरुषों को दास बनाने की प्रथा थी.
सेना भी मुट्ठी भर थी. ऐसे में उन्होनें वहाँ से पलायन करने की सोची. इस वर्ष के लिए चयनित पुरुष सामरी को उन्होने अपना निर्णय सुनाया जिसे उसने स्वर्णकँता को सुनाया. राजपरिवार के सभी सदस्य दूर पूर्वोत्तर में घनघोर वन में पलायन करने पर तैयार हो गये. प्रजा को शिशिंधवज के हाथों मरने के लिए छोड़ना तय हुआ. श्रेवती अपने पुरुष सामरी के साथ पलायन कर गयी रह गयी तो नवयौवना और भोगावती राज्य की महारानी स्वर्णकाँता और राजगुरु ब्रुहद्लिन्ग.
ब्रुहद्लिन्ग भोगावती के राजगुरु हैं , संकट के इस समय में उन्होने यह सुनिश्चित किया है क़ि भोगावती की प्रजा और विशेष रूप से सुंदर कन्याओं की सुरक्षा की जाए. ब्रुहद्लिन्ग अपने विश्वासपात्र बाबू लोहार के साथ में महत्वपूर्ण वार्ता कर राजकुमारी स्वर्णकाँता से मिलने उनके भवन में जा पंहुचे. द्वारपाल से कहलवाया कि वे राजकुमारी से महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने के इच्छुक हैं.
“देवी स्वर्णकाँता की जय हो” दूत स्वर्णकाँता के कक्ष में पंहुच कर बोला.
उसने देखा राजकुमारी अपने बिस्तर पर विमनस्क अवस्था में बैठी हुईं हैं , उनका आँचल छाती से ढूलक गया है.
स्वर्णकांता ने दूत को देख कर अपना आँचल ठीक किया और प्रश्न किया
“क्या समाचार है?”
“देवी , आचार्य बृहदलिंग आपसे महत्वपूर्ण विषय में चर्चा करने की अनुमति चाहते हैं”
दूत ने उत्तर दिया.
“उचित है उन्हें अंदर ले आओ” स्वर्णकाँता ने कहा.
स्वर्णकाँता सोच में पड़ गयी. रह रहकर उसका मन राज्य पर आए इस संकट को लेकर परेशान हो उठता था.
“शिशन्धवज तो बड़ा दुष्ट है , सुना है हारे हुए राज्य की स्त्रियों का अपने सैनिकों द्वारा सार्वजनिक चोदन कराने की उसकी नीति है”
वह शैया पर लेट गयी “उसकी सेनाएँ भोगावती की सीमाओं पर पंहुच चुकीं है न जाने किस क्षण वह आक्रमण करे”
उसने करवट बदली ” हमारे राज्य में सैनिक भी नहीं हैं जो उसका प्रतिकार कर सकें. माता श्रेवती , उस सामरी के साथ कहीं दूर संभोग्रत है, न जाने इस संकट की घड़ी में उन्हें भोग करना कैसे सूझता है , उन्हें लज्जा आनी चाहिए की जब राज्य की सीमाओं पर शत्रु की मोर्चेबंदी है , प्रजा संकट में है तब वे भोगवश हो कर उस खल पुरुष सामरी के लिंग का आनंद उठा रहीं है”
स्वर्णकांता को अपनी योनि पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ तत्क्षण वह बोल उठी
“आचार्य आप?”
“हाँ राजकुमारी जी” ब्रुहद्लिन्ग बोले.
उसने देखा जटा-जुट वल्कल कमंडल और मृग छाल धारण किए एक भव्य आकार का अधेड़ सन्यासी सामने खड़ा है.
“आचार्य आपने मुझे आदेश दिया होता मैं स्वयं आपके समक्ष अपनी बहती योनि समेत उपस्थित होती” हाथ जोड़े स्वर्णकाँता बोली.
“कार्य ही कुछ विकट है राजकुमारी स्वर्णकांता कि हमें स्वयं तुम्हारे समक्ष आना पड़ा और मान्यताओं को तोड़ते हुए तुम्हारी योनि का स्पर्श करना पड़ा” बृहदलिंग ने जवाब दिया .
स्वर्ण कांता ने लज्जा से आँखें झुका लीं.
“जानती हो पुत्री जब से तुमने वयस्क आयु को प्राप्त कर लिया है आस पड़ोस के राज्य के कई राजा महाराजा तुम्हारी कुँवारी योनि का आसवाद लेने को उत्सुक हैं”
स्वर्णकाँता के गालों पर लालिमा छा गयी , न जाने यह सन्यासी जिसे अपना समय भजन पूजन में लगाना चाहिए आज क्यों इस प्रकार विकार युक्त बातें कर रहा है. उसने उपेक्षा से अपनी गर्दन नीची कर लीं , आचार्य की विकार युक्त बातों को सुनने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा न था , वरना कहीं आचार्य बृहदलिंग कुपित हो उठे तो अनर्थ हो जाएगा,
उसे याद आया उसकी माता महारानी श्रेवती ने आचार्य के पिता के साथ धृष्टता कर दी थी तों इन्हीं बृहदलिंग नेकुपित हो कर उनकी योनि पर अपनी खड़ाउ चिमटे और वल्कल से प्रहार किया था , श्रेवती १ माह तक उस पीड़ा से कराहती रही थी.
स्वर्णकाँता के पिता नीतिशास्त्र के अधिवक्ता थे जिन्हें श्रेवती ने अपने लिए चुन लिया था. सवर्णकाँता के २ वर्ष के होने के उपरांत ही प्रचलित मान्यताओं के अनुसार उनको काले पानी भेज दिया गया था जिससे वे श्रेवती के अन्य पुरुषों के साथ संबंधों को लेकर बवाल न कर सकें.
उस दिन माघ मास की सप्तमी थी . राज्य में बड़ा आयोजन था , एक अनुष्ठान कियाजा रहा था जिसकी समाप्ति पर स्वर्णकाँता का राज्याभिषेक होना था.
तभी गुप्तचर ने सूचना दी कि शिशन्धवज अपनी विराट सेना को लेकर भोगावती राज्य पर आक्रमण करने आ रहे हैं.
यह सुनकर देवी श्रेवती चिंतित हुईं , राज्य में पुरुषों की संख्या न के बराबर थी , पुरुषों को दास बनाने की प्रथा थी.
सेना भी मुट्ठी भर थी. ऐसे में उन्होनें वहाँ से पलायन करने की सोची. इस वर्ष के लिए चयनित पुरुष सामरी को उन्होने अपना निर्णय सुनाया जिसे उसने स्वर्णकँता को सुनाया. राजपरिवार के सभी सदस्य दूर पूर्वोत्तर में घनघोर वन में पलायन करने पर तैयार हो गये. प्रजा को शिशिंधवज के हाथों मरने के लिए छोड़ना तय हुआ. श्रेवती अपने पुरुष सामरी के साथ पलायन कर गयी रह गयी तो नवयौवना और भोगावती राज्य की महारानी स्वर्णकाँता और राजगुरु ब्रुहद्लिन्ग.
ब्रुहद्लिन्ग भोगावती के राजगुरु हैं , संकट के इस समय में उन्होने यह सुनिश्चित किया है क़ि भोगावती की प्रजा और विशेष रूप से सुंदर कन्याओं की सुरक्षा की जाए. ब्रुहद्लिन्ग अपने विश्वासपात्र बाबू लोहार के साथ में महत्वपूर्ण वार्ता कर राजकुमारी स्वर्णकाँता से मिलने उनके भवन में जा पंहुचे. द्वारपाल से कहलवाया कि वे राजकुमारी से महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने के इच्छुक हैं.
“देवी स्वर्णकाँता की जय हो” दूत स्वर्णकाँता के कक्ष में पंहुच कर बोला.
उसने देखा राजकुमारी अपने बिस्तर पर विमनस्क अवस्था में बैठी हुईं हैं , उनका आँचल छाती से ढूलक गया है.
स्वर्णकांता ने दूत को देख कर अपना आँचल ठीक किया और प्रश्न किया
“क्या समाचार है?”
“देवी , आचार्य बृहदलिंग आपसे महत्वपूर्ण विषय में चर्चा करने की अनुमति चाहते हैं”
दूत ने उत्तर दिया.
“उचित है उन्हें अंदर ले आओ” स्वर्णकाँता ने कहा.
स्वर्णकाँता सोच में पड़ गयी. रह रहकर उसका मन राज्य पर आए इस संकट को लेकर परेशान हो उठता था.
“शिशन्धवज तो बड़ा दुष्ट है , सुना है हारे हुए राज्य की स्त्रियों का अपने सैनिकों द्वारा सार्वजनिक चोदन कराने की उसकी नीति है”
वह शैया पर लेट गयी “उसकी सेनाएँ भोगावती की सीमाओं पर पंहुच चुकीं है न जाने किस क्षण वह आक्रमण करे”
उसने करवट बदली ” हमारे राज्य में सैनिक भी नहीं हैं जो उसका प्रतिकार कर सकें. माता श्रेवती , उस सामरी के साथ कहीं दूर संभोग्रत है, न जाने इस संकट की घड़ी में उन्हें भोग करना कैसे सूझता है , उन्हें लज्जा आनी चाहिए की जब राज्य की सीमाओं पर शत्रु की मोर्चेबंदी है , प्रजा संकट में है तब वे भोगवश हो कर उस खल पुरुष सामरी के लिंग का आनंद उठा रहीं है”
स्वर्णकांता को अपनी योनि पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ तत्क्षण वह बोल उठी
“आचार्य आप?”
“हाँ राजकुमारी जी” ब्रुहद्लिन्ग बोले.
उसने देखा जटा-जुट वल्कल कमंडल और मृग छाल धारण किए एक भव्य आकार का अधेड़ सन्यासी सामने खड़ा है.
“आचार्य आपने मुझे आदेश दिया होता मैं स्वयं आपके समक्ष अपनी बहती योनि समेत उपस्थित होती” हाथ जोड़े स्वर्णकाँता बोली.
“कार्य ही कुछ विकट है राजकुमारी स्वर्णकांता कि हमें स्वयं तुम्हारे समक्ष आना पड़ा और मान्यताओं को तोड़ते हुए तुम्हारी योनि का स्पर्श करना पड़ा” बृहदलिंग ने जवाब दिया .
स्वर्ण कांता ने लज्जा से आँखें झुका लीं.
“जानती हो पुत्री जब से तुमने वयस्क आयु को प्राप्त कर लिया है आस पड़ोस के राज्य के कई राजा महाराजा तुम्हारी कुँवारी योनि का आसवाद लेने को उत्सुक हैं”
स्वर्णकाँता के गालों पर लालिमा छा गयी , न जाने यह सन्यासी जिसे अपना समय भजन पूजन में लगाना चाहिए आज क्यों इस प्रकार विकार युक्त बातें कर रहा है. उसने उपेक्षा से अपनी गर्दन नीची कर लीं , आचार्य की विकार युक्त बातों को सुनने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा न था , वरना कहीं आचार्य बृहदलिंग कुपित हो उठे तो अनर्थ हो जाएगा,
उसे याद आया उसकी माता महारानी श्रेवती ने आचार्य के पिता के साथ धृष्टता कर दी थी तों इन्हीं बृहदलिंग नेकुपित हो कर उनकी योनि पर अपनी खड़ाउ चिमटे और वल्कल से प्रहार किया था , श्रेवती १ माह तक उस पीड़ा से कराहती रही थी.
Re: कथा भोगावती नगरी की
किस सोच में पड़ गयी राजकुमारी?” आचार्य की बात से सवर्णकाँता की तंद्रा टूटी , उसने नज़रें उठा कर आचार्य की ओर देखा. मृगछाला से बना हुआ उनका कटीवस्त्र उनकी कमर से लिपटा हुआ बीच में कुछ फूला हुआ सा लग रहा था.
राजकुमारी को यों इस प्रकार जिज्ञासावश अपनी कमर को ताकते देख कर बृहदलिंग समझ गये कि उनके लिंग पर उसकी नज़रें आ टिकी हैं.
“मुझे प्रसन्नता है कि मेरे लिंग ने तुम्हारे चित्त को मोह लिया है राजकुमारी” आचार्यने कहा फिर तनिक रुक कर बोले “तुम्हारी माँ श्रेवती भी इस लिंग को अपनी योनि में लेने को लालायित रहतीं थी”
स्वर्णकाँता का मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया , राजगुरु आचार्य ने सारी मर्यादा लाँघ ली थी . अपनी माता के अंगों का इस प्रकार अश्लील वर्णन कोई कैसे सुन सकता था?
“आश्चर्यचकित न हो राजकुमारी” आचार्य समझाते बोले “इस लिंग का आलिंगन करने के लिए कई योनियों की स्वामीनियाँ
हाथ जोड़े खड़ी हैं”
ऐसी विकार युक्त बातें स्वर्णकाँता का मन खराब कर रहीं थी उसे लगा कि आचार्य के रूप में बृहदलिंग एक दंभी पुरुष है जिसे अपने लिंग पर बड़ा गर्व है.
कुछ सोच कर वह बोली “निस्संदेह आचार्य , आपका लिंग बड़ा सशक्त हृष्ट-पृष्ठ तथा मांसल है”
आचार्य मुस्कुराए
“परंतु यह आवश्यक तो नहीं जिस वस्तु की सभी कामना करते हैं उसी की इच्छा मैं भी करूँ?” स्वर्णकाँता ने प्रश्न किया
“आप वनों में रहने वाले जटा जुट धारण करने वाले सन्यासी क्या सोच कर एक राजकुमारी की योनि में प्रविष्ट हो कर उसका मर्दन करने की आकांक्षा रखते हैं? नहीं नहीं यह आपकी आकांक्षा नहीं महत्वकांक्षा है….बल्कि मैं तो कहूँगी कि यह आप सन्यासियों की दृष्टता है”
“मूर्ख लड़की” आचार्य बृहदलिंग गुस्से से बोले फिर पलट कर अपने हाथ का चिमटा बजा कर बोले
“तूने अभी इस लिंग की शक्ति देखी ही कहाँ है? वर्षों हमने कड़े व्यायाम के द्वारा इसे लंबा , नुकीला और पृष्ट बनाया है”
“अवश्य बनाया होगा आचार्य ,परंतु आपके इस लिंग को धारण करने वाली कोई ऋषिकन्या ही होनी चाहिए न कि कोई राजकुमारी , आचार्य आप मेरी योनि मर्दन की आकांक्षा न करें अधिक से अधिक आप इसे सहलाने की अनुमति ले सकते हैं”
“दृष्ट नव यौवना हमें किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है” आचार्य कड़क कर बोले
“तूने हमारा अपमान किया है इसका दंड तुझे भुगतना ही होगा”
“क्षमा आचार्य .. क्षमा”
“कदापि नहीं”
“आज से ७ दिनों पश्चात शिशनधवज की सेनाएँ भोगावती के राजमार्ग पर आएँगी और निष्कंटक हो कर हर स्त्री का सार्वजनिक चोदन करेंगीं” बृहदलिंग ने श्रापवाणी उच्चारी.
“नहीं आचार्य मेरी ग़लती का दंड उन निरीह स्त्रियों को न दें , मैं उन स्त्रियों की ओर से अनुशंसा करती हूँ”सवर्णकाँता अपने घुटनों के बल आचार्य के चरणों में लेट गयी और हाथ जोड़े अनुनय करने लगी
“नहीं हमारा श्राप मिथ्या न होगा और न ही हम इसे वापिस ले सकते हैं , किंतु इसके प्रभाव को सीमित रखना तुम्हारे हाथ में है” आचार्य बोले
“वह कैसे आचार्य?” स्वर्णकाँता हाथ जोड़े बोली
“हमारे लिंग को ससम्मान अपनी योनि में प्रवेश करा कर” आचार्य के इन शब्दों से मानों स्वर्णकाँता के मन में आँधी तूफान चलने लगा.
“यह कैसी शर्त आपने रख दी आचार्य” स्वर्णकाँता बोली
“यह श्राप के प्रभाव को सीमित करने के लिए अनिवार्य है” आचार्य बोले
“किंतु कैसे?”
“व्यर्थ के प्रश्न न करो , हम देख रहे हैं कि तुम्हें भविष्य में शिशिंधवज की पत्नी भी बनना होगा” आचार्य बोले
“यह कैसे संभव है” स्वर्णकांता चौंकी , शिशन्धवज की बर्बरता के बारे में वह कईयों से सुन चुकी थी.
शिशिंधवज की पत्नी बनने के बात सुन कर उसके नुकीले लिंग को अपनी योनि पर आघात करते हुए सोच कर ही वह भय से सिहर उठी
“संभव है हम अपने पृष्ट लिंग से तुम्हारी योनि में प्रवेश कर उसे किसी लोलक की भाँति आगे-पीछे कर यथा शक्ति उसे अधिक चौड़ा बनाएँगे” आचार्य बोले
“किंतु इससे मुझे अत्यधिक पीड़ा और वेदना होगी आचार्य” स्वर्णकांता बोली .
“अपने राज्य की खुशहाली के लिए तुम्हें यह पीड़ा सहन करनी होगी , अन्य कोई मार्ग नही” आचार्य ने कहा
“जो आज्ञा , कृपया बताएँ यह क्रिया कब आरंभ करनी है ? अपने राज्य के हित के लिए मैं तो हाथी घोड़े और भैंसो से भी संभोग करूँगी”
“शुभस्य शीघ्रम और तुम्हें किसी गज , अश्व अथवा महिषी से संभोग नहीं करना है , मनुष्यों से ही करना है” आचार्य ने सूचित किया
“मनुष्यों से अर्थात ? आपका इस वाक्य से क्या तात्पर्य है ? और कितने पुरुषों से आप मुझे संभोग करवाएँगे ?”
“हा…. हा… हा…” आचार्य ने अट्टहास किया “तुम्हारी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण है राजकुमारी , हम तुम्हारी बुद्धि और सूझ बूझ की भूरी भूरी प्रशंसा करते हैं”
राजकुमारी को यों इस प्रकार जिज्ञासावश अपनी कमर को ताकते देख कर बृहदलिंग समझ गये कि उनके लिंग पर उसकी नज़रें आ टिकी हैं.
“मुझे प्रसन्नता है कि मेरे लिंग ने तुम्हारे चित्त को मोह लिया है राजकुमारी” आचार्यने कहा फिर तनिक रुक कर बोले “तुम्हारी माँ श्रेवती भी इस लिंग को अपनी योनि में लेने को लालायित रहतीं थी”
स्वर्णकाँता का मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया , राजगुरु आचार्य ने सारी मर्यादा लाँघ ली थी . अपनी माता के अंगों का इस प्रकार अश्लील वर्णन कोई कैसे सुन सकता था?
“आश्चर्यचकित न हो राजकुमारी” आचार्य समझाते बोले “इस लिंग का आलिंगन करने के लिए कई योनियों की स्वामीनियाँ
हाथ जोड़े खड़ी हैं”
ऐसी विकार युक्त बातें स्वर्णकाँता का मन खराब कर रहीं थी उसे लगा कि आचार्य के रूप में बृहदलिंग एक दंभी पुरुष है जिसे अपने लिंग पर बड़ा गर्व है.
कुछ सोच कर वह बोली “निस्संदेह आचार्य , आपका लिंग बड़ा सशक्त हृष्ट-पृष्ठ तथा मांसल है”
आचार्य मुस्कुराए
“परंतु यह आवश्यक तो नहीं जिस वस्तु की सभी कामना करते हैं उसी की इच्छा मैं भी करूँ?” स्वर्णकाँता ने प्रश्न किया
“आप वनों में रहने वाले जटा जुट धारण करने वाले सन्यासी क्या सोच कर एक राजकुमारी की योनि में प्रविष्ट हो कर उसका मर्दन करने की आकांक्षा रखते हैं? नहीं नहीं यह आपकी आकांक्षा नहीं महत्वकांक्षा है….बल्कि मैं तो कहूँगी कि यह आप सन्यासियों की दृष्टता है”
“मूर्ख लड़की” आचार्य बृहदलिंग गुस्से से बोले फिर पलट कर अपने हाथ का चिमटा बजा कर बोले
“तूने अभी इस लिंग की शक्ति देखी ही कहाँ है? वर्षों हमने कड़े व्यायाम के द्वारा इसे लंबा , नुकीला और पृष्ट बनाया है”
“अवश्य बनाया होगा आचार्य ,परंतु आपके इस लिंग को धारण करने वाली कोई ऋषिकन्या ही होनी चाहिए न कि कोई राजकुमारी , आचार्य आप मेरी योनि मर्दन की आकांक्षा न करें अधिक से अधिक आप इसे सहलाने की अनुमति ले सकते हैं”
“दृष्ट नव यौवना हमें किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है” आचार्य कड़क कर बोले
“तूने हमारा अपमान किया है इसका दंड तुझे भुगतना ही होगा”
“क्षमा आचार्य .. क्षमा”
“कदापि नहीं”
“आज से ७ दिनों पश्चात शिशनधवज की सेनाएँ भोगावती के राजमार्ग पर आएँगी और निष्कंटक हो कर हर स्त्री का सार्वजनिक चोदन करेंगीं” बृहदलिंग ने श्रापवाणी उच्चारी.
“नहीं आचार्य मेरी ग़लती का दंड उन निरीह स्त्रियों को न दें , मैं उन स्त्रियों की ओर से अनुशंसा करती हूँ”सवर्णकाँता अपने घुटनों के बल आचार्य के चरणों में लेट गयी और हाथ जोड़े अनुनय करने लगी
“नहीं हमारा श्राप मिथ्या न होगा और न ही हम इसे वापिस ले सकते हैं , किंतु इसके प्रभाव को सीमित रखना तुम्हारे हाथ में है” आचार्य बोले
“वह कैसे आचार्य?” स्वर्णकाँता हाथ जोड़े बोली
“हमारे लिंग को ससम्मान अपनी योनि में प्रवेश करा कर” आचार्य के इन शब्दों से मानों स्वर्णकाँता के मन में आँधी तूफान चलने लगा.
“यह कैसी शर्त आपने रख दी आचार्य” स्वर्णकाँता बोली
“यह श्राप के प्रभाव को सीमित करने के लिए अनिवार्य है” आचार्य बोले
“किंतु कैसे?”
“व्यर्थ के प्रश्न न करो , हम देख रहे हैं कि तुम्हें भविष्य में शिशिंधवज की पत्नी भी बनना होगा” आचार्य बोले
“यह कैसे संभव है” स्वर्णकांता चौंकी , शिशन्धवज की बर्बरता के बारे में वह कईयों से सुन चुकी थी.
शिशिंधवज की पत्नी बनने के बात सुन कर उसके नुकीले लिंग को अपनी योनि पर आघात करते हुए सोच कर ही वह भय से सिहर उठी
“संभव है हम अपने पृष्ट लिंग से तुम्हारी योनि में प्रवेश कर उसे किसी लोलक की भाँति आगे-पीछे कर यथा शक्ति उसे अधिक चौड़ा बनाएँगे” आचार्य बोले
“किंतु इससे मुझे अत्यधिक पीड़ा और वेदना होगी आचार्य” स्वर्णकांता बोली .
“अपने राज्य की खुशहाली के लिए तुम्हें यह पीड़ा सहन करनी होगी , अन्य कोई मार्ग नही” आचार्य ने कहा
“जो आज्ञा , कृपया बताएँ यह क्रिया कब आरंभ करनी है ? अपने राज्य के हित के लिए मैं तो हाथी घोड़े और भैंसो से भी संभोग करूँगी”
“शुभस्य शीघ्रम और तुम्हें किसी गज , अश्व अथवा महिषी से संभोग नहीं करना है , मनुष्यों से ही करना है” आचार्य ने सूचित किया
“मनुष्यों से अर्थात ? आपका इस वाक्य से क्या तात्पर्य है ? और कितने पुरुषों से आप मुझे संभोग करवाएँगे ?”
“हा…. हा… हा…” आचार्य ने अट्टहास किया “तुम्हारी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण है राजकुमारी , हम तुम्हारी बुद्धि और सूझ बूझ की भूरी भूरी प्रशंसा करते हैं”