कथा भोगावती नगरी की
Re: कथा भोगावती नगरी की
परंतु रुद्र्प्रद में क्रोध का लावा धधक उठा “इस कुलटा तृप्ति ने घर में बताया था कि वह महाराज की निजी सचिव है , क्या निजी सचिव यूँ इस प्रकार महाराज को शैया सुख देतीं हैं ?”
“इसके उरोज तो देखो ? कैसे निर्लज्जता से खरबूजे की भाँति कामेच्छा की प्रकाष्ठा से तने हुए हैं”
” इसके उरूजों पर भूरी घुंडिया भी फूल कर कुप्पा हो गयीं हैं अवश्य ही महाराज ने इनको मुख में ले कर सहलाया होगा”
“पूरा शरीर महाराज द्वारा कामोत्तेजना में मारी गयी पिचकारियों के कारण धवल , उज्ज्वल , चिपचिपे वीर्य से नहा गया है.
केशों पलकों और भौहों के मध्य भी महाराज के वीर्य की बूंदे चिपकी हुईं हैं और मंद प्रकाश में ऐसे चमक रहीं है जैसे गुलाब के पुष्प पर ओस की बूंदे चमक रहीं हों”
“मेरे साथ संभोग को लेकर तरह तरह के बहाने बनाती है और मेरे हिस्से का सुख छिन कर यहाँ महाराज को सुख दे कर कैसे रंग रलियाँ मना रही है कुलटा”
रुद्र्प्रद के मन में असंख्य विचार आते जाते रहे. इधर सिक्ता अपने पति की इस विवशता को देख कर मन ही मन आनंदित हो रही थी “यह काव्यात्मक न्याय है , नाथ उस कलमुंही शिखा संग प्रेमलाप की बातें बता कर मुझे जलाते थे आज मुझे उन्हें जलाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है, आज तो मैं अपनी नितंब उठा उठा कर महाराज के शिश्न के आघात अपनी योनि पर लूँगीं तभी नाथ को पता चलेगा कि उनकी सौंदर्यवान , सुकोमल अर्धांगिनी के पीछे महाराज भी आसक्त है.”
उसे स्मरण हो आया अपनी सासू माँ का जो अपने पुत्र द्वारा प्रताड़ित पुत्र वधू तृप्ति के आँसू देख न सकीं और उन्हीं ने उसको अपने रूप की साज़ सज्जा ,शृंगार और केश सज्जा पर ध्यान देने की सलाह दे कर अपने पुत्र रुद्र्प्रद का मन जीतने को कहा था. तृप्ति ने अपनी सास की आज्ञा का पालन भी किया परंतु रुद्र्प्रद के व्यवहार में कोई बदलाव न आया . एक दिन इसी बात से व्यथित हो वह अपनी इह लीला समाप्त करने जा रही थी तो उसे उसके बचपन की सहेली नगरवधू अमृता मिल गयी , नगरवधू के पीछे कितने ही दरबारी , सेठ और सेनाधिकारी अपना लिंग हाथ में लिए घूमते थे और इस सार्वजनिक
जन सेवा के लिए उसे राज्य शासन द्वारा सम्मानित भी किया गया था. इसी अमृता ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर तृप्ति को पुंसवक राज्य परिचारिका भर्ती मंडल में आवेदन दिलवाया था.
कितनी प्रसन्न हुई सासू माँ जब उनको तृप्ति ने यह समाचार दिया . तृप्ति अपनी सास के निकट थी और अपने पति रुद्र्प्रद से उसके संबंध सामान्य न थे. सासू माँ ने उसको यह बता कर चकित किया था कि वह एक समय इस परिचारिका मंडल की प्रधान परिचारिका थी और महाराज लिंगयया की सेवा से निवृत्त हो कर गृहस्थ जीवन बिता रहीं थी.
तृप्ति की सासू माँ अपनी पुत्रवधू की सूझ बूझ से फूली न समाई कहा “बेटी तूने इस परिवार का हित किया मैं स्वयं परिचारिका मंडल को तेरा प्रशस्ती पत्र लिख दूंगीं”
आवेदन पत्र भरते समय यह अमृता ने ही सुझाया था कि वह छद्म नाम धारण करे और जब वह छद्म नाम नही सोच पा रही थी तो अमृता ने ही उसे उसका नया नाम दिया था ” सिक्ता” जिस पर सब आसक्त हों वह है “सिक्ता” अमृता द्वारा काम कला में शिक्षित तृप्ति के लिए मंडल में चयनित होना कोई बड़ी बात न थी ,रही सही कसर सासू मां के प्रशस्ती पत्र ने पूरी कर दी.
यों इस प्रकार देवी तृप्ति महाराज की प्रिय परिचारिका सिक्ता बन गयी.
परिचारिका मंडल की वरिष्ठ और निवृत परिचारिकाओं के नियामकों ने जब तृप्ति का साक्षात्कार लिया तो वे उसकी सरलता , सुंदरता और लावणयमयी मुस्कान से प्रभावित हुए न रह सके.
देवी लिंगारूढ़ा ने उससे प्रश्न किया “संभोग की क्या परिभाषा है?”
तृप्ति ने अपने लाल होंठों को अपनी जिव्हा से सहलाते हुए कहा “आत्मा और शरीर को जननेंद्रियों द्वरा लिया अथवा दिया गया भोग ”
किन्नर प्रदर्तन ने उससे पूछा ” भोग में लिंग की क्या आवश्यकता होती है?”
तृप्ति ने अपनी नज़रें झुका कर केशों की लटों से खेलते हुए उत्तर दिया “जिस प्रकार माली अपने बगीचे के पौधों को फव्वारे अथवा नाली द्वारा सिंचित करता है , उसी प्रकार भोग में लिंग योनि को आप्लावित करता है”
गंधर्व शुचितसेन ने उससे प्रश्न किया “तुम्हारा आदर्श कौन है”
तृप्ति ने अविलंब उत्तर दिया “कामेर्षी लिंगमणि”
दरबारी मामलों के मंत्री च्युतेश्वर ने पूछा “यदि आप परिचारिका चयनित हो गयीं ऐसे कौन से तीन कार्य आप सबसे पहले करेंगीं?”
तृप्ति ने विनम्रता से जवाब दिया “सर्वप्रथम तो मैं अपनी सासू माँ का आभार मानूँगी उनका चरण स्पर्श कर उन्हें धन्यवाद दूँगी कि उन्होनें मुझे परिचारिका बनने के लिए प्रोत्साहित किया , इसे पश्चात मैं अपनी सहेली अमृता का आभार मानूँगी जिसने मुझे महाराज की परिचारिका बनने का स्वपन दिखाया और अंत में मैं आप सभी को धन्यवाद दूँगी कि अपने मुझमें अपना विश्वास प्रकट किया.”
“इसके उरोज तो देखो ? कैसे निर्लज्जता से खरबूजे की भाँति कामेच्छा की प्रकाष्ठा से तने हुए हैं”
” इसके उरूजों पर भूरी घुंडिया भी फूल कर कुप्पा हो गयीं हैं अवश्य ही महाराज ने इनको मुख में ले कर सहलाया होगा”
“पूरा शरीर महाराज द्वारा कामोत्तेजना में मारी गयी पिचकारियों के कारण धवल , उज्ज्वल , चिपचिपे वीर्य से नहा गया है.
केशों पलकों और भौहों के मध्य भी महाराज के वीर्य की बूंदे चिपकी हुईं हैं और मंद प्रकाश में ऐसे चमक रहीं है जैसे गुलाब के पुष्प पर ओस की बूंदे चमक रहीं हों”
“मेरे साथ संभोग को लेकर तरह तरह के बहाने बनाती है और मेरे हिस्से का सुख छिन कर यहाँ महाराज को सुख दे कर कैसे रंग रलियाँ मना रही है कुलटा”
रुद्र्प्रद के मन में असंख्य विचार आते जाते रहे. इधर सिक्ता अपने पति की इस विवशता को देख कर मन ही मन आनंदित हो रही थी “यह काव्यात्मक न्याय है , नाथ उस कलमुंही शिखा संग प्रेमलाप की बातें बता कर मुझे जलाते थे आज मुझे उन्हें जलाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है, आज तो मैं अपनी नितंब उठा उठा कर महाराज के शिश्न के आघात अपनी योनि पर लूँगीं तभी नाथ को पता चलेगा कि उनकी सौंदर्यवान , सुकोमल अर्धांगिनी के पीछे महाराज भी आसक्त है.”
उसे स्मरण हो आया अपनी सासू माँ का जो अपने पुत्र द्वारा प्रताड़ित पुत्र वधू तृप्ति के आँसू देख न सकीं और उन्हीं ने उसको अपने रूप की साज़ सज्जा ,शृंगार और केश सज्जा पर ध्यान देने की सलाह दे कर अपने पुत्र रुद्र्प्रद का मन जीतने को कहा था. तृप्ति ने अपनी सास की आज्ञा का पालन भी किया परंतु रुद्र्प्रद के व्यवहार में कोई बदलाव न आया . एक दिन इसी बात से व्यथित हो वह अपनी इह लीला समाप्त करने जा रही थी तो उसे उसके बचपन की सहेली नगरवधू अमृता मिल गयी , नगरवधू के पीछे कितने ही दरबारी , सेठ और सेनाधिकारी अपना लिंग हाथ में लिए घूमते थे और इस सार्वजनिक
जन सेवा के लिए उसे राज्य शासन द्वारा सम्मानित भी किया गया था. इसी अमृता ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर तृप्ति को पुंसवक राज्य परिचारिका भर्ती मंडल में आवेदन दिलवाया था.
कितनी प्रसन्न हुई सासू माँ जब उनको तृप्ति ने यह समाचार दिया . तृप्ति अपनी सास के निकट थी और अपने पति रुद्र्प्रद से उसके संबंध सामान्य न थे. सासू माँ ने उसको यह बता कर चकित किया था कि वह एक समय इस परिचारिका मंडल की प्रधान परिचारिका थी और महाराज लिंगयया की सेवा से निवृत्त हो कर गृहस्थ जीवन बिता रहीं थी.
तृप्ति की सासू माँ अपनी पुत्रवधू की सूझ बूझ से फूली न समाई कहा “बेटी तूने इस परिवार का हित किया मैं स्वयं परिचारिका मंडल को तेरा प्रशस्ती पत्र लिख दूंगीं”
आवेदन पत्र भरते समय यह अमृता ने ही सुझाया था कि वह छद्म नाम धारण करे और जब वह छद्म नाम नही सोच पा रही थी तो अमृता ने ही उसे उसका नया नाम दिया था ” सिक्ता” जिस पर सब आसक्त हों वह है “सिक्ता” अमृता द्वारा काम कला में शिक्षित तृप्ति के लिए मंडल में चयनित होना कोई बड़ी बात न थी ,रही सही कसर सासू मां के प्रशस्ती पत्र ने पूरी कर दी.
यों इस प्रकार देवी तृप्ति महाराज की प्रिय परिचारिका सिक्ता बन गयी.
परिचारिका मंडल की वरिष्ठ और निवृत परिचारिकाओं के नियामकों ने जब तृप्ति का साक्षात्कार लिया तो वे उसकी सरलता , सुंदरता और लावणयमयी मुस्कान से प्रभावित हुए न रह सके.
देवी लिंगारूढ़ा ने उससे प्रश्न किया “संभोग की क्या परिभाषा है?”
तृप्ति ने अपने लाल होंठों को अपनी जिव्हा से सहलाते हुए कहा “आत्मा और शरीर को जननेंद्रियों द्वरा लिया अथवा दिया गया भोग ”
किन्नर प्रदर्तन ने उससे पूछा ” भोग में लिंग की क्या आवश्यकता होती है?”
तृप्ति ने अपनी नज़रें झुका कर केशों की लटों से खेलते हुए उत्तर दिया “जिस प्रकार माली अपने बगीचे के पौधों को फव्वारे अथवा नाली द्वारा सिंचित करता है , उसी प्रकार भोग में लिंग योनि को आप्लावित करता है”
गंधर्व शुचितसेन ने उससे प्रश्न किया “तुम्हारा आदर्श कौन है”
तृप्ति ने अविलंब उत्तर दिया “कामेर्षी लिंगमणि”
दरबारी मामलों के मंत्री च्युतेश्वर ने पूछा “यदि आप परिचारिका चयनित हो गयीं ऐसे कौन से तीन कार्य आप सबसे पहले करेंगीं?”
तृप्ति ने विनम्रता से जवाब दिया “सर्वप्रथम तो मैं अपनी सासू माँ का आभार मानूँगी उनका चरण स्पर्श कर उन्हें धन्यवाद दूँगी कि उन्होनें मुझे परिचारिका बनने के लिए प्रोत्साहित किया , इसे पश्चात मैं अपनी सहेली अमृता का आभार मानूँगी जिसने मुझे महाराज की परिचारिका बनने का स्वपन दिखाया और अंत में मैं आप सभी को धन्यवाद दूँगी कि अपने मुझमें अपना विश्वास प्रकट किया.”
Re: कथा भोगावती नगरी की
“साधु … साधु…. अती उत्तम…अति उत्तम.. सर्वोत्तम” के चर्चो से पूरा सभागार गूँजायमान हो गया नियामक मंडल ने उसको सहर्ष परिचारिका के रूप में चुन लिया और दरबारी कार्य मंत्री च्युतेश्वर ने उसको आगे की प्रक्रिया के लिए आवश्यक
पत्र और प्रशस्ती पत्र राज्य के लेखागार में भरने को कह दिया , वह स्वयं भी इस सुंदरी से विशेष रूप से प्रभावित हुए बिना न रह सका था.
लिंगरूढ़ा ने यह घोषणा कर दी कि तृप्ति को उसके कार्यकाल में सिक्ता ही बुलाया जाएगा और उन्होने स्वयं प्रदर्तन और शुचितसेन के साथ उसे शुभकामनाओं सहित आशीर्वाद दिया
“सेवक क्या तुमने दिया गया कार्य संपन्न किया?” महाराज सिक्ता की साडी से अपना शिश्न पोंछते बोले , महाराज का शिश्न देख कर रुद्र्प्रद की आँखें मानों फट पड़ी , परंतु कर्तव्यपालन भी तो आवश्यक था. सिक्ता ने अपने पति को नीचा दिखाने के लिए तीखे स्वर में कहा “सेवक , महाराज आज मेरी योनि पर अपने महान लिंग से आघात करेंगें , मेरी योनि में स्निग्धता का अभाव होने के कारण ही उन्होने तुम्हें अवसर प्रदान किया कि तुम मेरी योनि में लेप लगा कर उसे स्निग्ध बनाओ और तत्पश्चात महाराज के लिंग पर वही लेपन करो , परंतु मैं देख रही हूँ काम में नहीं है”
रुद्र्प्रद बिचारा शर्म से गड़ा जा रहा था “इस सीधी साधी तृप्ति में इतना साहस कहाँ से आ गया जो अपने पति को आज्ञा दे रही है?” उसने सोचा . अपनी कही गयी बात का उचित परिणाम न होते देख सिक्ता क्रोधित हो उठी उसने रुद्र्प्रद के हाथ से स्वर्ण की कटोरी छिन ली.
“रहने दो हे सेवक मैं अपनी योनि पर लेपन स्वयं करूँगी तत्पश्चात महाराज के लिंग को लीपुँगी” सिक्ता के तीखेपन में कोई कमी नही आई थी.
रुद्र्प्रद ने कभी भी तृप्ति को इस्परकार क्रोध करते न देखा था , यह स्त्री उसे स्वपत्नी तृप्ति न ही कर कोई और ही लग रही थी. उसने विचार किया “निश्चय ही महाराज का शिश्न मुख में लेने के बाद और उसने रति क्रीड़ा करने के पश्चात उसकी तृप्ति को अपने सौंदर्य का गर्व हो गया है और वह ऐसे कटु वचन कह कर मुझे अपमानित कर रही है”
परंतु उसके मानमें दूसरा विचार भी आया कि वहाँ महाराज तृप्ति का चोदन करने वाले हैं कौन स्त्री अपने पति के सम्मुख किसी परपुरूष से उछल उछल कर संभोग करेगी ? स्वपत्नी तृप्ति इस क्षण तृप्ति न रही वह महाराज की यौन कुंठा दूर करने वाली आदरणीय देवी सिक्ता हैं . रुद्र्प्रद का गला अपनी पत्नी की कर्तव्य परायणता को देख कर भर्रा गया . ” इससे पहले देवी सिक्ता मुझे यहाँ से जाने के लिए कहें मैं स्वयं ही चला जाऊँगा . मुझे अब देवी सिक्ता को और उलझन में नही डालना चाहिए . सिक्ता का प्रथम कर्तव्य महाराज की कामेच्छा को पूर्ण करना है अब महाराज उसका चोदन श्वान मुद्रामें करें अथवा बगल से पद्म मुद्रा में अथवा पारंपरिक मुद्रा में मुझे यहाँ एक क्षण भी रुकना नहीं चाहिए”
वह वहाँ से चलने को हुआ की तभी महाराज का स्वर उसे सुनाई दिया “ठहरो सेवक”
उसने मूड कर महाराज की ओर देखा महाराज क्रोधित हो गये थे तत्क्षण हाथ में ली हुई सिक्ता की साडी उन्होने फर्श पर फेंक दी और पाँव पटकते हुए उसके सम्मुख आ पंहुचे . सिक्ता ने भयवश अपना मुँह अपने घुटनों के बीच छुपा लिया था.
“तुम्हें एक कार्य दिया था जो तुमने नहीं किया . हम यह आदेश देते हैं कि जैसे ही देवी अपनी योनि को लीप लें तुम हमारा शिश्न मुख में ले कर अपनी जीभ से उसको चुरशण करो”
अब तो महाराज ने आदेश दे दिया , मरता क्या न करता रुद्र्प्रद को यह आदेश मानना ही था उसने सिक्ता को देखा वह मज़े से अपनी लंबी लंबी उंगलियों से अपनी योनि , योनिके होंठों को फैला कर उन्हें मिश्रण से लीप रही थी. इधर महाराज ने रुद्र्प्रद का सिर महाराज ने पकड़ा और अपना लौकी के आकर का लॅंड रुद्र्प्रद के मुँह में ठेल दिया.
“आ आहह घर्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्ररर” रुद्र्प्रद के मुख से आवाज़ निकल रही थी महाराज की लौकी उसके तालू से घर्षण कर रही थी और प्रतिक्षण अंदर बाहर हो रही थी ,उसके नेत्र अभी भी स्वपत्नी तृप्ति को देख रहे थे जो सिक्ता बन कर अपनी को मिश्रण से लीपती उसकी ओर्देख कर विषैली हँसी हंस रही थी.
रुद्र्प्रद के लिए महाराज का मोटा लिंग मुख में लेना असहनीय हो रहा था उसने महाराज को जल्दी झड़ाना चाहा उसने अपनी जिव्हा के अग्रभाग से लिंग को चाटना शुरू किया २ क्षणों बाद ही महाराज ने रुद्र्प्रद को पटक कर नीचे गिरा दिया .
पत्र और प्रशस्ती पत्र राज्य के लेखागार में भरने को कह दिया , वह स्वयं भी इस सुंदरी से विशेष रूप से प्रभावित हुए बिना न रह सका था.
लिंगरूढ़ा ने यह घोषणा कर दी कि तृप्ति को उसके कार्यकाल में सिक्ता ही बुलाया जाएगा और उन्होने स्वयं प्रदर्तन और शुचितसेन के साथ उसे शुभकामनाओं सहित आशीर्वाद दिया
“सेवक क्या तुमने दिया गया कार्य संपन्न किया?” महाराज सिक्ता की साडी से अपना शिश्न पोंछते बोले , महाराज का शिश्न देख कर रुद्र्प्रद की आँखें मानों फट पड़ी , परंतु कर्तव्यपालन भी तो आवश्यक था. सिक्ता ने अपने पति को नीचा दिखाने के लिए तीखे स्वर में कहा “सेवक , महाराज आज मेरी योनि पर अपने महान लिंग से आघात करेंगें , मेरी योनि में स्निग्धता का अभाव होने के कारण ही उन्होने तुम्हें अवसर प्रदान किया कि तुम मेरी योनि में लेप लगा कर उसे स्निग्ध बनाओ और तत्पश्चात महाराज के लिंग पर वही लेपन करो , परंतु मैं देख रही हूँ काम में नहीं है”
रुद्र्प्रद बिचारा शर्म से गड़ा जा रहा था “इस सीधी साधी तृप्ति में इतना साहस कहाँ से आ गया जो अपने पति को आज्ञा दे रही है?” उसने सोचा . अपनी कही गयी बात का उचित परिणाम न होते देख सिक्ता क्रोधित हो उठी उसने रुद्र्प्रद के हाथ से स्वर्ण की कटोरी छिन ली.
“रहने दो हे सेवक मैं अपनी योनि पर लेपन स्वयं करूँगी तत्पश्चात महाराज के लिंग को लीपुँगी” सिक्ता के तीखेपन में कोई कमी नही आई थी.
रुद्र्प्रद ने कभी भी तृप्ति को इस्परकार क्रोध करते न देखा था , यह स्त्री उसे स्वपत्नी तृप्ति न ही कर कोई और ही लग रही थी. उसने विचार किया “निश्चय ही महाराज का शिश्न मुख में लेने के बाद और उसने रति क्रीड़ा करने के पश्चात उसकी तृप्ति को अपने सौंदर्य का गर्व हो गया है और वह ऐसे कटु वचन कह कर मुझे अपमानित कर रही है”
परंतु उसके मानमें दूसरा विचार भी आया कि वहाँ महाराज तृप्ति का चोदन करने वाले हैं कौन स्त्री अपने पति के सम्मुख किसी परपुरूष से उछल उछल कर संभोग करेगी ? स्वपत्नी तृप्ति इस क्षण तृप्ति न रही वह महाराज की यौन कुंठा दूर करने वाली आदरणीय देवी सिक्ता हैं . रुद्र्प्रद का गला अपनी पत्नी की कर्तव्य परायणता को देख कर भर्रा गया . ” इससे पहले देवी सिक्ता मुझे यहाँ से जाने के लिए कहें मैं स्वयं ही चला जाऊँगा . मुझे अब देवी सिक्ता को और उलझन में नही डालना चाहिए . सिक्ता का प्रथम कर्तव्य महाराज की कामेच्छा को पूर्ण करना है अब महाराज उसका चोदन श्वान मुद्रामें करें अथवा बगल से पद्म मुद्रा में अथवा पारंपरिक मुद्रा में मुझे यहाँ एक क्षण भी रुकना नहीं चाहिए”
वह वहाँ से चलने को हुआ की तभी महाराज का स्वर उसे सुनाई दिया “ठहरो सेवक”
उसने मूड कर महाराज की ओर देखा महाराज क्रोधित हो गये थे तत्क्षण हाथ में ली हुई सिक्ता की साडी उन्होने फर्श पर फेंक दी और पाँव पटकते हुए उसके सम्मुख आ पंहुचे . सिक्ता ने भयवश अपना मुँह अपने घुटनों के बीच छुपा लिया था.
“तुम्हें एक कार्य दिया था जो तुमने नहीं किया . हम यह आदेश देते हैं कि जैसे ही देवी अपनी योनि को लीप लें तुम हमारा शिश्न मुख में ले कर अपनी जीभ से उसको चुरशण करो”
अब तो महाराज ने आदेश दे दिया , मरता क्या न करता रुद्र्प्रद को यह आदेश मानना ही था उसने सिक्ता को देखा वह मज़े से अपनी लंबी लंबी उंगलियों से अपनी योनि , योनिके होंठों को फैला कर उन्हें मिश्रण से लीप रही थी. इधर महाराज ने रुद्र्प्रद का सिर महाराज ने पकड़ा और अपना लौकी के आकर का लॅंड रुद्र्प्रद के मुँह में ठेल दिया.
“आ आहह घर्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्ररर” रुद्र्प्रद के मुख से आवाज़ निकल रही थी महाराज की लौकी उसके तालू से घर्षण कर रही थी और प्रतिक्षण अंदर बाहर हो रही थी ,उसके नेत्र अभी भी स्वपत्नी तृप्ति को देख रहे थे जो सिक्ता बन कर अपनी को मिश्रण से लीपती उसकी ओर्देख कर विषैली हँसी हंस रही थी.
रुद्र्प्रद के लिए महाराज का मोटा लिंग मुख में लेना असहनीय हो रहा था उसने महाराज को जल्दी झड़ाना चाहा उसने अपनी जिव्हा के अग्रभाग से लिंग को चाटना शुरू किया २ क्षणों बाद ही महाराज ने रुद्र्प्रद को पटक कर नीचे गिरा दिया .
Re: कथा भोगावती नगरी की
महाराज के लिंग से ज्वालामुखी अब कभी भी फटने वाला था. महाराज ने बैठी हुई सिक्ता के हाथों से कटोरी ली और नीचे फेंक दी और उसके दोनो हाथ अपने हाथों से पकड़ उसके दोनो पैरों को अपने पैरों से दूर फैला कर एक तेज धक्के के साथ उसे शैया पर पीठ के बल लिटा कर समस्त बाधाओं को तोड़ते हुए उन्होने देवी सिक्ता के भीतर बलपूर्वक प्रवेश किया .
सिक्ता पीड़ा से बिलबिलाई परंतु अब महाराज किसके रोके से रुकने वाले थे ? अंदर-बाहर अंदर-बाहर महाराज एक ही क्षण में उसे कई कई बार उसका चोदन करते , और इसी प्रकार उसकी योनि का किसी सड़क दुभाजक की तरह चौड़ी करण हो रहा था.
कुछ क्षण बीते और उष्ण धवल और स्निग्ध वीर्य का फव्वारा फुट पड़ा और सिक्ता की योनि में अपना मार्ग बनता गया. महाराज सिक्ता के स्तन अपने मुँह में ले कर दाँतों से उसकिे भूरी घुंडिया चबा रहे थे , उनका शिश्न सिक्ता की योनि से अंदर बाहर हो रहा था . उनके जननेंद्रियो के इर्द गिर जो बाल थे वह प्रेम रस में भीगे हुए थे , उनके हिलने की गति से स्वर्ण और रजत धातुओं से मढ़ा पलंग चरमरा रहा था .
पलंग भी बेचारा कितना भार सहता ? हीरे माणिक , स्वर्ण और रजत जडित पलंग अंतत: काठ ही का तो बना था आख़िर उसका एक पाया टूट ही गया. धडाम से महाराज और सिक्ता एक दूसरे के आलिंगन में कामपीपसा वश गुन्थे हुए फर्श पर आ गिरे . सिक्ता की नग्न पीठ और पृष्ठ भाग का ठंडे फर्श से स्पर्श होते ही रोम रोम खड़े हो गये . महाराज यह देख कर हंस पड़े उनकी विनोद बुद्धि जाग्रत हो गयी , उन्होने परिहास किया “कदाचित् यह शैय्या हमारा भार उठाने में असफल हुई अस्तु देवी सिक्ता इस टूटी हुई शय्या को हम राज बढ़ई द्वारा सुधारवा देंगे तत्पश्चात आप इसे हमारी तरफ से उपहार समझ कर रख लीजिएगा , आप इस पर अपने पति के साथ जब कामरत होंगीं आपको इस घटना की याद आएगी”
सिक्ता यह सुन कर आनंदित हुई उसने सोचा इस बहुमूल्य स्वर्ण और रत्नों से जडित पलंग को वह बेच कर अपनी सासू माँ और सखी नगरवधू अमृता को स्वर्णभूषण भेंट करेंगी आख़िर महाराज से निकटता का श्रेय इन्हीं दो उदार नारियों को जाता है.
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई , द्वारपाल ने सूचित किया कि संदेशवाहक महाराज के लिए संदेश ले आया है.
महाराज चौकन्ने हो गयी द्वारपाल से कहा कि संदेशवाहक को रोके रखे और स्वयं कपड़े पहनने लगे .
“क्षमा करना देवी सिक्ता परंतु लगता है आज संध्या की परिचर्चा के लिए अमात्य और राज वैद्य स्वागत कक्ष में आ चुके हैं हम उन्हें अपने स्वार्थ के लिए प्रतीक्षा नहीं करवा सकते हम फिर किसी दिन आपको दिया हुआ अपना वचन निभाएँगे.”
महाराज सिक्ता से क्षमायाचना करते हुए बोले फिर रुद्र्प्रद की ओर मुड़ कर बोले “सेवक हमारी अनुपस्थिति में तुम देवी को संतुष्ट करो ध्यान रहे यह राज-आज्ञा है कर्तव्य पालन में चूक होने पर तत्क्षण तुम्हारा लिंग धारधार खड़ग से काट कर विदीर्ण किया जाएगा फिर उसपे नींबू का रस और नमक मल कर तुम्हें प्राणोन्नतक वेदना पंहुचई जाएगी”
रुद्र्प्रद की तो बाँछे खिल गयीं , कहा तो उसकी पत्नी तृप्ति महाराज से चुद्वा कर स्वयं चने के वृक्ष पर चढ़ी जा रही थी और अपने पति को अपमानित कर रही थी और अब राज आज्ञा के पालन स्वरूप अब उसे यानी देवी सिक्ता को अपने ही पति के साथ चोदन करने को बाध्य होना पड़ेगा.
अविलंब रुद्र्प्रद चहका “जो आज्ञा महाराज”
टूटी काँच की चूड़ियों के मध्य नग्न ठंडे फर्श पर बैठी हुई सिक्ता के खुले लहराते महाराज के वीर्य से सिक्त केश उड़ उड़ कर उसके मुख मंडल पर आ कर उसके गालों पर सौम्य आघात कर उन को चूमते प्रतीत होते थे , परंतु वह उदास थी दुख आवेश से उसके नयनों से नमकीन अश्रु धारा अविरल बहने लगी , महाराज की कर्तव्य परायणता आज उसके गर्भधारण और रति सुख के आड़े आ कर खड़ी हो गयी थी. महाराज अपने कर्तव्य का ही पालन करेंगे इसमें उसे लेश मात्र भी संशय न था परंतु महाराज के ऐसा करने का अर्थ था उसकी भूखी प्यासी योनी महाराज के बहुमूल्य वीर्य से वंचित ही रहेगी , अभी अभीतो महाराज भावा वेश में उसके उपर चढ़ कर अपने लॅंड से उसे सिंचित कर रहे थे और न जाने कहाँ से यह मरा द्वारपाल औरवाह कलमुंहा संदेशवाहक आ गया.
उसे यह सोच कर सिहरन हुई कि उसने अपने पति से महाराज के सामने जो तुच्छता पूर्व व्यवहार कर उसका अपमान किया था न जाने वह उसपर कैसी प्रतिक्रिया देगा . घर में तो वह श्वान मुद्रा में उसके केशों को अपने हाथों से पकड़ कर बार बार खींच खींच कर वह उसका ऐसा छोड़न करता की उसकी गुदा की एक एक कोशिका प्राणांत वेदना से चीत्कार उठती और गुदा द्वार रक्तरंजित हो जाता . कामावेश में रुद्र्प्रद एकदम पशु की तरह व्यवहार करता संभवत: अपने वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किए गये अनुचित व्यवहार का प्रतिशोध वह संभोग के समय अपनी निरीह पत्नी तृप्ति से पशुता जैसा संभोग कर लेता था.
जो भी हो अब ओखली में सिर दे ही दिया है तो मुसलों से कैसा भय ? आने दो रुद्र्प्रद हो या किसी और को आज तो स्वयं गजराज महावत संग आ जाए तो भी वह अपने कर्तव्य पथ से पीछे न हटेगी.
सिक्ता पीड़ा से बिलबिलाई परंतु अब महाराज किसके रोके से रुकने वाले थे ? अंदर-बाहर अंदर-बाहर महाराज एक ही क्षण में उसे कई कई बार उसका चोदन करते , और इसी प्रकार उसकी योनि का किसी सड़क दुभाजक की तरह चौड़ी करण हो रहा था.
कुछ क्षण बीते और उष्ण धवल और स्निग्ध वीर्य का फव्वारा फुट पड़ा और सिक्ता की योनि में अपना मार्ग बनता गया. महाराज सिक्ता के स्तन अपने मुँह में ले कर दाँतों से उसकिे भूरी घुंडिया चबा रहे थे , उनका शिश्न सिक्ता की योनि से अंदर बाहर हो रहा था . उनके जननेंद्रियो के इर्द गिर जो बाल थे वह प्रेम रस में भीगे हुए थे , उनके हिलने की गति से स्वर्ण और रजत धातुओं से मढ़ा पलंग चरमरा रहा था .
पलंग भी बेचारा कितना भार सहता ? हीरे माणिक , स्वर्ण और रजत जडित पलंग अंतत: काठ ही का तो बना था आख़िर उसका एक पाया टूट ही गया. धडाम से महाराज और सिक्ता एक दूसरे के आलिंगन में कामपीपसा वश गुन्थे हुए फर्श पर आ गिरे . सिक्ता की नग्न पीठ और पृष्ठ भाग का ठंडे फर्श से स्पर्श होते ही रोम रोम खड़े हो गये . महाराज यह देख कर हंस पड़े उनकी विनोद बुद्धि जाग्रत हो गयी , उन्होने परिहास किया “कदाचित् यह शैय्या हमारा भार उठाने में असफल हुई अस्तु देवी सिक्ता इस टूटी हुई शय्या को हम राज बढ़ई द्वारा सुधारवा देंगे तत्पश्चात आप इसे हमारी तरफ से उपहार समझ कर रख लीजिएगा , आप इस पर अपने पति के साथ जब कामरत होंगीं आपको इस घटना की याद आएगी”
सिक्ता यह सुन कर आनंदित हुई उसने सोचा इस बहुमूल्य स्वर्ण और रत्नों से जडित पलंग को वह बेच कर अपनी सासू माँ और सखी नगरवधू अमृता को स्वर्णभूषण भेंट करेंगी आख़िर महाराज से निकटता का श्रेय इन्हीं दो उदार नारियों को जाता है.
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई , द्वारपाल ने सूचित किया कि संदेशवाहक महाराज के लिए संदेश ले आया है.
महाराज चौकन्ने हो गयी द्वारपाल से कहा कि संदेशवाहक को रोके रखे और स्वयं कपड़े पहनने लगे .
“क्षमा करना देवी सिक्ता परंतु लगता है आज संध्या की परिचर्चा के लिए अमात्य और राज वैद्य स्वागत कक्ष में आ चुके हैं हम उन्हें अपने स्वार्थ के लिए प्रतीक्षा नहीं करवा सकते हम फिर किसी दिन आपको दिया हुआ अपना वचन निभाएँगे.”
महाराज सिक्ता से क्षमायाचना करते हुए बोले फिर रुद्र्प्रद की ओर मुड़ कर बोले “सेवक हमारी अनुपस्थिति में तुम देवी को संतुष्ट करो ध्यान रहे यह राज-आज्ञा है कर्तव्य पालन में चूक होने पर तत्क्षण तुम्हारा लिंग धारधार खड़ग से काट कर विदीर्ण किया जाएगा फिर उसपे नींबू का रस और नमक मल कर तुम्हें प्राणोन्नतक वेदना पंहुचई जाएगी”
रुद्र्प्रद की तो बाँछे खिल गयीं , कहा तो उसकी पत्नी तृप्ति महाराज से चुद्वा कर स्वयं चने के वृक्ष पर चढ़ी जा रही थी और अपने पति को अपमानित कर रही थी और अब राज आज्ञा के पालन स्वरूप अब उसे यानी देवी सिक्ता को अपने ही पति के साथ चोदन करने को बाध्य होना पड़ेगा.
अविलंब रुद्र्प्रद चहका “जो आज्ञा महाराज”
टूटी काँच की चूड़ियों के मध्य नग्न ठंडे फर्श पर बैठी हुई सिक्ता के खुले लहराते महाराज के वीर्य से सिक्त केश उड़ उड़ कर उसके मुख मंडल पर आ कर उसके गालों पर सौम्य आघात कर उन को चूमते प्रतीत होते थे , परंतु वह उदास थी दुख आवेश से उसके नयनों से नमकीन अश्रु धारा अविरल बहने लगी , महाराज की कर्तव्य परायणता आज उसके गर्भधारण और रति सुख के आड़े आ कर खड़ी हो गयी थी. महाराज अपने कर्तव्य का ही पालन करेंगे इसमें उसे लेश मात्र भी संशय न था परंतु महाराज के ऐसा करने का अर्थ था उसकी भूखी प्यासी योनी महाराज के बहुमूल्य वीर्य से वंचित ही रहेगी , अभी अभीतो महाराज भावा वेश में उसके उपर चढ़ कर अपने लॅंड से उसे सिंचित कर रहे थे और न जाने कहाँ से यह मरा द्वारपाल औरवाह कलमुंहा संदेशवाहक आ गया.
उसे यह सोच कर सिहरन हुई कि उसने अपने पति से महाराज के सामने जो तुच्छता पूर्व व्यवहार कर उसका अपमान किया था न जाने वह उसपर कैसी प्रतिक्रिया देगा . घर में तो वह श्वान मुद्रा में उसके केशों को अपने हाथों से पकड़ कर बार बार खींच खींच कर वह उसका ऐसा छोड़न करता की उसकी गुदा की एक एक कोशिका प्राणांत वेदना से चीत्कार उठती और गुदा द्वार रक्तरंजित हो जाता . कामावेश में रुद्र्प्रद एकदम पशु की तरह व्यवहार करता संभवत: अपने वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किए गये अनुचित व्यवहार का प्रतिशोध वह संभोग के समय अपनी निरीह पत्नी तृप्ति से पशुता जैसा संभोग कर लेता था.
जो भी हो अब ओखली में सिर दे ही दिया है तो मुसलों से कैसा भय ? आने दो रुद्र्प्रद हो या किसी और को आज तो स्वयं गजराज महावत संग आ जाए तो भी वह अपने कर्तव्य पथ से पीछे न हटेगी.