हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम
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हिंदी सेक्स कहानियाँ
हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम पार्ट -४
कोई दस बजे वो कार से अपनी सहेली के घर चली गई। (मधु कार चला लेती है) जब मैं गेट बंद करके मैं ड्राइंग रूम में वापस आया तो मिक्की बाथरूम में थी शायद नहा रही थी।
मैं स्टडी रूम में चला गया। मैंने दो दिनों से अपने मेल चेक नहीं किये थे। मैंने जब कम्प्यूटर ओन किया तो सबसे पहले स्टार्ट मेन्यू में जाकर रिसेंट डॉक्यूमेंट्स देखे तो मेरी बांछे ही खिल गई। जैसा मैंने सोचा था वो ही हुआ। वीडियो पिक्चर की फाइल्स खोली गई थी और ये फाइलें तो मेरी चुनिन्दा ब्ल्यू-फिल्मों की फाइलें थी। आईला…!! मेरा दिल बेतहाशा धड़कने लगा। अब मेरे समझ में आया कि कल दोपहर में मिक्की स्टडी रूम से घबराई सी सीधे रसोई में क्यों चली गई थी।
मोनिका डार्लिंग तूने तो कमाल ही कर दिया। मेरे रास्ते की सारी बाधाएं कितनी आसानी से एक ही झटके में इस कदर साफ़ कर दी जैसे किसी ने कांटेदार झाड़ियाँ जड़ समेत काट दी हो और कालीन बिछा कर ऊपर फूल सजा दिए हो। अब मैं किसे धन्यवाद दूँ, अपने आपको, कंप्यूटर को, मिक्की को या फिर लिंग महादेव को ?
मैंने इन फाइल्स को फिर से पासवर्ड लगा कर लॉक कर दिया और अपनी आँखें बंद कर के सोचने लगा। मिक्की ने इन फाइल्स और पिक्चर्स को देख कर कैसा अनुभव किया होगा ? कल पूरे दिन में उसने कम्प्यूटर की कोई बात नहीं की वरना वो तो मेरा सिर ही खा जाती है। मैं भी कतई उल्लू हूँ मिक्की की आँखों की चमक, उसका सजाना संवारना, मेरे से चिपक कर बाइक पर बैठना, शुक्र पर्वत की बात करना, बंदरों की ठोका-ठुकाई की बात इससे ज्यादा बेचारी और क्या इशारा कर सकती थी। क्या वो नंगी होकर अपनी बुर हाथों में लिए आती और कहती लो आओ चोदो मुझे ? मुझे आज महसूस हुआ कि आदमी अपने आप को कितना भी चालाक, समझदार और प्रेम गुरु माने नारी जाति को कहाँ पूरी तरह समझ पाता है फिर मेरी क्या बिसात थी।
कम्प्यूटर बंद करके मैं आँखें बंद किये अभी अपने ख्यालों में खोया था कि अचानक मेरी आँखों पर दो नरम मुलायम हाथ और कानों के पास रेंगते हुए साँसों की मादक महक मेरे तन मन को सराबोर कर गई। इस जानी पहचानी खुशबू को तो मैं मरने के बाद भी नहीं भूल सकता, कैसे नहीं पहचानता। मेरे जीवन का यह बेशकीमती लम्हा काश कभी ख़त्म ही न हो और मैं क़यामत तक इसी तरह मेरी मिक्की मेरी मोना मेरी मोनिका के कोमल हाथों का मखमली स्पर्श महसूस करता रहूँ। मैंने धीरे से अपने हाथ कुर्सी के पीछे किए। उसके गोल चिकने नितम्ब मेरी बाहों के घेरे में आ गए, बीच में सिर्फ़ नाईटी और पैन्टी की रुकावट थी।
उफ्फ्फ… मिक्की की संगमरमरी जांघे उस पतली सी नाइटी के अन्दर बिलकुल नंगी थी। मैं इस लम्हे को इतना जल्दी ख़त्म नहीं होने देना चाहता था। पता नहीं कितनी देर मैं और मिक्की इसी अवस्था में रहे। फिर मैंने हौले से उसकी नरम नाज़ुक हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया और प्यार से उन्हें चूमने लगा। मिक्की ने अपना हाथ छुड़ा लिया और मेरे सामने आ कर खड़ी होकर पूछने लगी- कैसी लग रही हूँ?
मैंने उसके हाथ पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया और अपनी गोद में बैठा कर अपने जलते होंठ उसके होंठों पर चूमते हुए कहा- सुन्दर, सेक्सी ! बहुत प्यारी लग रही है मेरी, सिर्फ़ मेरी मिक्की !
मिक्की ने शरमाते हुए गर्दन झुका ली !
मैंने उसकी ठुड्डी पकड़ कर उसके चेहरे को ऊपर उठाया और फ़िर से उसके गुलाबी लब मेरे प्यासे होंठों की गिरफ़्त में आ गए। बरसों से तड़फती मेरी आत्मा उस रसीले अहसास से सराबोर हो गई। जैसे अंधे को आँखें मिल गई हो, भूले को रास्ता और बरसों से प्यासी धरती को सावन की पहली फुहार। जैसे किसी ने मेरे जलते होंटों पर होले से बर्फ की नाज़ुक सी फुहार छोड़ दी हो।
अब तो मिक्की भी सारी लाज़ त्याग कर मुझे इस तरह चूम रही थी कि जैसे वो सदियों से कैद एक ‘अभिशप्त राजकुमारी’ है, जैसे उसे केवल यही एक पल मिला है जीने के लिए और अपने बिछुड़े प्रेमी से मिलने का। मैं अपनी सुधबुध खोये कभी मिक्की की पीठ सहलाता कभी उसके नितम्बों को और कभी होले से उसकी नरम नाज़ुक गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठो को डरते डरते इस कदर चूम रहा था कि कहीं भूल से भी मेरे होंठो और अंगुलियों के खुरदरे अहसास से उसे थोड़ा सा भी कष्ट न हो। मेरे लिए ये चुम्बन उस ‘अनमोल रत्न’ की तरह था जिसके बदले में अगर पूरे जहां की खुदाई भी मिले तो कम है।
आप जानते होंगे मैं स्वर्ग-नर्क जैसी बातों में विश्वास नहीं रखता पर मुझे आज लग रहा था कि अगर कहीं स्वर्ग या जन्नत है तो बस यही है यही है यही है…!
अचानक ड्राइंग रूम में रखे फ़ोन की कर्कश घंटी की आवाज से हम दोनों चौंक गए। हे भगवान् इस समय कौन हो सकता है ? किसी अनहोनी और नई आफत की आशंका से मैं काँप उठा। मैंने डरते डरते फ़ोन का रिसीवर इस तरह उठाया जैसे कि ये कोई जहरीला बिच्छू हो। मेरा चेहरा ऐसे लग रहा था जैसे किसी ने मेरा सारा खून ही निचोड़ लिया हो।
मैं धीमी आवाज में हेल्लो बोला तो उधर से मधु की आवाज आई, “आपका मोबाइल स्विच ऑफ आ रहा है !”
ओह ! क्या बात है?” मैंने एक जोर की सांस ली।
“वो वो मैं कह रही थी किऽऽ किऽऽ हाँ ऽऽ मैं ठीक ठाक पहुँच गई हूँ और हाँ !”
पता नहीं ये औरतें मतलब की बात करना कब सीखेंगी “हाँ मैं सुन रहा हूँ”
“आर।। हाँ वो मिक्की को दवाई दे दी क्या ? उसे हल्दी वाला दूध पिलाया या नहीं ?”
“हाँ भई हाँ दूध और दवाई दोनों ही पिलाने कि कोशिश ही कर रहा था !” मैंने मिक्की की ओर देखते हुए कहा “हाँ एक बात और थी कल सुबह भैया और भाभी दोनों वापस आ रहे हैं उन्होंने मोबाइल पर बताया है कि अंकल अब ठीक हैं।” मधु बस बोले जा रही थी “सुबह मैं आते समय उन्हें स्टेशन से लेती आउंगी तुम परेशान मत होना। ओ के ! लव ! गुड नाईट एंड स्वीट ड्रीम्स !”
मधु जब बहुत खुश होती है तो मुझे लव कहकर बुलाती है (मेरा नाम प्रेम है ना)। लेकिन आज जिस अंदाज़ में मुझे उसने लव के साथ गुड नाईट और स्वीट ड्रीम्स कहा था मैं उसके इस चिढ़ाने वाले अंदाज़ को अच्छी तरह समझ रहा था। सारी रात उससे दूर ? पर उसे क्या पता था कि आज तो सारी रात ही मेरे स्वीट ड्रीम्स सच होने वाले हैं ?
मिक्की मेरे चेहरे की ओर देख रही थी। मैंने उसे जल्दी से सारी बात बता दी। वो पहले तो थोड़ा हंसी और फिर दौड़ कर मेरी बाहों में समा गई। मैंने उसे अपनी गोद में उठा कर उसके गालों पर एक करारा सा चुम्बन ले लिया। जवाब में उसने मेरे होंठ काट खाए जिससे उन पर थोड़ा सा खून भी निकल आया। इस छोटे से दर्द का मीठा अहसास मेरे से ज्यादा भला और कौन जान सकता है। मैं उसे गोद में उठाये अपने बेडरूम में आ गया। मिक्की की आँखें बंद थी। वो तो बस हसीं ख़्वाबों की दुनिया में इस कदर खोई थी कि कब मैंने उसकी नाइटी उतार दी उसे कोई भान ही नहीं रहा।
और अब बेजोड़ हुस्न की मल्लिका मेरे आगोश में आँखें बंद किये बैठी थी। अगर ठेठ उज्जड भाषा में कहा जाए तो मेरी हालत उस भूखे शेर की तरह थी जिसके सामने बेबस शिकार पड़ा हो और वो ये सोच रहा हो कि कहाँ से शुरू करे। लेकिन मैं कोई शिकारी या जंगली हिंसक पशु नहीं था। मैं तो प्रेम का पुजारी था। अगर रोमांटिक भाषा में कहा जाए तो मेरे सामने छत्तीस प्रकार के व्यंजन पड़े थे और मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि कौन सा पकवान पहले खाऊं ।
मैंने अभी कपड़े नहीं उतारे थे। मैंने कुर्ता-पायजामा पहने हुआ था। मेरा लंड मेरे काबू में नहीं था वो किसी नाग की तरह फुफकार मार रहा था। १२० डिग्री के कोण में पायजामे को फाड़ कर बाहर आने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था। मिक्की मेरी गोद में बैठी थी। हमारे होंठ आपस में चिपके हुए थे। मिक्की ने अपनी जीभ मेरे मुंह में डाल दी और मैं उसे रसभरी कुल्फी की तरह चूसने लगा। मेरा लंड उसकी नाज़ुक नितम्बों की खाई के बीच अपना सिर फोड़ता हुआ बेबस नज़र आ रहा था। मैं कभी मिक्की के गालों को चूमता कभी होंठो को कभी नाक को कभी उसके कानो को और कभी पलकों को। मिक्की मेरे सीने से छिपाते हुए मुझे बाहों में जकड़े गोद में ऐसे बैठी थी जैसे अगर थोड़ा भी उसका बंधन ढीला हुआ तो उसके आगोश से उसका ख्वाब कोई छीन कर ले जायेगा। कमोबेश मेरी भी यही हालत थी।
कोई १०-१५ मिनट के बाद जब हमारी पकड़ कुछ ढीली हुई तो मिक्की को अपने बदन पर नाइटी न होने का भान हुआ। उसने हैरानी से इधर उधर देखा और फिर मेरी गोद से थोड़ा सा छिटक कर मारे शर्म के अपने हाथ अपनी आँखों पर रख लिए। नाइटी तो कब की शहीद होकर एक कोने में दुबकी पड़ी थी जैसे मरी हुई चिड़िया।
“मेरी नाइटी?”
“मेरी प्रियतमा, आँखें खोलो !”
“नहीं पहले मेरी नाइटी दो, मुझे शर्म आ रही है !”
“अरे मेरी बिल्लो रानी ! अब शर्म छोड़ो ! तुम इस ब्रा पेंटी में कितनी खूबसूरत लग रही हो जरा मेरी आँखों से देखो तो सही अपने आपको ! तुम यही तो दिखाने आई थी ना !”
“नहीं पहले लाईट बंद करो !”
“लाइट बंद करके मैं कैसे रसपान करूंगा तुम्हारी इस नायाब सुन्दरता का, यौवन का !”
“जिज्जू ! प्लीज़ ! मुझे शर्म आ रही है !”
मैंने न चाहते हुए भी उठ कर लाईट बंद कर दी पर बाथरूम का दरवाजा खोल दिया जिसमे से हलकी रोशनी आ रही थी।
“अब तो आँखे खोल दो मेरी प्रियतमा !”
“नहीं पहले खिड़की का पर्दा करो !”
“क्यों वह कौन है ?”
अरे वह मेरे मामाजी खड़े है जो हमारी रासलीला देख रहे हैं।”
“मामाजी ? कौन मामाजी ?” मैंने हैरानी से पूछा।
“ओफ्फ ओ !! आप भी निरे घोंचू है अरे बाबा ! चन्दा मामा !”
मेरी बेतहाशा हंसी निकल गई। बाहर एकम का चाँद खिड़की के बाहर हमारे प्यार का साक्षी बना अपनी दूधिया रोशनी बिखेर रहा था।
मैंने उसे बिस्तर पर लिटा लिया और खुद उसकी बगल में लेट कर अपनी एक टाँग उसकी जाँघों पर रख ली और उसके चेहरे पर झुक कर उसे चूमने लगा। मेरा एक हाथ उसके गाल पर था और दूसरा उसके बालों, लगे और कन्धे को सहला रहा था। मेरी जीभ उसके मुख के अनदर मुआयना कर रही थी। अब वो भी अपनी जीभ मेरी जीभ से टकरा टकरा कर मस्ती ले रही थी।
धीरे धीरे मेरा हाथ उसके यौवन कपोतों पर आ गया, वो जैसे सिहर सी गई, उसने मेरी आँखों में झांका और मेरा हाथ उसके कंधे से ब्रा की पट्टी को बाजू पर सरकाने लगा। मेरी उंगलियां उसकी ब्रा के कप में घुस गई और उसके तने हुए चूचुक से जा टकराई। मैंने उसके स्तनाग्र को दो उंगलियों में लेकर हल्के से मसला वो सीत्कार उठी।
फ़िर मेरा हाथ उसकी पीठ पर सरकता हुआ उसकी ब्रा के हुक तक पहुँच गया और हुक खुलते ही मैं ब्रा को उसके बदन से अलग करने की कोशिश करने लगा तो मिक्की जैसे तन्द्रा से जागी और अपनी सम्भालने लगी। लेकिन तब तक तो उसकी ब्रा मेरे हाथ में झूलने लगी थी और मिक्की फ़िर से मेरी आँखों में आँखें डाल कर मानो पूछ रही थी कि “यह क्या हो रहा है?”
काले रंग की ब्रा जैसे ही हटी, दोनों कबूतर ऐसे तन कर खड़े हो गए जैसे बरसों के बाद उन्हें आजादी मिली हो। छोटे नागपुरी संतरों की साइज़ के दो गोल गोल रस्कूप मेरे सामने थे। बादामी और थोड़ी गुलाबी रंगत लिए उसके एरोला कोई एक रुपये के सिक्के से बड़े तो नहीं थे। अनार के दाने जीतनी सुर्ख लाल रंग की छोटी सी घुंडी। आह्ह्ह…।।
मैंने तड़ से एक चुम्बन उस पर ले ही लिया। मिक्की सिहर उठी। पहले मैंने उनपर होले से जीभ फिराई और अब मैंने अपने आप को पूरी तरह से मिक्की के ऊपर लाकर उसके गोरे, चिकने बदन को अपने बदन से ढक दिया और उसके एक चूचुक को होठों में दबा कर जैसे उसमें से दूध पीने का प्रयत्न करने लगा। मेरा लण्ड उसकी जांघों के बीच में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा था।
और बाद में मैंने एक संतरा पूरे का पूरा अपने मुंह में ले लिया और चूसने लगा। मिक्की की सिसकारियां गूंजने लगी। मेरा एक हाथ उसकी पीठ और गोल गोल नितम्बों पर घूम रहा था। और दूसरे हाथ से उसका दूसरा स्तन दबा रहा था। मैंने जानबूझ कर उसकी बुर पर हाथ नहीं फेरा था इसका कारण मैं आपको बाद में बताऊंगा।
मेरे दस मिनट तक चूसने के कारण उसके उरोज साइज़ में कोई दो इंच तो जरूर बढ़ गए थे और निप्पल्स तो पेंसिल की नोक की तरह एकदम तीखे हो गए। मैंने उसे बेड पर लिटा दिया। उसका एक हाथ थोड़ा सा ऊपर उठा हुआ था। उसकी कांख में उगे सुनहरे रंग के रोएँ देख कर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और अपना मुंह वहाँ पर टिका दिया। हालांकि वो नहा कर आई थी पर उसके उभरते यौवन की उस खट्टी, मीठी, नमकीन सी खुशबू से मेरा स्नायु तंत्र एक मादक महक से भर उठा। मैंने जब जीभ से चाटा तो मिक्की उतेजना और गुदगुदी से रोमांचित हो उठी।
अब मैंने पहले उसके गालों पर आई बालो की आवारा लट को हटा कर उसका चेहरा अपनी हथेलियों में ले लिया। थरथराते होंठो से उसके माथे को, फिर आँखों की पलकों को, कपोलों को, उसकी नासिका, उसके कानों की लोब और अधरों को चूमता चला गया। मिक्की पलकें बंद किये सपनों की दुनिया में खोई हुई थी। उसकी साँसे तेज चल रही थी होंठ कंपकपा रहे थे। मैंने उसके गले और फिर उसके बूब्स को चूमा। दोनों उरोजों की घाटी में अपनी जीभ लगा कर चाटा तो मिक्की के होंठो से बस एक हलकी सी कामरस में भीगी सित्कार निकल गई। हालांकि रौशनी में चमकता उसका चिकना सफ्फाक बदन मेरे सामने सब कुछ लुटाने के लिए बिखरा पड़ा था।
अचानक उसे ध्यान आया कि मैं तो पूरे कपड़े पहने हुए हूँ, उसने मुझे उलाहना देते हुए कहा “अच्छा जी आपने तो अपने कपड़े उतारे ही नहीं !”
मैं तो इसी ताक में था। दरअसल मैंने अपने कपड़े पहले इस लिए नहीं उतारे थे कि कहीं मिक्की मेरा सात इंच का फनफनाता हुआ लंड देखकर डर न जाए और ये न सोचे कि मैं जबरन कुछ कर देने पर तुला हुआ हूँ या कहीं उसका बलात्कार ही तो नहीं करना चाहता। कपड़े उतार कर मैं डबल बेड पर सिरहाने की ओर कमर टिका कर बैठ गया। मेरी एक टांग सीधी थी और दूसरी कुछ मुड़ी हुई जिसकी जांघ पर मिक्की अपना सिर रखे आँखें बंद किये लेटी थी। मैंने नीचे झुक कर उसका चुम्बन लेने की कोशिश की तो वो थोड़ा सा नीचे की ओर घूम गई। मेरा आधा लंड चड्डी के बाहर निकला हुआ था वो उसके होंठों से लग गया। मुझे तो मन मांगी मुराद मिल गई।
मैंने उसे कहा- मिक्की देखो इसे कैसे मुंह उठाए तुम्हें देख रहा है ! हाथ में लो ना इसे !
हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम पार्ट -४
कोई दस बजे वो कार से अपनी सहेली के घर चली गई। (मधु कार चला लेती है) जब मैं गेट बंद करके मैं ड्राइंग रूम में वापस आया तो मिक्की बाथरूम में थी शायद नहा रही थी।
मैं स्टडी रूम में चला गया। मैंने दो दिनों से अपने मेल चेक नहीं किये थे। मैंने जब कम्प्यूटर ओन किया तो सबसे पहले स्टार्ट मेन्यू में जाकर रिसेंट डॉक्यूमेंट्स देखे तो मेरी बांछे ही खिल गई। जैसा मैंने सोचा था वो ही हुआ। वीडियो पिक्चर की फाइल्स खोली गई थी और ये फाइलें तो मेरी चुनिन्दा ब्ल्यू-फिल्मों की फाइलें थी। आईला…!! मेरा दिल बेतहाशा धड़कने लगा। अब मेरे समझ में आया कि कल दोपहर में मिक्की स्टडी रूम से घबराई सी सीधे रसोई में क्यों चली गई थी।
मोनिका डार्लिंग तूने तो कमाल ही कर दिया। मेरे रास्ते की सारी बाधाएं कितनी आसानी से एक ही झटके में इस कदर साफ़ कर दी जैसे किसी ने कांटेदार झाड़ियाँ जड़ समेत काट दी हो और कालीन बिछा कर ऊपर फूल सजा दिए हो। अब मैं किसे धन्यवाद दूँ, अपने आपको, कंप्यूटर को, मिक्की को या फिर लिंग महादेव को ?
मैंने इन फाइल्स को फिर से पासवर्ड लगा कर लॉक कर दिया और अपनी आँखें बंद कर के सोचने लगा। मिक्की ने इन फाइल्स और पिक्चर्स को देख कर कैसा अनुभव किया होगा ? कल पूरे दिन में उसने कम्प्यूटर की कोई बात नहीं की वरना वो तो मेरा सिर ही खा जाती है। मैं भी कतई उल्लू हूँ मिक्की की आँखों की चमक, उसका सजाना संवारना, मेरे से चिपक कर बाइक पर बैठना, शुक्र पर्वत की बात करना, बंदरों की ठोका-ठुकाई की बात इससे ज्यादा बेचारी और क्या इशारा कर सकती थी। क्या वो नंगी होकर अपनी बुर हाथों में लिए आती और कहती लो आओ चोदो मुझे ? मुझे आज महसूस हुआ कि आदमी अपने आप को कितना भी चालाक, समझदार और प्रेम गुरु माने नारी जाति को कहाँ पूरी तरह समझ पाता है फिर मेरी क्या बिसात थी।
कम्प्यूटर बंद करके मैं आँखें बंद किये अभी अपने ख्यालों में खोया था कि अचानक मेरी आँखों पर दो नरम मुलायम हाथ और कानों के पास रेंगते हुए साँसों की मादक महक मेरे तन मन को सराबोर कर गई। इस जानी पहचानी खुशबू को तो मैं मरने के बाद भी नहीं भूल सकता, कैसे नहीं पहचानता। मेरे जीवन का यह बेशकीमती लम्हा काश कभी ख़त्म ही न हो और मैं क़यामत तक इसी तरह मेरी मिक्की मेरी मोना मेरी मोनिका के कोमल हाथों का मखमली स्पर्श महसूस करता रहूँ। मैंने धीरे से अपने हाथ कुर्सी के पीछे किए। उसके गोल चिकने नितम्ब मेरी बाहों के घेरे में आ गए, बीच में सिर्फ़ नाईटी और पैन्टी की रुकावट थी।
उफ्फ्फ… मिक्की की संगमरमरी जांघे उस पतली सी नाइटी के अन्दर बिलकुल नंगी थी। मैं इस लम्हे को इतना जल्दी ख़त्म नहीं होने देना चाहता था। पता नहीं कितनी देर मैं और मिक्की इसी अवस्था में रहे। फिर मैंने हौले से उसकी नरम नाज़ुक हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया और प्यार से उन्हें चूमने लगा। मिक्की ने अपना हाथ छुड़ा लिया और मेरे सामने आ कर खड़ी होकर पूछने लगी- कैसी लग रही हूँ?
मैंने उसके हाथ पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया और अपनी गोद में बैठा कर अपने जलते होंठ उसके होंठों पर चूमते हुए कहा- सुन्दर, सेक्सी ! बहुत प्यारी लग रही है मेरी, सिर्फ़ मेरी मिक्की !
मिक्की ने शरमाते हुए गर्दन झुका ली !
मैंने उसकी ठुड्डी पकड़ कर उसके चेहरे को ऊपर उठाया और फ़िर से उसके गुलाबी लब मेरे प्यासे होंठों की गिरफ़्त में आ गए। बरसों से तड़फती मेरी आत्मा उस रसीले अहसास से सराबोर हो गई। जैसे अंधे को आँखें मिल गई हो, भूले को रास्ता और बरसों से प्यासी धरती को सावन की पहली फुहार। जैसे किसी ने मेरे जलते होंटों पर होले से बर्फ की नाज़ुक सी फुहार छोड़ दी हो।
अब तो मिक्की भी सारी लाज़ त्याग कर मुझे इस तरह चूम रही थी कि जैसे वो सदियों से कैद एक ‘अभिशप्त राजकुमारी’ है, जैसे उसे केवल यही एक पल मिला है जीने के लिए और अपने बिछुड़े प्रेमी से मिलने का। मैं अपनी सुधबुध खोये कभी मिक्की की पीठ सहलाता कभी उसके नितम्बों को और कभी होले से उसकी नरम नाज़ुक गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठो को डरते डरते इस कदर चूम रहा था कि कहीं भूल से भी मेरे होंठो और अंगुलियों के खुरदरे अहसास से उसे थोड़ा सा भी कष्ट न हो। मेरे लिए ये चुम्बन उस ‘अनमोल रत्न’ की तरह था जिसके बदले में अगर पूरे जहां की खुदाई भी मिले तो कम है।
आप जानते होंगे मैं स्वर्ग-नर्क जैसी बातों में विश्वास नहीं रखता पर मुझे आज लग रहा था कि अगर कहीं स्वर्ग या जन्नत है तो बस यही है यही है यही है…!
अचानक ड्राइंग रूम में रखे फ़ोन की कर्कश घंटी की आवाज से हम दोनों चौंक गए। हे भगवान् इस समय कौन हो सकता है ? किसी अनहोनी और नई आफत की आशंका से मैं काँप उठा। मैंने डरते डरते फ़ोन का रिसीवर इस तरह उठाया जैसे कि ये कोई जहरीला बिच्छू हो। मेरा चेहरा ऐसे लग रहा था जैसे किसी ने मेरा सारा खून ही निचोड़ लिया हो।
मैं धीमी आवाज में हेल्लो बोला तो उधर से मधु की आवाज आई, “आपका मोबाइल स्विच ऑफ आ रहा है !”
ओह ! क्या बात है?” मैंने एक जोर की सांस ली।
“वो वो मैं कह रही थी किऽऽ किऽऽ हाँ ऽऽ मैं ठीक ठाक पहुँच गई हूँ और हाँ !”
पता नहीं ये औरतें मतलब की बात करना कब सीखेंगी “हाँ मैं सुन रहा हूँ”
“आर।। हाँ वो मिक्की को दवाई दे दी क्या ? उसे हल्दी वाला दूध पिलाया या नहीं ?”
“हाँ भई हाँ दूध और दवाई दोनों ही पिलाने कि कोशिश ही कर रहा था !” मैंने मिक्की की ओर देखते हुए कहा “हाँ एक बात और थी कल सुबह भैया और भाभी दोनों वापस आ रहे हैं उन्होंने मोबाइल पर बताया है कि अंकल अब ठीक हैं।” मधु बस बोले जा रही थी “सुबह मैं आते समय उन्हें स्टेशन से लेती आउंगी तुम परेशान मत होना। ओ के ! लव ! गुड नाईट एंड स्वीट ड्रीम्स !”
मधु जब बहुत खुश होती है तो मुझे लव कहकर बुलाती है (मेरा नाम प्रेम है ना)। लेकिन आज जिस अंदाज़ में मुझे उसने लव के साथ गुड नाईट और स्वीट ड्रीम्स कहा था मैं उसके इस चिढ़ाने वाले अंदाज़ को अच्छी तरह समझ रहा था। सारी रात उससे दूर ? पर उसे क्या पता था कि आज तो सारी रात ही मेरे स्वीट ड्रीम्स सच होने वाले हैं ?
मिक्की मेरे चेहरे की ओर देख रही थी। मैंने उसे जल्दी से सारी बात बता दी। वो पहले तो थोड़ा हंसी और फिर दौड़ कर मेरी बाहों में समा गई। मैंने उसे अपनी गोद में उठा कर उसके गालों पर एक करारा सा चुम्बन ले लिया। जवाब में उसने मेरे होंठ काट खाए जिससे उन पर थोड़ा सा खून भी निकल आया। इस छोटे से दर्द का मीठा अहसास मेरे से ज्यादा भला और कौन जान सकता है। मैं उसे गोद में उठाये अपने बेडरूम में आ गया। मिक्की की आँखें बंद थी। वो तो बस हसीं ख़्वाबों की दुनिया में इस कदर खोई थी कि कब मैंने उसकी नाइटी उतार दी उसे कोई भान ही नहीं रहा।
और अब बेजोड़ हुस्न की मल्लिका मेरे आगोश में आँखें बंद किये बैठी थी। अगर ठेठ उज्जड भाषा में कहा जाए तो मेरी हालत उस भूखे शेर की तरह थी जिसके सामने बेबस शिकार पड़ा हो और वो ये सोच रहा हो कि कहाँ से शुरू करे। लेकिन मैं कोई शिकारी या जंगली हिंसक पशु नहीं था। मैं तो प्रेम का पुजारी था। अगर रोमांटिक भाषा में कहा जाए तो मेरे सामने छत्तीस प्रकार के व्यंजन पड़े थे और मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि कौन सा पकवान पहले खाऊं ।
मैंने अभी कपड़े नहीं उतारे थे। मैंने कुर्ता-पायजामा पहने हुआ था। मेरा लंड मेरे काबू में नहीं था वो किसी नाग की तरह फुफकार मार रहा था। १२० डिग्री के कोण में पायजामे को फाड़ कर बाहर आने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था। मिक्की मेरी गोद में बैठी थी। हमारे होंठ आपस में चिपके हुए थे। मिक्की ने अपनी जीभ मेरे मुंह में डाल दी और मैं उसे रसभरी कुल्फी की तरह चूसने लगा। मेरा लंड उसकी नाज़ुक नितम्बों की खाई के बीच अपना सिर फोड़ता हुआ बेबस नज़र आ रहा था। मैं कभी मिक्की के गालों को चूमता कभी होंठो को कभी नाक को कभी उसके कानो को और कभी पलकों को। मिक्की मेरे सीने से छिपाते हुए मुझे बाहों में जकड़े गोद में ऐसे बैठी थी जैसे अगर थोड़ा भी उसका बंधन ढीला हुआ तो उसके आगोश से उसका ख्वाब कोई छीन कर ले जायेगा। कमोबेश मेरी भी यही हालत थी।
कोई १०-१५ मिनट के बाद जब हमारी पकड़ कुछ ढीली हुई तो मिक्की को अपने बदन पर नाइटी न होने का भान हुआ। उसने हैरानी से इधर उधर देखा और फिर मेरी गोद से थोड़ा सा छिटक कर मारे शर्म के अपने हाथ अपनी आँखों पर रख लिए। नाइटी तो कब की शहीद होकर एक कोने में दुबकी पड़ी थी जैसे मरी हुई चिड़िया।
“मेरी नाइटी?”
“मेरी प्रियतमा, आँखें खोलो !”
“नहीं पहले मेरी नाइटी दो, मुझे शर्म आ रही है !”
“अरे मेरी बिल्लो रानी ! अब शर्म छोड़ो ! तुम इस ब्रा पेंटी में कितनी खूबसूरत लग रही हो जरा मेरी आँखों से देखो तो सही अपने आपको ! तुम यही तो दिखाने आई थी ना !”
“नहीं पहले लाईट बंद करो !”
“लाइट बंद करके मैं कैसे रसपान करूंगा तुम्हारी इस नायाब सुन्दरता का, यौवन का !”
“जिज्जू ! प्लीज़ ! मुझे शर्म आ रही है !”
मैंने न चाहते हुए भी उठ कर लाईट बंद कर दी पर बाथरूम का दरवाजा खोल दिया जिसमे से हलकी रोशनी आ रही थी।
“अब तो आँखे खोल दो मेरी प्रियतमा !”
“नहीं पहले खिड़की का पर्दा करो !”
“क्यों वह कौन है ?”
अरे वह मेरे मामाजी खड़े है जो हमारी रासलीला देख रहे हैं।”
“मामाजी ? कौन मामाजी ?” मैंने हैरानी से पूछा।
“ओफ्फ ओ !! आप भी निरे घोंचू है अरे बाबा ! चन्दा मामा !”
मेरी बेतहाशा हंसी निकल गई। बाहर एकम का चाँद खिड़की के बाहर हमारे प्यार का साक्षी बना अपनी दूधिया रोशनी बिखेर रहा था।
मैंने उसे बिस्तर पर लिटा लिया और खुद उसकी बगल में लेट कर अपनी एक टाँग उसकी जाँघों पर रख ली और उसके चेहरे पर झुक कर उसे चूमने लगा। मेरा एक हाथ उसके गाल पर था और दूसरा उसके बालों, लगे और कन्धे को सहला रहा था। मेरी जीभ उसके मुख के अनदर मुआयना कर रही थी। अब वो भी अपनी जीभ मेरी जीभ से टकरा टकरा कर मस्ती ले रही थी।
धीरे धीरे मेरा हाथ उसके यौवन कपोतों पर आ गया, वो जैसे सिहर सी गई, उसने मेरी आँखों में झांका और मेरा हाथ उसके कंधे से ब्रा की पट्टी को बाजू पर सरकाने लगा। मेरी उंगलियां उसकी ब्रा के कप में घुस गई और उसके तने हुए चूचुक से जा टकराई। मैंने उसके स्तनाग्र को दो उंगलियों में लेकर हल्के से मसला वो सीत्कार उठी।
फ़िर मेरा हाथ उसकी पीठ पर सरकता हुआ उसकी ब्रा के हुक तक पहुँच गया और हुक खुलते ही मैं ब्रा को उसके बदन से अलग करने की कोशिश करने लगा तो मिक्की जैसे तन्द्रा से जागी और अपनी सम्भालने लगी। लेकिन तब तक तो उसकी ब्रा मेरे हाथ में झूलने लगी थी और मिक्की फ़िर से मेरी आँखों में आँखें डाल कर मानो पूछ रही थी कि “यह क्या हो रहा है?”
काले रंग की ब्रा जैसे ही हटी, दोनों कबूतर ऐसे तन कर खड़े हो गए जैसे बरसों के बाद उन्हें आजादी मिली हो। छोटे नागपुरी संतरों की साइज़ के दो गोल गोल रस्कूप मेरे सामने थे। बादामी और थोड़ी गुलाबी रंगत लिए उसके एरोला कोई एक रुपये के सिक्के से बड़े तो नहीं थे। अनार के दाने जीतनी सुर्ख लाल रंग की छोटी सी घुंडी। आह्ह्ह…।।
मैंने तड़ से एक चुम्बन उस पर ले ही लिया। मिक्की सिहर उठी। पहले मैंने उनपर होले से जीभ फिराई और अब मैंने अपने आप को पूरी तरह से मिक्की के ऊपर लाकर उसके गोरे, चिकने बदन को अपने बदन से ढक दिया और उसके एक चूचुक को होठों में दबा कर जैसे उसमें से दूध पीने का प्रयत्न करने लगा। मेरा लण्ड उसकी जांघों के बीच में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा था।
और बाद में मैंने एक संतरा पूरे का पूरा अपने मुंह में ले लिया और चूसने लगा। मिक्की की सिसकारियां गूंजने लगी। मेरा एक हाथ उसकी पीठ और गोल गोल नितम्बों पर घूम रहा था। और दूसरे हाथ से उसका दूसरा स्तन दबा रहा था। मैंने जानबूझ कर उसकी बुर पर हाथ नहीं फेरा था इसका कारण मैं आपको बाद में बताऊंगा।
मेरे दस मिनट तक चूसने के कारण उसके उरोज साइज़ में कोई दो इंच तो जरूर बढ़ गए थे और निप्पल्स तो पेंसिल की नोक की तरह एकदम तीखे हो गए। मैंने उसे बेड पर लिटा दिया। उसका एक हाथ थोड़ा सा ऊपर उठा हुआ था। उसकी कांख में उगे सुनहरे रंग के रोएँ देख कर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और अपना मुंह वहाँ पर टिका दिया। हालांकि वो नहा कर आई थी पर उसके उभरते यौवन की उस खट्टी, मीठी, नमकीन सी खुशबू से मेरा स्नायु तंत्र एक मादक महक से भर उठा। मैंने जब जीभ से चाटा तो मिक्की उतेजना और गुदगुदी से रोमांचित हो उठी।
अब मैंने पहले उसके गालों पर आई बालो की आवारा लट को हटा कर उसका चेहरा अपनी हथेलियों में ले लिया। थरथराते होंठो से उसके माथे को, फिर आँखों की पलकों को, कपोलों को, उसकी नासिका, उसके कानों की लोब और अधरों को चूमता चला गया। मिक्की पलकें बंद किये सपनों की दुनिया में खोई हुई थी। उसकी साँसे तेज चल रही थी होंठ कंपकपा रहे थे। मैंने उसके गले और फिर उसके बूब्स को चूमा। दोनों उरोजों की घाटी में अपनी जीभ लगा कर चाटा तो मिक्की के होंठो से बस एक हलकी सी कामरस में भीगी सित्कार निकल गई। हालांकि रौशनी में चमकता उसका चिकना सफ्फाक बदन मेरे सामने सब कुछ लुटाने के लिए बिखरा पड़ा था।
अचानक उसे ध्यान आया कि मैं तो पूरे कपड़े पहने हुए हूँ, उसने मुझे उलाहना देते हुए कहा “अच्छा जी आपने तो अपने कपड़े उतारे ही नहीं !”
मैं तो इसी ताक में था। दरअसल मैंने अपने कपड़े पहले इस लिए नहीं उतारे थे कि कहीं मिक्की मेरा सात इंच का फनफनाता हुआ लंड देखकर डर न जाए और ये न सोचे कि मैं जबरन कुछ कर देने पर तुला हुआ हूँ या कहीं उसका बलात्कार ही तो नहीं करना चाहता। कपड़े उतार कर मैं डबल बेड पर सिरहाने की ओर कमर टिका कर बैठ गया। मेरी एक टांग सीधी थी और दूसरी कुछ मुड़ी हुई जिसकी जांघ पर मिक्की अपना सिर रखे आँखें बंद किये लेटी थी। मैंने नीचे झुक कर उसका चुम्बन लेने की कोशिश की तो वो थोड़ा सा नीचे की ओर घूम गई। मेरा आधा लंड चड्डी के बाहर निकला हुआ था वो उसके होंठों से लग गया। मुझे तो मन मांगी मुराद मिल गई।
मैंने उसे कहा- मिक्की देखो इसे कैसे मुंह उठाए तुम्हें देख रहा है ! हाथ में लो ना इसे !
Re: हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम
हिंदी सेक्स कहानियाँ
हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम पार्ट -५
मिक्की ने हिचकिचाते हुए पहले तो उसने अपनी नाज़ुक अंगुलियों से उसे प्यार से छुआ और फिर अन्डरवीयर नीचे खिसकाते हुए मेरे लण्ड को पूरा अपने हाथों में भर लिया और सहलाने लगी। मेरे लण्ड ने एक ठुमका लगते हुए उसे सलामी दी और पत्थर की तरह कठोर हो गया। अब मिक्की लगभग औंधी लेटे मेरे लण्ड के साथ खेल रही थी और मेरे सामने थे उसके गोल मटोल नितम्ब। मैंने उन पर प्यार से हाथ फिराना शुरू कर दिया। वाह क्या घाटियाँ थी।
गुलाबी रंग की कसी हुई दो गोलाकार पहाड़ियां और उनके बीच एक बहती नदी की मानिंद गहरी होती खाई। मैं तो किसी अनजाने जादू से बंधा बस उसे देखता ही रह गया। फिर धीरे से मैंने पैंटी के ऊपर से ही उन गोलाइयों पर हाथ फेरना शुरू कर दिया।
मैंने एक हाथ से उसका चेहरा अपने लण्ड के सुपाड़े पर छुआते हुए कहा- इसे प्यार कर ना ! चूम लो मेरे लौड़े को अपने होठों से !
रहस्यमयी मुस्कान अपने होठों पर लाते हुए मिक्की ने मुझे घूरा और फिर तड़ से एक चुम्बन ले लिया। मिक्की के होंठ थोड़े खुले थे, मैंने एक हल्का सा झटका ऊपर को लगाया तो पूरा सुपाड़ा मिक्की के मुँह में चला गया। वो इसे बाहर निकालना ही चाहती थी कि मैंने उसके सिर को नीचे दबा दिया जिससे मेरा पूरा लण्ड उसके गले तक चला गया और वो गों-गों करने लगी। तब मैंने उसके सिर को छोड़ा, उसने लण्ड को मुँह से निकाला और बनावटी गुस्से से बोली- क्या करते हो जिज्जू? मेरा तो सांस ही रुक गया था !
चूसो ना जैसे अंगूठा चूसती हो ! बहुत मज़ा आएगा तुम्हें और मुझे भी !
यह तो अंगूठे से दुगना मोटा है ! कहते हुए उसने मेरी आंखों में देखा और मेरा आधा लौड़ा अपने मुंह में ले लिया और चूसने की कोशिश करने लगी। फ़िर लण्ड को मुंह से निकाल कर बोली- कैसे चूसूँ? चूसा ही नहीं जा रहा !
मैंने उसे लण्ड को मुंह में लेने को कहा और फ़िर उसका सिर पकड़ कर उसके मुंह में दो-चार धक्के लगाते हुए कहा- ऐसे चूसो !
अब तो वो लण्ड चूसने में मस्त हो गई और मैं अपनी उंगलियाँ उसकी पैन्टी में ले गया उसके अनावृत कूल्हों का जायजा लेने !
इससे बेखबर मेरा लण्ड चूसे जा रही थी किसी आइस-कैंडी की तरह जैसे मैंने उसे परसों मज़ाक में कुल्फी चूसने को कहा था।
ये लड़की तो लण्ड चूसने में अपनी मम्मी (सुधा) को भी पीछे छोड़ देगी। आह उसकी नरम मुलायम थूक से गीली जीभ का गुनगुना अहसास अच्छे अच्छों का पानी निचोड़ ले। कोई पाँच-छः मिनट उसने मेरा लण्ड चूसा होगा। फिर वो अपने होंठो पर जीभ फेरती हुई उठ खड़ी हुई। उसकी रसीली आँखों में एक नई चमक सी थी। जैसे मुझे पूछ रही हो कैसा लगा ?
मैं थोड़ी देर ऐसे ही बारी बारी उसके सभी अंगों को चूमता रहा लेकिन उसकी बुर को हाथ नहीं लगाया। मैं जानता था कि मिक्की की बुर ने अब तक बेतहाशा काम-रस छोड़ दिया होगा पर मैं तो उसे पूरी तरह तैयार और उत्तेजित करके ही आगे बढ़ना चाहता था ताकि उसे अपनी बुर में मेरा लण्ड लेते समय कम से कम परेशानी हो। मेरा लण्ड प्री-कम के टुपके छोड़ छोड़ कर पागल हुआ जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि अगर अब थोड़ी देर की तो यह बगावत पर उतर आएगा या खुदकुशी कर लेने पर मजबूर हो जायेगा। आप मेरी हालत समझ रहे है ना।
मिक्की की आँखें अब भी बंद थी। मैंने धीरे से उससे कहा,”आँखें खोलो मेरी प्रियतमा”
तो वो उनींदी आँखों से बोली,”बस कुछ मत कहो ऐसे ही मुझे प्यार किये जाओ मेरे प्रियतम !”
प्यारे पाठको और पाठिकाओं ! अब पैंटी की दीवार हटाने का समय आ गया था। मैंने मिक्की से जब पैंटी उतारने को कहा तो उसने कहा,” पहले आप अपना अंडरवियर तो उतारो !”
मेरा अंडरवियर तो पहले ही घायल हो चुका था याने फट चुका था बस नाम मात्र का अटका हुआ था। मैंने एक झटके में उसे निकाल फेंका और फिर मिक्की की पैंटी को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर धीरे धीरे नीचे करना शुरू किया- अब तो क़यामत सिर्फ एक या दो इंच ही दूर थी !!
जिसके लिए विश्वामित्र और नारद जैसे महा-ऋषियों का मन डोल गया वो पल अब मेरे सामने आने वाला था। पहले सुनहरे रोएँ नज़र आये और फिर दो भागो में बटा बुर का पहला नज़ारा- रक्तिम चीरा बाहरी होंठ मोटे और सुर्ख लाल गुलाबी रंगत लिए छोटे होंठ कुछ श्यामलता लिए दोनों आपस में प्रगाढ़ सहेलियों की तरह चिपके हुए और उसके नीचे सुनहरी रंग का गोल गोल गांड का छेद। आह… मैं तो बस इस दिलकश नजारे को देख कर अपनी सुध बुध ही खो बैठा।
पैंटी निकाल कर दूर फेंक दी। उसकी संगमरमरी जांघे केले के तने की तरह चिकनी और सुडोल जाँघों को मैंने कांपते हाथों से उन्हें सहलाया तो मिक्की की एक सित्कार निकल गई और उसके पैर अपने आप चौड़े होते चले गए। फिर मैंने हौले से उसके सुनहरी बालो पर हाथ लगाया।
उफ़… मक्का के भुट्टे को अगर छील कर उस पर उगे सुनहरी बालो का स्पर्श करें तो आपको मिक्की की बुर पर उगे उन छोटे छोटे रेशम से मुलायम बालों (रोएँ) का अहसास हो जायेगा। बाल ज्यादा नहीं थे सिर्फ थोड़े से उपरी भाग पर और दोनों होंठो के बाहर केवल आधी दूर तक जहां चीरा ख़त्म होता है उससे कोई दो इंच ऊपर तक। बुर जहां ख़त्म होती है उसके ठीक एक इंच नीचे जन्नत का दूसरा दरवाजा। उफ़ एक चवन्नी के आकार का बादामी रंग का गोल घेरा जैसे हंसिका मोटवानी या प्रियंका चोपड़ा ने सीटी बजाने के अंदाज में अपने होंठ सिकोड़ लिए हों।
मैने अपनी दोनों हाथों से उसकी पंखुड़ियों को थोड़ा सा चोड़ा किया। एक हलकी सी ‘पुट’ की आवाज के साथ उसकी बुर थोड़ी सी खुल गई केवल दो इंच रतनार सुर्ख लाल अनार के दाने जितनी बड़ी मदन मणि और बीच में मूत्र छेद माचिस की तिल्ली जितना बड़ा और उसके एक इंच नीचे स्वर्ग गुफा का छोटा सा छेद कम रस से भरा जैसे शहद की कुप्पी हो।
मैं अब कैसे रुक सकता था। मैने बरसों के प्यासे अपने जलते होंठ उन पर रख ही दिए। एक मादक सुगंध से मेरा सारा तन मन भर उठा। मिक्की तो बस मेरा सिर पकड़े अपनी आँखें बंद किये पता नहीं कहाँ खोई हुई थी उसका पूरा शरीर काँप रहा था। और मुंह से बस हौले-हौले सीत्कार ही निक़ल रही थी।
मैने अपनी जीभ की नोक जैसी ही उसकी मदनमणि पर लगाई, मिक्की का शरीर थोड़ा सा अकड़ा और उसकी बुर ने शहद की दो तीन बूँदे मुझे अर्पित कर दी। ओह मेरे प्यार का पहला स्पर्श पाते ही उसका छोटा स्खलन हो गया। उसके हाथ और पैर दोनों अकड़े हुए थे शरीर काँप रहा था। मेरा एक हाथ उसके उरोजों को मसल रहा था और दूसरा हाथ उसके गोल गोल नितम्बों को सहला रहा था।
मैने उसकी बुर को चूसना शुरू कर दिया। मिक्की तो सातवें आसमान पर थी। लगभग दस मिनट तक मैने उसकी बुर चूसी होगी। फिर मैने उसकी बुर चूसते चूसते पास पड़ी डब्बी से थोड़ी सी वैसलीन अपने दायें हाथ की तर्जनी अंगुली पर लगाई और होले से उसकी बुर की सहेली पर फिरा दी। मिक्की ने रोमांच से एक बार और झटका खाया। अब मैने दो चीजें एक साथ की उसकी शहद की कुप्पी को जोर से चूसने के बाद उसके अनार दाने को दांतों से होले से दबाया और अपने दायें हाथ की वैसलीन से भरी अंगुली का पोर उसके प्रेम द्वार की प्यारी पड़ोसिन के सुनहरी छेद में डाल दिया।
“ऊईई… मम्म्मीईइ…जीज्जू…ऊ आह्ह्ह मुझे कुछ हो रहा है मैं मर गई… आह्ह्ह… ऊओईईइ…इ ह्हीईइ… य्याआया… !!”
मिक्की का शरीर अकड़ गया, उसने मेरे सिर के बालों को नोच लिया, और अपनी जाँघों को जोर से भींच लिया और जोर की किलकारी के साथ वो ढीली पड़ती चली गई और उसके साथ ही उसकी बुर ने कोई तीन-चार चम्मच शहद (कामरस) उंडेल दिया जिसे मैं भला कैसे व्यर्थ जाने देता, गटागट पी गया। ये उसके जीवन का पहला ओर्ग्जाम था।
कुछ पलों के बाद जब मिक्की कुछ सामान्य हुई तो मैने होले से उसे पुकारा,”मेरी मोनिका ! मेरे प्रेम की देवी ! कैसा लग रहा है ?”
“उन्ह !! कुछ मत पूछो मेरे प्रेम देव ! आज की रात बस मुझे अपनी बाहों में लेकर बस प्यार बस प्यार ही करते रहो मेरे प्रथम पुरुष !”
मैने एक बार फिर उसे अपनी बाहों में भर लिया। अब बस उन पलों की प्रतीक्षा थी जिसे मधुर मिलन कहते है। मैं अच्छी तरह जानता था भले ही मिक्की अब अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार है पर है तो अभी कमसिन कच्ची मासूम कली ही ? वो भले ही इस समय सपनो के रहस्यमई संसार में गोते लगा रही है पर मधुर मिलन के उस प्रथम कठिन चरण से अभी अपरिचित है। मैं मिक्की से प्यार करता था और भला उसे कोई कष्ट हो मैं कैसे सहन कर सकता था।
शायद आप रहे कि मैंने अपना इरादा बदल लिया होगा और उसे चोदने का विचार छोड़ दिया होगा तो आप गलत सोच रहे है। मैं तो कब से उसे चोदना चाहता था। पर उसकी उम्र और किसी गड़बड़ की आशंका से डर रहा था। हाँ उसकी बातें सुनकर एक बदलाव जरूर आ गया। मुझे लगा कि मैं सचमुच उसे प्यार करने लगा हूँ। जैसे वो मेरी कोई सदियों की बिछुड़ी प्रेमिका है जिसे मैं जन्मि-जन्मानंतर तक प्यार करता रहूँगा।
फिर सब कुछ सोच विचार करने के बाद मैंने एक जोर की सांस छोड़ते हुए उसे समझाना शुरू किया,”देखो मेरी प्रियतमा ! अब हमारे मधुर मिलन का अंतिम पड़ाव आने वाला है। ये वो परम आनंद है जिसके रस में ये सारी कायनात डूबी है !”
“मैं जानती हूँ मेरे कामदेव !”
“तुम अभी नासमझ हो ! प्रथम मिलन में तुम्हें बहुत कष्ट हो सकता है !”
“तुम चिंता मत करो मेरे प्रियतम ! मैं सब सह लूंगी मैं सब जानती हूँ !”
अब मेरे चौंकने की बारी थी मैंने पुछा “तुम ये सब ??”
“मैंने मम्मी और पापा को कई बार रति-क्रीड़ा और सम्भोग करते देखा है और अपनी सहेलियों से भी बहुत कुछ सुना है।”
“अरे कऽ कऽऽ क्या बात करती हो… तुमने ?” मेरे आश्चर्य कि सीमा नहीं रही “क्या देखा है तुमने और क्या जानती हो तुम ?”
“वोही जो एक पुरुष एक स्त्री के साथ करता एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ करता एक भंवरा किसी कली के साथ करता है, सदियों से चले आ रहे इस जीवन चक्र में नया क्या है जो आप मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं … मैं… मैं… रसकूप, प्रेम द्वार, काम-दंड, रति-क्रीड़ा और मधुर मिलन जैसे शब्दों का नाम लेकर तुम्हें कैसे बताऊँ… मुझे क्षमा कर दो मेरे प्रियतम ! मुझे लाज आती है !!!”
मैं हक्का बक्का सा उसे देखता ही रह गया। आज तो ये मासूम सी दिखनेवाली लड़की न होकर अचानक एक प्रेम रस में डूबी नवयौवना और कामातुर प्रेयसी नज़र आ रही है।
बस अब बाकी क्या बचा था ??? मैंने एक बार फिर उसे अपनी बाहों में भर लिया…और…।
हमारे इस मधुर (प्रेम) मिलन (इसे चुदाई का नाम देकर लज्जित न करें) के बारे में मैं विस्तार से नहीं लिख पाऊंगा। सदियों से चले आ रहे इस नैसर्गिक सुख का वर्णन जितना भी किया जाए कम है। रोमांटिक भाषा में तो पूरे ग्रन्थ भरे पड़े हैं। वात्स्यायन का कामसूत्र या फिर देशी भाषा में मस्तराम की कोई किताब पढ़ लें।
मैंने मिक्की से उसके रजोदर्शन (मासिक) के बारे में पूछा था (मैं उसे गलती से भी गर्भवती नहीं करना चाहता था) तो उसने बताया था कि उसकी अगली तारीख एक जून के आस पास है और आज तो २८ मई है ! और फिर ! दिल्ली लुट गई……………………!!!
हमें कोई दस-पन्द्रह मिनट लगे होंगे। ऐसा नहीं है कि सब कुछ किसी कुशल खिलाड़ियों के खेल की भाँति हो गया हो। मिक्की जिसे खेल समझ रही थी वास्तव में थोड़ा सा कष्ट कारक भी था। वो थोड़ा रोई-चिल्लाई भी ! पर प्रथम-मिलन के उन पलों में उसने पूरा साथ दिया। आज वो कली से फूल बनकर तृप्त हो गई थी। हम दोनों साथ साथ स्खलित हुए। उसे थोड़ा खून भी निकला था। मैंने अपने कुरते की जेब से वोही रेशमी रुमाल निकाला जो मिक्की ने मुझे बाज़ार में गिफ्ट दिया था और उसके प्रेम द्वार से चूते मेरे प्रेम-रस, मिक्की के काम-राज और रक्त का मिलाजुला मिश्रण उस अनमोल भेंट में डुबो कर साफ़ कर दिया और उसे अमूल्य निधि की तरह संभाल कर अपने पास रख लिया।
फिर हम दोनों ने बाथरूम में जाकर सफाई की। मिक्की की मुनिया पाव रोटी की तरह सूज गई थी, उसके निचले होंठ बहुत मोटे हो गए थे जैसे ऊपर वाले होंठों का डबल रोल हो। मैंने उसकी पिक्की ? बुर ? चूत ? (अरे नहीं यार मैं तो उसे मुनिया कहूँगा) पर एक चुम्बन ले लिया और मिक्की ने भी मेरे सोये पप्पू को निराश नहीं किया उसने भी एक चुम्बन उस पर ले लिया।
मैंने खिड़की का पर्दा हटा दिया। चाँद की दूधिया रोशनी से कमरा जगमगा उठा। दूर आसमान में एकम का चाँद अपनी चांदनी बरसाता हुआ हमारे इस मधुर मिलन का साक्षी बना मुस्कुरा रहा था। मिक्की मेरी गोद में सिर रखे अपनी पलकें बंद किये सो रही थी।
मैंने उदास स्वर में कहा “मिक्की मेरी जान, मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरी प्रेयसी कैसी हो ?”
उस से बिछुड़ने की वेदना मेरे चहरे पर साफ़ झलक रही थी। कल मिक्की वापस चली जायेगी।
अब मैं कली से फूल, किशोरी से युवती, मिक्की और मोना से मोनिका बन गई हूँ और मेरी पिक्की अब भोस नहीं… प्रेम रस भरा स्वर्ग द्वार बन गई है कहने को और क्या शेष रह गया है मेरे प्रेम दीवाने, मेरे प्रेम देव, मेरे प्रथम पुरुष !” मिक्की ने रस घोलती आवाज में कहा।
आप जरूर सोच रहे होंगे अजीब बात है ये बित्ते भर की +२ में पढ़ने वाली नादान अंगूठा चूसने वाली नासमझ सी लोंडिया इतनी रोमांटिक और साहित्यिक भाषा में कैसे बात कर रही है ? मैंने (लेखक ने) जरूर कहीं से ये संवाद व्ही शांता राम की किसी पौराणिक फिल्म या किसी रोमांटिक उपन्यास से उठाया होगा ?
आप सरासर गलत हैं। मैंने भी मिक्की (सॉरी अब मोनिका) से उस समय पूछा था तो उसने जो जवाब दिया था आप भी सुन लीजिये :
“क्यों मेरे पागल प्रेम दीवाने जब आप अपने आप को बहुत बड़ा ‘प्रेम गुरु’ समझते हैं, अपने कंप्यूटर पर ‘जंगली छिपकलियों’ के फोल्डर और फाइल्स को लोक और अन्लोक कर सकते है तो क्या मैं आपकी उस काले जिल्द वाली डायरी, जिसे आपने परसों स्टडी रूम में भूल से या जानबूझ कर छोड़ दिया था, नहीं पढ़ सकती ? ”
हे भगवान् ? मैं हक्का बक्का आँखें फाड़े उसे देखता ही रह गया। मुझे ऐसा लगा जैसे हजारों वाट की बिजलियाँ एक साथ टूट पड़ी हैं। मैंने कथा के शुरू में आपको बताया था कि मैं उन दिनों डायरी लिखता था और ये वोही डायरी थी जिसके शुरू में मैंने अपनी सुहागरात और मधुर मिलन के अन्तरंग क्षणों को बड़े प्यार से संजोया था और उसके प्रथम पृष्ठ पर ‘मधुर प्रेम मिलन’ लिखा था। मैंने इसे बहुत ही संभाल कर रखा था और मधु को तो अब तक इसकी हवा भी नहीं लगने दी थी, न जाने कैसे उस दिन आजकल के अनुभवों के नोट्स लिखते हुए स्टडी रूम में रह गई थी।ओह ! अब तो सब कुछ शीशे की तरह साफ़ था।
“आपको तो मेरा धन्यवाद करना चाहिए कि वो डायरी मैंने बुआजी के हाथ नहीं पड़ने दी और अपने पास रख ली नहीं तो इतना बड़ा हंगामा खड़ा होता कि आपका सारा का सारा साहित्यिक ज्ञान और प्रेम-गुरुता धरी की धरी रह जाती ?” मिक्की ने जैसे मेरे ताबूत में एक कील और ठोक दी।
“ओह थैंक यू … मिक्की ओह बा मोनिका कहाँ है वो ड़ायरी ?? लाओ प्लीज मुझे वापस दे दो !”
“ना ! कभी नहीं वो तो मैं जन्म-जन्मान्तर तक भी किसी को नहीं दूँगी, मेरे पास भी तो हमारे प्रथम मधुर मिलन के इन अनमोल क्षणों की कुछ निशानी रहनी चाहिए ना ?”
मैं क्या बोलता ?
मिक्की फिर बोली “मधुर मिलन की इस रात्रि में उदासी का क्या काम है ! आओ ! सपनों के इस संसार में इन पलों को ऐसे व्यर्थ न गंवाओ मेरे प्रियतम ! ये पल फिर मुड़ कर नहीं आयेंगे !”
और मिक्की ने एक बार फिर मेरे गले में अपनी नाज़ुक बाहें डाल दी। इस से पहले कि मैं कुछ बोलता मिक्की के जलते होंठ मेरे होंठों पर टिक गए और मैंने भी कस कर उन्हें चूमना शुरू कर दिया।
बाहर मिक्की के मामाजी (अरे यार चन्दा मामा) खिड़की और रोशनदान से झांकते हुए मुस्कुरा रहे थे।
अगली सुबह-
मिक्की के पास तो लंगड़ाकर चलने का बहाना था (टांगों के बीच में दर्द का नहीं एड़ी में दर्द का) पर मेरे पास तो सिवाए सिर दर्द के और क्या बहाना हो सकता था। मैंने इसी बहाने ऑफिस से बंक मार लिया। आज मेरी मिक्की मुझ से बिछुड़ कर वापस जा रही थी। शाम की ट्रेन थी। मेरा मन किसी चीज में नहीं लग रहा था। एक बार तो जी में आया कि मैं रो ही पडूं ताकि मन कुछ हल्का हो जाए पर मैंने अपने आप को रोके रखा। दिन भर अनमना सा रहा। मैं ही जानता हूँ मैंने वो पूरा दिन कैसे बिताया।
ट्रेन कोई शाम को सात बजे की थी। सीट आराम से मिल गई थी। जब गाड़ी ने सीटी बजाई तो मैं उठकर चलने लगा। मिक्की के प्यार में भीगी मेरी आत्मा, मेरा हृदय, मेरा मन तो वहीं रह गया था।
मैं अभी डिब्बे से नीचे उतरने वाला ही था कि पीछे से मिक्की की आवाज आई,”फूफाजी…! आप अपना मोबाइल तो सीट पर ही भूल आये !”
मिक्की भागती हुई आई और मुझ से लिपट गई। उसने अपने भीगे होंठ मेरे होंठों पर रख दिए और किसी की परवाह किये बिना एक मेरे होंठों पर ले लिया। मैंने अपने आंसुओं को बड़ी मुश्किल से रोक पाया।
मिक्की ने थरथरती हुई आवाज में कहा,”मेरे प्रथम पुरुष ! मेरे कामदेव ! मेरी याद में रोना नहीं। अच्छे बच्चे रोते नहीं ! मैं फिर आउंगी, मेरी प्रतीक्षा करना !”
मिक्की बिना मेरी और देखे वापस अपनी सीट की और चली गई। मेरी अंगुलियाँ मेरे होंठों पर आ गई। मैं मिक्की के इस तीसरे चुम्बन का स्पर्श अभी भी अपने होंठो पर महसूस कर रहा था।
मैं डिब्बे से नीचे उतर आया। गाड़ी चल पड़ी थी। खिड़की से मिक्की का एक हाथ हिलाता हुआ नज़र आ रहा था। मुझे लगा कि उसका हाथ कुछ धुंधला सा होता जा रहा है। शायद मेरी छलछलाती आँखों के कारण। इस से पहले कि वो कतरे नीचे गिरते मैंने अपनी जेब से वोही रेशमी रुमाल निकाला जो मिक्की ने मुझे गिफ्ट किया था और हमारे मधुर मिलन के प्रेम रस से भीगा था, मैंने अपने आंसू पोंछ लिए।
मेरे आंसू और मिक्की के होंठो का रस, हमारे मधुर मिलन के प्रेम रस से सराबोर उस रस में मिल कर एक हो गए। मैं बोझिल कदमों और भारी मन से प्लेटफार्म से बाहर आ गया। मेरा सब कुछ तो मिक्की के साथ ही चला गया था।
दोस्तों सच बताना क्या अब भी आपको यही लगता है कि ये महज़ एक कहानी है ?
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम पार्ट -५
मिक्की ने हिचकिचाते हुए पहले तो उसने अपनी नाज़ुक अंगुलियों से उसे प्यार से छुआ और फिर अन्डरवीयर नीचे खिसकाते हुए मेरे लण्ड को पूरा अपने हाथों में भर लिया और सहलाने लगी। मेरे लण्ड ने एक ठुमका लगते हुए उसे सलामी दी और पत्थर की तरह कठोर हो गया। अब मिक्की लगभग औंधी लेटे मेरे लण्ड के साथ खेल रही थी और मेरे सामने थे उसके गोल मटोल नितम्ब। मैंने उन पर प्यार से हाथ फिराना शुरू कर दिया। वाह क्या घाटियाँ थी।
गुलाबी रंग की कसी हुई दो गोलाकार पहाड़ियां और उनके बीच एक बहती नदी की मानिंद गहरी होती खाई। मैं तो किसी अनजाने जादू से बंधा बस उसे देखता ही रह गया। फिर धीरे से मैंने पैंटी के ऊपर से ही उन गोलाइयों पर हाथ फेरना शुरू कर दिया।
मैंने एक हाथ से उसका चेहरा अपने लण्ड के सुपाड़े पर छुआते हुए कहा- इसे प्यार कर ना ! चूम लो मेरे लौड़े को अपने होठों से !
रहस्यमयी मुस्कान अपने होठों पर लाते हुए मिक्की ने मुझे घूरा और फिर तड़ से एक चुम्बन ले लिया। मिक्की के होंठ थोड़े खुले थे, मैंने एक हल्का सा झटका ऊपर को लगाया तो पूरा सुपाड़ा मिक्की के मुँह में चला गया। वो इसे बाहर निकालना ही चाहती थी कि मैंने उसके सिर को नीचे दबा दिया जिससे मेरा पूरा लण्ड उसके गले तक चला गया और वो गों-गों करने लगी। तब मैंने उसके सिर को छोड़ा, उसने लण्ड को मुँह से निकाला और बनावटी गुस्से से बोली- क्या करते हो जिज्जू? मेरा तो सांस ही रुक गया था !
चूसो ना जैसे अंगूठा चूसती हो ! बहुत मज़ा आएगा तुम्हें और मुझे भी !
यह तो अंगूठे से दुगना मोटा है ! कहते हुए उसने मेरी आंखों में देखा और मेरा आधा लौड़ा अपने मुंह में ले लिया और चूसने की कोशिश करने लगी। फ़िर लण्ड को मुंह से निकाल कर बोली- कैसे चूसूँ? चूसा ही नहीं जा रहा !
मैंने उसे लण्ड को मुंह में लेने को कहा और फ़िर उसका सिर पकड़ कर उसके मुंह में दो-चार धक्के लगाते हुए कहा- ऐसे चूसो !
अब तो वो लण्ड चूसने में मस्त हो गई और मैं अपनी उंगलियाँ उसकी पैन्टी में ले गया उसके अनावृत कूल्हों का जायजा लेने !
इससे बेखबर मेरा लण्ड चूसे जा रही थी किसी आइस-कैंडी की तरह जैसे मैंने उसे परसों मज़ाक में कुल्फी चूसने को कहा था।
ये लड़की तो लण्ड चूसने में अपनी मम्मी (सुधा) को भी पीछे छोड़ देगी। आह उसकी नरम मुलायम थूक से गीली जीभ का गुनगुना अहसास अच्छे अच्छों का पानी निचोड़ ले। कोई पाँच-छः मिनट उसने मेरा लण्ड चूसा होगा। फिर वो अपने होंठो पर जीभ फेरती हुई उठ खड़ी हुई। उसकी रसीली आँखों में एक नई चमक सी थी। जैसे मुझे पूछ रही हो कैसा लगा ?
मैं थोड़ी देर ऐसे ही बारी बारी उसके सभी अंगों को चूमता रहा लेकिन उसकी बुर को हाथ नहीं लगाया। मैं जानता था कि मिक्की की बुर ने अब तक बेतहाशा काम-रस छोड़ दिया होगा पर मैं तो उसे पूरी तरह तैयार और उत्तेजित करके ही आगे बढ़ना चाहता था ताकि उसे अपनी बुर में मेरा लण्ड लेते समय कम से कम परेशानी हो। मेरा लण्ड प्री-कम के टुपके छोड़ छोड़ कर पागल हुआ जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि अगर अब थोड़ी देर की तो यह बगावत पर उतर आएगा या खुदकुशी कर लेने पर मजबूर हो जायेगा। आप मेरी हालत समझ रहे है ना।
मिक्की की आँखें अब भी बंद थी। मैंने धीरे से उससे कहा,”आँखें खोलो मेरी प्रियतमा”
तो वो उनींदी आँखों से बोली,”बस कुछ मत कहो ऐसे ही मुझे प्यार किये जाओ मेरे प्रियतम !”
प्यारे पाठको और पाठिकाओं ! अब पैंटी की दीवार हटाने का समय आ गया था। मैंने मिक्की से जब पैंटी उतारने को कहा तो उसने कहा,” पहले आप अपना अंडरवियर तो उतारो !”
मेरा अंडरवियर तो पहले ही घायल हो चुका था याने फट चुका था बस नाम मात्र का अटका हुआ था। मैंने एक झटके में उसे निकाल फेंका और फिर मिक्की की पैंटी को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर धीरे धीरे नीचे करना शुरू किया- अब तो क़यामत सिर्फ एक या दो इंच ही दूर थी !!
जिसके लिए विश्वामित्र और नारद जैसे महा-ऋषियों का मन डोल गया वो पल अब मेरे सामने आने वाला था। पहले सुनहरे रोएँ नज़र आये और फिर दो भागो में बटा बुर का पहला नज़ारा- रक्तिम चीरा बाहरी होंठ मोटे और सुर्ख लाल गुलाबी रंगत लिए छोटे होंठ कुछ श्यामलता लिए दोनों आपस में प्रगाढ़ सहेलियों की तरह चिपके हुए और उसके नीचे सुनहरी रंग का गोल गोल गांड का छेद। आह… मैं तो बस इस दिलकश नजारे को देख कर अपनी सुध बुध ही खो बैठा।
पैंटी निकाल कर दूर फेंक दी। उसकी संगमरमरी जांघे केले के तने की तरह चिकनी और सुडोल जाँघों को मैंने कांपते हाथों से उन्हें सहलाया तो मिक्की की एक सित्कार निकल गई और उसके पैर अपने आप चौड़े होते चले गए। फिर मैंने हौले से उसके सुनहरी बालो पर हाथ लगाया।
उफ़… मक्का के भुट्टे को अगर छील कर उस पर उगे सुनहरी बालो का स्पर्श करें तो आपको मिक्की की बुर पर उगे उन छोटे छोटे रेशम से मुलायम बालों (रोएँ) का अहसास हो जायेगा। बाल ज्यादा नहीं थे सिर्फ थोड़े से उपरी भाग पर और दोनों होंठो के बाहर केवल आधी दूर तक जहां चीरा ख़त्म होता है उससे कोई दो इंच ऊपर तक। बुर जहां ख़त्म होती है उसके ठीक एक इंच नीचे जन्नत का दूसरा दरवाजा। उफ़ एक चवन्नी के आकार का बादामी रंग का गोल घेरा जैसे हंसिका मोटवानी या प्रियंका चोपड़ा ने सीटी बजाने के अंदाज में अपने होंठ सिकोड़ लिए हों।
मैने अपनी दोनों हाथों से उसकी पंखुड़ियों को थोड़ा सा चोड़ा किया। एक हलकी सी ‘पुट’ की आवाज के साथ उसकी बुर थोड़ी सी खुल गई केवल दो इंच रतनार सुर्ख लाल अनार के दाने जितनी बड़ी मदन मणि और बीच में मूत्र छेद माचिस की तिल्ली जितना बड़ा और उसके एक इंच नीचे स्वर्ग गुफा का छोटा सा छेद कम रस से भरा जैसे शहद की कुप्पी हो।
मैं अब कैसे रुक सकता था। मैने बरसों के प्यासे अपने जलते होंठ उन पर रख ही दिए। एक मादक सुगंध से मेरा सारा तन मन भर उठा। मिक्की तो बस मेरा सिर पकड़े अपनी आँखें बंद किये पता नहीं कहाँ खोई हुई थी उसका पूरा शरीर काँप रहा था। और मुंह से बस हौले-हौले सीत्कार ही निक़ल रही थी।
मैने अपनी जीभ की नोक जैसी ही उसकी मदनमणि पर लगाई, मिक्की का शरीर थोड़ा सा अकड़ा और उसकी बुर ने शहद की दो तीन बूँदे मुझे अर्पित कर दी। ओह मेरे प्यार का पहला स्पर्श पाते ही उसका छोटा स्खलन हो गया। उसके हाथ और पैर दोनों अकड़े हुए थे शरीर काँप रहा था। मेरा एक हाथ उसके उरोजों को मसल रहा था और दूसरा हाथ उसके गोल गोल नितम्बों को सहला रहा था।
मैने उसकी बुर को चूसना शुरू कर दिया। मिक्की तो सातवें आसमान पर थी। लगभग दस मिनट तक मैने उसकी बुर चूसी होगी। फिर मैने उसकी बुर चूसते चूसते पास पड़ी डब्बी से थोड़ी सी वैसलीन अपने दायें हाथ की तर्जनी अंगुली पर लगाई और होले से उसकी बुर की सहेली पर फिरा दी। मिक्की ने रोमांच से एक बार और झटका खाया। अब मैने दो चीजें एक साथ की उसकी शहद की कुप्पी को जोर से चूसने के बाद उसके अनार दाने को दांतों से होले से दबाया और अपने दायें हाथ की वैसलीन से भरी अंगुली का पोर उसके प्रेम द्वार की प्यारी पड़ोसिन के सुनहरी छेद में डाल दिया।
“ऊईई… मम्म्मीईइ…जीज्जू…ऊ आह्ह्ह मुझे कुछ हो रहा है मैं मर गई… आह्ह्ह… ऊओईईइ…इ ह्हीईइ… य्याआया… !!”
मिक्की का शरीर अकड़ गया, उसने मेरे सिर के बालों को नोच लिया, और अपनी जाँघों को जोर से भींच लिया और जोर की किलकारी के साथ वो ढीली पड़ती चली गई और उसके साथ ही उसकी बुर ने कोई तीन-चार चम्मच शहद (कामरस) उंडेल दिया जिसे मैं भला कैसे व्यर्थ जाने देता, गटागट पी गया। ये उसके जीवन का पहला ओर्ग्जाम था।
कुछ पलों के बाद जब मिक्की कुछ सामान्य हुई तो मैने होले से उसे पुकारा,”मेरी मोनिका ! मेरे प्रेम की देवी ! कैसा लग रहा है ?”
“उन्ह !! कुछ मत पूछो मेरे प्रेम देव ! आज की रात बस मुझे अपनी बाहों में लेकर बस प्यार बस प्यार ही करते रहो मेरे प्रथम पुरुष !”
मैने एक बार फिर उसे अपनी बाहों में भर लिया। अब बस उन पलों की प्रतीक्षा थी जिसे मधुर मिलन कहते है। मैं अच्छी तरह जानता था भले ही मिक्की अब अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार है पर है तो अभी कमसिन कच्ची मासूम कली ही ? वो भले ही इस समय सपनो के रहस्यमई संसार में गोते लगा रही है पर मधुर मिलन के उस प्रथम कठिन चरण से अभी अपरिचित है। मैं मिक्की से प्यार करता था और भला उसे कोई कष्ट हो मैं कैसे सहन कर सकता था।
शायद आप रहे कि मैंने अपना इरादा बदल लिया होगा और उसे चोदने का विचार छोड़ दिया होगा तो आप गलत सोच रहे है। मैं तो कब से उसे चोदना चाहता था। पर उसकी उम्र और किसी गड़बड़ की आशंका से डर रहा था। हाँ उसकी बातें सुनकर एक बदलाव जरूर आ गया। मुझे लगा कि मैं सचमुच उसे प्यार करने लगा हूँ। जैसे वो मेरी कोई सदियों की बिछुड़ी प्रेमिका है जिसे मैं जन्मि-जन्मानंतर तक प्यार करता रहूँगा।
फिर सब कुछ सोच विचार करने के बाद मैंने एक जोर की सांस छोड़ते हुए उसे समझाना शुरू किया,”देखो मेरी प्रियतमा ! अब हमारे मधुर मिलन का अंतिम पड़ाव आने वाला है। ये वो परम आनंद है जिसके रस में ये सारी कायनात डूबी है !”
“मैं जानती हूँ मेरे कामदेव !”
“तुम अभी नासमझ हो ! प्रथम मिलन में तुम्हें बहुत कष्ट हो सकता है !”
“तुम चिंता मत करो मेरे प्रियतम ! मैं सब सह लूंगी मैं सब जानती हूँ !”
अब मेरे चौंकने की बारी थी मैंने पुछा “तुम ये सब ??”
“मैंने मम्मी और पापा को कई बार रति-क्रीड़ा और सम्भोग करते देखा है और अपनी सहेलियों से भी बहुत कुछ सुना है।”
“अरे कऽ कऽऽ क्या बात करती हो… तुमने ?” मेरे आश्चर्य कि सीमा नहीं रही “क्या देखा है तुमने और क्या जानती हो तुम ?”
“वोही जो एक पुरुष एक स्त्री के साथ करता एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ करता एक भंवरा किसी कली के साथ करता है, सदियों से चले आ रहे इस जीवन चक्र में नया क्या है जो आप मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं … मैं… मैं… रसकूप, प्रेम द्वार, काम-दंड, रति-क्रीड़ा और मधुर मिलन जैसे शब्दों का नाम लेकर तुम्हें कैसे बताऊँ… मुझे क्षमा कर दो मेरे प्रियतम ! मुझे लाज आती है !!!”
मैं हक्का बक्का सा उसे देखता ही रह गया। आज तो ये मासूम सी दिखनेवाली लड़की न होकर अचानक एक प्रेम रस में डूबी नवयौवना और कामातुर प्रेयसी नज़र आ रही है।
बस अब बाकी क्या बचा था ??? मैंने एक बार फिर उसे अपनी बाहों में भर लिया…और…।
हमारे इस मधुर (प्रेम) मिलन (इसे चुदाई का नाम देकर लज्जित न करें) के बारे में मैं विस्तार से नहीं लिख पाऊंगा। सदियों से चले आ रहे इस नैसर्गिक सुख का वर्णन जितना भी किया जाए कम है। रोमांटिक भाषा में तो पूरे ग्रन्थ भरे पड़े हैं। वात्स्यायन का कामसूत्र या फिर देशी भाषा में मस्तराम की कोई किताब पढ़ लें।
मैंने मिक्की से उसके रजोदर्शन (मासिक) के बारे में पूछा था (मैं उसे गलती से भी गर्भवती नहीं करना चाहता था) तो उसने बताया था कि उसकी अगली तारीख एक जून के आस पास है और आज तो २८ मई है ! और फिर ! दिल्ली लुट गई……………………!!!
हमें कोई दस-पन्द्रह मिनट लगे होंगे। ऐसा नहीं है कि सब कुछ किसी कुशल खिलाड़ियों के खेल की भाँति हो गया हो। मिक्की जिसे खेल समझ रही थी वास्तव में थोड़ा सा कष्ट कारक भी था। वो थोड़ा रोई-चिल्लाई भी ! पर प्रथम-मिलन के उन पलों में उसने पूरा साथ दिया। आज वो कली से फूल बनकर तृप्त हो गई थी। हम दोनों साथ साथ स्खलित हुए। उसे थोड़ा खून भी निकला था। मैंने अपने कुरते की जेब से वोही रेशमी रुमाल निकाला जो मिक्की ने मुझे बाज़ार में गिफ्ट दिया था और उसके प्रेम द्वार से चूते मेरे प्रेम-रस, मिक्की के काम-राज और रक्त का मिलाजुला मिश्रण उस अनमोल भेंट में डुबो कर साफ़ कर दिया और उसे अमूल्य निधि की तरह संभाल कर अपने पास रख लिया।
फिर हम दोनों ने बाथरूम में जाकर सफाई की। मिक्की की मुनिया पाव रोटी की तरह सूज गई थी, उसके निचले होंठ बहुत मोटे हो गए थे जैसे ऊपर वाले होंठों का डबल रोल हो। मैंने उसकी पिक्की ? बुर ? चूत ? (अरे नहीं यार मैं तो उसे मुनिया कहूँगा) पर एक चुम्बन ले लिया और मिक्की ने भी मेरे सोये पप्पू को निराश नहीं किया उसने भी एक चुम्बन उस पर ले लिया।
मैंने खिड़की का पर्दा हटा दिया। चाँद की दूधिया रोशनी से कमरा जगमगा उठा। दूर आसमान में एकम का चाँद अपनी चांदनी बरसाता हुआ हमारे इस मधुर मिलन का साक्षी बना मुस्कुरा रहा था। मिक्की मेरी गोद में सिर रखे अपनी पलकें बंद किये सो रही थी।
मैंने उदास स्वर में कहा “मिक्की मेरी जान, मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरी प्रेयसी कैसी हो ?”
उस से बिछुड़ने की वेदना मेरे चहरे पर साफ़ झलक रही थी। कल मिक्की वापस चली जायेगी।
अब मैं कली से फूल, किशोरी से युवती, मिक्की और मोना से मोनिका बन गई हूँ और मेरी पिक्की अब भोस नहीं… प्रेम रस भरा स्वर्ग द्वार बन गई है कहने को और क्या शेष रह गया है मेरे प्रेम दीवाने, मेरे प्रेम देव, मेरे प्रथम पुरुष !” मिक्की ने रस घोलती आवाज में कहा।
आप जरूर सोच रहे होंगे अजीब बात है ये बित्ते भर की +२ में पढ़ने वाली नादान अंगूठा चूसने वाली नासमझ सी लोंडिया इतनी रोमांटिक और साहित्यिक भाषा में कैसे बात कर रही है ? मैंने (लेखक ने) जरूर कहीं से ये संवाद व्ही शांता राम की किसी पौराणिक फिल्म या किसी रोमांटिक उपन्यास से उठाया होगा ?
आप सरासर गलत हैं। मैंने भी मिक्की (सॉरी अब मोनिका) से उस समय पूछा था तो उसने जो जवाब दिया था आप भी सुन लीजिये :
“क्यों मेरे पागल प्रेम दीवाने जब आप अपने आप को बहुत बड़ा ‘प्रेम गुरु’ समझते हैं, अपने कंप्यूटर पर ‘जंगली छिपकलियों’ के फोल्डर और फाइल्स को लोक और अन्लोक कर सकते है तो क्या मैं आपकी उस काले जिल्द वाली डायरी, जिसे आपने परसों स्टडी रूम में भूल से या जानबूझ कर छोड़ दिया था, नहीं पढ़ सकती ? ”
हे भगवान् ? मैं हक्का बक्का आँखें फाड़े उसे देखता ही रह गया। मुझे ऐसा लगा जैसे हजारों वाट की बिजलियाँ एक साथ टूट पड़ी हैं। मैंने कथा के शुरू में आपको बताया था कि मैं उन दिनों डायरी लिखता था और ये वोही डायरी थी जिसके शुरू में मैंने अपनी सुहागरात और मधुर मिलन के अन्तरंग क्षणों को बड़े प्यार से संजोया था और उसके प्रथम पृष्ठ पर ‘मधुर प्रेम मिलन’ लिखा था। मैंने इसे बहुत ही संभाल कर रखा था और मधु को तो अब तक इसकी हवा भी नहीं लगने दी थी, न जाने कैसे उस दिन आजकल के अनुभवों के नोट्स लिखते हुए स्टडी रूम में रह गई थी।ओह ! अब तो सब कुछ शीशे की तरह साफ़ था।
“आपको तो मेरा धन्यवाद करना चाहिए कि वो डायरी मैंने बुआजी के हाथ नहीं पड़ने दी और अपने पास रख ली नहीं तो इतना बड़ा हंगामा खड़ा होता कि आपका सारा का सारा साहित्यिक ज्ञान और प्रेम-गुरुता धरी की धरी रह जाती ?” मिक्की ने जैसे मेरे ताबूत में एक कील और ठोक दी।
“ओह थैंक यू … मिक्की ओह बा मोनिका कहाँ है वो ड़ायरी ?? लाओ प्लीज मुझे वापस दे दो !”
“ना ! कभी नहीं वो तो मैं जन्म-जन्मान्तर तक भी किसी को नहीं दूँगी, मेरे पास भी तो हमारे प्रथम मधुर मिलन के इन अनमोल क्षणों की कुछ निशानी रहनी चाहिए ना ?”
मैं क्या बोलता ?
मिक्की फिर बोली “मधुर मिलन की इस रात्रि में उदासी का क्या काम है ! आओ ! सपनों के इस संसार में इन पलों को ऐसे व्यर्थ न गंवाओ मेरे प्रियतम ! ये पल फिर मुड़ कर नहीं आयेंगे !”
और मिक्की ने एक बार फिर मेरे गले में अपनी नाज़ुक बाहें डाल दी। इस से पहले कि मैं कुछ बोलता मिक्की के जलते होंठ मेरे होंठों पर टिक गए और मैंने भी कस कर उन्हें चूमना शुरू कर दिया।
बाहर मिक्की के मामाजी (अरे यार चन्दा मामा) खिड़की और रोशनदान से झांकते हुए मुस्कुरा रहे थे।
अगली सुबह-
मिक्की के पास तो लंगड़ाकर चलने का बहाना था (टांगों के बीच में दर्द का नहीं एड़ी में दर्द का) पर मेरे पास तो सिवाए सिर दर्द के और क्या बहाना हो सकता था। मैंने इसी बहाने ऑफिस से बंक मार लिया। आज मेरी मिक्की मुझ से बिछुड़ कर वापस जा रही थी। शाम की ट्रेन थी। मेरा मन किसी चीज में नहीं लग रहा था। एक बार तो जी में आया कि मैं रो ही पडूं ताकि मन कुछ हल्का हो जाए पर मैंने अपने आप को रोके रखा। दिन भर अनमना सा रहा। मैं ही जानता हूँ मैंने वो पूरा दिन कैसे बिताया।
ट्रेन कोई शाम को सात बजे की थी। सीट आराम से मिल गई थी। जब गाड़ी ने सीटी बजाई तो मैं उठकर चलने लगा। मिक्की के प्यार में भीगी मेरी आत्मा, मेरा हृदय, मेरा मन तो वहीं रह गया था।
मैं अभी डिब्बे से नीचे उतरने वाला ही था कि पीछे से मिक्की की आवाज आई,”फूफाजी…! आप अपना मोबाइल तो सीट पर ही भूल आये !”
मिक्की भागती हुई आई और मुझ से लिपट गई। उसने अपने भीगे होंठ मेरे होंठों पर रख दिए और किसी की परवाह किये बिना एक मेरे होंठों पर ले लिया। मैंने अपने आंसुओं को बड़ी मुश्किल से रोक पाया।
मिक्की ने थरथरती हुई आवाज में कहा,”मेरे प्रथम पुरुष ! मेरे कामदेव ! मेरी याद में रोना नहीं। अच्छे बच्चे रोते नहीं ! मैं फिर आउंगी, मेरी प्रतीक्षा करना !”
मिक्की बिना मेरी और देखे वापस अपनी सीट की और चली गई। मेरी अंगुलियाँ मेरे होंठों पर आ गई। मैं मिक्की के इस तीसरे चुम्बन का स्पर्श अभी भी अपने होंठो पर महसूस कर रहा था।
मैं डिब्बे से नीचे उतर आया। गाड़ी चल पड़ी थी। खिड़की से मिक्की का एक हाथ हिलाता हुआ नज़र आ रहा था। मुझे लगा कि उसका हाथ कुछ धुंधला सा होता जा रहा है। शायद मेरी छलछलाती आँखों के कारण। इस से पहले कि वो कतरे नीचे गिरते मैंने अपनी जेब से वोही रेशमी रुमाल निकाला जो मिक्की ने मुझे गिफ्ट किया था और हमारे मधुर मिलन के प्रेम रस से भीगा था, मैंने अपने आंसू पोंछ लिए।
मेरे आंसू और मिक्की के होंठो का रस, हमारे मधुर मिलन के प्रेम रस से सराबोर उस रस में मिल कर एक हो गए। मैं बोझिल कदमों और भारी मन से प्लेटफार्म से बाहर आ गया। मेरा सब कुछ तो मिक्की के साथ ही चला गया था।
दोस्तों सच बताना क्या अब भी आपको यही लगता है कि ये महज़ एक कहानी है ?
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
Re: हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम
हिंदी सेक्स कहानियाँ
हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम पार्ट -६
बचपने से जब भी ज़ोरों की बारिश होती या ज़ोर की बिजली कड़कती थी तो मैं डर के मारे घर में दुबक जाया करता था। पर उस रात की बारिश ने मुझे रोमांच से लबालब भर दिया था। आज भी जब ज़ोरों की बारिश होती है, और बिजली कड़कती है, मुझे एक शेर याद आ जाता है:
ऐ ख़ुदा इतना ना बरस कि वो आ ना पाएँ !
आने के बाद इतना बरस कि वो जा ना पाएँ !!
जून महीने के आख़िरी दिन चल रहे थे। मधु (मेरी पत्नी, मुधर) गर्मियों की छुट्टियों में अपने मायके गई हुई थी। मैं अकेला ड्राईंग रूम मे खिड़की के पास बैठा मिक्की के बारे में ही सोच रहा था। (मिक्की मेरे साले की लड़की है)। पिछले साल वह एक सड़क-दुर्घटना का शिकार हो गई थी और हमें रोता-बिलखता छोड़ कर चली गई थी। सच पूछो तो पिछले एक-डेढ़ साल में कोई भी दिन ऐसा न बीता होगा कि मैंने मिक्की को याद नहीं किया हो। वो तो मेरा जैसे सब कुछ लूट कर ही ले गई थी। मैं उसकी वही पैन्टी और रेशमी रुमाल हाथों में लिए बैठा उसकी याद में आँसू बहा रहा था। हर आहट पर मैं चौंक सा जाता और लगता कि जैसे मिक्की ही आ गई है।
दरवाजे पर जब कोई भी आहट सी होती है तो लगता है कि तुम आई हो
तारों भरी रात में जब कोई जुगनू चमकता है लगता है तुम आई हो
उमस भरी गर्मी में जब पुरवा का झोंका आता है तो लगता है तुम आई हो
दूर कहीं अमराई में जब भी कोई कोयल कूकती है लगता है कि तुम आई हो !!
उस दिन रविवार था। सारे दिन घर पर ही रहा। पहले दिन जो बाज़ार से ब्लू-फिल्मों की ४-५ सीडी लाया था उन्हें कम्प्यूटर में कॉपी किया था। एक-दो फ़िल्में देखी भी, पर मिक्की की याद आते ही मैंने कम्प्यूटर बन्द कर दिया। दिन में गर्मी इतनी ज्यादा कि आग ही बरस रही थी। रात के कोई १० बजे होंगे। अचानक मौसम बदला और ज़ोरों की आँधी के साथ हल्की बारिश शुरु हो गई। हवा के एक ठंडे झोंके ने मुझे जैसे सहला सा दिया। अचानक कॉलबेल बजी और लगभग दरवाज़ा पीटते हुए कोई बोला, “दीदीऽऽऽ !! … जीजूऽऽऽ.. !! दरवाज़ा जल्दी खोलो… दीदी…!!!?” किसी लड़की की आवाज थी।
मिक्की जैसी आवाज़ सुनकर मैं जैसे अपने ख़्यालों से जागा। इस समय कौन आ सकता है? मैंने रुमाल और पैन्टी अपनी जेब में डाली और जैसे ही दरवाज़े की ओर बढ़ा, एक झटके के साथ दरवाज़ा खुला और कोई मुझ से ज़ोर से टकराया। शायद चिटकनी खुली ही रह गई थी, दरवाज़ा पीटने और ज़ोर लगाने के कारण अपने-आप खुल गया और हड़बड़ाहट में वो मुझसे टकरा गई। अगर मैंने उसे बाँहों में नहीं थाम लिया होता तो निश्चित ही नीचे गिर पड़ती। इस आपा-धापी में उसके कंधे से लटका बैग (लैपटॉप वाला) नीचे ही गिर गया। वो चीखती हुई मुझसे ज़ोर से लिपट सी गई। उसके बदन से आती पसीने, बारिश और जवान जिस्म की खुशबू से मेरा तन-मन सब सराबोर होता चला गया। उसके छोटे-छोटे उरोज मेरे सीने से सटे हुए थे। वो रोए जा रही थी। मैं हक्का-बक्का रह गया, कुछ समझ ही नहीं पाया।
कोई २-३ मिनटों के बाद मेरे मुँह से निकला “क्क..कौन… अरे.. नन्न्नन.. नि.. निशा तू…??? क्या बात है… अरे क्या हुआ… तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?” ओह ये तो मधु की कज़िन निशा थी। कभी-कभार अपने नौकरी के सिलसिले में यहाँ आया करती थी, और रात को यहाँ ठहर जाती थी। पहले मैंने इस चिड़िया पर ध्यान ही नहीं दिया था।
आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि इतनी मस्त-हसीन लौण्डिया की ओर मेरा ध्यान पहले क्यों नहीं गया। इसके दो कारण थे। एक तो वो सर्दियों में एक-दो बार जब आई थी तो वह कपड़ों से लदी-फदी थी, दूसरे उसकी आँखें पर मोटा सा चश्मा। आज तो वह कमाल की लग रही थी। उसने कॉन्टैक्ट लेंस लगवा लिए थे। कंधों के ऊपर तक बाल कटे हुए थे। कानों में सोने की पतली बालियाँ। जीन्स पैन्ट में कसे नितम्ब और खुले टॉप से झलकते काँधारी अनार तो क़हर ही ढा रहे थे। साली अपने-आप को झाँसी की शेरनी कहती है पर लगती है नैनीताल या अल्मोड़ा की पहाड़ी बिल्ली।
ओह… सॉरी जीजू… मधु दीदी कहाँ हैं?… दीदी… दीदी…” निशा मुझ से परे हटते हुए इधर-उधर देखते हुए बोली।
“ओह दीदी को छोड़ो, पहले यह बताओ तुम इतनी रात गए बारिश में डरी हुई… क्या बात है??”
“वो… वो एक कुत्ता…”
“हाँ-हाँ, क्या हुआ? तुम ठीक हो?”
निशा अभी भी डरी हुई खड़ी थी। उसके मुँह से कुछ नहीं निकल रहा था। मैंने दरवाज़ा बन्द किया और उसका हाथ पकड़ कर सोफ़े पर बिठाया, फिर पूछा, “क्या बात है, तुम रो क्यों रही थीं?”
जब उसकी साँसें कुछ सामान्य हुई तो वह बोली, “दरअसल सारी मुसीबत आज ही आनी थी। पहले तो प्रेज़ेन्टेशन में ही देर हो गई थी, और फिर खाना खाने के चक्कर में ९ बज गए। कार भी आज ही ख़राब होनी थी। बस-स्टैण्ड गई तो आगरा की बस भी छूट गई।” शायद इन दिनों उसकी पोस्टिंग आगरा में थी।
मैं इतना तो जानता था कि वह किसी दवा बनाने वाली कम्पनी में काम करती है और मार्केटिंग के सिलसिले में कई जगह आती-जाती रहती है। पर इस तरह डरे हुए, रोते हुए हड़बड़ा कर आने का कारण मेरी समझ में नहीं आया। मैंने सवालिया निगाहों से उसे देखा तो उसने बताया।
“वास्तव में महाराजा होटल में हमारी कम्पनी का एक प्रेज़ेन्टेशन था। सारे मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव आए हुए थे। हमारे दो नये उत्पाद भी लाँच किए गए थे। कॉन्फ्रेन्स ९ बजे खत्म हुई और खाना खाने के चक्कर में देर हो गई। वापस घर जाने का साधन नहीं था। यहाँ आते समय रास्ते में ऑटो ख़राब हो गई। इस बारिश को भी आज ही आना था। रास्ते में आपके घर के सामने कुत्ता सोया था। बेख्याली में मेरा पैर उसके ऊपर पड़ गया और वह इतनी ज़ोर से भौंका कि मैं डर ही गई।” एक साँस में निशा ने सब बता दिया।
“अरे कहीं काट तो नहीं लिया?”
नहीं काटा तो नहीं…! दीदी दिखाई नहीं दे रही?”
“ओह… मधु तो जयपुर गई हुई है, पिछले १० दिनों से !”
“तभी उनका मोबाईल नहीं मिल रहा था।”
“तो मुझे ही कर लिया होता।”
“मेरे पास आपका नम्बर नहीं था।”
“हाँ भई, आप हमारा नम्बर क्यों रखेंगी… हम आपके हैं ही कौन?”
“आप ऐसा क्यों कहते हैं?”
“भई तुम तो दीदी के लिए ही आती हो हमें कौन पूछता है?”
“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।”
“इसका मतलब तुम मेरे लिए भी आती हो।” मैं भला मज़ाक का ऐसा सुनहरा अवसर कैसे छोड़ता। वो शरमा गई। उसने अपनी निगाहें नीची कर लीं। थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, “ओह, दीदी तो है नहीं तो मैं किसी होटल में ही ठहर जाती हूँ!”
“क्यों, यहाँ कोई दिक्क़त है?”
“वो… वो… आप अकेले हैं और मैं… मेरा मतलब… दीदी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी?”
“क्यों क्या सोचेगी, क्या तुम इससे पहले यहाँ नहीं ठहरी?”
“हाँ पर उस समय दीदी घर थी।”
“क्या हम इतने बुरे हैं?”
“ओह.. वो बात नहीं है।”
“तो फिर क्या बात है?”
“वो.. .वो… मेरा मतलब क्या है कि एक जवान लड़की का इस तरह ग़ैर मर्द के साथ रात में… अकेले?? मेरा मतलब?? वो कुछ समझ नहीं आ रहा।” उसने रोनी सी सूरत बनाते हुए कहा।
“ओह.. अब मैं समझा, तुम मुझे ग़ैर समझती हो या फिर तुम्हें अपने आप पर ही विश्वास नहीं है।”
“नहीं ऐसी बात तो नहीं है।”
“तो फिर बात यह है कि मैं एक हिंसक पशु हूँ, एक गुंडा-बदमाश, मवाली हूँ। तुम जैसी अकेली लड़की को पकड़कर तुम्हें खा ही जाऊँगा या कुछ उल्टा-सीधा कर बैठूँगा? क्यों है ना यही बात?”
“ओह जीजू, आप भी बात का बतंगड़ बना रहे हैं। मैं तो यह कह रही थी आपको बेकार परेशानी होगी।”
“अरे इसमे परेशानी वाली क्या बात है?”
“फिर भी एकता कपूर… मेरा मतलब वो… दीदी…?” वो कुछ सोचते हुए सी बोली।
“अरे जब तुम्हें कोई समस्या नहीं है, मुझे नहीं, तो फिर जयपुर बैठी मधु को क्या समस्या हो सकती है। और फिर आस-पड़ोस वाले किसी से कोई फिक्र नहीं करते हैं। अगर अपना मन साफ़ है तो फ़िर किसी का क्या डर? क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ?” मैंने कहा। मैं इतना बढ़िया मौक़ा और हाथ में आई मुर्गी को ऐसे ही हवा में कैसे उड़ जाने देता।
मुझे तो लगा जैसे मिक्की ही मेरे पास सोफ़े पर बैठी है। वही नाक-नक्श, वही रूप-रंग और कद-काठी, वही आवाज़, वही नाज़ुक सा बदन, बिल्कुल छुईमुई सी कच्ची-कली जैसी। बस दोनों में फ़र्क इतना था कि निशा की आँखें काली हैं और मिक्की की बिल्लौरी थीं। दूसरा निशा कोई २४-२५ की होगी जबकि मिक्की १३ की थी। मिक्की थोड़ी सी गदराई हुई लगती थी जबकि निशा दुबली-पतली छरहरी लगती है। कमर तो ऐसी कि दोनों मुट्ठियों में ही समा जाए. छोटे-छोटे रसकूप (उरोज)। होंठ इतने सुर्ख लाल, मोटे-मोटे हैं तो उसके निचले होंठ मेरा मतलब है कि उसकी बुर के होंठ कैसे होंगे। मैं तो सोच कर ही रोमांचित हो उठा। मेरा पप्पू तो छलांगे ही लगाने लगा। उसके होठों के दाहाने (चौड़ाई) तो २.५-३ इंच का ही होगा। हे लिंग महादेव, अगर आज यह चिड़िया फँस गई तो मेरी तो लॉटरी ही लग जाएगी। और अगर ऐसा हो गया तो कल सोमवार को मैं ज़रूर जल और दूध तुम्हें चढ़ाऊँगा। भले ही मुझे कल छुट्टी ही क्यों ना लेनी पड़े। पक्का वादा।
प्रेम आश्रम वाले गुरुजी ने अपने पिछले विशेष प्रवचन में सच ही फ़रमाया था, “ये सब चूतें, गाँड और लंड कामदेव के हाथों की कठपुतलियाँ हैं। कौन सी चूत और गाँड किस लण्ड से, कब, कहाँ, कैसे, कितनी देर चुदेंगी, कोई नहीं जानता।”
“इतने में ज़ोरों की बिजली कड़की और मूसलाधार बारिश शुरु हो गई। निशा डर के मारे मेरी ओर सरक गई। मुझे एक शेर याद आ गया:
लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से !
या इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे !!
उसके भींगे बदन की खुशबू से मैं तो मदहोश ही हुआ जा रहा था। गीले कपड़ों में उसका अंग-अंग साफ दिख़ रहा था। शायद उसने मुझे घूरते हुए देख लिया था। वो कुछ सोचते हुए बोली, “मैं तो पूरी ही भीग गई।”
“मैं समझ गया, वो कपड़े बदलना या नहाना चाहती है, पर उसके पास कपड़े नहीं हैं, मेरे से कपड़े माँगते हुए शायद कुछ संकोच कर रही है। मैंने उससे कहा, “कोई बात नहीं, तुम नहा लो, मैं मधु की साड़ी निकाल देता हूँ।”
वो फिर सोचने लगी, “पर वो… वो… साड़ी तो मुझे बाँधनी नहीं आती। मैंने मन में कहा, “मेरी जान तुम तो बिना साड़ी-कपड़ों के ही अच्छी लगोगी। तुम्हें कपड़े कौन कमबख़्त पहनाना चाहता है” पर मैंने कहा -
“कोई बात नहीं, कोई पैन्ट और टॉप शर्ट या नाईटी वगैरह भी है, आओ मेरे साथ।” मैंने उसकी बाँह पकड़ी और अपने बेडरूम की ओर ले जाने लगा। आहहह… उसकी नरम नाज़ुक बाँहें मखमल जैसी मुलायम चिकनी थीं। अगर बाँहें ऐसी चिकनी हैं तो पिर जाँघें कैसी होंगी?
कपड़ों की आलमारी तो साड़ियों से लदी पड़ी थी। एक खाने में कुछ पैन्ट-शर्ट और टॉप आदि भी थे। मैंने उनकी ओर इशारा कर दिया। निशा ने कहा,”पर मेरी कमर तो २२ की है, मधु दीदी की पैन्ट मुझे ढीली रहेगी!”
ओह… अच्छा कोई बात नहीं, मेरे पास एक ड्रेस और है, तुम्हें पूरी आनी चाहिए, आओ मेरे साथ।” मैंने आलमारी बन्द कर दी और दूसरी अलमारी की ओर ले जाकर उसे गुलाबी रंग की एक नई बेल-बॉटम और हल्के रंग का टॉप जिस पर पीले फूल बने थे, दिखाया, साथ एक जोड़ी ब्रा और पैन्टी भी थी। ये मैंने मिक्की के पिछले जन्मदिन के लिए मधु से छुपा कर ख़रीदे थे पर उसे दे नहीं पाया था। उन्हें देखकर निशा ने कहा, “लगता है ये तो आ जाएँगे।”
उसने पैन्टी उठाई और गौर से देखते हुए बोली, “ओह… दीदी भी ऐसी ही ब्रा पहनती हैं? ये.. तो ये.. तो ओह?” वो आगे कुछ नहीं बोल पाई। बे-खयाली में उसकसे मुँह से निकल तो गया पर उसका मतलब जान कर वो शरमा गई। इस्स्स्स्स…. मुझे तो लगा जैसे किसी ने मिक्की को ही मेरे सामने खड़ा कर दिया है बस नाम का ही फ़र्क है। मिक्की की तरह शरमाने की इस जानलेवा अदा को तो मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाऊँगा।
न जाने क्या सोचकर उसने ब्रा और पैन्टी वहीं रख दी। मेरा दिल तो छलाँगें ही लगाने लगा। या अल्लाह… बिना ब्रा और पैन्टी में तो यह बिल्कुल मिक्की की तरह क़यामत ही लेगी। मैं अपने-आप पर क़ाबू कैसे रख पाऊँगा। मुझे तो डर लगने लगा कि कहीं मैं उसका बलात्कार ही ना कर बैठूँ। मेरा पप्पू तो जैसे क़ुतुबमीनार बन गया था। इतनी उत्तेजना तो आज से पहले कभी नहीं महसूस हुई थी। पप्पू तो अड़ियल टट्टू बन गया था। अचानक मेरे कानों में निशा की मीठी आवाज़ पड़ी।
“ओ जीजू, मैं नहाने जा रही हूँ।”
“हाँ-हाँ, तौलिया और शैम्पू आदि बाथरूम में हैं।” मैं तो जैसे ख़्यालों से जागा…
निशा बाथरूम में घुस गई। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। बाहर ज़ोरों की बारिश और मेरे अन्दर जलती आग, दोनों की रफ्तार एक जैसी ही तो थी। अचानक मेरे दिमाग़ में एक ख्याल दौड़ गया और होठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान। और उसके साथ ही मेरे क़दम भी बाथरूम की ओर बढ़ गए। अब आप इतने कमअक्ल तो नहीं हैं कि आप मेरी योजना ना समझे हों।
मैंने की-होल से बाथरूम के अन्दर झाँका…
निशा ने अपनी पैन्ट और शर्ट उतार दी थी। अब वो सिर्फ ब्रा पैन्टी में थी। उफ्फ… क्या मस्त हिरनी जैसी गोरी-चिट्टी नाज़ुक कमसिन कली की तरह, जैसे मिक्की ही मेरी आँखों के सामने खड़ी हो। सुराहीदार गर्दन, पतली सी कमर मानों लिम्का की बोतल को एक जोड़ा हाथ और पैर लगा दिए हों। संगमरमर सा तराशा हुआ सफाक़ बदन किसी फरिश्ते का भी ईमान डोल जाए। एक ख़ास बात: काँख (जहाँ से बाँहें शुरु होतीं हैं) और उरोजों से थोड़ा ऊपर का भाग ऐसे बना था जैसे कि गोरी-चिट्टी चूत ही बनी है। ऐसी लड़कियाँ वाकई नाज़ुक होतीं हैं और उनकी असली चूत भी ऐसी ही होती है। छोटी सी तिकोने आकार की माचिस की डिब्बी जितनी बड़ी। अगर आपने प्रियंका चोपड़ा या करीना कपूर को किसी फिल्म में बिना बाँहों के ब्लाऊज़ के देखा हो तो आपको मेरी इस बात की सच्चाई का अन्दाज़ा हो जाएगा। फिर मेरा ध्यान उसकी कमर पर गया जो २२ इंच से ज्यादा तो हर्गिज़ नहीं हो सकती। पतली-पतली गोरी गुलाबी जाँघें। और दो इंच पट्टी वाली वही टी-आकार की पैन्टी (जो मधु की पसंदीदा है)। उनके बाहर झाँटों के छोटे-छोटे मुलायम रोयें जैसे बाल। हे भगवान, मैं तो जैसे पागल ही हो जाउँगा। मुझे तो लगने लगा कि मैं अभी बाथरूम का दरवाजा तोड़कर अन्दर घुस जाऊँगा और… और…
निशा ने बड़े नाज़-ओ-अन्दाज़ से अपनी ब्रा के हुक़ खोले और दोनों क़बूतर जैसे आज़ाद हो गए। गोर गुलाबी दो सिन्दूरी आम, जैसे रस से भरे हुए हों। चूचियों का गहरा घेरा कैरम की गोटी जितना बड़ा, बिल्कुल चुरूट लाल। घुण्डियाँ तो बस चने के दाने जितने। सुर्ख रतनार अनार के दाने जैसे, पेन्सिल की नोक की तरह तीखे। उसने अदा से अपने उरोजों पर हाथ फेरा और एक दाने को पकड़ कर मुँह की तरफ किया और उस पर जीभ लगा दी। या अल्लाह… मुझे लगा जैसे अब क़यामत ही आ जाएगी। उसने शीशे के सामने घुम कर अपने नितम्ब देखे। जैसे दो पूनम के चाँद किसी ने बाँध दिए हों। और उनके बीच की दरार एक लम्बी खाई की तरह। पैन्टी उस दरार में घुसी हुई थी। उसने अपने नितम्बों पर एक हल्की सी चपत लगाई और फिर दोनों हाथों को कमर की ओर ले जाकर अपनी काली पैन्टी नीचे सरकानी शुरु कर दी।
मुझे लगा कि अगर मैंने अपनी निगाहें वहाँ से नहीं हटाईं तो आज ज़रूर मेरा हार्ट फेल हो जाएगा। जैसे ही पैन्टी नीचे सरकी हल्के-हल्के मक्के के भुट्टे के बालों जैसे रेशमी नरम छोटे-छोटे रोयें जैसे बाल नज़र आने लगे। उसके बाद दो भागों में बँटे मोटे-मोटे बाहरी होंठ, गुलाबी रंगत लिए हुए। चीरा तो मेरे अंदाज के मुताबिक ३ इंच से तो कतई ज़्यादा नहीं था। अन्दर के होंठ बादामी रंग के। लगता है साली ने अभी तक चूत (माफ़ करें बुर) से सिर्फ मूतने का ही काम लिया है। कोई अंगुल बाज़ी भी लगता है नहीं की होगी। अन्दर के होंठ बिल्कुल चिपके हुए - आलिंगनबद्ध। और किशमिश का दाना तो बस मोती की तरह चमक रहा था। गाँड की छेद तो नज़र नहीं आई पर मेरा अंदाजा है कि वो भी भूरे रंग का ही होगा और एक चवन्नी के सिक्के से अधिक बड़ा क्या होगा! दाईं जाँघ पर एक छोटा सा तिल। उफ्फ… क़यामत बरपाता हुआ। उसने शीशे में देखते हुए उन रेशमी बालों वाली बुर पर एक हाथ फेरा और हल्की सी सीटी बजाते हुए एक आँख दबा दी। मेरा पप्पू तो ऐसे अकड़ गया जैसे किसी जनरल को देख सिपाही सावधान हो जाता है। मुझे तो डर लगने लगा कि कहीं ये बिना लड़े ही शहीद न हो जाए। मैंने प्यार से उसे सहलाया पर वह मेरा कहा क्यों मानने लगा।
हिंदी सेक्स कहानियां - प्रेम आश्रम पार्ट -६
बचपने से जब भी ज़ोरों की बारिश होती या ज़ोर की बिजली कड़कती थी तो मैं डर के मारे घर में दुबक जाया करता था। पर उस रात की बारिश ने मुझे रोमांच से लबालब भर दिया था। आज भी जब ज़ोरों की बारिश होती है, और बिजली कड़कती है, मुझे एक शेर याद आ जाता है:
ऐ ख़ुदा इतना ना बरस कि वो आ ना पाएँ !
आने के बाद इतना बरस कि वो जा ना पाएँ !!
जून महीने के आख़िरी दिन चल रहे थे। मधु (मेरी पत्नी, मुधर) गर्मियों की छुट्टियों में अपने मायके गई हुई थी। मैं अकेला ड्राईंग रूम मे खिड़की के पास बैठा मिक्की के बारे में ही सोच रहा था। (मिक्की मेरे साले की लड़की है)। पिछले साल वह एक सड़क-दुर्घटना का शिकार हो गई थी और हमें रोता-बिलखता छोड़ कर चली गई थी। सच पूछो तो पिछले एक-डेढ़ साल में कोई भी दिन ऐसा न बीता होगा कि मैंने मिक्की को याद नहीं किया हो। वो तो मेरा जैसे सब कुछ लूट कर ही ले गई थी। मैं उसकी वही पैन्टी और रेशमी रुमाल हाथों में लिए बैठा उसकी याद में आँसू बहा रहा था। हर आहट पर मैं चौंक सा जाता और लगता कि जैसे मिक्की ही आ गई है।
दरवाजे पर जब कोई भी आहट सी होती है तो लगता है कि तुम आई हो
तारों भरी रात में जब कोई जुगनू चमकता है लगता है तुम आई हो
उमस भरी गर्मी में जब पुरवा का झोंका आता है तो लगता है तुम आई हो
दूर कहीं अमराई में जब भी कोई कोयल कूकती है लगता है कि तुम आई हो !!
उस दिन रविवार था। सारे दिन घर पर ही रहा। पहले दिन जो बाज़ार से ब्लू-फिल्मों की ४-५ सीडी लाया था उन्हें कम्प्यूटर में कॉपी किया था। एक-दो फ़िल्में देखी भी, पर मिक्की की याद आते ही मैंने कम्प्यूटर बन्द कर दिया। दिन में गर्मी इतनी ज्यादा कि आग ही बरस रही थी। रात के कोई १० बजे होंगे। अचानक मौसम बदला और ज़ोरों की आँधी के साथ हल्की बारिश शुरु हो गई। हवा के एक ठंडे झोंके ने मुझे जैसे सहला सा दिया। अचानक कॉलबेल बजी और लगभग दरवाज़ा पीटते हुए कोई बोला, “दीदीऽऽऽ !! … जीजूऽऽऽ.. !! दरवाज़ा जल्दी खोलो… दीदी…!!!?” किसी लड़की की आवाज थी।
मिक्की जैसी आवाज़ सुनकर मैं जैसे अपने ख़्यालों से जागा। इस समय कौन आ सकता है? मैंने रुमाल और पैन्टी अपनी जेब में डाली और जैसे ही दरवाज़े की ओर बढ़ा, एक झटके के साथ दरवाज़ा खुला और कोई मुझ से ज़ोर से टकराया। शायद चिटकनी खुली ही रह गई थी, दरवाज़ा पीटने और ज़ोर लगाने के कारण अपने-आप खुल गया और हड़बड़ाहट में वो मुझसे टकरा गई। अगर मैंने उसे बाँहों में नहीं थाम लिया होता तो निश्चित ही नीचे गिर पड़ती। इस आपा-धापी में उसके कंधे से लटका बैग (लैपटॉप वाला) नीचे ही गिर गया। वो चीखती हुई मुझसे ज़ोर से लिपट सी गई। उसके बदन से आती पसीने, बारिश और जवान जिस्म की खुशबू से मेरा तन-मन सब सराबोर होता चला गया। उसके छोटे-छोटे उरोज मेरे सीने से सटे हुए थे। वो रोए जा रही थी। मैं हक्का-बक्का रह गया, कुछ समझ ही नहीं पाया।
कोई २-३ मिनटों के बाद मेरे मुँह से निकला “क्क..कौन… अरे.. नन्न्नन.. नि.. निशा तू…??? क्या बात है… अरे क्या हुआ… तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?” ओह ये तो मधु की कज़िन निशा थी। कभी-कभार अपने नौकरी के सिलसिले में यहाँ आया करती थी, और रात को यहाँ ठहर जाती थी। पहले मैंने इस चिड़िया पर ध्यान ही नहीं दिया था।
आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि इतनी मस्त-हसीन लौण्डिया की ओर मेरा ध्यान पहले क्यों नहीं गया। इसके दो कारण थे। एक तो वो सर्दियों में एक-दो बार जब आई थी तो वह कपड़ों से लदी-फदी थी, दूसरे उसकी आँखें पर मोटा सा चश्मा। आज तो वह कमाल की लग रही थी। उसने कॉन्टैक्ट लेंस लगवा लिए थे। कंधों के ऊपर तक बाल कटे हुए थे। कानों में सोने की पतली बालियाँ। जीन्स पैन्ट में कसे नितम्ब और खुले टॉप से झलकते काँधारी अनार तो क़हर ही ढा रहे थे। साली अपने-आप को झाँसी की शेरनी कहती है पर लगती है नैनीताल या अल्मोड़ा की पहाड़ी बिल्ली।
ओह… सॉरी जीजू… मधु दीदी कहाँ हैं?… दीदी… दीदी…” निशा मुझ से परे हटते हुए इधर-उधर देखते हुए बोली।
“ओह दीदी को छोड़ो, पहले यह बताओ तुम इतनी रात गए बारिश में डरी हुई… क्या बात है??”
“वो… वो एक कुत्ता…”
“हाँ-हाँ, क्या हुआ? तुम ठीक हो?”
निशा अभी भी डरी हुई खड़ी थी। उसके मुँह से कुछ नहीं निकल रहा था। मैंने दरवाज़ा बन्द किया और उसका हाथ पकड़ कर सोफ़े पर बिठाया, फिर पूछा, “क्या बात है, तुम रो क्यों रही थीं?”
जब उसकी साँसें कुछ सामान्य हुई तो वह बोली, “दरअसल सारी मुसीबत आज ही आनी थी। पहले तो प्रेज़ेन्टेशन में ही देर हो गई थी, और फिर खाना खाने के चक्कर में ९ बज गए। कार भी आज ही ख़राब होनी थी। बस-स्टैण्ड गई तो आगरा की बस भी छूट गई।” शायद इन दिनों उसकी पोस्टिंग आगरा में थी।
मैं इतना तो जानता था कि वह किसी दवा बनाने वाली कम्पनी में काम करती है और मार्केटिंग के सिलसिले में कई जगह आती-जाती रहती है। पर इस तरह डरे हुए, रोते हुए हड़बड़ा कर आने का कारण मेरी समझ में नहीं आया। मैंने सवालिया निगाहों से उसे देखा तो उसने बताया।
“वास्तव में महाराजा होटल में हमारी कम्पनी का एक प्रेज़ेन्टेशन था। सारे मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव आए हुए थे। हमारे दो नये उत्पाद भी लाँच किए गए थे। कॉन्फ्रेन्स ९ बजे खत्म हुई और खाना खाने के चक्कर में देर हो गई। वापस घर जाने का साधन नहीं था। यहाँ आते समय रास्ते में ऑटो ख़राब हो गई। इस बारिश को भी आज ही आना था। रास्ते में आपके घर के सामने कुत्ता सोया था। बेख्याली में मेरा पैर उसके ऊपर पड़ गया और वह इतनी ज़ोर से भौंका कि मैं डर ही गई।” एक साँस में निशा ने सब बता दिया।
“अरे कहीं काट तो नहीं लिया?”
नहीं काटा तो नहीं…! दीदी दिखाई नहीं दे रही?”
“ओह… मधु तो जयपुर गई हुई है, पिछले १० दिनों से !”
“तभी उनका मोबाईल नहीं मिल रहा था।”
“तो मुझे ही कर लिया होता।”
“मेरे पास आपका नम्बर नहीं था।”
“हाँ भई, आप हमारा नम्बर क्यों रखेंगी… हम आपके हैं ही कौन?”
“आप ऐसा क्यों कहते हैं?”
“भई तुम तो दीदी के लिए ही आती हो हमें कौन पूछता है?”
“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।”
“इसका मतलब तुम मेरे लिए भी आती हो।” मैं भला मज़ाक का ऐसा सुनहरा अवसर कैसे छोड़ता। वो शरमा गई। उसने अपनी निगाहें नीची कर लीं। थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, “ओह, दीदी तो है नहीं तो मैं किसी होटल में ही ठहर जाती हूँ!”
“क्यों, यहाँ कोई दिक्क़त है?”
“वो… वो… आप अकेले हैं और मैं… मेरा मतलब… दीदी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी?”
“क्यों क्या सोचेगी, क्या तुम इससे पहले यहाँ नहीं ठहरी?”
“हाँ पर उस समय दीदी घर थी।”
“क्या हम इतने बुरे हैं?”
“ओह.. वो बात नहीं है।”
“तो फिर क्या बात है?”
“वो.. .वो… मेरा मतलब क्या है कि एक जवान लड़की का इस तरह ग़ैर मर्द के साथ रात में… अकेले?? मेरा मतलब?? वो कुछ समझ नहीं आ रहा।” उसने रोनी सी सूरत बनाते हुए कहा।
“ओह.. अब मैं समझा, तुम मुझे ग़ैर समझती हो या फिर तुम्हें अपने आप पर ही विश्वास नहीं है।”
“नहीं ऐसी बात तो नहीं है।”
“तो फिर बात यह है कि मैं एक हिंसक पशु हूँ, एक गुंडा-बदमाश, मवाली हूँ। तुम जैसी अकेली लड़की को पकड़कर तुम्हें खा ही जाऊँगा या कुछ उल्टा-सीधा कर बैठूँगा? क्यों है ना यही बात?”
“ओह जीजू, आप भी बात का बतंगड़ बना रहे हैं। मैं तो यह कह रही थी आपको बेकार परेशानी होगी।”
“अरे इसमे परेशानी वाली क्या बात है?”
“फिर भी एकता कपूर… मेरा मतलब वो… दीदी…?” वो कुछ सोचते हुए सी बोली।
“अरे जब तुम्हें कोई समस्या नहीं है, मुझे नहीं, तो फिर जयपुर बैठी मधु को क्या समस्या हो सकती है। और फिर आस-पड़ोस वाले किसी से कोई फिक्र नहीं करते हैं। अगर अपना मन साफ़ है तो फ़िर किसी का क्या डर? क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ?” मैंने कहा। मैं इतना बढ़िया मौक़ा और हाथ में आई मुर्गी को ऐसे ही हवा में कैसे उड़ जाने देता।
मुझे तो लगा जैसे मिक्की ही मेरे पास सोफ़े पर बैठी है। वही नाक-नक्श, वही रूप-रंग और कद-काठी, वही आवाज़, वही नाज़ुक सा बदन, बिल्कुल छुईमुई सी कच्ची-कली जैसी। बस दोनों में फ़र्क इतना था कि निशा की आँखें काली हैं और मिक्की की बिल्लौरी थीं। दूसरा निशा कोई २४-२५ की होगी जबकि मिक्की १३ की थी। मिक्की थोड़ी सी गदराई हुई लगती थी जबकि निशा दुबली-पतली छरहरी लगती है। कमर तो ऐसी कि दोनों मुट्ठियों में ही समा जाए. छोटे-छोटे रसकूप (उरोज)। होंठ इतने सुर्ख लाल, मोटे-मोटे हैं तो उसके निचले होंठ मेरा मतलब है कि उसकी बुर के होंठ कैसे होंगे। मैं तो सोच कर ही रोमांचित हो उठा। मेरा पप्पू तो छलांगे ही लगाने लगा। उसके होठों के दाहाने (चौड़ाई) तो २.५-३ इंच का ही होगा। हे लिंग महादेव, अगर आज यह चिड़िया फँस गई तो मेरी तो लॉटरी ही लग जाएगी। और अगर ऐसा हो गया तो कल सोमवार को मैं ज़रूर जल और दूध तुम्हें चढ़ाऊँगा। भले ही मुझे कल छुट्टी ही क्यों ना लेनी पड़े। पक्का वादा।
प्रेम आश्रम वाले गुरुजी ने अपने पिछले विशेष प्रवचन में सच ही फ़रमाया था, “ये सब चूतें, गाँड और लंड कामदेव के हाथों की कठपुतलियाँ हैं। कौन सी चूत और गाँड किस लण्ड से, कब, कहाँ, कैसे, कितनी देर चुदेंगी, कोई नहीं जानता।”
“इतने में ज़ोरों की बिजली कड़की और मूसलाधार बारिश शुरु हो गई। निशा डर के मारे मेरी ओर सरक गई। मुझे एक शेर याद आ गया:
लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से !
या इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे !!
उसके भींगे बदन की खुशबू से मैं तो मदहोश ही हुआ जा रहा था। गीले कपड़ों में उसका अंग-अंग साफ दिख़ रहा था। शायद उसने मुझे घूरते हुए देख लिया था। वो कुछ सोचते हुए बोली, “मैं तो पूरी ही भीग गई।”
“मैं समझ गया, वो कपड़े बदलना या नहाना चाहती है, पर उसके पास कपड़े नहीं हैं, मेरे से कपड़े माँगते हुए शायद कुछ संकोच कर रही है। मैंने उससे कहा, “कोई बात नहीं, तुम नहा लो, मैं मधु की साड़ी निकाल देता हूँ।”
वो फिर सोचने लगी, “पर वो… वो… साड़ी तो मुझे बाँधनी नहीं आती। मैंने मन में कहा, “मेरी जान तुम तो बिना साड़ी-कपड़ों के ही अच्छी लगोगी। तुम्हें कपड़े कौन कमबख़्त पहनाना चाहता है” पर मैंने कहा -
“कोई बात नहीं, कोई पैन्ट और टॉप शर्ट या नाईटी वगैरह भी है, आओ मेरे साथ।” मैंने उसकी बाँह पकड़ी और अपने बेडरूम की ओर ले जाने लगा। आहहह… उसकी नरम नाज़ुक बाँहें मखमल जैसी मुलायम चिकनी थीं। अगर बाँहें ऐसी चिकनी हैं तो पिर जाँघें कैसी होंगी?
कपड़ों की आलमारी तो साड़ियों से लदी पड़ी थी। एक खाने में कुछ पैन्ट-शर्ट और टॉप आदि भी थे। मैंने उनकी ओर इशारा कर दिया। निशा ने कहा,”पर मेरी कमर तो २२ की है, मधु दीदी की पैन्ट मुझे ढीली रहेगी!”
ओह… अच्छा कोई बात नहीं, मेरे पास एक ड्रेस और है, तुम्हें पूरी आनी चाहिए, आओ मेरे साथ।” मैंने आलमारी बन्द कर दी और दूसरी अलमारी की ओर ले जाकर उसे गुलाबी रंग की एक नई बेल-बॉटम और हल्के रंग का टॉप जिस पर पीले फूल बने थे, दिखाया, साथ एक जोड़ी ब्रा और पैन्टी भी थी। ये मैंने मिक्की के पिछले जन्मदिन के लिए मधु से छुपा कर ख़रीदे थे पर उसे दे नहीं पाया था। उन्हें देखकर निशा ने कहा, “लगता है ये तो आ जाएँगे।”
उसने पैन्टी उठाई और गौर से देखते हुए बोली, “ओह… दीदी भी ऐसी ही ब्रा पहनती हैं? ये.. तो ये.. तो ओह?” वो आगे कुछ नहीं बोल पाई। बे-खयाली में उसकसे मुँह से निकल तो गया पर उसका मतलब जान कर वो शरमा गई। इस्स्स्स्स…. मुझे तो लगा जैसे किसी ने मिक्की को ही मेरे सामने खड़ा कर दिया है बस नाम का ही फ़र्क है। मिक्की की तरह शरमाने की इस जानलेवा अदा को तो मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाऊँगा।
न जाने क्या सोचकर उसने ब्रा और पैन्टी वहीं रख दी। मेरा दिल तो छलाँगें ही लगाने लगा। या अल्लाह… बिना ब्रा और पैन्टी में तो यह बिल्कुल मिक्की की तरह क़यामत ही लेगी। मैं अपने-आप पर क़ाबू कैसे रख पाऊँगा। मुझे तो डर लगने लगा कि कहीं मैं उसका बलात्कार ही ना कर बैठूँ। मेरा पप्पू तो जैसे क़ुतुबमीनार बन गया था। इतनी उत्तेजना तो आज से पहले कभी नहीं महसूस हुई थी। पप्पू तो अड़ियल टट्टू बन गया था। अचानक मेरे कानों में निशा की मीठी आवाज़ पड़ी।
“ओ जीजू, मैं नहाने जा रही हूँ।”
“हाँ-हाँ, तौलिया और शैम्पू आदि बाथरूम में हैं।” मैं तो जैसे ख़्यालों से जागा…
निशा बाथरूम में घुस गई। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। बाहर ज़ोरों की बारिश और मेरे अन्दर जलती आग, दोनों की रफ्तार एक जैसी ही तो थी। अचानक मेरे दिमाग़ में एक ख्याल दौड़ गया और होठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान। और उसके साथ ही मेरे क़दम भी बाथरूम की ओर बढ़ गए। अब आप इतने कमअक्ल तो नहीं हैं कि आप मेरी योजना ना समझे हों।
मैंने की-होल से बाथरूम के अन्दर झाँका…
निशा ने अपनी पैन्ट और शर्ट उतार दी थी। अब वो सिर्फ ब्रा पैन्टी में थी। उफ्फ… क्या मस्त हिरनी जैसी गोरी-चिट्टी नाज़ुक कमसिन कली की तरह, जैसे मिक्की ही मेरी आँखों के सामने खड़ी हो। सुराहीदार गर्दन, पतली सी कमर मानों लिम्का की बोतल को एक जोड़ा हाथ और पैर लगा दिए हों। संगमरमर सा तराशा हुआ सफाक़ बदन किसी फरिश्ते का भी ईमान डोल जाए। एक ख़ास बात: काँख (जहाँ से बाँहें शुरु होतीं हैं) और उरोजों से थोड़ा ऊपर का भाग ऐसे बना था जैसे कि गोरी-चिट्टी चूत ही बनी है। ऐसी लड़कियाँ वाकई नाज़ुक होतीं हैं और उनकी असली चूत भी ऐसी ही होती है। छोटी सी तिकोने आकार की माचिस की डिब्बी जितनी बड़ी। अगर आपने प्रियंका चोपड़ा या करीना कपूर को किसी फिल्म में बिना बाँहों के ब्लाऊज़ के देखा हो तो आपको मेरी इस बात की सच्चाई का अन्दाज़ा हो जाएगा। फिर मेरा ध्यान उसकी कमर पर गया जो २२ इंच से ज्यादा तो हर्गिज़ नहीं हो सकती। पतली-पतली गोरी गुलाबी जाँघें। और दो इंच पट्टी वाली वही टी-आकार की पैन्टी (जो मधु की पसंदीदा है)। उनके बाहर झाँटों के छोटे-छोटे मुलायम रोयें जैसे बाल। हे भगवान, मैं तो जैसे पागल ही हो जाउँगा। मुझे तो लगने लगा कि मैं अभी बाथरूम का दरवाजा तोड़कर अन्दर घुस जाऊँगा और… और…
निशा ने बड़े नाज़-ओ-अन्दाज़ से अपनी ब्रा के हुक़ खोले और दोनों क़बूतर जैसे आज़ाद हो गए। गोर गुलाबी दो सिन्दूरी आम, जैसे रस से भरे हुए हों। चूचियों का गहरा घेरा कैरम की गोटी जितना बड़ा, बिल्कुल चुरूट लाल। घुण्डियाँ तो बस चने के दाने जितने। सुर्ख रतनार अनार के दाने जैसे, पेन्सिल की नोक की तरह तीखे। उसने अदा से अपने उरोजों पर हाथ फेरा और एक दाने को पकड़ कर मुँह की तरफ किया और उस पर जीभ लगा दी। या अल्लाह… मुझे लगा जैसे अब क़यामत ही आ जाएगी। उसने शीशे के सामने घुम कर अपने नितम्ब देखे। जैसे दो पूनम के चाँद किसी ने बाँध दिए हों। और उनके बीच की दरार एक लम्बी खाई की तरह। पैन्टी उस दरार में घुसी हुई थी। उसने अपने नितम्बों पर एक हल्की सी चपत लगाई और फिर दोनों हाथों को कमर की ओर ले जाकर अपनी काली पैन्टी नीचे सरकानी शुरु कर दी।
मुझे लगा कि अगर मैंने अपनी निगाहें वहाँ से नहीं हटाईं तो आज ज़रूर मेरा हार्ट फेल हो जाएगा। जैसे ही पैन्टी नीचे सरकी हल्के-हल्के मक्के के भुट्टे के बालों जैसे रेशमी नरम छोटे-छोटे रोयें जैसे बाल नज़र आने लगे। उसके बाद दो भागों में बँटे मोटे-मोटे बाहरी होंठ, गुलाबी रंगत लिए हुए। चीरा तो मेरे अंदाज के मुताबिक ३ इंच से तो कतई ज़्यादा नहीं था। अन्दर के होंठ बादामी रंग के। लगता है साली ने अभी तक चूत (माफ़ करें बुर) से सिर्फ मूतने का ही काम लिया है। कोई अंगुल बाज़ी भी लगता है नहीं की होगी। अन्दर के होंठ बिल्कुल चिपके हुए - आलिंगनबद्ध। और किशमिश का दाना तो बस मोती की तरह चमक रहा था। गाँड की छेद तो नज़र नहीं आई पर मेरा अंदाजा है कि वो भी भूरे रंग का ही होगा और एक चवन्नी के सिक्के से अधिक बड़ा क्या होगा! दाईं जाँघ पर एक छोटा सा तिल। उफ्फ… क़यामत बरपाता हुआ। उसने शीशे में देखते हुए उन रेशमी बालों वाली बुर पर एक हाथ फेरा और हल्की सी सीटी बजाते हुए एक आँख दबा दी। मेरा पप्पू तो ऐसे अकड़ गया जैसे किसी जनरल को देख सिपाही सावधान हो जाता है। मुझे तो डर लगने लगा कि कहीं ये बिना लड़े ही शहीद न हो जाए। मैंने प्यार से उसे सहलाया पर वह मेरा कहा क्यों मानने लगा।