लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

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The Romantic
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Re: लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

Unread post by The Romantic » 02 Nov 2014 19:48


मुझे तो लगने लगा था कि मैं जैसे परी कथा का राजकुमार हूँ और वो मेरे ख़्वाबों की शहजादी है। आप हैरान हो रहे होंगे यार एक अदना सी नौकरानी के लिए इतना दीवानापन ? आप शायद मेरे मन की स्थिति और इन बातों को नहीं समझ पायेंगे। पता नहीं मैं अंगूर को इतना क्यों चाहने लगा हूँ। जिस तरीके से वो मेरा और मधुर का ख़याल रखती है हमें तो लगता ही नहीं कि वो एक नौकरानी है। मेरा तो मन करता है बस मैं उसे बाहों में भर कर दिन रात उसे अपने आगोश में लिए ही बैठा रहूँ। कई बार तो यह भी भूल जाने का मन करता है कि मैं एक शादीशुदा, जिम्मेदार और सभ्य समाज में रहने वाला प्राणी हूँ। मैं तो चाहने लगा था कि इसे ले कर कहीं दूर ही चला जाऊं जहां हमें देखने और पहचानने वाला ही कोई ना हो।
एक तो यह मिलने जुलने वालों ने नाक में दम कर रखा है कोई ना कोई हाल चाल पूछने आ धमकता है। खैर आज मैं पूरी तैयारी के साथ जब शाम को घर पहुंचा तो वहाँ जोधपुर वाली मौसी को मधुर के पास विराजमान देख मेरा सारा मूड ही खराब हो गया। उसे मधुर के बारे में पता चला तो वो भी मिलने आ पहुंची थी। जब मैं उनसे मिलकर कमरे से बाहर आया तो अंगूर मेरी ओर देख कर मंद मंद मुस्कुरा रही थी। उसने मेरी ओर अंगूठा दिखाते हुए आँख मार दी तो मैं तो अपना मन मसोस कर ही रह गया। अब तो और 2-3 दिन इस चिड़िया को चोदने का तो बस ख्वाब ही रह जाएगा।
अंगूर भी इन 10-12 दिनों में कितनी बदल गई है। उसकी मासूमियत और किशोरपन तो जैसे मेरे हाथों का स्पर्श पाते ही धुल गया है और उसकी अल्हड़ जवानी अब बांकपन और शौखियों में तब्दील हो गई है। उसका शर्मीलापन तो जैसे पिंघल कर कातिलाना अदा बन गया है। उसके कपड़े पहनने का ढंग, सजने संवरने का तरीका और बोलचाल सब कुछ जैसे बदल गया है। मधु के साथ रह कर तो उसका कायाकल्प ही हो गया है। मुझे तो लगने लगा अगर जल्दी ही अंगूर को मैंने अपनी बाहों में नहीं भर लिया तो मैं पागल ही हो जाऊँगा। दर असल मुझे कहीं ना कहीं मिक्की और सिमरन कि छवि अंगूर में नज़र आने लगी थी।
खैर मौसी को किसी तरह रविवार को सुबह सुबह विदा किया। जब मैं उसे छोड़ने स्टेशन जा रहा था तो मैंने और अंगूर ने आँखों ही आँखों में इशारा किया कि आज दोपहर में जब मधुर सो जायेगी तो साथ वाले कमरे में हम दोनों उस दिन की याद एक बार फिर से ताज़ा कर लेंगे।
जब मैं मौसी को जोधपुर के लिए गाड़ी में बैठा कर वापस आया तो घर पर बम्ब फूट चुक्का था। मधुर के कमरे में गुलाबो और अंगूर दोनों को खड़ा देख कर किसी अनहोनी की आशंका से मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा। अंगूर कहीं नज़र नहीं आ रही थी। पता नहीं क्या बात थी ? बाद में मधुर ने बताया कि ये दोनों अंगूर को लेने आई हैं। अब गुलाबो ठीक हो गई है और सारा काम वो ही कर दिया करेगी। दरअसल आज दिन में लड़के वाले अंगूर को देखने आने वाले थे। ओह ... बेचारी अंगूर ने पहले ही इस बात का अंदेशा जता दिया था कि उसके घर वाले उसे किसी निरीह जानवर की तरह उस बुढ़ऊ के पल्ले बाँध देंगे। जरूर यह काम अनार ने किया होगा।
मुझे उन दोनों पर गुस्सा भी आ रहा था और झुंझलाहट भी हो रही थी। पैसों के लिए एक छोटी सी बच्ची को 35 साल के उस खूसट के पल्ले बाँध देना तो सरासर अमानवीयता है। अगर पैसे ही चाहियें तो मैं दे देता मेरे लिए यह कौन सी बड़ी बात थी। पर मैं क्या बोलता। मुझे लगा मेरे चहरे को देख कर कहीं मधुर और अनार को कोई शक ना हो जाए मैं कमरे से बाहर आ गया। अंगूर ड्राइंग रूम के साथ बने बाथरूम में थी। मैं उधर ही चला गया। अंगूर की आँखों से झर झर नीर बह रहा था। मुझे देखते ही वो सुबकने लगी। उसकी कातर आँखें देख कर मुझे भी रोना सा आ गया।
“बाबू ... अम्मा और अंगूर दीदी को मना लो ... मैं सच कहती हूँ ... मैं जहर खा कर अपनी जान दे दूँगी पर उस मुन्ने लाल के साथ किसी भी सूरत में शादी नहीं करुँगी।”
“ओह ... अंगूर मैं बात करूँगा .... तुम चिंता मत करो !” मैंने कह तो दिया था पर मैं जानता था मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा।
थोड़ी देर बाद अंगूर उनके साथ चली गई। जाते समय उसने बस एक बार मुड़ कर मेरी ओर देखा था। उसकी आँखों से गिरते आंसू तो बस यही कह रहे थे:
एक गहरी खाई जब बनती है तो अपने अस्तित्व के पीछे जमाने में महलों के अम्बार लगा देती है उसी तरह हम गरीब बदकिस्मत इंसान टूट कर भी तुम्हें आबाद किये जाते हैं।
मैं तो बुत बना बस उसे नज़रों से ओझल होते देखता ही रह गया। मैं तो उसे हौंसला भी नहीं दे पाया ना उसके गालों पर लुढ़क आये आंसूं को ही पोंछ पाया। बस मेरे दिल की गहराइयों और कांपते होठों से रसीद सिम्मी का यह शेर जरूर निकला पड़ा :
पलकों से गिर ना जाएँ ये मोती संभाल लो
दुनिया के पास देखने वाली नज़र नहीं है ।
दोस्तो ! आपको यह अंगूर का दाना कैसा लगा मुझे जरूर बताना।
आपका प्रेम गुरु

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Re: लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

Unread post by The Romantic » 02 Nov 2014 20:10

लिंगेश्वर की काल भैरवी


(एक रहस्य प्रेम-कथा) मेरे प्रिय पाठको और पाठिकाओ, मेरी यह कहानी मेरी एक ई-मित्र सलोनी जैन को समर्पित है जिनके आग्रह पर मैंने अपने इस अनूठे अनुभव को कहानी का रूप दिया है। ............ प्रेम गुरु
अपना पिछला जन्म और भविष्य जानने की सभी की उत्कट इच्छा रहती है। पुरातन काल से ही इस विषय पर लोग शोध कार्य (तपस्या) करते रहे हैं। उनकी भविष्यवाणियाँ सत्य हुई हैं। आपने भारतीय धर्मशास्त्रों में श्राप और वरदानों के बारे में अवश्य सुना होगा। वास्तव में यह भविष्यवाणियाँ ही थी। उन लोगों ने अपनी तपस्या के बल पर यह सिद्धियाँ (खोज) प्राप्त की थी। यह सब हमारी मानसिक स्थिति और उसकी किसी संकेत या तरंग को ग्रहण करने की क्षमता पर निर्भर करता है। अध्यात्म में इसे ध्यान, योग या समाधि भी कहा जाता है। इसके द्वारा कोई योगी (साधक) अपने सूक्ष्म शरीर को भूत या भविष्य के किसी कालखंड या स्थान पर ले जा सकता है और उन घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में जान सकता है। आपने फ्रांस के नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों के बारे में तो अवश्य सुना होगा। आज भी ऐसा संभव हो सकता है। ... इसी कहानी में से समय कब पंख लगा कर उड़ जाता है पता ही नहीं चलता। अब देखो हमारी शादी को इस नवम्बर में पूरे 6 साल हो गए हैं पर आज भी लगता है जैसे कुछ दिनों पहले ही हमारी शादी हुई है। जब भी नवम्बर का महीना आता है मुझे अपना मधुर-मिलन (सुहागरात) और मधुमास (हनीमून) याद आ जाता है। शादी के 8-10 दिनों बाद मैं और मधु (मेरी पत्नी मधुर) घूमने फिरने खजुराहो गए थे। मैं और मधु तो दिन रात अपनी चुदाई में इतने मस्त रहते थे कि कहीं जाना ही नहीं चाहते थे पर मौसी और सुधा (मधु की भाभी) के जोर देने पर हमने यह प्रोग्राम बनाया था। मेरा एक बहुत अच्छा मित्र है सत्यजीत। रोहतक का रहने वाला है। उसने मेरे साथ ही इंजीनियरिंग की थी। उसकी भी नई नई शादी हुई थी और उसने भी हमारे साथ ही खजुराहो जाने का प्रोग्राम बना लिया था। नई दिल्ली से खजुराहो के लिए प्रति दिन एयर सर्विस है। हम लोग यहाँ हवाई जहाज से लगभग 1:30 बजे पहुंचे। हालांकि नवम्बर का महीना था पर ठण्ड इतनी ज्यादा नहीं थी। गुलाबी ठण्ड कही जा सकती थी। मधु ने जीन्स और गुलाबी रंग का टॉप और उसके ऊपर काली जाकेट पहनी थी। आँखों पर काला चश्मा, खुले बाल, ऊंची सैंडल, कलाइयों में कोहनियों तक लाल रंग की चूड़ियाँ। हाथों और पैरों में मेहंदी और बिल्लोरी आँखों में हल्का सा काज़ल। इन 8-10 दिनों में तो उसका रंग रूप जैसे और भी निखर आया था। उसके नितम्ब तो इतने कसे लग रहे थे कि बार बार मेरा ध्यान उनकी ओर ही चला जाता था। मेरी बड़ी उत्कट इच्छा हो रही थी कि एक बार मधु मुझे गांड मार लेने दे तो यह मधुमास (हनीमून) यादगार ही बन जाए। पर अपनी नव विवाहिता पत्नी को इसके लिए कहना और मनाना बड़ा ही मुश्किल काम था। मैं तो बस अपने सूखे होंठों पर अपनी जबान ही फेरता रह गया। मैं सत्यजीत से इस मसले पर बात करना चाहता था। मुझे पता था कि वो भी गांड का बड़ा शौक़ीन है। पता नहीं साले ने अपनी पत्नी की गांड मार भी ली होगी। उसकी पत्नी जिस तरीके से टांगें चौड़ी करके चल रही थी मेरा शक और भी पक्का हो जाता है। उसकी पत्नी रूपल भी नाम के अनुसार कमाल की सुन्दर है। रंग जरूर थोड़ा सांवला है पर नैन नक्श बहुत तीखे हैं। उसके नितम्ब तो उस समय मधु जितनी भारी नहीं थे पर उसके उरोज तो कहर बरपा ही थे। सच कहूं तो इस साले सत्यजीत की तो लाटरी ही लग गई थी। इतने बड़े बड़े और सुडौल स्तनों को चूस और मसल कर वो तो इस्स्स्सस ...... ही कर उठता होगा। इस हरियाणा के सांड को इतनी मस्त मोरनी पता नहीं कहाँ से मिल गई है। मधु और रूपल तो ऐसे घुल मिल गई थी जैसे बचपन की सहेलियां हों। होटल कलिंग में हमने दो कमरे पहले से ही बुक करवा लिए थे। पर काउंटर पर बैठा क्लर्क पता नहीं कमरे की चाबी देने में इतनी देर क्यों लगा रहा था। बस 5 मिनट - 5 मिनट ही करता जा रहा था। पता नहीं कमरा साफ़ करवाने का बहाना मार रहा था या कोई और बात थी। मुझे इस बात से बड़ी कोफ़्त सी हो रही थी वो तो साला मधुर और रूपल को घूरे ही जा रहा था। "अरे भाई जरा जल्दी करो ! कितनी देर और लगेगी ?" मैंने उकता कर कहा। "सर, बस 5 मिनट और। मैं चाहता हूँ कि आप लोगों के कमरे अच्छे से साफ़ हो और थोड़ा सजा भी दिया जाए। आप हनीमून कपल हैं ना?" उसने मेरी ओर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुए कहा। उसकी कांइयाँ नज़रें मैं अच्छी तरह पहचानता था। ये होटल के क्लर्क और वेटर सब बड़े घाघ किस्म के होते हैं, मैं जानता था। इतने में वेटर नीचे आया और बोला "आइये सर, कमरा तैयार है। आइये मैडम..." और वो हमारा सामान लेकर लिफ्ट की ओर चलने लगा। हम सभी उसके पीछे पीछे आ गए। कमरा काफी बड़ा था। सामने टीवी, सीडी प्लयेर, एक कोने में छोटा सा फ्रिज और साइड टेबल पर टेलीफोन और नाईट लैम्प। एक बड़ा सा पलंग जिस पर साफ़ धुली हुई चद्दर 4-5 तकिये। गुलाब के फूलों की पत्तियाँ पलंग पर बिखरी हुई थी और विदेशी इत्र की खुशबू से पूरा कमरा महक रहा था। सामने दीवाल पर एक 15-16 साल की उम्र की पहाड़ी लड़की की तस्वीर लगी थी। उसने केवल घुटनों तक साड़ी पहन रखी थी और उसके सुडौल वक्ष उस झीनी साड़ी में साफ़ नज़र आ रहे थे। मोटी मोटी काली आँखों में गज़ब की सम्मोहन शक्ति थी किसी का भी मन मोह ले। पास पड़ी मेज़ पर एक फूलों का गुलदस्ता और उसके नीचे एक गुलाबी कार्ड रखा था जिस पर दो दिल बने थे। मधु ने उस कार्ड को उठा लिया और पढ़ने लगी। "आपका मधुर मिलन मंगलमय हो !" मधु मुस्कुराने लगी। साले ये होटल वाले भी किस किस तरह के टोटके आजमाते हैं। मैंने मधु को बाहों में भर लेने की कोशिश की तो मधु ने इशारे से मुझे रोक दिया। वेटर अभी भी वहीं खड़ा था। मैंने उसे 100 रुपये का एक नोट पकड़ाया तो उसने अपनी मुंडी और कमर झुका कर 3 बार हाथ से सलाम किया जैसे राजा महाराजाओं को कोर्निश करते हैं। उसने अपना नाम जयभान बताया और जाते जाते उसने बताया कि टीवी का रिमोट मेज़ की दराज़ में रखा है और उस में नई नई हिंदी और इंग्लिश फिल्मों की सीडी भी पड़ी हैं। इंग्लिश फिल्मों की सीडी का मतलब मैं अच्छी तरह जानता था। उसने बताया कि किसी और चीज की जरुरत हो तो 9 नंबर पर काउंटर पर बैठे उदय भान से बात कर लें। वह धन्यवाद करता हुआ दरवाज़ा बंद करके चला गया। मैंने झट से मधु को धर दबोचा और अपनी बाहों में भर कर इतना जोर से भींचा कि उसकी तो चीख निकलते निकलते बची। मैंने उसे पलंग पर पटक दिया और उसके गालों और होंठों को चूमने लगा। "ओह... प्रेम तुम्हें तो ज़रा सा भी सब्र नहीं होता। रुको थोड़ी देर ! मुझे बाथरूम जाना है!" मधु ने मेरी बाहों में कसमसाते हुए कहा। "अरे मेरी शहद रानी तुम्हें क्या पता, मैं पिछले 41 घंटों से सूखा ही हूँ। कल रात को तो तैयारी के चक्कर में तुमने बहाना मार लिया था और मुझे कुछ करने ही नहीं दिया था !" "चलो अब छोड़ो मुझे... कल की कमी रात को पूरी कर लेना.... ओहो.... हटो भई !" ना चाहते हुए भी मुझे उसके ऊपर से उठना पड़ा। मधु अपना वैनिटी बैग उठा कर बाथरूम में घुस गई। उस को जाते हुए मैं तो बस उसके नितम्बों को लचकता हुआ देखता ही रह गया। मेरा प्यारेलाल (लंड) तो बस आहें ही भरता रह गया। मधु बाथरूम का दरवाज़ा थोड़ा सा खोलते हुए बोली "प्रेम मुझे थोड़ा समय लगेगा तुम बाज़ार से "वो" ले आओ इतनी देर !" मधु ने मेरी ओर आँख मार दी। अब मुझे परसों रात वाली बात याद आई। ओह मधु को तो बाथरूम में कम से कम एक घंटा तो जरूर लगेगा। ओह... आप भी इन छोटी छोटी बातों को पता नहीं क्यों नहीं समझते। उसे आज अपने अनचाहे बाल साफ़ करने थे। परसों ही वो कह रही थी कि उसे अपने गुप्तांगों पर बढ़े हुए बाल बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते। पिछले 8-10 दिनों में उसे इन्हें साफ़ करने का मौका ही नहीं मिला था। मुझे निरोध (कंडोम) का पैकेट भी खरीदना था। मधु ने कह दिया था कि वो बिना निरोध के नहीं करने देगी और वैसे भी हम दोनों ही अभी बच्चा नहीं चाहते थे। मधु पिल्स तो लेती नहीं थी इसलिए कोई सावधानी रखने की मजबूरी थी। मैं बाजार जाने के लिए कमरे से बाहर आ गया। मैं सत्यजीत को भी साथ ले लेना चाहता था। अगले दिन का प्रोग्राम बनाना था। उनको भी साथ वाला कमरा मिला था। मैंने जैसे ही उसके कमरे के दरवाजे को खटखटाना चाहा, कमरे के अन्दर से आती सिसकारियां सुनकर मैं रुक गया। "ओह ... जरा धीरे ... ओह ... जीत बड़ा मज़ा आ रहा है। आह... ओईईइ ... माआआ...." शहद जैसी मीठी आवाज़ तो रूप की रानी चंद्रावल (जीत की पत्नी रूपल) की ही हो सकती थी। "अरे मेरी रूपा रानी तेरी गांड है ही इतनी कमाल की ... मज़ा क्यों नहीं आएगा ... आह... या ... गोपी किशन की सौगंध तूने तो मुझे निहाल ही कर दिया है।" एक थप्पी जैसी आवाज आई जैसे कई बार मैं मधु के नितम्बों पर लगाता हूँ। जरूर इस साले ने रूपल को इस समय घोड़ी बना रखा होगा। मैंने नीचे झुक कर की-होल से अन्दर का दृश्य देखना चाहा पर अन्दर कुछ नज़र नहीं आया। "ओह ... जीत ... आह... पहले तो मुझे बड़ा डर लगता था और दर्द भी होता था पर अब तो सच कहती हूँ जब तक तुम एक बार मेरी गांड नहीं मार लेते मुझे मज़ा ही नहीं आता ... उईई ... मा.... आ... आ ... !" "यार तुम्हारे चूतड़ हैं ही इतने मस्त कि मैं तो इनका मुरीद (दीवाना) ही हो गया हूँ।" "हाय ... नितम्ब तो उस बिल्लो रानी के हैं ! मुझे तो ईर्ष्या होती है उसके इतने कसे हुए सुडौल नितम्बों को देख कर !" "अरे मेरी रूप कँवल ! तुम देखना दो महीने में ही तुम्हारे भी चूतड़ उस बिल्लो रानी जैसे हो जायेंगे ..." "उईई ... माँ... आह..." रूपल ने एक सिसकारी ली। पता नहीं ये दोनों किस बिल्लो रानी की बात कर रहे थे। "रूप एक बात तो है ? ये प्रेम का बच्चा तो उनका पूरा मज़ा लूटता होगा... साले ने क्या तकदीर पाई है।" "अरे नहीं... सब मेरी तरह थोड़े ही होती हैं !" "क्या मतलब ?" "मधुर बता रही थी कि प्रेम बहुत ललचाई नज़रों से उसके नितम्बों को देखता रहता है। वो भी उसकी गांड मारना चाहता है पर संकोच के मारे कह नहीं पा रहा है कहीं नवविवाहिता पत्नी को बुरा ना लगे !" "एक नंबर का लल्लू है साला ! ऐसी मटकती गांड भी भला कोई बिना मारे छोड़ने की होती है ?" "तुम्हें क्या पता कि वो कितना प्रेम करता है मधुर को ?" "हाँ यह तो है... पर मेरी रूपा रानी मैं भी तो तुम से बहुत प्रेम करता हूँ ?" "हाँ... यह बात तो है... इसीलिए तो मैं भी तुम्हें किसी चीज के लिए मना नहीं करती। तुमने तो सुहागरात में ही इसका भी मज़ा लूट ही लिया था ? पता है लड़कियां कितने नखरे करके गांड मरवाने के लिए राज़ी होती हैं ?" "अरे मेरी जान तू है ही इतनी कसूती चीज मैं अपने आप को कैसे रोक पाता !" "ऊईईई ... माँ ............" एक मीठी सीत्कार कमरे में गूंजी। "ओह ... जीत ... मेरी चूत को भी तो मसलो ... ओह ... जरा 2-3 धक्के जोर से लगाओ ... आह... ईईईइइइइइ......" "आह ... ओईई... मैं तो... मैं तो ... या इस्स्स्सस ... मैं तो ग... गया ......" "ऊईईईइ ......... मैं भी ग ......... गइइइईईईईई...." अब वहाँ रुकने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। लिफ्ट से नीचे आते मैं सोच रहा था कि ये औरतें भी कितनी जल्दी आपस में खुल कर एक दूसरे से अपने अंतरंग क्षणों की सारी बातें बता देती हैं। मधु मेरे सामने तो लंड, चूत और चुदाई का नाम लेते भी कितना शर्माती है और इस जीत रानी (रूपल) को सब कुछ बता दिया। ओह ... मधु मेरे मन की बात जानती तो है। चलो कोई अच्छा मौका देख कर इस बाबत बात करूंगा।

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Re: लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ

Unread post by The Romantic » 02 Nov 2014 20:11

लिफ्ट से नीचे आते मैं सोच रहा था कि ये औरतें भी कितनी जल्दी आपस में खुल कर एक दूसरे से अपने अंतरंग क्षणों की सारी बातें बता देती हैं। मधु मेरे सामने तो लंड, चूत और चुदाई का नाम लेते भी कितना शर्माती है और इस जीत रानी (रूपल) को सब कुछ बता दिया। ओह … मधु मेरे मन की बात जानती तो है। चलो कोई अच्छा मौका देख कर इस बाबत बात करूंगा। जब मैं बाज़ार से लौट कर आया तो हाल में इक्का दुक्का आदमी ही थे। एक मेज़ पर एक फिरंगी लड़की और काला हब्शी बैठे कोल्ड ड्रिंक पी रहे थे। फिरंगन ने पतली गोल गले की शर्ट और लाल रंग की पैंटी डाल रखी थी जिस में उसकी चूत का उभार और कटाव साफ़ नज़र आ रहा था उसकी गोरी गोरी पुष्ट जांघें इतनी कातिलाना थी कि मैं उनको देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। साले इस काले हब्शी ने भी क्या किस्मत पाई है मैंने मन में सोचा। जीत कई बार कहता है गोरी की गांड और काली की चूत बड़ी मजेदार होती है। साली ये फिरंगी लड़कियां तो गांड भी आसानी से मरवा लेती हैं इस 6.5 फुट के लम्बे चौड़े काले दैत्य की तो पौ बारह ही हो गई होगी। अब आप मेरी हालत का अंदाजा अच्छी तरह लगा सकते हैं। थोड़ी दूर एक 40-42 साल का लम्बे बालों वाला दुबला पतला सा बढ़ऊ बैठा कॉफ़ी पी रहा था। उसने अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहना था। माथे पर तिलक लगा था और सिर पर हिमाचली टोपी पहन रखी थी। मुझे भी चाय की तलब हो रही थी। सच पूछो तो चाय तो बहाना था मैं तो उस फिरंगन की गोरी गोरी जांघें और भरे नितम्बों को देखने के चक्कर में रुका था। मैं उस बढ़ऊ के साथ वाली मेज पर बैठ गया। यहाँ से उसे अच्छी तरह देखा जा सकता था। बढ़ऊ मुझे ही घूरे जा रहा था। उसकी आँखों में अजीब सा आकर्षण था। जब मेरी आँखें दुबारा उस से मिली तो मैंने पता नहीं क्यों उसे अभिवादन कर दिया। उसने मुस्कुराते हुए अपने पास ही बैठ जाने का इशारा किया तो मैं उठ कर उसके पास ही आ बैठा। मैंने पास आकर उसका अभिवादन किया,"मुझे प्रेम चन्द्र माथुर कहते हैं।" "मैं नील चन्द्र राणा हूँ भौतिक विज्ञान का प्रोफ़ेसर हूँ। पहले पठानकोट में था, आजकल अहमदाबाद आ गया हूँ। हमारे पूर्वज राजस्थान से पलायन करके हिमाचल में आ कर बस गए थे।" बढ़ऊ ने एक ही सांस में सब बता दिया। "धन्यवाद प्रोफ़ेसर साहब !" "क्या आप यहाँ पहली बार आये हैं ?" उसने पूछा। उसकी संतुलित भाषा और सभ्य लहजा सुनकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। मैंने कहा "जी हाँ मैं और मेरी पत्नी पहली बार ही आये हैं।" "ओह... अति उत्तम … यह नव विवाहित युगलों के लिए बहुत दर्शनीय स्थल है। मैं भी अपनी धर्म पत्नी और पुत्री के साथ पहली बार ही आया हूँ पर आपकी तरह नव विवाहित नहीं हूँ।" हम दोनों ही हंस पड़े। ओह... यह प्रोफ़ेसर तो रोमांटिक बातें भी कर लेता है? मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने बात जारी रखी "खजुराहो के मंदिरों के अलावा यहाँ से कोई 40-50 की.मी. दूर एक बहुत अच्छा स्थान और भी है।" "हूँ ?" "लिंगेश्वर और काल भैरवी मंदिर और साथ ही बने रंगमहल (जयगढ़) के बारे में तो आपने सुना होगा ?" "नहीं… मैंने बताया ना कि हम यहाँ पहली बार आये हैं, मुझे यहाँ के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। मैंने अजयगढ़ और कालिंजर दुर्ग के बारे में इन्टरनेट पर कुछ जानकारी देखी थी। पर लिंगेश्वर के बारे में तो …... नहीं सुना ? आपने तो देखा होगा कृपया बता दें।" "ओह …" बढ़ऊ इतना बोल कर कुछ सोच में पड़ गया। मैं बेचैनी से पहलू बदल रहा था। थोड़ी देर बाद उसने अपनी चुप्पी तोड़ी "क्या तुम परा-भौतिक विज्ञान पर विश्वास करते हो ?" अजीब सवाल था। "प ... परा ... वि ... ज्ञान... जी नहीं मैंने इसके बारे में नहीं सुना ?" मैंने कहा। "हूँ …" उसके मुँह से केवल इतना ही निकला। यह बढ़ऊ तो रहस्यमयी लगने लगा था। "देखो विज्ञान की तीन शाखाएं होती हैं- रसायन, जैव और भौतिक विज्ञान। भौतिक विज्ञान में पदार्थ, ब्रह्माण्ड और खगोल विज्ञान शामिल हैं। जैव और भौतिक विज्ञान दोनों को मिला कर एक और विज्ञान है जिसे प्रचलित भाषा में अध्यात्म कहा जाता है। अधिकतर लोगों तो यही सोचते और समझते हैं कि अध्यात्म और विज्ञान विरोधाभासी हैं और दोनों अलग अलग धाराएं हैं। पर वास्तव में ये एक ही हैं। भौतिक विज्ञान कहता है कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसी एक ही पदार्थ से बना है अध्यात्म के अनुसार इस पूरी सृष्टि को परमात्मा ने रचा है। भौतिक विज्ञान कहता है कि कोई भी पदार्थ या अपदार्थ कभी नष्ट नहीं हो सकता बस उसका स्वरुप या स्थान परिवर्तित हो जाता है। जब कि अध्यात्म में इसे आत्मा कहा जाता है जो अजर, अमर और अविनाशी है जो कभी नहीं मरती। वैज्ञानिक शोध कार्य और परीक्षण द्वारा खोज करते हैं जबकि योगी साधना और तपस्या से सिद्धि प्राप्त करते हैं। दोनों एक ही कार्य करते हैं बस माध्यम और ढंग अलग होता है।" "हम परा-विज्ञान की बात कर रहे थे। चलो एक बात बताओ ? कई बार तुमने देखा होगी कि हम किसी व्यक्ति को जब पहली बार मिलते हैं तो वो पता नहीं हमें क्यों अच्छा लगता है। हम उससे बात करना चाहते हैं, उसकी निकटता चाहते हैं और दूसरी ओर किसी व्यक्ति को देख कर हमें क्षोभ और चिढ़ सी होती है जबकि उस बेचारे ने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा होता। ऐसा क्यों होता है ? अच्छा एक बात और बताओ तुम मुझे नहीं जानते थे, ना कभी पहले मिले थे फिर भी तुमने मुझे अभिवादन किया ? क्यों ?" "वो... वो... मैं ... ?" मुझे तो कोई जवाब ही नहीं सूझा। "मैं समझाता हूँ !" प्रोफ़ेसर ने गला खंखारते हुए कहा,"हमारे इस शरीर से कुछ अदृश्य किरणें निकलती रहती हैं जो हमारे शरीर के चारों ओर एक चक्र (औरा) बनाये रहती हैं। यदि दोनों व्यक्तियों की ये अदृश्य किरणें धनात्मक हुई तो वो एक दूसरे को अच्छे लगेंगे अन्यथा नहीं। जिसका यह चक्र जितना अधिक विस्तृत होगा उसका व्यक्तित्व उतना ही विशेष होगा और वह सभी को प्रभावित कर लेगा।" "भौतिक विज्ञान के अनुसार जब कोई पदार्थ नष्ट नहीं हो सकता तो फिर हमारी स्मृतियाँ और विचार कैसे नष्ट हो सकते हैं। वास्तव में मृत्यु के बाद हमारे भौतिक शरीर के पञ्च तत्वों में मिल जाने के बाद भी हमारी स्मृतियाँ और आत्मा किसी विद्युत और चुम्बकीय तरंगों या अणुओं के रूप में इसी अनंत ब्रह्माण्ड में विद्यमान रहती हैं। श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार भी वही अपदार्थ, अणु या अदृश्य तरंगें (आत्मा) अपने अनुकूल और उपयुक्त शरीर ढूंढ कर नया जन्म ले लेता है। हम सबका पता नहीं कितनी बार जन्म और मृत्यु हुई है।" "हमारे इस भौतिक शरीर के इतर (परे) भी एक और शरीर और संसार होता है जिसे सूक्ष्म शरीर और परलोक कहते हैं। पुनर्जन्म, परा विज्ञान और अपदार्थ (एंटी मैटर) की अवधारणाएं भी इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित हैं।" "एक और बात बताता हूँ।" बढ़ऊ ने कहना जारी रखा। "अपना पिछला जन्म और भविष्य जानने की सभी की उत्कट इच्छा रहती है। पुरातन काल से ही इस विषय पर लोग शोध कार्य (तपस्या) करते रहे हैं। उनकी भविष्यवाणियाँ सत्य हुई हैं। आपने भारतीय धर्मशास्त्रों में श्राप और वरदानों के बारे में अवश्य सुना होगा। वास्तव में यह भविष्यवाणियाँ ही थी। उन लोगों ने अपनी तपस्या के बल पर यह सिद्धियाँ (खोज) प्राप्त की थी। यह सब हमारी मानसिक स्थिति और उसकी किसी संकेत या तरंग को ग्रहण करने की क्षमता पर निर्भर करता है। आध्यात्म में इसे ध्यान, योग या समाधी भी कहा जाता है। इसके द्वारा कोई योगी (साधक) अपने सूक्ष्म शरीर को भूत या भविष्य के किसी कालखंड या स्थान पर ले जा सकता है और उन घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में जान सकता है। आपने फ्रांस के नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों के बारे में तो अवश्य सुना होगा। आज भी ऐसा संभव हो सकता है।" "क्या आप भी इनके बारे में जानते हैं ?" मैंने डरते डरते पूछा कहीं बढ़ऊ बुरा ना मान जाए। प्रोफ़ेसर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराया और फिर बोला "देखो तुम शायद सोच रहे होंगे कि यह प्रोफ़ेसर भी भांग के नशे में गप्प मार रहा होगा पर इस सम्बन्ध में तो महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने (जिसका सापेक्षवाद का सिद्धांत विज्ञान की दुनिया में मील का पत्थर है) अपने जीवन के अंतिम दिनों में (पिछली शताब्दी के 40 के दशक में) एक अविश्वसनीय और चमत्कारी खोज की थी ‘यूनिफाइड फ़ील्ड थ्योरी’। यह किसी पदार्थ को अदृश्य (अपदार्थ बना देना) कर देने का सूत्र था। उसे डर था कि कुछ लोग इसका गलत लाभ उठा सकते हैं इसलिए उसने इस सूत्र को गुप्त रखा। पर सन 1943 में जब हिटलर विश्व विजय का सपना देख रहा था तब यह सूत्र अमेरिकी सरकार को देना पड़ा। लगभग उन्हीं दिनों उसने समय की गति को आगे पीछे करने का सूत्र भी खोज लिया था। यह इतनी रहस्यमयी खोज थी कि इसके द्वारा भूत या भविष्य के किसी भी काल खंड में पहुंचा जा सकता था। यह अवधारणा गप्प नहीं वैज्ञानिक तथ्य है। यह सूत्र (फ़ॉर्मूला) भी उसने बहुत गोपनीय रखा था। अमेरिका के गृह मंत्रालय की फाइलों में आज भी उस खोज से सम्बंधित दस्तावेज पड़े हैं। अमेरिका सरकार ने उसे गुप्त और सुरक्षित रखा है। तुमने टाइम मशीन के बारे में तो अवश्य सुना और फिल्मों में देखा होगा। यह सब उसी सूत्र पर आधारित है।" "गीता में बहुत से योगों के बारे में बताया गया है पर इन में कर्म, भक्ति और ज्ञान योग को विशेष रूप से बताया गया है। ज्ञान योग में ही एक शाखा ध्यान, समाधि, सम्मोहन और त्राटक की भी है। मैं तुम्हें एक अनुभूत प्रयोग करके दिखाता हूँ। तुम अपनी आँखें बंद करो और मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनो और वैसा ही विचार करो।" प्रोफ़ेसर के कहे अनुसार तो मैंने अपनी आँखें बंद कर ली तो वो बोला,"प्रेम ! तुम एक नदी के किनारे खड़े हो। दूर पहाड़ों से आती इस नदी का जल देखो कितना निर्मल लग रहा है। इसकी बल खाती लहरें देखो ऐसे लग रही हैं जैसे कोई नवयुवती अपनी कमर लचका कर चल रही हो !" मुझे लगा जैसे मैं सचमुच किसी नदी के किनारे ही खड़ा हूँ और मधु सफ़ेद पैंट पहने अपने नितम्बों को मटकाती नदी के किनारे चल रही है। ओह... यह तो कमाल था। "अब अपनी आँखें खोल लो !" मैंने अपनी आँखें खोल ली तो प्रोफ़ेसर ने पूछा,"तुमने कुछ देखा ?" "हाँ सचमुच मुझे ऐसा लगा जैसे मैं नदी के किनारे खड़ा हूँ और उसकी बल खाती लहरों और साफ़ पानी को देख रहा हूँ। उस में चलती नाव और मछलियाँ भी मैंने देखी !" मैंने मधु वाली बात को जानबूझ कर गोल कर दिया। "मेरे अनुमान है तुम इस सिद्धांत से सहमत हो गए हो ! वास्तव में हम जब अपनी सभी इन्द्रियों को नियंत्रित करके ध्यान पूर्वक किसी व्यक्ति, स्थान, घटना या कालखंड के बारे में सोचते हैं तो हमारे मस्तिष्क में वही सब अपने आप सजीव हो उठता है और हम वहीं पहुँच कर उसे देखने लग जाते हैं। इसे दिवा स्वप्न भी कहते हैं। वास्तव में हम जो रात्रि में सपने देखते हैं या जो तुमने आँखें बंद करके अभी देखा या अनुभव किया वह सब कहाँ से आया था और अब कहाँ चला गया ? वास्तव में वह ‘अपदार्थ’ (एंटी मैटर) के रूप में कहीं ना कहीं पहले से विद्यमान था, अब भी है और भविष्य में भी रहेगा। यही ‘परा-विज्ञान’ है।" "ओह … अद्भुत !..." मैं तो अवाक सुनता ही रहा। मैं अपने भविष्य के बारे में कुछ जानना चाहता था। मैंने पूछा "प्रोफ़ेसर साहब एक बात बताइये- क्या आप हस्त रेखाओं के बारे में भी जानते हैं ?" उसने मेरी ओर इस तरह देखा जैसे मैं कोई शुतुरमुर्ग या चिड़िया घर से छूटा जानवर हूँ। ओह … मुझे अब अपनी गलती का अहसास हुआ था। मैं बेतुका और बेहूदा सवाल पूछ बैठा हूँ। प्रोफ़ेसर मुस्कुराते हुए बोला,"हाँ मैं हस्त रेखा और शरीर विज्ञान के बारे में भी जानता हूँ।" "ओह … मुझे क्षमा करें मैंने व्यर्थ का प्रश्न पूछ लिया !" "नहीं प्रेम कोई भी प्रश्न व्यर्थ नहीं होता। यह सब अवचेतन मन के कारण होता है। तुम संभवतः नहीं जानते हमें रात्रि में जो स्वप्न आते हैं वो सब हमारे अवचेतन मन में दबी-छिपी इच्छाओं का ही रूपांतरण होता है। तुमने हस्त रेखाओं के बारे में पूछा है तो तुम्हारे में कहीं ना कहीं कुछ पाने की अदम इच्छा बलवती हो रही है और तुम इन हस्त रेखाओं के माध्यम से यह जानने का प्रयास कर रहे हो कि वो कभी फलीभूत होंगी या नहीं ?" ओह … यह प्रोफ़ेसर तो कमाल का आदमी है। यह सौ फ़ीसदी सत्य था कि उस समय मैं यही सोच रहा था कि क्या कभी मैं मधु के साथ वो सब कर पाऊंगा जो अभी थोड़ी देर पहले सत्यजीत अपनी पत्नी के साथ कर रहा था। "वैसे तो प्रकृति ने किसी विशेष कारण से मानव की भविष्य को जानने की क्षमता (शक्ति) भुला दी है पर फिर भी बहुत कुछ बताया जा सकता है। वास्तव में तो हमारे वर्तमान के कर्म ही हमारे भाग्य या भविष्य का निर्माण करते हैं और उन्हीं कर्मों का प्रतिरूपण होते हैं। ओह … छोड़ो … लाओ तुम अपना दायाँ हाथ दिखाओ ?" प्रोफ़ेसर ने कहा तो मैंने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया। प्रोफ़ेसर ने मेरा हाथ अपने हाथ में पकड़ लिया और उसे थोड़ा सा फैला लिया और रेखाएं देखने लगा। कुछ देर वो देखता रहा और फिर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराया। "प्रेम एक बात बताओ क्या तुम्हारे किसी अंग विशेष पर कोई तिल है ?" अजीब सवाल था। हस्त रेखाओं की बात चल रही थी और यह पट्ठा तिल के बारे में पूछ रहा है। मैंने कहा "मेरे दाहिने होंठ पर तिल है और एक तिल पेट पर नाभि के पास भी है। और हाँ एक… और …" कहते कहते मैं रुक गया। "संकोच मत करो बताओ और कहाँ पर है ?" "मेरे गुप्तांग पर भी एक तिल है !" "सही जगह बताओ ... झिझको नहीं !" "ओह … वो... दरअसल मेरे शिश्न के अग्र भाग (शिश्नमुंड) पर भी एक तिल है !" मैंने संकुचाते हुए कहा। "अति उत्तम … क्या तुम्हारी धर्म पत्नी के भी किसी अंग पर कोई तिल है ?" "मैंने ध्यान नहीं दिया ! क्यों ?" मैंने पूछा।

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