जवानी की दहलीज compleet

Discover endless Hindi sex story and novels. Browse hindi sex stories, adult stories ,erotic stories. Visit theadultstories.com
007
Platinum Member
Posts: 948
Joined: 14 Oct 2014 17:28

Re: जवानी की दहलीज

Unread post by 007 » 09 Nov 2014 14:53

जवानी की दहलीज-5

उसका बदन अभी भी हिचकोले से खा रहा था और उसका वीर्य हिचकोलों के साथ रिस रहा था। मेरे पेट पर उसका वीर्य हमारे शरीरों को गोंद की तरह जोड़ रहा था। कुछ ही देर में उसका लंड एक फुस्स गुब्बारे की माफ़िक मुरझा गया और भोंपू एक निस्सहाय बच्चे के समान अपना चेहरा मेरे स्तनों में छुपा कर मुझ पर लेटा था। वह बहुत खुश और तृप्त लग रहा था।

मैंने अपनी बाहें उस पर डाल दीं और उसके सिर के बाल सहलाने लगी। वह मेरे स्तनों को पुचपुचा रहा था और उसके हाथ मेरे बदन पर इधर उधर चल रहे थे। हम कुछ देर ऐसे ही लेटे रहे... फिर वह उठा और उसने मेरे होटों को एक बार ज़ोर से पप्पी की और बिस्तर से हट गया। उसका मूसल मुरझा कर लुल्ली बन गया था। भोंपू ने अपने आप को तौलिए में लपेट लिया।

"तो बताओ अब पांव का दर्द कैसा है?" भोंपू ने अचानक पूछा।

"बहुत दर्द है... !" मैंने मसखरी करते हुए जवाब दिया।

"क्या...?" उसने चोंक कर पूछा।

"तुमने कहा था 2-4 दिन में ठीक हो जायेगा... मुझे लगता है ज़्यादा दिन लगेंगे...!!" मैंने शरारत भरे अंदाज़ में कहा।

उसने मुझे बाहों में भर लिया और फिर बाँहों में उठा कर गुसलखाने की तरफ जाने लगा।

"तुम तो बहुत समझदार हो... और प्यारी भी... शायद 5-6 दिनों में तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगी।"

"नहीं... दस-बारह दिन लगेंगे !" कहते हुए मैंने अपना चेहरा उसके सीने में छुपा दिया।

गुसलखाने पहुँच कर उसने मुझे नीचे उतारते हुए कहा "तुम मुझे नहलाओ और मैं तुम्हें !!"

"धत्त... मैं कोई बच्ची थोड़े ही हूँ !"

"इसीलिये तो मज़ा आएगा।" उसने मुझे आलिंगनबद्ध करते हुए मेरे कान में फुसफुसाया।

"चल... हट..." मैंने मना करते हुए रज़ामंदी जताई।

"पहले मैं तुम्हें नहलाता हूँ।" कहकर उसने मुझे स्टूल पर बिठा दिया और मुझ पर पानी उड़ेलने लगा। पहले लोटे के पानी से मैं ठण्ड से सिहर उठी... पानी ज़्यादा ठंडा नहीं था फिर भी मेरे गरम बदन पर ठंडा लगा। उसने एक दो और लोटे जल्दी जल्दी डाले और मेरा शरीर पानी के तापमान पर आ गया... और मेरी सिरहन बंद हुई।

"अरे ! तुमने तो मेरे बाल गीले कर दिए।"

"ओह... भई हम तो पानी सिर पर डाल कर ही नहाते हैं।" उसने साबुन लगाते हुए कहा। उसने मेरे पूरे बदन पर खूब अच्छे से साबुन लगाया और झागों के साथ मेरे अंगों के साथ खेलने लगा। वैसे तो उसने मेरे सब हिस्सों को अच्छे से साफ़ किया पर उसका ज़्यादा ध्यान मेरे मम्मों और जाँघों पर था। रह रह कर उसकी उँगली मेरे चूतड़ों के कटाव में जा रही थी और उसकी हथेलियाँ मेरे स्तनों को दबोच रही थीं। वह बड़े मज़े ले रहा था। मुझे भी अच्छा ही लग रहा था।

उसने मेरी योनि पर धीरे से हाथ फिराया क्योंकि वह थोड़ी सूजी हुई सी लग रही थी। फिर योनि के चारों ओर साबुन से सफाई की। फिर भोंपू खड़ा हो गया और मुझे भी खड़ा करके अपने सीने और पेट को मेरी छाती और पेट से रगड़ने लगा।

"मैं साबुन की बचत कर रहा हूँ... तुम्हारे साबुन से ही नहा लूँगा।"

मुझे मज़ा आ रहा था सो मैं कुछ नहीं बोली। वह घूम गया और अपनी पीठ मेरे पेट और छाती पर चलाने लगा।

अब उसने मुझे घुमाया और मेरी पीठ पर अपना सीना और पेट लगा कर ऊपर-नीचे और दायें-बाएं होने लगा। मैंने महसूस किया उसका लिंग फिर से अंगड़ाई लेने लगा था। उसका सुपारा मेरे चूतड़ों के कटाव से मुठभेड़ कर रहा था... धीरे धीरे वह मेरी पीठ में, चूतड़ों के ऊपर, लगने लगा। उसका मुरझाया लिंग लुल्ली से लंड बनने लगा था। उसके हाथ बराबर मेरे स्तनों को मसल रहे थे। उसने घुटनों से झुक कर अपने आप को नीचा किया और अपने तने हुए लंड को मेरे चूतड़ों और जाँघों में घुमाने लगा। मैं अपने बचाव में पलट गई और वह सीधा हो गया... पर मैं तो जैसे आसमान से गिरी और खजूर में अटकी... अब उसका लंड मेरी नाभि को सलाम कर रहा था | उसने फिर से अपने आप को नीचे झुकाया और उसका सुपारा मेरी योनि ढूँढने लगा।

"ये क्या कर रहे हो ?" मैंने पूछा।

"कुछ नहीं" कहकर वह सीधा खड़ा हो गया और मुझे नहलाने में लग गया। उसके लंड का तनाव जाता रहा और उसने मेरे ऊपर पानी डालते हुए मेरा स्नान पूरा किया।

अब मेरी बारी थी सो मैंने उसे स्टूल पर बिठाया और उस पर लोटे से पानी डालने लगी। वह भी शुरू में मेरी तरह कंपकंपाया पर फिर शांत हो गया। मैंने उसके सिर से शुरू होते हुए उसको साबुन लगाया और उसके ऊपरी बदन को रगड़ कर साफ़ करने लगी। वह अच्छे बच्चे की तरह बैठा रहा। मैंने उसे घुमा कर उसकी पीठ पर भी साबुन लगा कर रगड़ा। अब उसको खड़ा होने के लिए कहा और पीछे से उसके चूतड़ों पर साबुन लगा कर छोड़ दिया।

"ये क्या... यहाँ नहीं रगड़ोगी?" उसने शिकायत की।

तो मैंने उसके चूतड़ों को भी रगड़ दिया। उसने अपनी टांगें चौड़ी कर दीं और थोड़ा झुक गया मानो मेरे हाथों को उनके कटाव में डालने का न्योता दे रहा हो। मैंने अपने हाथ उसकी पीठ पर चलाने शुरू किये।

"तुम बहुत गन्दी हो !"

"क्यों? मैंने क्या किया?" मैंने मासूमियत में पूछा।

"क्या किया नहीं... ये पूछो क्या नहीं किया।"

"क्या नहीं किया?"

"अब भोली मत बनो।" उसने अपने कूल्हों से मुझे पीछे धकेलते हुए कहा।

मैं हँसने लगी। मुझे पता था वह क्यों निराश हुआ था। अब मैं अपने घुटनों पर नीचे बैठ गई और उसकी टांगों और पिंडलियों पर साबुन लगाने लगी। पीछे अच्छे से साबुन लगाने के बाद मैंने उसे अपनी तरफ घुमाया। उसका लिंग मेरे मुँह के बिल्कुल सामने था और उसमें जान आने सी लग रही थी। मेरे देखते देखते वह उठने लगा और उसमें तनाव आने लगा। उसकी अनदेखी करते हुए मैं उसके पांव और टांगों पर साबुन लगाने लगी।

वह जानबूझ कर एक छोटा कदम आगे लेकर अपने आप को मेरे नज़दीक ऐसे ले आया कि उसका लिंग मेरे चेहरे को छूने लगा। मैं पीछे हो गई। वह थोड़ा और आगे आ गया। मैं और पीछे हुई तो मेरी पीठ दीवार से लग गई। वह और आगे आ गया।

"यह क्या कर रहे हो?" मैंने झुंझला कर पूछा।

"इसको भी तो नहाना है।" वह अपने लंड को मेरे मुँह से सटाते हुए बोला।

"तो मेरे मुँह में क्यों डाल रहे हो?" मैंने उसे धक्का देते हुए पीछे किया।

"पहले इसे नहलाओ, फिर बताता हूँ।"

मैंने उसके लंड को हाथ में लेकर उस पर साबुन लगाया और जल्दी से पानी से धो दिया।

"बड़ी जल्दी में हो... अच्छा सुनो... तुमने कभी इसको पुच्ची की है?"

"किसको?"

"मेरे पप्पू को !"

"पप्पू?"

"तुम इसको क्या बुलाती हो?" उसने अपने लंड को मेरे मुँह की तरफ करते हुए कहा।

"छी ! इसको दूर करो..." मैंने नाक सिकोड़ते हुए कहा।

"इसमें छी की क्या बात है?... यह भी तो शरीर का एक हिस्सा है... अब तो इसे तुमने नहला भी दिया है।" उसने तर्क किया।

"छी... इसको पुच्ची थोड़े ही करते हैं... गंदे !"

"करते हैं... खैर... अभी तुम भोली हो... इसीलिए तुम्हें सब भोली कहते हैं।"

मैं चुप रही।

"अब मैं ही तुम्हें सब कुछ सिखाऊँगा।"

मैंने उसका स्नान पूरा किया और हमने एक दूसरे को तौलिए से पौंछा और बाहर आ गए।

"मुझे तो मज़ा आ गया... अब तुम ही मुझे नहलाया करो।" भोंपू ने आँख मारते हुए कहा।

"गंदे !"

"तुम्हें मज़ा नहीं आया?"

मैंने नज़रें नीची कर लीं।

"चलो एक कप चाय हो जाये !" उसने सुझाव दिया।

"अब तो खाने का समय हो रहा है... गुंटू शीलू आते ही होंगे।" मैंने राय दी।

"हाँ, यह बात भी है... चलो उनको आने दो... खाना ही खायेंगे... मैं थोड़ा बाहर हो कर आता हूँ।" कहते हुए भोंपू बाहर चला गया।

मुझे यह ठीक लगा। शीलू और गुंटू घर आयें, उस समय भोंपू घर में ना ही हो तो अच्छा है। शायद भोंपू भी इसी ख्याल से बाहर चला गया था।

मैं खाना गरम करने में लग गई। भोंपू के साथ बिताये पल मेरे दिमाग में घूम रहे थे।

खाना खाने के बाद शीलू और गुंटू अपने स्कूल का काम करने में लग गए। भोंपू ने रात के खाने का बंदोबस्त कर ही दिया था सो वह कल आने का वादा करके जाने लगा। उसने इशारे इशारे में मुझे आगाह किया कि मुझे थोड़ा लंगड़ा कर और करहा कर चलना चाहिए। शीलू और गुंटू को लगना चाहिए कि अभी चोट ठीक नहीं हुई है। मैंने इस हिदायत को एकदम अमल में लाना शुरू किया और लंगड़ा कर चलने लगी।

मैंने खाने के बर्तन ठीक से लगाये और कुछ देर बिस्तर पर लेट गई।

"दीदी, हम बाहर खेलने जाएँ?" शीलू की आवाज़ ने मेरी नींद तोड़ी।

"स्कूल का काम कर लिया?"

"हाँ !"

"दोनों ने?"

"हाँ दीदी... कर लिया।" गुंटू बोला।

"ठीक है... जाओ... अँधेरा होने से पहले आ जाना !"

मैं फिर से लेट गई। खाना बनाना नहीं था... सो मेरे पास फुरसत थी। मेरी आँखों के सामने भोंपू का खून से सना लिंग नाच रहा था। मैंने अपनी उंगली योनि पर रख कर यकीन किया कि कोई चोट या दर्द तो नहीं है। मुझे डर था कि ज़रूर मेरी योनि चिर गई होगी। पर हाथ लगाने से ऐसा नहीं लगा। बस थोड़ी सूजन और संवेदना का अहसास हुआ। मुझे राहत मिली।

इतने में ही दरवाज़े के खटखटाने की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया।

'इस समय कौन हो सकता है?' सोचते हुए मैंने दरवाज़ा खोला।

"अरे आप?!"

सामने नितेश को देखकर मैं सकते में थी। वह मुस्कुरा रहा था... उसने सफ़ेद टी-शर्ट और निकर पहन रखी थी और उसके हाथ में बैडमिंटन का रैकिट था। उसका बदन पसीने में था... लगता था खेलने के बाद वह सीधा आ रहा था।

"क्यों? चौंक गई?"

"जी !" मैंने नीची नज़रों से कहा।

"अंदर आने को नहीं कहोगी?"

"ओह... माफ कीजिये... अंदर आइये !"

मैं रास्ते से हटी और उन्हें कुर्सी की तरफ इशारा करके दौड़ कर पानी लेने चली गई। मैंने एक धुले हुए ग्लास को एक बार और अच्छे से धोया और फिर मटके से पानी डालकर नितेश को दे दिया।

"एक ग्लास और मिलेगा?" उसने गटक से पानी पीकर कहा।

"जी !" कहते हुए मैंने ग्लास उनके हाथ से लिया और जाने लगी तो नितेश ने मेरा हाथ थाम लिया।

"घर में अकेली हो?"

"जी... शीलू, गुंटू खेलने गए हैं..."

"मुझे मालूम है... मैं उनके जाने का ही इंतज़ार कर रहा था..."

"जी?" मेरे मुँह से निकला।

"मैं तुमसे अकेले में मिलना चाहता था।"

मैंने कुछ नहीं कहा पर पहली बार नज़र ऊपर करके नितेश की आँखों में आँखें डाल कर देखा।

"तुम बहुत अच्छी लगती हो !" नितेश ने मेरा हाथ और ज़ोर से पकड़ते हुए कहा।

"जी, मैं पानी लेकर आई !" कहते हुए मैं अपना हाथ छुड़ा कर रसोई में लंगडाती हुई भागी। मेरी सांस तेज़ हो गई थी और मेरे माथे पर पसीना आ गया था।

नितेश मेरे पीछे पीछे रसोई में आया और पूछने लगा," यः तुम्हारे पांव को क्या हुआ?"

"गिर गई थी।" मैंने दबी आवाज़ में कहा।

"मोच आई है?"

"जी !"

"तो भाग क्यों रही हो?"

मेरा पास इसका कोई जवाब नहीं था।

"मेरी तरफ देखो !" नितेश ने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ा और कहा।

मैंने नज़रें नीची ही रखीं।

"देखो, शरमाओ मत... ऊपर देखो !" मैंने धीरे धीरे ऊपर देखा। उसके चहरे पर मुस्कराहट थी।

"तुम इसीलिए मुझे बहुत अच्छी लगती हो... तुम शर्मीली हो..."

मेरी आँखें नीची हो गईं।

"देखो... फिर शरमा गई... आजकल शर्मीली लड़कियाँ कहाँ मिलती हैं... मेरे कॉलेज में देखो तो पता चलेगा... लड़के ही शरमा जाएँ !"

मैं क्या कहती... चुप रही... और उसको पानी का ग्लास दे दिया। उसने एक लंबी सांस ली और एक ही सांस में पी गया

"आह... मज़ा आ गया।" मैंने नितेश की तरफ प्रश्नवाचक निगाह उठाई।

"तुम्हारे हाथ का पानी पीकर !!" वह बोला।

वैसे मुझे नितेश अच्छा लगता था पर मुझे उसकी साथ दोस्ती या कोई रिश्ता बनाने में रूचि नहीं थी। मेरे और उसके बीच इतना फर्क था कि दूर ही रहना बेहतर था। मुझे माँ की वह बात याद थी कि दोस्ती और रिश्ता हमेशा बराबर वालों के साथ ही चलता है। मेरी परख में नितेश कोई बिगड़ा हुआ अय्याश लड़का नहीं था और ना ही उसके बर्ताव में घमण्ड की बू आती थी... बल्कि वह तो मुझे एक सामान्य और अच्छा लड़का लगता था। ऐसे में उसका इस तरह मेरी तारीफ करना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था परन्तु हमारे सामाजिक फासले की खाई पाटना मेरे लिए दुर्लभ था। मेरे मन में कश्मकश चल रही थी...

"क्या सोच रही हो? कि मैं एक अमीर लड़का हूँ और तुम्हारे साथ दोस्ती नहीं कर सकता?"

"जी नहीं... सोच रही हूँ कि मैं एक गरीब लड़की हूँ और आपके साथ कैसे दोस्ती कर सकती हूँ?"

"तुम मेरी दोस्त हो गई तो गरीब कहाँ रही?... देखो, मैं उनमें से नहीं जो तुम्हारी जवानी और देह का इस्तेमाल करना चाहते हैं..."

"मैं जानती हूँ आप वैसे नहीं हैं... फिर भी... कहाँ आप और कहाँ मैं?" कहते कहते मेरी आँखों में आंसू आ गए और मैंने अपना चेहरा अपने हाथों में छिपा लिया।

kramashah.........................

007
Platinum Member
Posts: 948
Joined: 14 Oct 2014 17:28

Re: जवानी की दहलीज

Unread post by 007 » 09 Nov 2014 14:55

जवानी की दहलीज-6

नितेश ने मेरे हाथ मेरे चेहरे से हटाये और मुझे गले लगा लिया। मैं और भी सहम गई और सांस रोके खड़ी रही।

"घबराओ मत... मैं कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं करूँगा... दोस्ती तो तुम्हारी मर्ज़ी से ही होगी... जब तुम मुझे अपने लायक समझने लगोगी..."

"आप ऐसा क्यों कह रहे हैं... मेरा मतलब यह नहीं था... मैं ही आप के काबिल नहीं हूँ..."

"ऐसा मत सोचो... तुम्हारे पास धन नहीं है, बस... बाकी तुम्हारे पास वह सब है जो किसी भले मानस को एक लड़की में चाहिए होता है।"

मैं यह सुनकर बहुत खुश हुई। हम अभी भी आलिंगनबद्ध थे... मैंने अपने हाथ उठा कर उसकी पीठ पर रख दिए। उसने मेरे हाथ का स्पर्श भांपते ही मुझे और ज़ोर से जकड़ लिया और मेरे गाल पर प्यार कर लिया। थोड़ी देर हम ऐसे ही खड़े रहे। फिर उसने अपने आप को छुटाते हुए कहा," तुम ठीक कहती हो... दोस्ती बराबर वालों से ही होती है..." मैं फिर से सहम गई।

"इसलिए, अब से हम बराबर के हैं, हमारी उम्र तो वैसे भी एक सी ही है... तुम मुझसे तीन साल छोटी हो, इतना फर्क चलेगा... अब से तुम मुझे मेरे नाम से बुलाओगी... ठीक है?"

"जी !" मैंने कहा।

"अब से जी वी नहीं चलेगा... तुम मुझसे दोस्त की तरह पेश आओगी... ठीक है?"

"जी !"

"फिर वही जी... मेरा नाम क्या है?"

"जी, मालूम है !"

"मेरा नाम बोलो..."

"जी...!"

"एक बार और जी बोला तो मैं गुस्सा हो जाऊँगा।" उसने मेरी बात काटते हुए चेतावनी दी...

"अब मेरा नाम लो।"

"नितेश जी।"

"उफ़... ये जी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा क्या?" नितेश ने गुसैले प्यार से कहा और मुझे फिर से गले लगा लिया।

"तुम्हारे होटों पर मेरा नाम कितना प्यारा लगता है... सरोजा जी।"

"आप मुझे जी क्यों कह रहे हैं? आप मुझसे बड़े हैं... दोस्ती का मतलब यह नहीं कि हम अदब और कायदे भूल जाएँ... आप मुझे भोली ही बुलाइए... मैं आपका नाम नहीं लूंगी... हमारे यहाँ यही रिवाज़ है।" मैंने आलिंगन तोड़ते हुए दृढ़ता से कहा

"ओह... तुम इतने दिन कहाँ थीं? तुम कितनी समझदार हो !... ठीक है... जैसा तुम कहोगी वैसा ही होगा।" नितेश ने मुझसे प्रभावित होते हुए कहा और फिर से अपनी बाहों में ले लिया।

मुझे अपनी यह छोटी सी जीत अच्छी लगी। अब हम दोनों सोच नहीं पा रहे थे कि आगे क्या करें। मैंने ही अपने आप को उसकी बाहों से दूर किया और पूछा," चाय पियेंगे?"

"उफ़... ऐसे ही चाय नहीं बना सकती?" नितेश ने फिर से मेरी तरफ बाहें करते हुए कहा।

"जी नहीं !" मैंने 'जी' पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर देते हुए उसे चिढ़ाया और उसके चंगुल से बचती हुई गैस पर पानी रखने लगी।

"चलो मैं भी देखूं चाय कैसे बनती है।" नितेश मेरे पीछे आकर खड़े होकर बोला।

"आपको चाय भी बनानी नहीं आती?" मैंने आश्चर्य से पूछा।

"जी नहीं !" उसने 'जी' पर मुझसे भी ज़्यादा ज़ोर देकर कहा।

मैं हँस पड़ी।

"तुम हँसती हुई बहुत अच्छी लगती हो !"

"और रोती हुई?" मैंने रुआंसी सूरत बनाते हुए पूछा।

"बिल्कुल गन्दी लगती हो... डरावनी लगती हो।" नितेश ने हँसते हुए कहा।

"आप भी हँसते हुए अच्छे लगते हो।"

"और रोता हुआ?"

"छी... रोएँ तुम्हारे दुश्मन... मैं तुम्हें रोने नहीं दूँगी।" ना जाने कैसे मैंने यह बात कह दी। नितेश चकित भी हुआ और खुश भी।

"सच... मुझे रोने नहीं दोगी... I am so lucky !! मैं भी तुम्हें कभी रोने नहीं दूंगा।" कहकर उसने मेरे चेहरे को अपने हाथों में ले लिया और इधर-उधर चूमने लगा।

"अरे अरे... ध्यान से... पानी उबल रहा है।" मैंने उसे होशियार किया।

"सिर्फ पानी ही नहीं उबल रहा... तुमने मुझे भी उबाल दे दिया है..." नितेश ने मुझे गैस से दूर करते हुए दीवार के साथ सटा दिया और पहली बार मेरे होंटों पर अपने होंट रख दिए। मैंने आँखें बंद कर लीं।

नितेश बड़े प्यार से मेरे बंद मुँह को अपने मुँह से खोलने की मशक्क़त करने लगा। उसने मुझे दीवार से अलग करके अपनी तरफ खींचा और अपनी बाँहें मेरी पीठ पर रखकर दोबारा मुझे दीवार से लगा दिया। अब उसके हाथ मेरी पीठ को और उसके होंट और जीभ मेरे मुँह को टटोल रहे थे। मैंने कुछ देर टालम-टोल करने के बाद अपना मुँह खुलने दिया और उसकी जीभ को प्रवेश की इजाज़त दे दी। नितेश ने एक हाथ मेरी पीठ से हटाकर मेरे सिर के पीछे रख दिया और उसके सहारे मेरे सिर को थोड़ा टेढ़ा करके अपने लिए व्यवस्थित किया। अब उसने अपना मुँह ज़्यादा खोलकर मेरे मुँह में अपनी जीभ डाल दी और दंगल करने लगा। उसकी जीभ मेरे मुँह में चंचल हिरनी की तरह इधर उधर जा रही थी। नितेश एक प्यासे बच्चे की तरह मेरे मुँह का रसपान कर रहा था। उसने मेरी जीभ को अपने मुँह में खींच लिया और मुझे भी उसके रस का पान करने के लिए विवश कर दिया।

मैंने हिम्मत करके अपनी जीभ उसके मुँह में फिरानी शुरू कर दी।

अचानक मुझे गुंटू के दौड़ कर आने की आवाज़ आने लगी। वह "दीदी... दीदी..." चिल्लाता हुआ आ रहा था। मैंने हडबड़ा कर अपने आपको नितेश से अलग किया... एक हाथ से अपने कपड़े सीधे किये और दूसरे से अपना मुँह साफ़ किया और नितेश को "सॉरी !" कहती हुई बाहर भाग गई। उस समय मैं लंगड़ाना भूल गई थी... पता नहीं गुंटू को क्या हो गया था... मुझे चिंता हो रही थी। मैं जैसे ही दरवाज़े तक पहुंची, गुंटू हांफता हांफता आया और मुझसे लिपट कर बोला,"दीदी... दीदी... पता है...?"

"क्या हुआ?" मैंने चिंतित स्वर में पूछा।

"पता है... हम बगीचे में खेल रहे थे..." उसकी सांस अभी भी तेज़ी से चल रही थी।

"हाँ हाँ... क्या हुआ?"

"वहाँ न... मुझे ये मिला .." उसने मुझे एक 100 रुपए का नोट दिखाते हुए बताया।

"बस?... मुझे तो तुमने डरा ही दिया था।"

"दीदी .. ये 100 रुपए का नोट है... और ये मेरा है.."

"हाँ बाबा... तेरा ही है... खेलना पूरा हो गया?"

"नहीं... ये रख... किसी को नहीं देना..." गुंटू मेरे हाथ में नोट रख कर वापस भाग गया। मुझे राहत मिली कि उसे कोई चोट वगैरह नहीं लगी थी। मैं दरवाज़ा बंद करके, लंगड़ाती हुई, वापस रसोई में आ गई जहाँ नितेश छुप कर खड़ा था।

"इस लड़के ने तो मुझे डरा ही दिया था" मैंने दुपट्टे से अपना चेहरा पोंछते हुए कहा।

"मुझे भी !" नितेश ने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए जवाब दिया।

"आपको क्यों?"

"अरे... अगर वह हमें ऐसे देख लेता तो?"

"गुंटू तो बच्चा है।" मैंने सांत्वना दी।

"आजकल के बच्चों से बच कर रहना... पेट से ही सब कुछ सीख कर आते हैं !!" उसने मुझे सावधान करते हुए कहा।

"सच?" मैंने अचरज में पूछा।

"हाँ... इन को सब पता होता है... खैर, अब मैं चलता हूँ... वैसे अगले सोमवार मेरी सालगिरह है... मैं तो तुम्हें न्योता देने आया था।"

"मुझे?"

"और नहीं तो क्या? मेरी पार्टी में नहीं आओगी?"

"देखो, अगर तुम मुझे अपना असली दोस्त समझते हो तो मेरी बात मानोगे..." मैंने गंभीर होते हुए कहा।

"क्या?"

"यही कि मैं तुम्हारी पार्टी में नहीं आ सकती।"

"क्यों?"

"क्योंकि सब तुम्हारी तरह नहीं सोचते... और मैं वहाँ किसी और को नहीं जानती... तुम सारा समय सिर्फ मेरे साथ नहीं बिता पाओगे ... फिर मेरा क्या?"

"तुम वाकई बहुत समझदार हो... पर मैं तुम्हारे साथ भी तो अपना जन्मदिन मनाना चाहता हूँ।" उसने बच्चों की तरह कहा।

"मैं भी तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें बधाई देना चाहती हूँ... पर इसके लिए पार्टी में आना तो ज़रूरी नहीं।"

"फिर?"

"पार्टी किस समय है?"

"शाम को 7 बजे से है "

"ठीक है... अगर तुम दोपहर को आ सकते हो तो यहाँ आ जाना... मैं तुम्हारे लिए अपने हाथ से खाना बनाऊँगी..."

"सच?"

"सच !"

"ठीक है... भूलना मत !"

"मैं तो नहीं भूलूंगी... तुम मत भूलना... और देर से मत आना !"

007
Platinum Member
Posts: 948
Joined: 14 Oct 2014 17:28

Re: जवानी की दहलीज

Unread post by 007 » 09 Nov 2014 14:56

"मैं तो सुबह सुबह ही आ जाऊँगा !"

"सुबह सुबह नहीं... शीलू गुंटू स्कूल चले जाएँ और मैं खाना बना लूं... मतलब 12 बजे से पहले नहीं और साढ़े 12 के बाद नहीं... ठीक है?"

"तुम्हें तो फ़ौज में होना चाहिए था... ठीक है कैप्टेन ! मैं सवा 12 बजे आ जाऊँगा।"

"ठीक है... अब भागो... शीलू गुंटू आने वाले होंगे।"

"ठीक है... जाता हूँ।" कहते हुए नितेश मेरे पास आया और मेरे पेट पर से मेरा दुपट्टा हटाते हुए मेरे पेट पर एक ज़ोरदार पप्पी कर दी।

"अइयो ! ये क्या कर रहे हो !?"... मैंने गुदगुदी से भरे अपने पेट को अंदर करते हुए कहा।

"मुझे भी पता नहीं..." कहकर नितेश मेरी तरफ हवा में पुच्ची फेंकता हुआ वहाँ से भाग गया।

रात को मुझे नींद नहीं आ रही थी। हरदम नितेश या भोंपू के चेहरे और उनके साथ बिताये पल याद आ रहे थे। मेरे जीवन में एक बड़ा बदलाव आ गया था। अब मुझे अपने बदन की ज़रूरतों का अहसास हो गया था। जहाँ पहले मैं काम से थक कर रात को गहरी नींद सो जाया करती थी वहीं आज नींद मुझसे कोसों दूर थी।

मैं करवटें बदल रही थी... जहाँ जहाँ मर्दाने हाथों के स्पर्श से मुझे आनंद मिला था, वहाँ वहाँ अपने आप को छू रही थी... पर मेरे छूने में वह बात नहीं थी। जैसे तैसे सुबह हुई और...

रात को मुझे नींद नहीं आ रही थी। हरदम नितेश या भोंपू के चेहरे और उनके साथ बिताये पल याद आ रहे थे। मेरे जीवन में एक बड़ा बदलाव आ गया था। अब मुझे अपने बदन की ज़रूरतों का अहसास हो गया था। जहाँ पहले मैं काम से थक कर रात को गहरी नींद सो जाया करती थी वहीं आज नींद मुझसे कोसों दूर थी।

मैं करवटें बदल रही थी... जहाँ जहाँ मर्दाने हाथों के स्पर्श से मुझे आनंद मिला था, वहाँ वहाँ अपने आप को छू रही थी... पर मेरे छूने में वह बात नहीं थी। जैसे तैसे सुबह हुई और...

और मैंने घर के काम शुरू किये। शीलू, गुंटू को जगाया और उनको स्कूल के लिए तैयार करवाया। मैं उनके लिए नाश्ता बनाने ही वाली थी कि भोंपू, जिस तरह रेलवे स्टेशन पर होता है... "दोसा–वड़ा–साम्भर... दोसा–वड़ा–साम्भर" चिल्लाता हुआ सरसराता हुआ घर में घुस गया।

"अरे इसकी क्या ज़रूरत थी?" मैंने ईमानदारी से कहा।

"अरे, कैसे नहीं थी ! तुम अभी काम करने लायक नहीं हो...।" उसने मुझे याद दिलाते हुए कहा और साथ ही मेरी तरफ एक हल्की सी आँख मार दी।

शीलू, गुंटू को दोसा पसंद था सो वे उन पर टूट पड़े। भोंपू और मैंने भी नाश्ता खत्म किया और मैं चाय बनाने लगी। शीलू, गुंटू को दूध दिया और वे स्कूल जाने लगे।

"अब मैं भी चलता हूँ।" भोंपू ने बच्चों को सुनाने के लिए जाने का नाटक किया।

"चाय पीकर चले जाना ना !" शीलू ने बोला," आपने इतने अच्छे दोसे भी तो खिलाये हैं !!"

"हाँ, दोसे बहुत अच्छे थे।" गुंटू ने सिर हिलाते हुए कहा।

"ठीक है... चाय पीकर चला जाऊँगा।" भोंपू ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

"तुम इनको स्कूल छोड़ते हुए चले जाना।" मैंने सुझाव दिया। मैं नहीं चाहती थी कि भोंपू इतनी सुबह सुबह घर पर रहे। मुझे बहुत काम निपटाने थे और वैसे भी मैं नहीं चाहती थी कि शीलू को कोई शक हो। गुंटू अभी छोटा था पर शीलू अब बच्ची नहीं रही थी, वह भी हाल ही में सयानी हो गई थी... मतलब उसे भी मासिक-धर्म शुरू हो चुका था और हमारे रिवाज़ अनुसार वह भी हाफ-साड़ी पहनने लगी थी।

मेरे सुझाव से भोंपू चकित हुआ। उसने मेरी तरफ विस्मय से देखा मानो पूछ रहा हो," ऐसा क्यों कह रही हो?"

मैंने उसे इशारों से शांत करते हुए शीलू को कहा," बाबा रे ! आज घर में बहुत काम है... मैं दस बजे से पहले नहीं नहा पाऊँगी।" फिर भोंपू की तरफ देख कर मैंने पूछा," तुम दोपहर का खाना ला रहे हो ना?"

"हाँ... खाना तो ला रहा हूँ,"

"ठीक है... समय से ले आना..." मैंने शीलू से नज़र बचाते हुए भोंपू की ओर 11 बजे का इशारा कर दिया। भोंपू समझ गया और उसके चेहरे पर एक नटखट मुस्कान दौड़ गई।

मैंने जल्दी जल्दी सारा काम खत्म किया और नहाने की तैयारी करने लगी। सवा दस बज रहे थे कि किसी ने कुण्डी खटखटाई।

मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने भोंपू खड़ा था... उसकी बांछें खिली हुई थीं, उसने अपने हाथों के थैले ऊपर उठाते हुए कहा "खाना !!"

"तुम इतनी जल्दी क्यों आ गए?"

"तुमने कहा था तुम दस बजे नहाने वाली हो..."

"हाँ... तो?"

"मैंने सोचा तुम्हारी कुछ मदद कर दूंगा...!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा और अंदर आ गया।

"कोई ज़रूरत नहीं है... मैं नहा लूंगी !"

"सोच लो... ऐसे मौके बार बार नहीं आते !!" उसने मुझे ललचाया और घर के खिड़की दरवाज़े बंद करने लगा।

वैसे भोंपू ठीक ही कह रहा था। अगर मौकों का फ़ायदा नहीं उठाओ तो मौके रूठ जाते हैं... और बाद में तरसाते हैं। मैं बिना कुछ बोले... बाहर का दरवाज़ा बंद करके अंदर आ गई। मैंने अपना तौलिया और कपड़े लिए और गुसलखाने की तरफ बढ़ने लगी। उसने मुझे पीछे से आकर पकड़ लिया और मेरी गर्दन को चूमने लगा। मुझे उसकी मूछों से गुदगुदी हुई... मैंने अपना सिर पीछे करके अपने आप को छुड़ाया।

"अरे ! क्या कर रहे हो?"

"मैंने क्या किया? अभी तो कुछ भी नहीं किया... तुम कुछ करने दो तो करूँ ना !!!!"

"क्या करने दूँ?" मैंने भोलेपन का दिखावा किया।

"जो हम दोनों का मन चाह रहा है।"

"क्या?"

"अपने मन से पूछो... ना ना... मेरा मतलब है अपने तन से पूछो !" उसने 'तन' पर ज़ोर डालते हुए कहा।

"ओह... याद आया...एक मिनट रुको !" कहकर वह गया और अपने थैले से एक चीज़ लेकर आया और गुसलखाने में चला गया और थोड़ी देर बाद आया।

"क्या कर रहे हो?" वह क्या था?" मैंने पूछा।

"यह एक बिजली की छड़ी है... इसे हीटिंग रोड कहते हैं... इससे पानी गरम हो जायेगा... फिर तुम्हें ठण्ड नहीं लगेगी।" उसे मेरी कितनी चिंता थी। मैं मुस्कुरा दी।

वह मेरे सामने आ गया और मेरे कन्धों पर अपने हाथ रख कर और आँखों में आँखें डाल कर कहने लगा," मैं तुम्हें हर रोज़ नहलाना चाहता हूँ।"

मैं क्या कहती... मुझे भी उससे नहाना अच्छा लगा था... पर कह नहीं सकती थी। उसने मेरी चुप्पी का फ़ायदा उठाते हुए मेरे हाथों से मेरा तौलिया और कपड़े लेकर अलग रख दिए और मेरा दुपट्टा निकालने लगा। मेरे हाथ उसको रोकने को उठे तो उसने उन्हें ज़ोर से पकड़ कर नीचे कर दिया और मेरे कपड़े उतारने लगा। मैं मूर्तिवत खड़ी रही और उसने मुझे पूरा नंगा कर दिया। फिर उसने अपने सारे कपड़े उतार दिए और वह भी नंगा हो गया।

kramashah.....................


Post Reply