कथा भोगावती नगरी की
Re: कथा भोगावती नगरी की
“धन्यवाद आचार्य , परंतु मेरी शंका का समाधान कीजिए”
“आपको भोगावती राज्य के हितों की रक्षा करने के लिए तत्पर रहना चाहिए राजकुमारी जी और चाहे इसके लिए आपको लाखों पुरुषों से संभोग करना पडे तो भी कीजिए ”
“आचार्य” स्वर्णकांता की आँखें भय से चौड़ी हो गयी , एक य: काश्चित कुतिया भी अपनी ऋतु काल में अधिक से अधिक ४-५ कुत्तों से चुद्ति है और यहाँ आचार्य कहते हैं कि राष्ट्रहित में लाखों पुरुषों से भी चुदना पड़े तो चुदो , भला इतने
लिंगों का आघात सह सकने कि शक्ति उसकी योनि में कहाँ है ?
आचार्य ने मानों उसके मन को पढ़ लिया था उन्होने उसके मनोभावों को जानकार कहा
“अवश्य है” फिर उन्होने अपनी आँखें बंद कर ली और संस्कृत में कुछ मंत्रों को पढ़ा तत्क्षण उनके दाँये हाथ में एक शीशी आ गयी , उस शीशी को उन्होने स्वर्णकाँता की अंजुलि में डाला.
“यह क्या है आचार्यवर” स्वर्णकांता ने प्रश्न किया
“हमने अपनी सिद्धि से यह औषधि प्रकट की है , यह औषधि हमने आंग्ल द्वीप से मँगवाई है” आचार्य बोले
“इससे क्या होगा?” स्वर्णकाँता ने दूसरा प्रश्न दागा
“यह हेवी ड्यूटी वुल्वा औषधि है बालिके!” आचार्य बोले
“ह..ह…हेवी?” स्वर्णकांता बोलते हुए हकलाई
“हेवी ड्यूटी वुल्वा!” आचार्य ने हंस कर कहा “यह आंग्ल भाषा का शब्द है”
“ई..ई..इसके प्रयोग की विधि बताएँ आचार्य… और इससे क्या प्राप्ति होगी कृपया यह भी बतलाएँ ” स्वर्णकाँता ने जानना चाहा
“यह पूरी औषधि केसर मिश्रित दूध के साथ पी जाओं और दस वर्षों तक अपनी माहवारी के बाद दही और शह्द से अपनी योनि प्रतिदिन लीप कर स्वच्छ पानी से उसे धोया करो और संभोग से पहले शुद्ध नारियल तेल लगाओ इस प्रकार तुम्हारी योनि पुष्ट हो जाएगी” आचार्य ने विधि समझाते हुए कहा
स्वर्णकाँता ने अपने हाथों में उस दिव्य औषधि की शीशी ले कर कौतूहल से उसे उलट-पलट कर देखा. आचार्य बृहदलिंग उसे रोकते हुए बोले ” हे राजकन्या स्वर्णकान्ते यह औषधि अत्यंत प्रभावी और मूल्यवान है इसे यदि आप इस तरह उलट पलटकर देखेंगी तो औषधि इस शीशी से बाहर छलक जाएगी और निष्प्रभावी हो जाएगी”
तत्पश्चात औषधि की शीशी का ढक्कन खोल कर बृहदलिंग बोले “तुम्हारी माहवारी कब आई थी?”
“आज पाँचवा दिन है आचार्य”
“उचित है स्नान ध्यान कर श्वेत वस्त्रों में हमारे सम्मुख आओ हम तुम्हें इस दिव्य औषधि का सेवन कराएँगे”
“जो आज्ञा आचार्य”
“ठहरो”
“जी आचार्य”
“बाहर आँगन के कुँए के जल से ही स्नान करना”
“उचित है मैं अपनी सेविका को कह कर एक बाल्टी जल कुएँ से निकलवा कर स्नान कर लूँगी”
“नहीं सेविका को इसकी खबर न लगने पाए , तुम्हें कुएँ के जल से वहीं अहाते में नग्न हो कर स्नान करना होगा ऐसी अवस्था में कोई तुम्हें न देख सके ऐसी व्यवस्था तुम्हें करनी होगी”
“उचित है आचार्य में समस्त सेवक सेविकाओं को वहाँ एकांत बनाए रखने को कहूँगी”
“किंतु ध्यान रहे जब तुम स्नान कर रही होगी तब वहाँ हमारी उपस्थिति आवश्यक है अन्यथा तुम इस औषधि के सेवन की विधि न जान सकोगी अत: स्मरण रहे तुम्हारे सेवक सेविकाएँ हमारा मार्ग न रोकें अन्यथा हम उन्हें श्राप दे देंगे”
“उचित है आचार्य मैं उनको सूचित कर दूँगी”
“ठीक है तुम स्नानादि से निबट लो तब तक हम अपनी नित्य साधना कर लेते हैं”
तत्पश्चात राजकुमारी स्वर्णकाँता स्नान के लिए अहाते के कुएँ की ओर बढ़ चली. इधर आचार्य ब्रुहद्लिन्ग भी अपनी तैयारियों के लिए एक कोने में आसन जमा कर बैठ गये और साधना में लग गये. आचार्य ने जगह बड़ी सोच समझ कर चुनी थी , उनके दृष्टि क्षेप में अहाते का कुँआ स्पष्ट नज़र आ रहा था. यों भी आचार्य स्त्री के नग्न सौंदर्य के मूक उपासक थे यह मौका भला क्यों छोड़ते?
अहाते में राजकुमारी की सखी चंपा खड़ी थी , बरामदे में सेवक खड़े थे. चंपा ने अपनी ओर स्वर्णकाँता को आते देखा और आश्चर्य से उसकी आँखें फैल गयीं. सेवकों ने देखा न्यूनतम वस्त्र परिधान किए हुए उनकी स्वामिनी अहाते में आ रही थी .
खुले मुक्त केशों के मध्य स्वर्णकाँता का तेजस्वी मुख किसी स्वर्णफूल की भाँति सूर्यप्रकाश में दमक रहा था , होंठ ऐसे लग रहे थे मानों गुलाब की पंखुड़िया. उसके धीमे कदमों की ताल पर उसके सुडौल वक्ष ऐसे नृत्य कर रहे थे मानों पके हुए संतरे वृक्ष पर हवा के झौंके से हिलते हैं.
इस दृश्य से उत्तेजित सेवकों की धोतियाँ दो दो उंगल आगे की ओर फूल गयीं. स्वर्णकाँता ने कौतूहल से एक सैनिक की फूली हुई धोती की ओर दृष्टि डाली. अपनी स्वामिनी को यूँ इस प्रकार अपने उत्तेजित लिंग पर दृष्टिक्षेप करते हुए देख उस सेवक के शरीर में झुर्झुरि दौड़ गयी उसने एकटक स्वामिनी स्वर्णकाँता की ओर देखा
“आपको भोगावती राज्य के हितों की रक्षा करने के लिए तत्पर रहना चाहिए राजकुमारी जी और चाहे इसके लिए आपको लाखों पुरुषों से संभोग करना पडे तो भी कीजिए ”
“आचार्य” स्वर्णकांता की आँखें भय से चौड़ी हो गयी , एक य: काश्चित कुतिया भी अपनी ऋतु काल में अधिक से अधिक ४-५ कुत्तों से चुद्ति है और यहाँ आचार्य कहते हैं कि राष्ट्रहित में लाखों पुरुषों से भी चुदना पड़े तो चुदो , भला इतने
लिंगों का आघात सह सकने कि शक्ति उसकी योनि में कहाँ है ?
आचार्य ने मानों उसके मन को पढ़ लिया था उन्होने उसके मनोभावों को जानकार कहा
“अवश्य है” फिर उन्होने अपनी आँखें बंद कर ली और संस्कृत में कुछ मंत्रों को पढ़ा तत्क्षण उनके दाँये हाथ में एक शीशी आ गयी , उस शीशी को उन्होने स्वर्णकाँता की अंजुलि में डाला.
“यह क्या है आचार्यवर” स्वर्णकांता ने प्रश्न किया
“हमने अपनी सिद्धि से यह औषधि प्रकट की है , यह औषधि हमने आंग्ल द्वीप से मँगवाई है” आचार्य बोले
“इससे क्या होगा?” स्वर्णकाँता ने दूसरा प्रश्न दागा
“यह हेवी ड्यूटी वुल्वा औषधि है बालिके!” आचार्य बोले
“ह..ह…हेवी?” स्वर्णकांता बोलते हुए हकलाई
“हेवी ड्यूटी वुल्वा!” आचार्य ने हंस कर कहा “यह आंग्ल भाषा का शब्द है”
“ई..ई..इसके प्रयोग की विधि बताएँ आचार्य… और इससे क्या प्राप्ति होगी कृपया यह भी बतलाएँ ” स्वर्णकाँता ने जानना चाहा
“यह पूरी औषधि केसर मिश्रित दूध के साथ पी जाओं और दस वर्षों तक अपनी माहवारी के बाद दही और शह्द से अपनी योनि प्रतिदिन लीप कर स्वच्छ पानी से उसे धोया करो और संभोग से पहले शुद्ध नारियल तेल लगाओ इस प्रकार तुम्हारी योनि पुष्ट हो जाएगी” आचार्य ने विधि समझाते हुए कहा
स्वर्णकाँता ने अपने हाथों में उस दिव्य औषधि की शीशी ले कर कौतूहल से उसे उलट-पलट कर देखा. आचार्य बृहदलिंग उसे रोकते हुए बोले ” हे राजकन्या स्वर्णकान्ते यह औषधि अत्यंत प्रभावी और मूल्यवान है इसे यदि आप इस तरह उलट पलटकर देखेंगी तो औषधि इस शीशी से बाहर छलक जाएगी और निष्प्रभावी हो जाएगी”
तत्पश्चात औषधि की शीशी का ढक्कन खोल कर बृहदलिंग बोले “तुम्हारी माहवारी कब आई थी?”
“आज पाँचवा दिन है आचार्य”
“उचित है स्नान ध्यान कर श्वेत वस्त्रों में हमारे सम्मुख आओ हम तुम्हें इस दिव्य औषधि का सेवन कराएँगे”
“जो आज्ञा आचार्य”
“ठहरो”
“जी आचार्य”
“बाहर आँगन के कुँए के जल से ही स्नान करना”
“उचित है मैं अपनी सेविका को कह कर एक बाल्टी जल कुएँ से निकलवा कर स्नान कर लूँगी”
“नहीं सेविका को इसकी खबर न लगने पाए , तुम्हें कुएँ के जल से वहीं अहाते में नग्न हो कर स्नान करना होगा ऐसी अवस्था में कोई तुम्हें न देख सके ऐसी व्यवस्था तुम्हें करनी होगी”
“उचित है आचार्य में समस्त सेवक सेविकाओं को वहाँ एकांत बनाए रखने को कहूँगी”
“किंतु ध्यान रहे जब तुम स्नान कर रही होगी तब वहाँ हमारी उपस्थिति आवश्यक है अन्यथा तुम इस औषधि के सेवन की विधि न जान सकोगी अत: स्मरण रहे तुम्हारे सेवक सेविकाएँ हमारा मार्ग न रोकें अन्यथा हम उन्हें श्राप दे देंगे”
“उचित है आचार्य मैं उनको सूचित कर दूँगी”
“ठीक है तुम स्नानादि से निबट लो तब तक हम अपनी नित्य साधना कर लेते हैं”
तत्पश्चात राजकुमारी स्वर्णकाँता स्नान के लिए अहाते के कुएँ की ओर बढ़ चली. इधर आचार्य ब्रुहद्लिन्ग भी अपनी तैयारियों के लिए एक कोने में आसन जमा कर बैठ गये और साधना में लग गये. आचार्य ने जगह बड़ी सोच समझ कर चुनी थी , उनके दृष्टि क्षेप में अहाते का कुँआ स्पष्ट नज़र आ रहा था. यों भी आचार्य स्त्री के नग्न सौंदर्य के मूक उपासक थे यह मौका भला क्यों छोड़ते?
अहाते में राजकुमारी की सखी चंपा खड़ी थी , बरामदे में सेवक खड़े थे. चंपा ने अपनी ओर स्वर्णकाँता को आते देखा और आश्चर्य से उसकी आँखें फैल गयीं. सेवकों ने देखा न्यूनतम वस्त्र परिधान किए हुए उनकी स्वामिनी अहाते में आ रही थी .
खुले मुक्त केशों के मध्य स्वर्णकाँता का तेजस्वी मुख किसी स्वर्णफूल की भाँति सूर्यप्रकाश में दमक रहा था , होंठ ऐसे लग रहे थे मानों गुलाब की पंखुड़िया. उसके धीमे कदमों की ताल पर उसके सुडौल वक्ष ऐसे नृत्य कर रहे थे मानों पके हुए संतरे वृक्ष पर हवा के झौंके से हिलते हैं.
इस दृश्य से उत्तेजित सेवकों की धोतियाँ दो दो उंगल आगे की ओर फूल गयीं. स्वर्णकाँता ने कौतूहल से एक सैनिक की फूली हुई धोती की ओर दृष्टि डाली. अपनी स्वामिनी को यूँ इस प्रकार अपने उत्तेजित लिंग पर दृष्टिक्षेप करते हुए देख उस सेवक के शरीर में झुर्झुरि दौड़ गयी उसने एकटक स्वामिनी स्वर्णकाँता की ओर देखा
Re: कथा भोगावती नगरी की
“कामातुरम न भयं न लज्जा” का स्वर गूंजा. यह स्वर चंपा का था.एक सेवक द्वारा यूँ निर्लज्जता से नयनों द्वारा अपनी सखी का सौंदर्यरस पान करना उसे अति अपमान जनक लगा. गुस्से से फंफनाती हुई चंपा स्वर्णकाँता और सेवक के मध्य आ खड़ी हुई. स्वर्णकाँता अपनी सदा हंसते मुस्कुराते रहने वाली सुंदर सभ्य मृदुभाषी और शालीन सहेली चंपा का रौद्र अवतार देख कर अवाक थी. उसके कोमल चेहरे का रंग उड़ा हुआ था.
“सेवक” चंपा क्रोध से चिंघाड़ते हुए बोली “क्या तुम्हें इतना भी ज्ञात नहीं कि अपनी स्वामिनी से कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए?”
“ग..ग…ग़लती हो गयी देवी..क…क…कृपया क्षमा करें” सेवक अपने घुटनों के बल बैठ कर भयवश हकलाते बोला.
“कदापि नहीं , एक स्त्री और वह भी अपनी स्वामिनी की ओर तुमने बुभूक्शित नेत्रों से दृष्टि डाली है इसका दंड तो तुम्हें अवश्य मिलेगा” चंपा का चिल्लाना जारी था.
“अपनी धोती उतारो”
“द…देवी???” सेवक भय से चौंक उठा
“आज्ञापालन तुरंत हो” चंपा ने हुक्म सुनाया
मरता क्या न करता सेवक को अहाते में सबके सामने और विशेष रूप से अपनी स्वामिनी के सामने धोती उतरनी पड़ी.
सबने देखा उस सेवक ने लंगोटी तो पहनी ही नही. मटर के दानों जितने बड़े अंडकोषों के उपर भिंडी जितनी लंबाई और सेम की फल्ली जितना मोटा लिंग लटक रहा था.
“इसके जनांग पर गंधक का अम्ल उडेल दो” चंपा ने आदेश सुनाया.
“न….नही.. देवी कृपा करें मेरा तो अभी विवाह भी नहीं हुआ”
“अपनी स्वामिनी पर कुदृष्टि डालता है दुष्ट? तेरा यही हश्र होगा यही तेरी नियती है” विषैली हँसी हंसते हुए चंपा बोली.
यह विडंबना ही थी जो स्वयं राजकुमारी स्वर्णकांता के वहाँ उपस्थित होते हुए उनकी मुँहलगी सहेली आदेश दिए जा रही थी.
स्वर्णकाँता चाह कर भी अपनी सहेली को रोक न पाई , इस घटना से वह स्वयं चकित थी परंतु सेवक की दृष्टता पर उसे रोष भी था.
दो सेवक गंधक के तेज़ाब की हंडिया ले आए , दो अन्य सेवकों ने दंडित सेवक के दोनो हाथ पेड़ से बाँध दिए.
इधर देवी स्वर्णकाँता भी स्नान करना छोड़ इस अदभुद घटनाक्रम की ओर देखे जा रही थी. चंपा ने हाथ में गुलाबी रेशमी रुमाल लिया. उधर सेवकों ने गंधक का अम्ल अपनी विशेष धातु की पिचकारियों में भरा .
“देवी चंपा क्षमा करें .. दया करें …इस ग़लती का इतना बड़ा दंड न दें मुझे… देवी स्वर्णकाँता मैं आपसे दया की भीख माँगता हूँ ,आप अपनी सहेली को समझाएँ कृपा करें देवी” सेवक रोता चिल्लाता बोला.
“कोई लाभ नहीं सेवक , धनुष से निकला वान और मुख से निकला शब्द कभी पीछे नहीं आते” चंपा ने कहा
“मैं क्षमा चाहता हूँ अपने पाप का प्रायश्चित्त करूँगा.. कृपा करें” सेवक बोला
“सेवक तुम्हारे भिंडी जैसे लिंग में क्या खास बात है? यदि यह लौकी जितना बड़ा लिंग होता तो एक क्षण मैं इसे मुख में लेने की सोचती भी”
“दया करें देवी…”
“कदापि नहीं” चंपा बोली और रुमाल को हल्का झटका दिया
सेवकों ने अपनी पिचकारी का मुख अपराधी सेवक की ओर किया
“क्षमा करें देवी बचाईए…….”
“नहीं” और चंपा ने रुमाल भूमिपर गिरा दिया.
पिचकारियों के मुख से हल्के पीले रंग के द्रव्य की पतली किंतु लंबी बौछार निकली जो हवा में अंतर काटते हुए अपराधी सेवक के कटी भाग से टकराई.
“इसस्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्सस्स” की आवाज़ हुई और उसके शरीर का वह भाग काला पड़ गया.
उसके अंडकोष गल कर ऐसे पिघल रहे थे जैसे मुर्गी के अंडे का गूदा गर्म तवे पर फैलता है. लिंग तेज़ाब से जलकर ऐसा सिकुड कर काला पड़ गया था जैसे भूनी हुई मूँगफल्ली.
“सेवक” चंपा क्रोध से चिंघाड़ते हुए बोली “क्या तुम्हें इतना भी ज्ञात नहीं कि अपनी स्वामिनी से कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए?”
“ग..ग…ग़लती हो गयी देवी..क…क…कृपया क्षमा करें” सेवक अपने घुटनों के बल बैठ कर भयवश हकलाते बोला.
“कदापि नहीं , एक स्त्री और वह भी अपनी स्वामिनी की ओर तुमने बुभूक्शित नेत्रों से दृष्टि डाली है इसका दंड तो तुम्हें अवश्य मिलेगा” चंपा का चिल्लाना जारी था.
“अपनी धोती उतारो”
“द…देवी???” सेवक भय से चौंक उठा
“आज्ञापालन तुरंत हो” चंपा ने हुक्म सुनाया
मरता क्या न करता सेवक को अहाते में सबके सामने और विशेष रूप से अपनी स्वामिनी के सामने धोती उतरनी पड़ी.
सबने देखा उस सेवक ने लंगोटी तो पहनी ही नही. मटर के दानों जितने बड़े अंडकोषों के उपर भिंडी जितनी लंबाई और सेम की फल्ली जितना मोटा लिंग लटक रहा था.
“इसके जनांग पर गंधक का अम्ल उडेल दो” चंपा ने आदेश सुनाया.
“न….नही.. देवी कृपा करें मेरा तो अभी विवाह भी नहीं हुआ”
“अपनी स्वामिनी पर कुदृष्टि डालता है दुष्ट? तेरा यही हश्र होगा यही तेरी नियती है” विषैली हँसी हंसते हुए चंपा बोली.
यह विडंबना ही थी जो स्वयं राजकुमारी स्वर्णकांता के वहाँ उपस्थित होते हुए उनकी मुँहलगी सहेली आदेश दिए जा रही थी.
स्वर्णकाँता चाह कर भी अपनी सहेली को रोक न पाई , इस घटना से वह स्वयं चकित थी परंतु सेवक की दृष्टता पर उसे रोष भी था.
दो सेवक गंधक के तेज़ाब की हंडिया ले आए , दो अन्य सेवकों ने दंडित सेवक के दोनो हाथ पेड़ से बाँध दिए.
इधर देवी स्वर्णकाँता भी स्नान करना छोड़ इस अदभुद घटनाक्रम की ओर देखे जा रही थी. चंपा ने हाथ में गुलाबी रेशमी रुमाल लिया. उधर सेवकों ने गंधक का अम्ल अपनी विशेष धातु की पिचकारियों में भरा .
“देवी चंपा क्षमा करें .. दया करें …इस ग़लती का इतना बड़ा दंड न दें मुझे… देवी स्वर्णकाँता मैं आपसे दया की भीख माँगता हूँ ,आप अपनी सहेली को समझाएँ कृपा करें देवी” सेवक रोता चिल्लाता बोला.
“कोई लाभ नहीं सेवक , धनुष से निकला वान और मुख से निकला शब्द कभी पीछे नहीं आते” चंपा ने कहा
“मैं क्षमा चाहता हूँ अपने पाप का प्रायश्चित्त करूँगा.. कृपा करें” सेवक बोला
“सेवक तुम्हारे भिंडी जैसे लिंग में क्या खास बात है? यदि यह लौकी जितना बड़ा लिंग होता तो एक क्षण मैं इसे मुख में लेने की सोचती भी”
“दया करें देवी…”
“कदापि नहीं” चंपा बोली और रुमाल को हल्का झटका दिया
सेवकों ने अपनी पिचकारी का मुख अपराधी सेवक की ओर किया
“क्षमा करें देवी बचाईए…….”
“नहीं” और चंपा ने रुमाल भूमिपर गिरा दिया.
पिचकारियों के मुख से हल्के पीले रंग के द्रव्य की पतली किंतु लंबी बौछार निकली जो हवा में अंतर काटते हुए अपराधी सेवक के कटी भाग से टकराई.
“इसस्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्सस्स” की आवाज़ हुई और उसके शरीर का वह भाग काला पड़ गया.
उसके अंडकोष गल कर ऐसे पिघल रहे थे जैसे मुर्गी के अंडे का गूदा गर्म तवे पर फैलता है. लिंग तेज़ाब से जलकर ऐसा सिकुड कर काला पड़ गया था जैसे भूनी हुई मूँगफल्ली.