“हो गया क्या ?”
“तुम इधर मत देखना”
“अरे भाई… ये जंगल है चारो तरफ ध्यान रखना पड़ता है, जल्दी करो… हमें आज इस जंगल से निकलना ही होगा”
“बस अभी आ रही हूँ”
“ठीक है… पर जल्दी करो”
वर्षा अपनी सुबह की दिनचर्या पूरी करके आती है.
“चलो …. तुमने तो परेशान कर दिया” ---- वर्षा ने कहा
“अरे तुम समझती नही… मैं जानबूझ कर बाते कर रहा था… ताकि पता चलता रहे कि झाड़ियों के पीछे तुम ठीक हो… पर देखो खाने का इंत-जाम हो गया”
“वो कैसे ?” – वर्षा ने हैरानी में पूछा
“देखो वो सामने उस पेड़ पर बेल लटक रही है, खाई है कभी क्या ?”
“हां-हां खूब खाई है… चलो जल्दी से तोड़ते हैं”
“रूको…. जंगल में कोई भी काम भाग-दौड़ में नही करते. यहा कदम-कदम पर ख़तरे हैं. आराम से, चुपचाप चारो तरफ देखते हुवे चलते हैं”
“ठीक है… मुझे भूख लगी है ना, इसलिए जल्दी मचा रही थी”
“भूख तो मुझे भी लगी है… चलो चलते हैं”
दोनो दबे पाँव चारो तरफ देखते हुवे उस पेड़ के पास जाते हैं
“ऐसा करते हैं पेड़ पर ही चढ़ जाते हैं…क्या कहते हो ? --- वर्षा ने कहा
“ह्म्म ख्याल तो अछा है… तुम्हारा दीमाग अब ठीक चल रहा है”
“क्या मतलब… क्या पहले ठीक नही था ?”
“ठीक होता तो क्या तुम मुझ ग़रीब से प्यार करती ?”
“कैसी बाते करते हो तुम.. शरम नही आती तुम्हे ऐसा कहते हुवे …ग़रीब वो होता है जिसकी सोच छोटी होती है”
“अरे ये तुमने कहा से सुना”
“उसी प्रेम से सुना था… एक बार जब मैं मंदिर से निकल रही थी तो उसको किसी को कहते हुवे सुना था”
“ऐसा ही है प्रेम… उसके मूह से कुछ ना कुछ अछा निकलता रहता है… काश उस से दुबारा मिल पाता !! पता नही कहा होगा वो ?” --- मदन ने कहा
“मदन जी… वैसे हम शायद यहा कुछ खाने आए थे”
“ओह्ह….. हाँ, चलो पहले तुम चढ़ो… आराम से पेड़ पर बैठे-बैठे खाते रहेंगे” – मदन ने कहा
वर्षा पेड़ पर चढ़ जाती है और मदन भी उसके चढ़ने के बाद पेड़ पर चढ़ जाता है.
वर्षा एक बेल तोड़ कर मदन को देती है
“अरे नही पहले तुम खाओ… मैं तोड़ लूँगा” --- मदन ने कहा
“अरे लो ना… मेरे हाथ के नज़दीक एक और है… मैं वो खा लूँगी”
“ठीक है, जब तुम इतने प्यार से दे रही हो तो मैं मना कैसे कर सकता हूँ ?”
“ये हुई ना बात… प्यार वाली” --- वर्षा ने मुस्कुराते हुवे कहा
“अछा लग रहा है तुम्हे हंसते देख कर… कल तो मैं तुम्हे परेशान देख कर बहुत दुखी हो रहा था… सोच रहा था कि ये प्यार तुम्हे दुख दे रहा है”
“मैं पहली बार घर से बाहर थी मदन.. इसलिए बहुत परेशान थी. अब एक पूरा दिन और एक पूरी रात जंगल में बिता चुकी हूँ… अब मुझे लगता है कि यहा भी जिया जा सकता है”
“अरे वाह क्या बात है … तुम ऐसा कहोगी मैं सोच भी नही सकता था” --- मदन ने मुस्कुराते हुवे कहा
“मुझे कल बहुत बुरा लग रहा था. केयी बार ये भी सोचा कि इस प्यार के झांजाट में क्यों पड़ गयी …पर अगले ही पल ये ख्याल आया कि ये झांजाट जब खूबसूरत है तो हर्ज़ ही क्या है” --- वर्षा ने प्यार भरी नज़रो से मदन की ओर देखते हुवे कहा
“क्या खूबसूरती है इस झांजाट में वर्षा ?”
“कल सारी रात तुम मुझे थामे पेड़ पर बैठे रहे… मैं सो गयी पर तुम नही सोए… पूछ सकती हूँ क्यों ?”
“इसलिए कि तुम चैन से सो पाओ. नींद में तुम यहा वाहा लुडक रही थी. मैं ना थामे रहता तो तुम नीचे गिर जाती”
“यही तो वो खूबसूरती है मदन… एक दूसरे के लिए कुछ भी कर-गुजरने की चाहत, खूबसूरत नही तो और क्या है ? इस प्यार से सुन्दर चीज़ हमें और क्या मिल सकती है”
“ये तो है वर्षा. मैं तो खुद इस प्यार की खूबसूरती में सब कुछ भुला चुका हूँ… हर पल दिल में प्यार का मीठा-मीठा सरूर रहता है”
“वैसे अब मुझे ये जंगल बहुत प्यारा लग रहा है… कितनी शांति और सकूँ है यहा… ये सब और कहा मिलेगा” ---- वर्षा ने कहा
“ठीक है फिर हम यही घर बसा लेते हैं” --- मदन ने कहा
“घर क्यों… हम पेड़ पर रह लेंगे हहे….. कल रात भी तो पेड़ पर थे” ---- वर्षा ने हंसते हुवे कहा
“फिर हमें भी उन कबूतरों की तरह प्यार करना होगा… जैसा हमने उस पेड़ पर देखा था. कितना प्यारा तरीका था ना प्यार का वो ?” ---- मदन ने शरारती अंदाज़ में कहा
“हटो मदन…. ऐसी बाते मत करो… मुझे शरम आती है”
“तुम ही तो कह रही थी कि पेड़ पर रहेंगे… जब पेड़ पर रहेंगे, तो पेड़ के तोर-तरीके तो अपना-ने पड़ेंगे ना”
“वो…. पेड़ के बारे मैं तो यू ही मज़ाक में कह रही थी.. पर हां, यहा घर बना कर रहने में मुझे कोई ऐतराज नही है”
“वाह-वाह हवेली में रहने वाली अब जंगल में रहेगी….. हहे”
“तो क्या हुवा…. मुझे तो ये जंगल बहुत अछा लग रहा है” – वर्षा ने कहा
“ये सब तो ठीक है वर्षा.. पर ये जंगल पलक झपकते ही अपना रूप बदल सकता है… इसलिए ऐसी बाते मत सोचो. हम मेरे चाचा जी के गाँव चल रहे हैं. वैसे जब तक हम यहा से नही निकलते तब तक हम यही हैं.. इसलिए अपना दिल खुस कर लो”
“ठीक है बाबा… ले चलो मुझे जहा ले चलना है.. मैने क्या कभी मना किया है” --- वर्षा ने कहा
“अरे वो देखो !!” ---- मदन ने एक पेड़ की तरफ इशारा करते हुवे कहा
“कहा देखूं ?”
“उस सामने के पेड़ पर बंदर..बंदरिया क्या कर रहे हैं”
“फिर मुझे ऐसी चीज़ दीखा रहे हो”
“अरे देख लो और सीख लो… प्यार का ये तरीका हम इंसान भी अपनाते हैं”
प्यार हो तो ऐसा compleet
Re: प्यार हो तो ऐसा
“हटो तुम…. मुझे नही सीखना ये सब” --- वर्षा ने शरमाते हुवे कहा
“अरे इसके बिना तो आदमी-औरत अधूरे हैं, ये नही होगा तो धरती पर जीवन कैसे चलेगा”
“पर ये तो बेकार तरीका है… देखो ना कैसे झुका रखा है.. बेचारी को बंदर ने”
“प्यार के बहुत सारे तरीके हैं वर्षा…. ये बस उनमे से एक है”
“बस-बस मुझे काम-क्रीड़ा का पाठ मत पधाओ और चुपचाप बेल खाओ” – वर्षा ने झुंजलाते हुवे कहा
“ये सब हमारे काम की बाते हैं वर्षा इनको समझ लो तो अछा होगा”
“मुझे कुछ नही समझना… तुम बेल खाओ और मुझे भी खाने दो…. हा.. काम की बाते”
“ऐसे गुस्सा करती हो तो और भी प्यारी लगती हो, मन कर रहा है तुम्हारी पप्पी ले लूँ”
“ले कर दीखाओ, तुम्हे नीचे धक्का दे दूँगी”
“ऐसा है क्या ?”
“हां बिल्कुल”
मदन वर्षा की तरफ बढ़ता है
“रूको मानते हो कि नही मैं सच में तुम्हे गिरा दूँगी”
“तो गिरा दो.. तुम्हे रोक कौन रहा है…. अब तो इन होंटो का रस मैं पी कर रहूँगा”
दौनो में हाथा-पाई होती है और …….
“नहियिइ…” --- वर्षा चील्लयि
“अरे तुमने तो सच में………. गिरा दिया”
मदन ज़मीन पर पड़ा था.
“जल्दी उपर आओ”
“मुझे नही आना… पहले गिराती हो, फिर उपर बुलाती हो”
“देखो कितनी मीठी बेल है.. आओ ना… वरना मैं पूरी खा जाउन्गि”
“तो खा जाओ… मुझे भूख नही है”
“उउफ्फ …. ठीक है मैं भी नही खाती फिर… मैं नीचे कूद रही हूँ”
“अरे पागल हो क्या…. चोट लग जाएगी… मेरी कमर दुख रही है… रूको मैं आ रहा हूँ”
बहुत प्यारी है इन प्यार में डूबे दो दिलो की ये खूबसूरत नोक-झोंक.
----------------------------------
गाँव में:------
“साधना मैं खेत में जा रहा हूँ, पता चला है कि ठाकुर के आदमियों ने वाहा खेत में कुछ अजीब देखा है” --- प्रेम ने साधना से कहा
“मैने भी देखा है प्रेम. कल सुबह मैने खुद किसी अजीब से साए को फसलों में घुसते देखा था. एक बार नही बल्कि दो बार. मैने और पिता जी ने पूरा खेत छान मारा पर हमें कुछ नही मिला. कल शाम को तुमने भी तो वो चीन्ख सुनी थी”
“हां सुनी तो थी… पर इन सब बातो से किसी नतीज़े पर नही पहुँच सकते.. अभी दिन है, एक बार मैं आछे से खेत को देख लूँ तभी कुछ कह सकूँगा” --- प्रेम ने कहा
“मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी प्रेम” --- साधना ने कहा
“कब तक साथ चलॉगी साधना, मैने जीवन से सन्यास ले लिया है. आज यहा हूँ तो बस देश-प्रेम की खातिर वरना कहीं समाधि में बैठा होता ?”
“ये क्या कह रहे हो प्रेम ? क्या ये दुख देने के लिए ही वापिस आए हो तुम. मैने सोचा मेरा प्यार तुम्हे यहा खींच लाया है.. पर नही तुम तो देश से प्यार करते हो.. मेरी इस देश के आगे क्या औकात है.. हैं ना”
ये कह कर साधना रोने लगती है
प्रेम उसकी और देखता रहता है. उसके पास साधना के सवाल का कोई जवाब नही है
“साधना तुम ये सब क्या कह रही हो ?”
“और क्या कहूँ प्रेम, तुम इतने दीनो बाद वापिस आए और अब ऐसी बाते कर रहे हो”
“देखो वाहा खेत में तुम्हारा जाना ठीक नही होगा. वाहा कुछ अजीब हो रहा है. तुम साथ रहोगी तो मुझे तुम्हारी ही चिंता रहेगी. कल तुम साथ ना होती तो मैं कल ही पता कर लेता कि क्या चक्कर है वाहा”
“जब तुम मुझे कुछ समझते नही हो तो फिर मेरी चिंता क्यो रहेगी तुम्हे”
“किसने कहा मैं तुम्हे कुछ नही समझता, मेरे दिल में आज भी तुम्हारे लिए वही आदर और सम्मान है जो पहले था”
“पर… प्यार नही है… है ना ?”
“क्या मैने तुम्हे कभी कहा कि मैं तुम्हे प्यार करता हूँ” --- प्रेम ने पूछा
“नही पर….” ---- साधना ये कह कर चुप हो गयी. उसने अपने मूह पर आते हुवे सबदो को अपने अंदर ही रोक लिया.
“हम आछे दोस्त थे साधना. क्यों इस दोस्ती को प्यार के बंधन में बाँध रही हो. वैसे भी मेरे जीवन का मकसद इस देश के लिए कुछ करने का है. तुम्हे तो ख़ुसी होनी चाहिए ये सब देख कर”
“मैं खुस हूँ प्रेम पर… मैं इस दिल का क्या करूँ जो बस तुम्हारे लिए धड़कता है”
“अरे इसके बिना तो आदमी-औरत अधूरे हैं, ये नही होगा तो धरती पर जीवन कैसे चलेगा”
“पर ये तो बेकार तरीका है… देखो ना कैसे झुका रखा है.. बेचारी को बंदर ने”
“प्यार के बहुत सारे तरीके हैं वर्षा…. ये बस उनमे से एक है”
“बस-बस मुझे काम-क्रीड़ा का पाठ मत पधाओ और चुपचाप बेल खाओ” – वर्षा ने झुंजलाते हुवे कहा
“ये सब हमारे काम की बाते हैं वर्षा इनको समझ लो तो अछा होगा”
“मुझे कुछ नही समझना… तुम बेल खाओ और मुझे भी खाने दो…. हा.. काम की बाते”
“ऐसे गुस्सा करती हो तो और भी प्यारी लगती हो, मन कर रहा है तुम्हारी पप्पी ले लूँ”
“ले कर दीखाओ, तुम्हे नीचे धक्का दे दूँगी”
“ऐसा है क्या ?”
“हां बिल्कुल”
मदन वर्षा की तरफ बढ़ता है
“रूको मानते हो कि नही मैं सच में तुम्हे गिरा दूँगी”
“तो गिरा दो.. तुम्हे रोक कौन रहा है…. अब तो इन होंटो का रस मैं पी कर रहूँगा”
दौनो में हाथा-पाई होती है और …….
“नहियिइ…” --- वर्षा चील्लयि
“अरे तुमने तो सच में………. गिरा दिया”
मदन ज़मीन पर पड़ा था.
“जल्दी उपर आओ”
“मुझे नही आना… पहले गिराती हो, फिर उपर बुलाती हो”
“देखो कितनी मीठी बेल है.. आओ ना… वरना मैं पूरी खा जाउन्गि”
“तो खा जाओ… मुझे भूख नही है”
“उउफ्फ …. ठीक है मैं भी नही खाती फिर… मैं नीचे कूद रही हूँ”
“अरे पागल हो क्या…. चोट लग जाएगी… मेरी कमर दुख रही है… रूको मैं आ रहा हूँ”
बहुत प्यारी है इन प्यार में डूबे दो दिलो की ये खूबसूरत नोक-झोंक.
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गाँव में:------
“साधना मैं खेत में जा रहा हूँ, पता चला है कि ठाकुर के आदमियों ने वाहा खेत में कुछ अजीब देखा है” --- प्रेम ने साधना से कहा
“मैने भी देखा है प्रेम. कल सुबह मैने खुद किसी अजीब से साए को फसलों में घुसते देखा था. एक बार नही बल्कि दो बार. मैने और पिता जी ने पूरा खेत छान मारा पर हमें कुछ नही मिला. कल शाम को तुमने भी तो वो चीन्ख सुनी थी”
“हां सुनी तो थी… पर इन सब बातो से किसी नतीज़े पर नही पहुँच सकते.. अभी दिन है, एक बार मैं आछे से खेत को देख लूँ तभी कुछ कह सकूँगा” --- प्रेम ने कहा
“मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी प्रेम” --- साधना ने कहा
“कब तक साथ चलॉगी साधना, मैने जीवन से सन्यास ले लिया है. आज यहा हूँ तो बस देश-प्रेम की खातिर वरना कहीं समाधि में बैठा होता ?”
“ये क्या कह रहे हो प्रेम ? क्या ये दुख देने के लिए ही वापिस आए हो तुम. मैने सोचा मेरा प्यार तुम्हे यहा खींच लाया है.. पर नही तुम तो देश से प्यार करते हो.. मेरी इस देश के आगे क्या औकात है.. हैं ना”
ये कह कर साधना रोने लगती है
प्रेम उसकी और देखता रहता है. उसके पास साधना के सवाल का कोई जवाब नही है
“साधना तुम ये सब क्या कह रही हो ?”
“और क्या कहूँ प्रेम, तुम इतने दीनो बाद वापिस आए और अब ऐसी बाते कर रहे हो”
“देखो वाहा खेत में तुम्हारा जाना ठीक नही होगा. वाहा कुछ अजीब हो रहा है. तुम साथ रहोगी तो मुझे तुम्हारी ही चिंता रहेगी. कल तुम साथ ना होती तो मैं कल ही पता कर लेता कि क्या चक्कर है वाहा”
“जब तुम मुझे कुछ समझते नही हो तो फिर मेरी चिंता क्यो रहेगी तुम्हे”
“किसने कहा मैं तुम्हे कुछ नही समझता, मेरे दिल में आज भी तुम्हारे लिए वही आदर और सम्मान है जो पहले था”
“पर… प्यार नही है… है ना ?”
“क्या मैने तुम्हे कभी कहा कि मैं तुम्हे प्यार करता हूँ” --- प्रेम ने पूछा
“नही पर….” ---- साधना ये कह कर चुप हो गयी. उसने अपने मूह पर आते हुवे सबदो को अपने अंदर ही रोक लिया.
“हम आछे दोस्त थे साधना. क्यों इस दोस्ती को प्यार के बंधन में बाँध रही हो. वैसे भी मेरे जीवन का मकसद इस देश के लिए कुछ करने का है. तुम्हे तो ख़ुसी होनी चाहिए ये सब देख कर”
“मैं खुस हूँ प्रेम पर… मैं इस दिल का क्या करूँ जो बस तुम्हारे लिए धड़कता है”
Re: प्यार हो तो ऐसा
“इस दिल को तुम्हे किसी और के लिए धड़कना सीखाना होगा… मैं चाह कर भी प्यार के बंधन में नही बाँध पाउन्गा. इस दोस्ती को दोस्ती ही रहने दो तो अछा होगा”
“तुम बहुत आगे निकल गये प्रेम… मैं तो बहुत पीछे रह गयी…. अब दोस्ती भी कहा निभा पाउन्गि”
“तुम वो साधना नही हो जिसे मैं जानता था…. क्या हो गया है तुम्हे ?”
“शायद प्यार ऐसा ही होता है… खैर जाने दो.. तुम जाओ मैं ठीक हूँ”
साधना और प्रेम अपनी बातो में खोए थे. अचानक उन्हे आवाज़ सुनती है
“मेरे साथ अन्याय हुवा है और तुम मुझे ही दोषी ठहरा रहे हो”
साधना मूड कर घर में घुसती है.
प्रेम देखता है कि एक आदमी अंदर से निकलता है और गुस्से में बड़बड़ाता हुवा उसके पास से निकल जाता है. थोड़ी देर बाद साधना बाहर आती है.
“क्या हुवा… कौन था वो ?” --- प्रेम ने पूछा
“वो जीजा जी थे… सरिता दीदी के साथ जो कुछ भी हुवा, उसके लिए वो उसे ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. बोल गये हैं कि उनका दीदी से अब कोई लेना देना नही है”
“ये क्या पागलपन है… कैसे लेना देना नही है” --- प्रेम ने कहा
“इस पुरुष प्रधान दुनिया में कुछ भी हो सकता है… कोई भी, कभी भी, कहीं भी, दामन छ्चोड़ सकता है”
“मैने तुम्हारा दामन कब छ्चोड़ा साधना ऐसा मत कहो” --- प्रेम ने पूछा
“मैं तुम्हे नही कह रही प्रेम, तुम जाओ मैं दीदी को संभालती हूँ वो रो रही हैं… वैसे मुझे खुद को भी संभालना है….” ---- साधना भारी आवाज़ में कहती है. कहते हुवे उसकी आँखे छलक उठती हैं
“ठीक है मैं चलता हूँ. तुम किसी बात की चिंता मत करना… मेरा मित्र गोविंद यही है और नीरज भी यही है. मैं धीरज को साथ ले जा रहा हूँ” --- प्रेम ने साधना की तरफ पीठ करके कहा
“ठीक है जाओ प्रेम, …….. अपना ख्याल रखना” --- साधना ने गहरी साँस ले कर कहा
प्रेम ने धीरज को आवाज़ लगाई और उसके साथ खेत की तरफ चल दिया
“स्वामी जी आप कुछ परेशान लग रहे हैं” – धीरज ने पूछा
“जींदगी में काई बार हमें अपनो के दिल को कुचल कर चलना पड़ता है” – प्रेम ने कहा
“क्या ऐसा करना पाप ना होगा स्वामी जी ?” --- धीरज ने पूछा
“तुम्हारे स्वाल मुझे हॅमेसा परेशान करते हैं. अब पता नही ये पाप होगा या पुन्य. हाँ पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि ऐसा करना ज़रूरी है. कभी तुम्हारे जीवन में ऐसा अवसर आया तो तुम खुद समझ जाओगे” – प्रेम ने जवाब दिया.
“कैसा अवसर स्वामी जी ?”
“कुछ नही…. अब ज़रा थोड़ा शांति से चलो”
“जी स्वामी जी”
हवेली में:------
“ये क्या हो गया है वीर को भैया, अभी तो गाँव जाने की तैयारी कर रहा था और अब कहता है, एक दो दिन में तूफान नही आ जाएगा” --- जीवन प्रताप सिंग ने कहा
“पता नही क्या बात है… ये बहू भी तो उसका दीमाग खराब करके रखती है” --- रुद्र ने कहा
“वो सब तो ठीक है भैया पर गाँव पर पकड़ ढीली नही पड़नी चाहिए” --- जीवन ने कहा
“तुम चिंता मत करो जीवन, वीर नही जाएगा तो हम खुद जाएँगे इन गाँव वालो की अकल ठीकाने लगाने”
--------------------------
इधर वीर अपने कमरे में पड़ा-पड़ा गहरे ख़यालो में खोया है.
वो सोच रहा है, “वो वर्षा हरगिज़ नही हो सकती. वो मेरे सामने कभी ऐसा नही कर सकती. फिर वो कौन थी. और वो लड़का कौन था ?. वो मदन तो नही था. कुछ समझ नही आ रहा. वो कमरे से गायब कैसे हो गये ? क्या वो दोनो भूत थे….”
ऐसे बहुत सारे सवाल वीर के मान में गूँज रहे थे. पर उसके पास इन सवालो का कोई जवाब नही था.
तभी वियर देखता है कि रेणुका उसकी ओर आ रही है
“मुझे माफ़ कर दीजिए मैं आपको बहुत दुख देती हूँ”
“ठीक है… ठीक है..ये नाटक बंद करो और यहा से दफ़ा हो जाओ…. मनहूस कहीं की”
“मनहूस तो ये घर है, मैं नही. देखा नही क्या कर रही थी वर्षा ?”
“चुप कर वरना ज़ुबान खींच लूँगा, वो वर्षा नही थी समझी” --- वीर ने गुस्से में कहा
“अरे उसकी रगो में भी तो इसी घर का खून है.. मुझे पूरा यकीन है कि वो वर्षा ही थी”
“साली चुप नही होती… दफ़ा हो जा यहा से”
“सच बोलने में मुझे कोई डर नही है.. मैने जो देखा वो बोल रही हूँ”
“अभी बताता हूँ तुझे”
“आअहह… छोड़िए मेरे बॉल”
“तेरी ज़ुबान दिन-ब-दिन और ज़्यादा चलने लगी है. आज तेरा वो हाल करूँगा कि तू याद रखेगी”
“देखिए ये सब ठीक नही है… छ्चोड़ दीजिए मुझे… मैं सच ही तो बोल रही थी”
“तुम बहुत आगे निकल गये प्रेम… मैं तो बहुत पीछे रह गयी…. अब दोस्ती भी कहा निभा पाउन्गि”
“तुम वो साधना नही हो जिसे मैं जानता था…. क्या हो गया है तुम्हे ?”
“शायद प्यार ऐसा ही होता है… खैर जाने दो.. तुम जाओ मैं ठीक हूँ”
साधना और प्रेम अपनी बातो में खोए थे. अचानक उन्हे आवाज़ सुनती है
“मेरे साथ अन्याय हुवा है और तुम मुझे ही दोषी ठहरा रहे हो”
साधना मूड कर घर में घुसती है.
प्रेम देखता है कि एक आदमी अंदर से निकलता है और गुस्से में बड़बड़ाता हुवा उसके पास से निकल जाता है. थोड़ी देर बाद साधना बाहर आती है.
“क्या हुवा… कौन था वो ?” --- प्रेम ने पूछा
“वो जीजा जी थे… सरिता दीदी के साथ जो कुछ भी हुवा, उसके लिए वो उसे ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. बोल गये हैं कि उनका दीदी से अब कोई लेना देना नही है”
“ये क्या पागलपन है… कैसे लेना देना नही है” --- प्रेम ने कहा
“इस पुरुष प्रधान दुनिया में कुछ भी हो सकता है… कोई भी, कभी भी, कहीं भी, दामन छ्चोड़ सकता है”
“मैने तुम्हारा दामन कब छ्चोड़ा साधना ऐसा मत कहो” --- प्रेम ने पूछा
“मैं तुम्हे नही कह रही प्रेम, तुम जाओ मैं दीदी को संभालती हूँ वो रो रही हैं… वैसे मुझे खुद को भी संभालना है….” ---- साधना भारी आवाज़ में कहती है. कहते हुवे उसकी आँखे छलक उठती हैं
“ठीक है मैं चलता हूँ. तुम किसी बात की चिंता मत करना… मेरा मित्र गोविंद यही है और नीरज भी यही है. मैं धीरज को साथ ले जा रहा हूँ” --- प्रेम ने साधना की तरफ पीठ करके कहा
“ठीक है जाओ प्रेम, …….. अपना ख्याल रखना” --- साधना ने गहरी साँस ले कर कहा
प्रेम ने धीरज को आवाज़ लगाई और उसके साथ खेत की तरफ चल दिया
“स्वामी जी आप कुछ परेशान लग रहे हैं” – धीरज ने पूछा
“जींदगी में काई बार हमें अपनो के दिल को कुचल कर चलना पड़ता है” – प्रेम ने कहा
“क्या ऐसा करना पाप ना होगा स्वामी जी ?” --- धीरज ने पूछा
“तुम्हारे स्वाल मुझे हॅमेसा परेशान करते हैं. अब पता नही ये पाप होगा या पुन्य. हाँ पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि ऐसा करना ज़रूरी है. कभी तुम्हारे जीवन में ऐसा अवसर आया तो तुम खुद समझ जाओगे” – प्रेम ने जवाब दिया.
“कैसा अवसर स्वामी जी ?”
“कुछ नही…. अब ज़रा थोड़ा शांति से चलो”
“जी स्वामी जी”
हवेली में:------
“ये क्या हो गया है वीर को भैया, अभी तो गाँव जाने की तैयारी कर रहा था और अब कहता है, एक दो दिन में तूफान नही आ जाएगा” --- जीवन प्रताप सिंग ने कहा
“पता नही क्या बात है… ये बहू भी तो उसका दीमाग खराब करके रखती है” --- रुद्र ने कहा
“वो सब तो ठीक है भैया पर गाँव पर पकड़ ढीली नही पड़नी चाहिए” --- जीवन ने कहा
“तुम चिंता मत करो जीवन, वीर नही जाएगा तो हम खुद जाएँगे इन गाँव वालो की अकल ठीकाने लगाने”
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इधर वीर अपने कमरे में पड़ा-पड़ा गहरे ख़यालो में खोया है.
वो सोच रहा है, “वो वर्षा हरगिज़ नही हो सकती. वो मेरे सामने कभी ऐसा नही कर सकती. फिर वो कौन थी. और वो लड़का कौन था ?. वो मदन तो नही था. कुछ समझ नही आ रहा. वो कमरे से गायब कैसे हो गये ? क्या वो दोनो भूत थे….”
ऐसे बहुत सारे सवाल वीर के मान में गूँज रहे थे. पर उसके पास इन सवालो का कोई जवाब नही था.
तभी वियर देखता है कि रेणुका उसकी ओर आ रही है
“मुझे माफ़ कर दीजिए मैं आपको बहुत दुख देती हूँ”
“ठीक है… ठीक है..ये नाटक बंद करो और यहा से दफ़ा हो जाओ…. मनहूस कहीं की”
“मनहूस तो ये घर है, मैं नही. देखा नही क्या कर रही थी वर्षा ?”
“चुप कर वरना ज़ुबान खींच लूँगा, वो वर्षा नही थी समझी” --- वीर ने गुस्से में कहा
“अरे उसकी रगो में भी तो इसी घर का खून है.. मुझे पूरा यकीन है कि वो वर्षा ही थी”
“साली चुप नही होती… दफ़ा हो जा यहा से”
“सच बोलने में मुझे कोई डर नही है.. मैने जो देखा वो बोल रही हूँ”
“अभी बताता हूँ तुझे”
“आअहह… छोड़िए मेरे बॉल”
“तेरी ज़ुबान दिन-ब-दिन और ज़्यादा चलने लगी है. आज तेरा वो हाल करूँगा कि तू याद रखेगी”
“देखिए ये सब ठीक नही है… छ्चोड़ दीजिए मुझे… मैं सच ही तो बोल रही थी”