जवानी की दहलीज-1
बात उन दिनों की है जब इस देश में टीवी नहीं होता था ! इन्टरनेट और मोबाइल तो और भी बाद में आये थे। मैं उन दिनों जवानी की दहलीज पर क़दम रख रही थी। मेरा नाम सरोजा है पर घर में मुझे सब भोली ही बुलाते हैं। मैं 19 साल की सामान्य लड़की हूँ, गेहुँवा रंग, कद 5'3", वज़न 50 किलो, लंबे काले बाल, जो आधी लम्बाई के बाद घुंघराले थे, काली आँखें, गोल नाक-नक्श, लंबी गर्दन, मध्यम आकार के स्तन और उभरे हुए नितम्भ।
हम कुरनूल (आंध्र प्रदेश) के पास एक कसबे में रहते थे। मेरे पिताजी वहाँ के जागीरदार और सांसद श्री रामाराव के फार्म-हाउस में बागवानी का काम करते थे। मेरी एक बहन शीलू है जो मुझसे चार साल छोटी है और उस पर भी यौवन का साया सा पड़ने लगा है। लड़कपन के कारण उसे उसके पनपते स्तनों का आभास नहीं हुआ है पर आस-पड़ोस के लड़के व मर्द उसे दिलचस्पी से देखने लगे हैं। पिछले साल उसकी पहली माहवारी ने उसे उतना ही चौंकाया और डराया था जितना हर अबोध लड़की को होता है।
मैंने ही उसे समझाया और संभाला था, उसके घर से बाहर जाने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थीइ जैसा कि गांव की लड़कियों के साथ प्राय: होता है। मेरा एक भाई गुन्टू है जो कि मुझसे 12 साल छोटा है और जो मुझे माँ समान समझता है। वह बहुत छोटा था जब हमारी माँ एक सड़क हादसे में गुज़र गई थी और उसे एक तरह से मैंने ही पाला है।
हम एक गरीब परिवार के हैं और एक ऐसे समाज से सम्बंधित हैं जहाँ लड़कियों का कोई महत्त्व या औचित्य नहीं होता। जब माँ थी तो वह पहले खाना पिताजी और गुन्टू को देती थी और बाद में शीलू और मेरा नंबर आता था। वह खुद सबसे बाद में बचा-कुचा खाती थी। घर में कभी कुछ अच्छा बनता था या मिठाई आती थी तो वह हमें कम और पिताजी और गुन्टू को ज़्यादा मिलती थी। हालांकि गुन्टू मुझसे बहुत छोटा था फिर भी हमें उसका सारा काम करना पड़ता था। अगर वह हमारी शिकायत कर देता तो माँ हमारी एक ना सुनती। हमारे समाज में लड़कों को सगा और लड़कियों को पराई माना जाता है इसीलिए लड़कियों पर कम से कम खर्चा और ध्यान लगाया जाता है।
माँ के जाने के बाद मैंने भी गुन्टू को उसी प्यार और लाड़ से पाला था।
पिताजी हमारे मालिक के खेतों और बगीचों के अलावा उनके बाकी काम भी करने लगे थे। इस कारण वे अक्सर व्यस्त रहते थे और कई बार कुरनूल से बाहर भी जाया करते थे। मुझे घर के काम करने की आदत सी हो गई थी। वैसे भी हम लड़कियों को घर के काम करने की शुरुआत बहुत जल्दी हो जाया करती है और मैं तो अब 19 की होने को आई हूँ। अगर मेरी माँ जिंदा होती तो मेरी शादी कब की हो गई होती...
पर अब शीलू और गुन्टू की देखभाल के लिए मेरा घर पर होना ज़रूरी है इसलिए पिताजी मेरी शादी की जल्दी में नहीं हैं। हम रामारावजी के फार्म-हाउस की चारदीवारी के अंदर एक छोटे से घर में रहते हैं। हमारे घर के सब तरफ बहुत से फलों के पेड़ लगे हुए हैं जो कि पिताजी ने कई साल पहले लगाये थे। पास ही एक कुंआ भी है। रामारावजी ने कुछ गाय-भैंस भी रखी हुई हैं जिनका बाड़ा हमारे घर से कुछ दूर पर है।
रामारावजी एक कड़क किस्म के इंसान हैं जिनसे सब लोग बहुत डरते हैं पर वे अंदर से दयालु और मर्मशील हैं। वे अपने सभी नौकरों की अच्छी तरह देखभाल करते हैं। उनकी दया से हम गरीब हो कर भी अच्छा-भला खाते-पीते हैं। शीलू और गुन्टू भी उनकी कृपा से ही स्कूल जा पा रहे हैं।
रामारावजी की पत्नी का स्वर्गवास हुए तीन बरस हो गए थे। उनके तीन बेटे हैं जो कि जागीरदारी ठाटबाट के साथ बड़े हुए हैं। उनमें बड़े घर के बिगड़े हुए बेटों के सभी लक्षण हैं। सबसे बड़ा, महेश, 25-26 साल का होगा। उसे हैदराबाद के कॉलेज से निकाला जा चुका था और वह कुरनूल में दादागिरी करता था। उसका एक गिरोह था जिसमें हमेशा 4-5 लड़के होते थे जो एक खुली जीप में आते-जाते। उनका काम मटरगश्ती करना, लड़कियों को छेड़ना और अपने बाप के नाम पर ऐश करना होता था। महेश शराब और सिगरेट का शौक़ीन था और लड़कियाँ उसकी कमजोरी थीं। दिखने में महेश कोई खास नहीं था बल्कि उसके गिरोह के लगभग सभी लड़के उससे ज़्यादा सुन्दर, सुडौल, लंबे और मर्दाना थे पर बाप के पैसे और रुतबे के चलते, रौब महेश का ही चलता था।
महेश से छोटा, सुरेश, कोई 22 साल का होगा। वह पढ़ाकू किस्म का था और कई मायनों में महेश से बिल्कुल अलग। वह कुरनूल के ही एक कॉलेज में पढ़ता था और घर पर उसका ज़्यादातर समय इन्टरनेट और किताबों में बीतता था। उसका व्यक्तित्व और उसके शौक़ ऐसे थे कि वह अक्सर अकेला ही रहता था।
सुरेश से छोटा भाई, नितेश था जो 19 साल का होगा। वह एक चंचल, हंसमुख और शरारती स्वभाव का लड़का था। उसने अभी अभी जूनियर कॉलेज खत्म किया था और वह विदेश में आगे की पढ़ाई करना चाहता था। इस मामले में रामारावजी उससे सहमत थे। उन्हें अपने सबसे छोटे बेटे से बहुत उम्मीदें थीं... उन्हें भरोसा हो गया था कि महेश उनके हाथ से निकल गया है और सुरेश का स्वभाव ऐसा नहीं था कि वह उनकी उम्मीदों पर खरा उतरे क्योंकि वह राजनीति या व्यापार दोनों के लायक नहीं था।
तीनों भाई दिखने, पहनावे, व्यवहार और अपने तौर-तरीकों में एक दूसरे से बिल्कुल अलग अलग थे।
मुझे तीनों में से नितेश सबसे अच्छा लगता था। एक वही था जो अगर मुझे देखता तो मुस्कुराता था। कभी कभी वह मुझसे बात भी करता था। कोई खास नहीं... "तुम कैसी हो?... घर में सब कैसे हैं?.... कोई तकलीफ़ तो नहीं?" इत्यादि पूछता रहता था।
नितेश मुझे बहुत अच्छा लगता था, सारे जवाब मैं सर झुकाए नीची नज़रों से ही देती थी। मेरे जवाब एक दो शब्द के ही होते थे... ज़्यादा कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी। इतने बड़े घर के लड़के से बात करने में हिचकिचाहट भी होती और लज्जा भी आती थी। कभी कभी, अपनी उँगलियों में अपनी चुन्नी के किनारे को मरोड़ती हुई अपनी नज़रें ऊपर करने की कोशिश करती थी... पर नितेश से नज़रें मिलते ही झट से अपने पैरों की तरफ नीचे देखने लगती थी।
नितेश अक्सर हँस दिया करता पर एक बार उसने अपनी ऊँगली से मेरी ठोड़ी ऊपर करते हुए पूछा,"नीचे क्यों देख रही हो? मेरी शकल देखने लायक नहीं है क्या?"
उसके स्पर्श से मैं सकपका गई और मेरी आवाज़ गुम हो गई। कुछ बोल नहीं पाई। उसका हाथ मेरी ठोड़ी से हटा नहीं था। मेरा चेहरा ऊपर पर नज़रें नीचे गड़ी थीं।
"अब मैं दिखने में इतना बुरा भी नहीं हूँ !" कहते हुए उसने मेरी ठोड़ी और ऊपर कर दी और एक छोटा कदम आगे बढ़ाते हुए मेरे और नजदीक आ गया।
मेरी झुकी हुई आँखें बिल्कुल बंद हो गईं। मेरी सांस तेज़ हो गई और मेरे माथे पर पसीने की छोटी छोटी बूँदें छलक पड़ीं।
नितेश ने मेरी ठोड़ी छोड़ कर अपने दोनों हाथ मेरे हाथों पर रख दिए जो चुन्नी के किनारे से गुत्थम-गुत्था कर रहे थे...
"इस बेचारे दुपट्टे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? इसे क्यों मरोड़ रही हो?" कहते हुए नितेश ने मेरे हाथ अपने हाथों में ज़ोर से पकड़ लिए।
किसी लड़के ने मेरा हाथ इस तरह कभी नहीं पकड़ा था। मुझे यकायक रोमांच, भय, कुतूहल और लज्जा का एक साथ आभास हुआ। समझ में नहीं आया कि क्या करूँ।
एक तरफ नितेश की नज़दीकी और उसका स्पर्श मुझे अपार आनन्द का अनुभव करा रहा था वहीं हमारे बीच का अपार फर्क मुझे यह खुशी महसूस करने से रोक रहा था। मैं आँखें मूंदे खड़ी रही और धीरे से अपने हाथ नितेश के हाथों से छुड़ाने लगी।
"छोड़ो जी... कोई देख लेगा..." मेरे मुँह से मरी हुई आवाज़ निकली।
"तुम बहुत भोली हो" नितेश ने मेरा हाथ एक बार दबाकर छोड़ते हुए कहा। नितेश के उस छोटे से हाथ दबाने में एक आश्वासन और सांत्वना का संकेत था जो मुझे बहुत अच्छा लगा।
मैं वहाँ से भाग गई।
रामारावजी के घर में कई नौकर-चाकर थे जिनमें एक ड्राईवर था... कोई 30-32 साल का होगा। उसका वैसे तो नाम गणपत था पर लोग उसे भोंपू के नाम से बुलाते थे क्योंकि गाड़ी चलाते वक्त उसे ज़्यादा होर्न बजाने के लत थी। भोंपू शादीशुदा था पर उसका परिवार उसके गांव ओंगोल में रहता था। उसकी पत्नी ने हाल ही में एक बिटिया को जन्म दिया था। भोंपू एक मस्त, हंसमुख किस्म का आदमी था। वह दसवीं तक पढ़ा हुआ भी था और गाड़ी चलाने के अलावा अपने फ्री समय में बच्चों को ट्यूशन भी दिया करता था।
इस वजह से उसका आना-जाना हमारे घर भी होता था। हफ्ते में दो दिन और हर छुट्टी के दिन वह शीलू और गुंटू को पढ़ाने आता था। उसका चाल-चलन और पढाने का तरीका दोनों को अच्छा लगता था और वे उसके आने का इंतज़ार किया करते थे। जब पिताजी बाहर होते वह हमारे घर के मरदाना काम भी खुशी खुशी कर देता था। भोंपू शादी-शुदा होने के कारण यौन-सुख भोग चुका था और अपनी पत्नी से दूर रहने के कारण उसकी यौन-पिपासा तृप्त नहीं हो पाती थी। ऐसे में उसका मेरी ओर खिंचाव प्राकृतिक था। वह हमेशा मुझे आकर्षित करने में लगा रहता। वह एक तंदुरुस्त, हँसमुख, मेहनती और ईमानदार इंसान था। अगर वह विवाहित ना होता तो मुझे भी उसमें दिलचस्पी होती।
एक दिन जब वह बच्चों को पढ़ा रहा था और मैं खाना बना रही थी, मेरा पांव रसोई में फिसल गया और मैं धड़ाम से गिर गई। गिरने की आवाज़ और मेरी चीख सुनकर वह भागा भागा आया। मेरे दाहिने पैर में मोच आ गई थी और मैंने अपना दाहिना घुटना पकड़ा हुआ था।
उसने मेरा पैर सीधा किया और घुटने की तरफ देख कर पूछा,"क्या हुआ?"
मैंने उसे बताया मेरा पांव फिसलते वक्त मुड़ गया था और मैं घुटने के बल गिरी थी। उसने बिना हिचकिचाहट के मेरा घाघरा घुटने तक ऊपर किया और मेरा हाथ घुटने से हटाने के बाद उसका मुआयना करने लगा। उसने जिस तरह मेरी टांगें घुटने तक नंगी की मुझे बहुत शर्म आई और मैंने झट से अपना घाघरा नीचे खींचने की कोशिश की।
ऐसा करने में मेरे मोच खाए पैर में ज़ोर का दर्द हुआ और मैं नीचे लेट गई। इतने में शीलू और गुंटू भी वहाँ आ गए और एक साथ बोले "ओह... दीदी... क्या हुआ?"
"यहाँ पानी किसने गिराया था? मैं फिसल गई..." मैंने करहाते हुए कहा।
"सॉरी दीदी... पानी की बोतल भरते वक्त गिर गया होगा..." गुंटू ने कान पकड़ते हुए कहा।
"कोई बात नहीं... तुम दोनों जाकर पढ़ाई करो... मैं ठीक हूँ !"
जब वे नहीं गए तो मैंने ज़ोर देकर कहा,"चलो... जाओ..." और वे चले गए।
अब भोंपू ने अपने हाथ मेरी गर्दन और घुटनों के नीचे डाल कर मुझे उठा लिया और खड़ा हो गया। मैंने अपनी दाहिनी टांग सीधी रखी और दोनों हाथ उसकी गरदन में डाल दिए। उसने मुझे अपने बदन के साथ सटा लिया और छोटे छोटे कदमों से मेरे कमरे की ओर चलने लगा।
उसे कोई जल्दी नहीं थी... शायद वह मेरे शरीर के स्पर्श और मेरी मजबूर हालत का पूरा फ़ायदा उठाना चाहता होगा। उसकी पकड़ इस तरह थी कि मेरा एक स्तन उसके सीने में गड़ रहा था। उसकी नज़रें मेरी आँखों में घूर रही थीं... मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं।
उसने मुझे ठीक से उठाने के बहाने एक बार अपने पास चिपका लिया और फिर अपना एक हाथ मेरी पीठ पर और एक मेरे नितम्भ पर लगा दिया। ना जाने क्यों मुझे उसका स्पर्श अच्छा लग रहा था... पहली बार किसी मर्द ने मुझे इस तरह उठाया था। मेरे बदन में एक सुरसुराहट सी होने लगी थी...
कमरे में पहुँच कर उसने धीरे से झुक कर मुझे बिस्तर पर डालने की कोशिश की। वह चाहता तो मुझे सीधा बिस्तर पर डाल सकता था पर उसने मुझे अपने बदन से सटाते हुए नीचे सरकाना शुरू किया जिससे मेरी पीठ उसके पेट से रगड़ती हुई नीचे जाने लगी और एक क्षण भर के लिए उसके उठे हुए लिंग का आभास कराते हुए मेरी पीठ बिस्तर पर लग गई।
अब मैं बिस्तर पर थी और उसके दोनों हाथ मेरे नीचे। उसने धीरे धीरे अपने हाथ सरकाते हुए बाहर खींचे... उसकी आँखों में एक नशा सा था और उसकी सांस मानो रुक रुक कर आ रही थी। वह मुझे एक अजीब सी नज़र से देख रहा था... उसका ध्यान मेरे वक्ष, पेट और जाँघों पर केंद्रित था।
मैं चोरी चोरी नज़रों से उसे देख रही थी।
उसने सीधे होकर एक बार अपने हाथों को ऊपर और पीछे की ओर खींच कर अंगड़ाई सी ली जिससे उसका पेट और जांघें आगे को मेरी तरफ झुक गईं। उसके तने हुए लिंग का उभार उसकी पैन्ट में साफ़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर इस अवस्था में रुक कर उसने हम्म्म्म की आवाज़ निकालते हुए अपने आप को सीधा किया। फिर उसने शीलू को बुलाकर थोड़ा गरम पानी और तौलिया लाने को कहा। जब तक शीलू ये लेकर आती उसने गुंटू और शीलू के गणित अभ्यास के लिए कुछ सवाल लिख दिए जिन्हें करने में वे काफी समय तक व्यस्त रहेंगे। तब तक शीलू गरम पानी और तौलिया ले आई।
"शीलू और गुंटू ! मैंने तुम दोनों के लिए कुछ सवाल लिख दिए हैं... तुम दोनों उनको करो... तब तक मैं तुम्हारी दीदी की चोट के बारे में कुछ करता हूँ... ठीक है?"
"ठीक है।" कहकर शीलू ने मेरी ओर देखा और पूछा,"अब कैसा लग रहा है?"
मैंने कहा,"पहले से ठीक है.... तुम जाओ और पढ़ाई करो..." मैंने अधीरता से कहा।
पता नहीं क्यों मेरा मन भोंपू के साथ समय बिताने का हो रहा था... मन में एक उत्सुकता थी कि अब वह क्या करेगा...
"कुछ काम हो तो मुझे बुला लेना..." कहती हुई शीलू भाग गई।
भोंपू ने एक कुर्सी खींच कर बिस्तर के पास की और उस पर गरम पानी और तौलिया रख दिया... फिर खुद मेरे पैरों की तरफ आकर बैठ गया और मेरा दाहिना पांव अपनी गोद में रख लिया। फिर उसने तौलिए को गरम पानी में भिगो कर उसी में निचोड़ा और गरम तौलिए से मेरे पांव को सेंक देने लगा। गरम सेंक से मुझे आराम आने लगा। थोड़ा सेंकने के बाद उसने मेरे पांव को हल्के हल्के गोल-गोल घुमाना शुरू किया। मेरा दर्द पहले से कम था पर फिर भी था। मेरे "ऊऊंह आह" करने पर उसने पांव फिर सी अपनी जांघ पर रख दिया और गरम तौलिए से दुबारा सेंकने लगा। ठोड़ी देर में पानी ठंडा हो गया तो उसने शीलू को बुला कर और गरम पानी लाने को कहा।
जब तक वह लाती भोंपू ने मेरे दाहिने पैर और पिंडली को सहलाना और दबाना शुरू कर दिया। वह प्यार से हाथ चला रहा था... सो मुझे भी मज़ा आ रहा था।
जब शीलू गरम पानी देकर चली गई तो भोंपू ने मेरे दाहिने पैर को अपनी जाँघों के बीच में बिस्तर पर टिका दिया। उसकी दाईं टांग मेरी टांगों के बीच, घुटनों से मुड़ी हुई बिस्तर पर टिकी थी और उसकी बाईं टांग बिस्तर से नीचे ओर लटक रही थी। अब उसने तौलिए को गीला करके मेरे दाहिने घुटने की सेंक करना शुरू किया। ऐसा करने के लिए जब वह आगे को झुकता तो मेरे दाहिने पांव का तलवा उसकी जाँघों के बीच उसकी तरफ खिसक जाता। एक दो बार इस तरह करने से मेरा तलवा हल्के से उसके लिंग के इलाके को छूने लगा। उसके छूते ही जहाँ मेरे शरीर में एक डंक सा लगा मैंने देखा कि भोंपू के शरीर से एक गहरी सांस छूटी और उसने एक क्षण के लिए मेरे घुटने की मालिश रोक दी। अब उसने अपने कूल्हों को हिला-डुला कर अपने आप को थोड़ा आगे कर लिया। अब जब वह आगे झुकता मेरा तलवा उसके यौनांग पर अच्छी तरह ऐसे लग रहा था मानो ड्राईवर ब्रेक पेडल दबा रहा हो। मेरे तलवे को कपड़ों में छुपे उसके लिंग का उभार महसूस हो रहा था।
kramashah.........................
जवानी की दहलीज compleet
Re: जवानी की दहलीज
जवानी की दहलीज-2
मुझे मज़ा आ रहा था पर मैं भोली बनी रही। मैंने अपनी कलाई अपनी आँखों पर रख ली और आँखें मूंदकर अपने चेहरे को छुपाने का प्रयत्न करने लगी।
"एक मिनट सरोज !" कहकर उसने अपना हाथ मेरे घुटने से हटाया और वह पीछे हुआ। उसने पीछे खिसक कर मेरे तलवे का संपर्क अपने भुजंग से अलग किया। उफ़... मुझे लगा शायद ये जा रहा है... मैंने चोरी निगाह से देखा तो भोंपू अपना हाथ अपनी पैन्ट में डाल कर अपने लिंग को व्यवस्थित कर रहा था... उसने लिंग का मुँह नीचे की तरफ से उठाकर ऊपर की तरफ कर दिया। मुझे लगा उसे ऐसा करने से आराम मिला। फिर वह पहले की तरह आगे खिसक कर बैठ गया और मेरे तलवे का संपर्क दोबारा अपने अर्ध-उत्तेजित लिंग से करा दिया। मुझे जो डर था कि वह चला जायेगा अब दूर हुआ और मैंने अंदर ही अंदर एक ठंडी सांस ली।
अब भोंपू ने मेरे घुटने की तरफ से ध्यान हटा लिया था और उसकी उँगलियाँ घुटने के पीछे वाले मुलायम हिस्से और घुटने से थोड़ा ऊपर और नीचे चलने लगी थीं। मुझे भी अपनी मोच और घुटने का दर्द काफूर होता लगने लगा था। उसकी मरदानी उँगलियों का अपनी टांग पर नाच मुझे मज़ा देने लगा था। मेरे मन में एक अजीब सी अनुभूति उत्पन्न हो रही थी। मुझे लगा मुझे सुसू आ रहा है और मैंने उसको रोकने के यत्न में अपनी जांघें जकड़ लीं।
तभी अनायास मुझे महसूस हुआ कि भोंपू का दूसरा हाथ मेरी दूसरी टांग पर भी चलने लगा है। उसके दोनों हाथ मेरी पिंडलियों को मल रहे थे... कभी हथेलियों से गूंदते तो कभी उँगलियों से गुदगुदाते। मेरे शरीर में कंपकंपी सी होने लगी।
उधर भोंपू ने अपने कोल्हू को थोड़ा और आगे कर दिया था जिससे मेरे तलवे का उसके लिंग पर दबाव और बढ़ गया था। अब मैं अपने तलवे के स्पर्श से उसके लिंग के आकार का भली-भांति अहसास कर सकती थी। मुझे लगा वह पहले से बड़ा हो गया है और उसका रुख मेरे तलवे की तरफ हो गया था। मेरे तलवे के कोमल हिस्से पर उसके लिंग का सिरा बेशर्मी से लग रहा था।
अचानक भोंपू ने अपने कूल्हों को थोड़ा और आगे की ओर खिसकाया और अपने दोनों हाथ मेरे घुटनों के ऊपर... निचली जाँघों तक चलाने लगा। मेरा तलवा अब उसके लिंग को मसलने लगा था। मेरा दायाँ पांव अपने आप दायें-बाएं और ऊपर-नीचे होकर उसके लिंग को अच्छी तरह से से छूने लगा था। मेरे तन-बदन में चिंगारियाँ फूटने लगीं। मुझे लगा अब मैं सुसू रोक नहीं पाऊँगी। उधर भोंपू की उँगलियाँ अब बहुत बहादुर हो गई थीं और अब वे अंदरूनी जाँघों तक जाने लगी थीं। मेरी साँसें तेज़ होने लगी... मुझे ज़ोरों का सुसू आ रहा था पर मैं अभी जाना नहीं चाहती थी... बहुत मज़ा आ रहा था।
भोंपू अब बेहिचक आगे-पीछे होते हुए अपने हाथ मेरी जाँघों पर चला रहा था... मेरा पैर उसके लिंग का नाप-तोल कर रहा था। अचानक भोंपू थोड़ा ज्यादा ही आगे की ओर हुआ और उसके दोनों अंगूठे हल्के से मेरी योनि द्वार से पल भर के लिए छू गए। मुझे ऐसा करंट जीवन में पहले कभी नहीं लगा था... मैं उचक गई और मुझे लगा मेरा सुसू निकल गया है। मैंने अपनी टांगें हिला कर भोंपू के हाथों को वहाँ से हटाया और अपने दोनों हाथ अपनी योनि पर रख दिए। मेरी योनि गीली हो गई थी। मुझे ग्लानि हुई कि मेरा सुसू निकल गया है पर फिर अहसास हुआ कि ये सुसू नहीं मेरा योनि-रस था। मुझे बहुत लज्जा आ रही थी।
उधर भोंपू ने अपने हाथ मेरे जाँघों से हटा लिए थे और अब उसने अपने हाथ अपने कूल्हों के बराबर बिस्तर पर रख लिए और उनके सहारे अपने कूल्हों को हल्का हल्का आगे-पीछे कर रहा था। वह मेरे दायें तलवे से अपने लिंग को मसलने की कोशिश कर रहा था। मुझे मज़े से ज़्यादा लज्जा आ रही थी सो मैंने अपना पांव अपनी तरफ थोड़ा खींच लिया।
पर भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया.
भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया...
भोंपू के अचानक भागने की आवाज़ सुनकर शीलू और गुंटू दोनों कमरे में आ गए,"क्या हुआ दीदी? सब ठीक तो है?"
"हाँ... हाँ सब ठीक है।"
"मास्टरजी कहाँ गए?"
"बाथरूम गए हैं... तुमने सवाल कर लिए?"
"नहीं... एक-दो बचे हैं !"
"तो उनको कर लो... फिर खाना खाएँगे... ठीक है?"
"ठीक है।" कहकर वे दोनों चले गए।
भोंपू तभी गुसलखाने से वापस आया। उसका चेहरा चमक रहा था और उसकी चाल में स्फूर्ति थी। उसने मेरी तरफ प्यार से देखा पर मैं उससे नज़र नहीं मिला सकी।
"अब दर्द कैसा है?" उसने मासूमियत से पूछा।
"पहले से कम है...अब मैं ठीक हूँ।"
"नहीं... तुम ठीक नहीं हो... अभी तुम्हें ठीक होने में 2-4 दिन लगेंगे... पर चिंता मत करो... मैं हूँ ना !!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा।
"नहीं... अब बहुत आराम है... मैं कर लूंगी..." मैंने मायूस हो कर कहा।
"तो क्या तुम्हें मेरा इलाज पसंद नहीं आया?" भोंपू ने नाटकीय अंदाज़ में पूछा।
"ऐसा नहीं है... तुम्हें तकलीफ़ होगी... और फिर चोट इतनी भी नहीं है।"
"तकलीफ़ कैसी... मुझे तो मज़ा आया... बल्कि यूँ कहो कि बहुत मज़ा आया... तुम्हें नहीं आया?" उसने मेरी आँखों में आँखें डालते हुए मेरा मन टटोला।
मैंने सर हिला कर हामी भर दी। भोंपू की बांछें खिल गईं और वह मुझे प्यार भरे अंदाज़ से देखने लगा। तभी दोनों बच्चे आ गए और भोंपू की तरफ देखकर कहने लगे,"हमने सब सवाल कर लिए... आप देख लो।"
"शाबाश ! चलो देखते हैं तुम दोनों ने कैसा किया है... और हाँ, तुम्हारी दीदी की हालत ठीक नहीं है... उसको ज़्यादा काम मत करने देना... मैं बाहर से खाने का इंतजाम कर दूंगा... अपनी दीदी को आराम करने देना... ठीक है?" कहता हुआ वह दोनों को ले जाने लगा।जाते जाते उसने मुड़कर मेरी तरफ देखा और एक हल्की सी आँख मार दी।
"ठीक है।" दोनों ने एक साथ कहा।
"तो क्या हमें चिकन खाने को मिलेगा?" गुंटू ने अपना नटखटपना दिखाया।
"क्यों नहीं !" भोंपू ने जोश के साथ कहा और शीलू की तरफ देखकर पूछा,"और हमारी शीलू रानी को क्या पसंद है?"
"रस मलाई !" शीलू ने कंधे उचका कर और मुँह में पानी भरते हुए कहा।
"ठीक है... बटर-चिकन और रस-मलाई... और तुम क्या खाओगी?" उसने मुझसे पूछा।
"जो तुम ठीक समझो !"
"तो ठीक है... अगले 2-4 दिन... जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती तुम आराम करोगी... खाना मैं लाऊँगा और तुम्हारे लिए पट्टी भी !"
"जी !"
"अगर तुमने अपना ध्यान नहीं रखा तो हमेशा के लिए लंगड़ी हो जाओगी... समझी?" उसने मेरी तरफ आँख मारकर कहा।
"जी... समझी।" मैंने मुस्कुरा कर कहा।
"ठीक है... तो अब मैं चलता हूँ... कल मिलते हैं..." कहकर भोंपू चला गया।
मेरे तन-मन में नई कशिश सी चल रही थी, रह रह कर मुझे भोंपू के हाथ और उँगलियों का स्पर्श याद आ रहा था... कितना सुखमय अहसास था। मैंने अपने दाहिने तलवे पर हाथ फिराया और सोचा वह कितना खुश-किस्मत है... ना जाने क्यों मेरा हाथ उस तलवे से ईर्ष्या कर रहा था। मेरे तन-मन में उत्सुकता जन्म ले रही थी जो भोंपू के जिस्म को देखना, छूना और महसूस करना चाहती थी। ऐसी कामना मेरे मन में पहले कभी नहीं हुई थी।
मैंने देखा मेरे पांव और घुटने का दर्द पहले से बहुत कम है और मैं चल-फिर सकती हूँ। पर फिर मुझे भोंपू की चेतावनी याद आ गई... मैं हमेशा के लिए लंगड़ी नहीं रहना चाहती थी। फिर सोचा... उसने मुझे आँख क्यों मारी थी? क्या वह मुझे कोई संकेत देना चाहता था? क्या उसे भी पता है मेरी चोट इतनी बड़ी नहीं है? ...क्या वह इस चोट के बहाने मेरे साथ समय बिताना चाहता है? सारी रात मैं इसी उधेड़-बुन में रही... ठीक से नींद भी नहीं आई।
मुझे मज़ा आ रहा था पर मैं भोली बनी रही। मैंने अपनी कलाई अपनी आँखों पर रख ली और आँखें मूंदकर अपने चेहरे को छुपाने का प्रयत्न करने लगी।
"एक मिनट सरोज !" कहकर उसने अपना हाथ मेरे घुटने से हटाया और वह पीछे हुआ। उसने पीछे खिसक कर मेरे तलवे का संपर्क अपने भुजंग से अलग किया। उफ़... मुझे लगा शायद ये जा रहा है... मैंने चोरी निगाह से देखा तो भोंपू अपना हाथ अपनी पैन्ट में डाल कर अपने लिंग को व्यवस्थित कर रहा था... उसने लिंग का मुँह नीचे की तरफ से उठाकर ऊपर की तरफ कर दिया। मुझे लगा उसे ऐसा करने से आराम मिला। फिर वह पहले की तरह आगे खिसक कर बैठ गया और मेरे तलवे का संपर्क दोबारा अपने अर्ध-उत्तेजित लिंग से करा दिया। मुझे जो डर था कि वह चला जायेगा अब दूर हुआ और मैंने अंदर ही अंदर एक ठंडी सांस ली।
अब भोंपू ने मेरे घुटने की तरफ से ध्यान हटा लिया था और उसकी उँगलियाँ घुटने के पीछे वाले मुलायम हिस्से और घुटने से थोड़ा ऊपर और नीचे चलने लगी थीं। मुझे भी अपनी मोच और घुटने का दर्द काफूर होता लगने लगा था। उसकी मरदानी उँगलियों का अपनी टांग पर नाच मुझे मज़ा देने लगा था। मेरे मन में एक अजीब सी अनुभूति उत्पन्न हो रही थी। मुझे लगा मुझे सुसू आ रहा है और मैंने उसको रोकने के यत्न में अपनी जांघें जकड़ लीं।
तभी अनायास मुझे महसूस हुआ कि भोंपू का दूसरा हाथ मेरी दूसरी टांग पर भी चलने लगा है। उसके दोनों हाथ मेरी पिंडलियों को मल रहे थे... कभी हथेलियों से गूंदते तो कभी उँगलियों से गुदगुदाते। मेरे शरीर में कंपकंपी सी होने लगी।
उधर भोंपू ने अपने कोल्हू को थोड़ा और आगे कर दिया था जिससे मेरे तलवे का उसके लिंग पर दबाव और बढ़ गया था। अब मैं अपने तलवे के स्पर्श से उसके लिंग के आकार का भली-भांति अहसास कर सकती थी। मुझे लगा वह पहले से बड़ा हो गया है और उसका रुख मेरे तलवे की तरफ हो गया था। मेरे तलवे के कोमल हिस्से पर उसके लिंग का सिरा बेशर्मी से लग रहा था।
अचानक भोंपू ने अपने कूल्हों को थोड़ा और आगे की ओर खिसकाया और अपने दोनों हाथ मेरे घुटनों के ऊपर... निचली जाँघों तक चलाने लगा। मेरा तलवा अब उसके लिंग को मसलने लगा था। मेरा दायाँ पांव अपने आप दायें-बाएं और ऊपर-नीचे होकर उसके लिंग को अच्छी तरह से से छूने लगा था। मेरे तन-बदन में चिंगारियाँ फूटने लगीं। मुझे लगा अब मैं सुसू रोक नहीं पाऊँगी। उधर भोंपू की उँगलियाँ अब बहुत बहादुर हो गई थीं और अब वे अंदरूनी जाँघों तक जाने लगी थीं। मेरी साँसें तेज़ होने लगी... मुझे ज़ोरों का सुसू आ रहा था पर मैं अभी जाना नहीं चाहती थी... बहुत मज़ा आ रहा था।
भोंपू अब बेहिचक आगे-पीछे होते हुए अपने हाथ मेरी जाँघों पर चला रहा था... मेरा पैर उसके लिंग का नाप-तोल कर रहा था। अचानक भोंपू थोड़ा ज्यादा ही आगे की ओर हुआ और उसके दोनों अंगूठे हल्के से मेरी योनि द्वार से पल भर के लिए छू गए। मुझे ऐसा करंट जीवन में पहले कभी नहीं लगा था... मैं उचक गई और मुझे लगा मेरा सुसू निकल गया है। मैंने अपनी टांगें हिला कर भोंपू के हाथों को वहाँ से हटाया और अपने दोनों हाथ अपनी योनि पर रख दिए। मेरी योनि गीली हो गई थी। मुझे ग्लानि हुई कि मेरा सुसू निकल गया है पर फिर अहसास हुआ कि ये सुसू नहीं मेरा योनि-रस था। मुझे बहुत लज्जा आ रही थी।
उधर भोंपू ने अपने हाथ मेरे जाँघों से हटा लिए थे और अब उसने अपने हाथ अपने कूल्हों के बराबर बिस्तर पर रख लिए और उनके सहारे अपने कूल्हों को हल्का हल्का आगे-पीछे कर रहा था। वह मेरे दायें तलवे से अपने लिंग को मसलने की कोशिश कर रहा था। मुझे मज़े से ज़्यादा लज्जा आ रही थी सो मैंने अपना पांव अपनी तरफ थोड़ा खींच लिया।
पर भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया.
भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया...
भोंपू के अचानक भागने की आवाज़ सुनकर शीलू और गुंटू दोनों कमरे में आ गए,"क्या हुआ दीदी? सब ठीक तो है?"
"हाँ... हाँ सब ठीक है।"
"मास्टरजी कहाँ गए?"
"बाथरूम गए हैं... तुमने सवाल कर लिए?"
"नहीं... एक-दो बचे हैं !"
"तो उनको कर लो... फिर खाना खाएँगे... ठीक है?"
"ठीक है।" कहकर वे दोनों चले गए।
भोंपू तभी गुसलखाने से वापस आया। उसका चेहरा चमक रहा था और उसकी चाल में स्फूर्ति थी। उसने मेरी तरफ प्यार से देखा पर मैं उससे नज़र नहीं मिला सकी।
"अब दर्द कैसा है?" उसने मासूमियत से पूछा।
"पहले से कम है...अब मैं ठीक हूँ।"
"नहीं... तुम ठीक नहीं हो... अभी तुम्हें ठीक होने में 2-4 दिन लगेंगे... पर चिंता मत करो... मैं हूँ ना !!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा।
"नहीं... अब बहुत आराम है... मैं कर लूंगी..." मैंने मायूस हो कर कहा।
"तो क्या तुम्हें मेरा इलाज पसंद नहीं आया?" भोंपू ने नाटकीय अंदाज़ में पूछा।
"ऐसा नहीं है... तुम्हें तकलीफ़ होगी... और फिर चोट इतनी भी नहीं है।"
"तकलीफ़ कैसी... मुझे तो मज़ा आया... बल्कि यूँ कहो कि बहुत मज़ा आया... तुम्हें नहीं आया?" उसने मेरी आँखों में आँखें डालते हुए मेरा मन टटोला।
मैंने सर हिला कर हामी भर दी। भोंपू की बांछें खिल गईं और वह मुझे प्यार भरे अंदाज़ से देखने लगा। तभी दोनों बच्चे आ गए और भोंपू की तरफ देखकर कहने लगे,"हमने सब सवाल कर लिए... आप देख लो।"
"शाबाश ! चलो देखते हैं तुम दोनों ने कैसा किया है... और हाँ, तुम्हारी दीदी की हालत ठीक नहीं है... उसको ज़्यादा काम मत करने देना... मैं बाहर से खाने का इंतजाम कर दूंगा... अपनी दीदी को आराम करने देना... ठीक है?" कहता हुआ वह दोनों को ले जाने लगा।जाते जाते उसने मुड़कर मेरी तरफ देखा और एक हल्की सी आँख मार दी।
"ठीक है।" दोनों ने एक साथ कहा।
"तो क्या हमें चिकन खाने को मिलेगा?" गुंटू ने अपना नटखटपना दिखाया।
"क्यों नहीं !" भोंपू ने जोश के साथ कहा और शीलू की तरफ देखकर पूछा,"और हमारी शीलू रानी को क्या पसंद है?"
"रस मलाई !" शीलू ने कंधे उचका कर और मुँह में पानी भरते हुए कहा।
"ठीक है... बटर-चिकन और रस-मलाई... और तुम क्या खाओगी?" उसने मुझसे पूछा।
"जो तुम ठीक समझो !"
"तो ठीक है... अगले 2-4 दिन... जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती तुम आराम करोगी... खाना मैं लाऊँगा और तुम्हारे लिए पट्टी भी !"
"जी !"
"अगर तुमने अपना ध्यान नहीं रखा तो हमेशा के लिए लंगड़ी हो जाओगी... समझी?" उसने मेरी तरफ आँख मारकर कहा।
"जी... समझी।" मैंने मुस्कुरा कर कहा।
"ठीक है... तो अब मैं चलता हूँ... कल मिलते हैं..." कहकर भोंपू चला गया।
मेरे तन-मन में नई कशिश सी चल रही थी, रह रह कर मुझे भोंपू के हाथ और उँगलियों का स्पर्श याद आ रहा था... कितना सुखमय अहसास था। मैंने अपने दाहिने तलवे पर हाथ फिराया और सोचा वह कितना खुश-किस्मत है... ना जाने क्यों मेरा हाथ उस तलवे से ईर्ष्या कर रहा था। मेरे तन-मन में उत्सुकता जन्म ले रही थी जो भोंपू के जिस्म को देखना, छूना और महसूस करना चाहती थी। ऐसी कामना मेरे मन में पहले कभी नहीं हुई थी।
मैंने देखा मेरे पांव और घुटने का दर्द पहले से बहुत कम है और मैं चल-फिर सकती हूँ। पर फिर मुझे भोंपू की चेतावनी याद आ गई... मैं हमेशा के लिए लंगड़ी नहीं रहना चाहती थी। फिर सोचा... उसने मुझे आँख क्यों मारी थी? क्या वह मुझे कोई संकेत देना चाहता था? क्या उसे भी पता है मेरी चोट इतनी बड़ी नहीं है? ...क्या वह इस चोट के बहाने मेरे साथ समय बिताना चाहता है? सारी रात मैं इसी उधेड़-बुन में रही... ठीक से नींद भी नहीं आई।
Re: जवानी की दहलीज
अगले दिन सुबह सुबह ही भोंपू मसाला-दोसा लेकर आ गया। शीलू ने कॉफी बनाईं और हमने नाश्ता किया। नाश्ते के बाद भोंपू काम पर जाने लगा तो शीलू और गुंटू को रास्ते में स्कूल छोड़ने के लिए अपने साथ ले गया। जाते वक्त उसने मेरी तरफ आँखों से कुछ इशारा करने की कोशिश की पर मुझे समझ नहीं आया।
मैंने उसकी तरफ प्रश्नात्मक तरीके से देखा तो उसने छुपते छुपते अपने एक हाथ को दो बार खोल कर 'दस' का इशारा किया और मुस्कुरा कर दोनों बच्चों को लेकर चला गया।
मैं असमंजस में थी... दस का क्या मतलब था?
अभी आठ बज रहे थे। क्या वह दस बजे आएगा? उस समय तो घर पर कोई नहीं होता... उसके आने के बारे में सोचकर मेरी बांछें खिलने लगीं... मेरे अंग अंग में गुदगुदी होने लगी... सब कुछ अच्छा लगने लगा... मैं गुनगुनाती हुई घर साफ़ करने लगी... रह रह कर मेरी निगाह घड़ी की तरफ जाती... मुई बहुत धीरे चल रही थी। जैसे तैसे साढ़े नौ बजे और मैं गुसलखाने में गई... मैंने अपने आप को देर तक रगड़ कर नहलाया, अच्छे से चोटी बनाईं, साफ़ कपड़े पहने और फिर भोंपू का इंतज़ार करने लगी।
हमारे यहाँ जब लड़की वयस्क हो जाती है, यानि जब उसको मासिक-धर्म होने लगता है, तबसे लेकर जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती उसकी पोशाक तय होती है। वह चोली, घाघरा और चोली के ऊपर एक दुपट्टे-नुमा कपड़ा लेती है जिससे वह अपना वक्ष ढक कर रखती है। इस पोशाक को हाफ-साड़ी भी कहते हैं। इसे पहनने वाली लड़कियाँ शादी के लिए तैयार मानी जाती हैं। शादी के बाद लड़कियाँ केवल साड़ी ही पहनती हैं। जो छोटी लड़कियाँ होती हैं, यानि जिनका मासिक-धर्मं शुरू नहीं हुआ होता, वे फ्रॉक या बच्चों लायक कपड़े पहनती हैं। मैंने प्रथानुसार हाफ-साड़ी पहनी थी।
दस बज गए पर वह नहीं आया। मेरा मन उतावला हो रहा था। ये क्यों नहीं आ रहा? कहीं उसका मतलब कुछ और तो नहीं था? ओह... आज नौ तारीख है... कहीं वह दस तारीख के लिए इशारा तो नहीं कर रहा था? मैं भी कितनी बेवकूफ हूँ... दस बज कर बीस मिनट हो रहे थे और मुझे भरोसा हो गया था कि वह अब नहीं आयेगा।
मैं उठ कर कपड़े बदलने ही वाली थी कि किसी ने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया।
मैं चौंक गई... पर फिर संभल कर... जल्दी से दरवाज़ा खोलने गई। सामने भोंपू खड़ा था... उसके चेहरे पर मुस्कराहट, दोनों हाथों में ढेर सारे पैकेट... और मुँह में एक गुलाब का फूल था।
उसे देखकर मैं खुश हो गई और जल्दी से आगे बढ़कर उसके हाथों से पैकेट लेने लगी... उसने अपने एक हाथ का सामान मुझे पकड़ा दिया और अंदर आ गया। अंदर आते ही उसने अपने मुँह में पकड़ा हुआ गुलाब निकाल कर मुझे झुक कर पेश किया। किसी ने पहली बार मुझे इस तरह का तोहफा दिया था। मैंने खुशी से उसे ले लिया।
"माफ करना ! मुझे देर हो गई... दस बजे आना था पर फिर मैंने सोचा दोपहर का खाना लेकर एक बार ही चलूँ... अब हम बच्चों के वापस आने तक फ्री हैं !"
"अच्छा किया... एक बार तो मैं डर ही गई थी।"
"किस लिए?"
"कहीं तुम नहीं आये तो?" मैंने शरमाते हुए कहा।
"ऐसा कैसे हो सकता है?... साब हैदराबाद गए हुए हैं और बाबा लोग भी बाहर हैं... मैं बिलकुल फ्री हू॥"
"चाय पियोगे?"
"और नहीं तो क्या...? और देखो... थोड़ा गरम पानी अलग से इलाज के लिए भी चाहिये।"
मैं चाय बनाने लगी और भोंपू बाजार से लाये सामान को मेज़ पर जमाने लगा।
"ठीक है... चीनी?"
"वैसे तो मैं दो चम्मच लेता हूँ पर तुम बना रही हो तो एक चम्मच भी काफी होगी " भोंपू आशिकाना हो रहा था।
"चलो हटो... अब बताओ भी?" मैंने उसकी तरफ नाक सिकोड़ कर पूछा।
"अरे बाबा... एक चम्मच बहुत है... और तुम भी एक से ज़्यादा मत लेना... पहले ही बहुत मीठी हो..."
"तुम्हें कैसे मालूम?"
"क्या?"
"कि मैं बहुत मीठी हूँ?"
"ओह... मैंने तो बिना चखे ही बता दिया... लो चख के बताता हूँ..." कहते हुए उसने मुझे पीछे से आकर जकड़ लिया और मेरे मुँह को अपनी तरफ घुमा कर मेरे होंटों पर एक पप्पी जड़ दी।
"अरे... तुम तो बहुत ज्यादा मीठी हो... तुम्हें तो एक भी चम्मच चीनी नहीं लेनी चाहिए..."
"और तुम्हें कम से कम दस चम्मच लेनी चाहिए !" मैंने अपने आप को उसके चंगुल से छुडाते हुए बोला... "एकदम कड़वे हो !!"
"फिर तो हम पक्का एक दूसरे के लिए ही बने हैं... तुम मेरी कड़वाहट कम करो, मैं तुम्हारी मिठास कम करता हूँ... दोनों ठीक हो जायेंगे!!"
"बड़े चालाक हो..."
"और तुम चाय बहुत धीरे धीरे बनाती हो..." उसने मुझे फिर से पीछे से पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा।
"देखो चाय गिर जायेगी... तुम जल जाओगे।" मैंने उसे दूर करते हुए चाय कप में डालनी शुरू की।
"क्या यार.. एक तो तुम इतनी धीरे धीरे चाय बनाती हो और फिर इतनी गरम बनाती हो... पूरा समय तो इसे पीने में ही निकल जायेगा !!!"
"क्यों?... तुम्हें कहीं जाना है?" मैंने चिंतित होकर पूछा।
"अरे नहीं... तुम्हारा 'इलाज' जो करना है... उसके लिए समय तो चाहिए ना !!" कहते हुए उसने चाय तश्तरी में डाली और सूड़प करके पी गया।
"अरे... ये क्या?... धीरे धीरे पियो... मुंह जल जायेगा..."
"चाय तो रोज ही पीते हैं... तुम्हारा इलाज रोज-रोज थोड़े ही होता है... तुम भी जल्दी पियो !" उसने गुसलखाने जाते जाते हुक्म दिया।
मैंने जैसे तैसे चाय खत्म की तो भोंपू आ गया।
"चलो चलो... डॉक्टर साब आ गए... इलाज का समय हो गया..." भोंपू ने नाटकीय ढंग से कहा।
मैं उठने लगी तो मेरे कन्धों पर हाथ रखकर मुझे वापस बिठा दिया।
"अरे... तुम्हारे पांव और घुटने में चोट है... इन पर ज़ोर मत डालो... मैं हूँ ना !"
और उसने मुझे अपनी बाहों में उठा लिया... मैंने अपनी बाहें उसकी गर्दन में डाल दी... उसने मुझे अपने शरीर के साथ चिपका लिया और मेरे कमरे की तरफ चलने लगा।
"बड़ी खुशबू आ रही है... क्या बात है?"
"मैं तो नहाई हूँ... तुम नहाये नहीं क्या?"
"नहीं... सोचा था तुम नहला दोगी !"
"धत्त... बड़े शैतान हो !"
"नहीं... बच्चा हूँ !"
"हरकतें तो बच्चों वाली नहीं हैं !!"
"तुम्हें क्या पता... ये हरकतें बच्चों के लिए ही करते हैं..."
"मतलब?... उफ़... तुमसे तो बात भी नहीं कर सकते...!!" मैंने उसका मतलब समझते हुए कहा।
उसने मुझे धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया।
"कल कैसा लगा?"
"तुम बहुत शैतान हो !"
"शैतानी में ही मज़ा आता है ! मुझे तो बहुत आया... तुम्हें?"
"चुप रहो !"
"मतलब बोलूँ नहीं... सिर्फ काम करूँ?"
"गंदे !" मैंने मुंह सिकोड़ते हुए कहा और बिस्तर पर बैठ गई।
"ठीक है... मैं गरम पानी लेकर आता हूँ।"
भोंपू रसोई से गरम पानी ले आया। तौलिया मैंने बिस्तर पर पहले ही रखा था। उसने मुझे बिस्तर के एक किनारे पर पीठ के बल लिटा दिया और मेरे पांव की तरफ बिस्तर पर बैठ गया। उसके दोनों पांव ज़मीं पर टिके थे और उसने मेरे दोनों पांव अपनी जाँघों पर रख लिए। अब उसने गरम तौलिए से मेरे दोनों पांव को पिंडलियों तक साफ़ किया। फिर उसने अपनी जेब से दो ट्यूब निकालीं और उनको खोलने लगा। मैंने अपने आपको अपनी कोहनियों पर ऊँचा करके देखना चाहा तो उसने मुझे धक्का देकर वापस धकेल दिया।
"डरो मत... ऐसा वैसा कुछ नहीं करूँगा... देख लो एक विक्स है और दूसरी क्रीम... और अपना दुपट्टा मुझे दो।"
मैंने अपना दुपट्टा उसे पकड़ा दिया।
उसने मेरे चोटिल घुटने पर गरम तौलिया रख दिया और मेरे बाएं पांव पर विक्स और क्रीम का मिश्रण लगाने लगा। पांव के ऊपर, तलवे पर और पांव की उँगलियों के बीच में उसने अच्छी तरह मिश्रण लगा दिया। मुझे विक्स की तरावट महसूस होने लगी। मेरे जीवन की यह पहली मालिश थी। बरसों से थके मेरे पैरों में मानो हर जगह पीड़ा थी... उसकी उँगलियाँ और अंगूठे निपुणता से मेरे पांव के मर्मशील बिंदुओं पर दबाव डाल कर उनका दर्द हर रहे थे। कुछ ही मिनटों में मेरा बायाँ पांव हल्का और स्फूर्तिला महसूस होने लगा।कुछ देर और मालिश करने के बाद उस पांव को मेरे दुपट्टे से बाँध दिया और अब दाहिने पांव पर वही क्रिया करने लगा।
"इसको बांधा क्यों है?" मैंने पूछा।
"विक्स लगी है ना बुद्धू... ठण्ड लग जायेगी... फिर तेरे पांव को जुकाम हो जायेगा !!" उसने हँसते हुए कहा।
"ओह... तुम तो मालिश करने में तजुर्बेकार हो !"
"सिर्फ मालिश में ही नहीं... तुम देखती जाओ... !"
"गंदे !!"
"मुझे पता है लड़कियों को गंदे मर्द ही पसंद आते हैं... हैं ना?"
"तुम्हें लड़कियों के बारे बहुत पता है?"
"मेरे साथ रहोगी तो तुम्हें भी मर्दों के बारे में सब आ जायेगा !!"
"छी... गंदे !!"
kramashah.........................
मैंने उसकी तरफ प्रश्नात्मक तरीके से देखा तो उसने छुपते छुपते अपने एक हाथ को दो बार खोल कर 'दस' का इशारा किया और मुस्कुरा कर दोनों बच्चों को लेकर चला गया।
मैं असमंजस में थी... दस का क्या मतलब था?
अभी आठ बज रहे थे। क्या वह दस बजे आएगा? उस समय तो घर पर कोई नहीं होता... उसके आने के बारे में सोचकर मेरी बांछें खिलने लगीं... मेरे अंग अंग में गुदगुदी होने लगी... सब कुछ अच्छा लगने लगा... मैं गुनगुनाती हुई घर साफ़ करने लगी... रह रह कर मेरी निगाह घड़ी की तरफ जाती... मुई बहुत धीरे चल रही थी। जैसे तैसे साढ़े नौ बजे और मैं गुसलखाने में गई... मैंने अपने आप को देर तक रगड़ कर नहलाया, अच्छे से चोटी बनाईं, साफ़ कपड़े पहने और फिर भोंपू का इंतज़ार करने लगी।
हमारे यहाँ जब लड़की वयस्क हो जाती है, यानि जब उसको मासिक-धर्म होने लगता है, तबसे लेकर जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती उसकी पोशाक तय होती है। वह चोली, घाघरा और चोली के ऊपर एक दुपट्टे-नुमा कपड़ा लेती है जिससे वह अपना वक्ष ढक कर रखती है। इस पोशाक को हाफ-साड़ी भी कहते हैं। इसे पहनने वाली लड़कियाँ शादी के लिए तैयार मानी जाती हैं। शादी के बाद लड़कियाँ केवल साड़ी ही पहनती हैं। जो छोटी लड़कियाँ होती हैं, यानि जिनका मासिक-धर्मं शुरू नहीं हुआ होता, वे फ्रॉक या बच्चों लायक कपड़े पहनती हैं। मैंने प्रथानुसार हाफ-साड़ी पहनी थी।
दस बज गए पर वह नहीं आया। मेरा मन उतावला हो रहा था। ये क्यों नहीं आ रहा? कहीं उसका मतलब कुछ और तो नहीं था? ओह... आज नौ तारीख है... कहीं वह दस तारीख के लिए इशारा तो नहीं कर रहा था? मैं भी कितनी बेवकूफ हूँ... दस बज कर बीस मिनट हो रहे थे और मुझे भरोसा हो गया था कि वह अब नहीं आयेगा।
मैं उठ कर कपड़े बदलने ही वाली थी कि किसी ने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया।
मैं चौंक गई... पर फिर संभल कर... जल्दी से दरवाज़ा खोलने गई। सामने भोंपू खड़ा था... उसके चेहरे पर मुस्कराहट, दोनों हाथों में ढेर सारे पैकेट... और मुँह में एक गुलाब का फूल था।
उसे देखकर मैं खुश हो गई और जल्दी से आगे बढ़कर उसके हाथों से पैकेट लेने लगी... उसने अपने एक हाथ का सामान मुझे पकड़ा दिया और अंदर आ गया। अंदर आते ही उसने अपने मुँह में पकड़ा हुआ गुलाब निकाल कर मुझे झुक कर पेश किया। किसी ने पहली बार मुझे इस तरह का तोहफा दिया था। मैंने खुशी से उसे ले लिया।
"माफ करना ! मुझे देर हो गई... दस बजे आना था पर फिर मैंने सोचा दोपहर का खाना लेकर एक बार ही चलूँ... अब हम बच्चों के वापस आने तक फ्री हैं !"
"अच्छा किया... एक बार तो मैं डर ही गई थी।"
"किस लिए?"
"कहीं तुम नहीं आये तो?" मैंने शरमाते हुए कहा।
"ऐसा कैसे हो सकता है?... साब हैदराबाद गए हुए हैं और बाबा लोग भी बाहर हैं... मैं बिलकुल फ्री हू॥"
"चाय पियोगे?"
"और नहीं तो क्या...? और देखो... थोड़ा गरम पानी अलग से इलाज के लिए भी चाहिये।"
मैं चाय बनाने लगी और भोंपू बाजार से लाये सामान को मेज़ पर जमाने लगा।
"ठीक है... चीनी?"
"वैसे तो मैं दो चम्मच लेता हूँ पर तुम बना रही हो तो एक चम्मच भी काफी होगी " भोंपू आशिकाना हो रहा था।
"चलो हटो... अब बताओ भी?" मैंने उसकी तरफ नाक सिकोड़ कर पूछा।
"अरे बाबा... एक चम्मच बहुत है... और तुम भी एक से ज़्यादा मत लेना... पहले ही बहुत मीठी हो..."
"तुम्हें कैसे मालूम?"
"क्या?"
"कि मैं बहुत मीठी हूँ?"
"ओह... मैंने तो बिना चखे ही बता दिया... लो चख के बताता हूँ..." कहते हुए उसने मुझे पीछे से आकर जकड़ लिया और मेरे मुँह को अपनी तरफ घुमा कर मेरे होंटों पर एक पप्पी जड़ दी।
"अरे... तुम तो बहुत ज्यादा मीठी हो... तुम्हें तो एक भी चम्मच चीनी नहीं लेनी चाहिए..."
"और तुम्हें कम से कम दस चम्मच लेनी चाहिए !" मैंने अपने आप को उसके चंगुल से छुडाते हुए बोला... "एकदम कड़वे हो !!"
"फिर तो हम पक्का एक दूसरे के लिए ही बने हैं... तुम मेरी कड़वाहट कम करो, मैं तुम्हारी मिठास कम करता हूँ... दोनों ठीक हो जायेंगे!!"
"बड़े चालाक हो..."
"और तुम चाय बहुत धीरे धीरे बनाती हो..." उसने मुझे फिर से पीछे से पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा।
"देखो चाय गिर जायेगी... तुम जल जाओगे।" मैंने उसे दूर करते हुए चाय कप में डालनी शुरू की।
"क्या यार.. एक तो तुम इतनी धीरे धीरे चाय बनाती हो और फिर इतनी गरम बनाती हो... पूरा समय तो इसे पीने में ही निकल जायेगा !!!"
"क्यों?... तुम्हें कहीं जाना है?" मैंने चिंतित होकर पूछा।
"अरे नहीं... तुम्हारा 'इलाज' जो करना है... उसके लिए समय तो चाहिए ना !!" कहते हुए उसने चाय तश्तरी में डाली और सूड़प करके पी गया।
"अरे... ये क्या?... धीरे धीरे पियो... मुंह जल जायेगा..."
"चाय तो रोज ही पीते हैं... तुम्हारा इलाज रोज-रोज थोड़े ही होता है... तुम भी जल्दी पियो !" उसने गुसलखाने जाते जाते हुक्म दिया।
मैंने जैसे तैसे चाय खत्म की तो भोंपू आ गया।
"चलो चलो... डॉक्टर साब आ गए... इलाज का समय हो गया..." भोंपू ने नाटकीय ढंग से कहा।
मैं उठने लगी तो मेरे कन्धों पर हाथ रखकर मुझे वापस बिठा दिया।
"अरे... तुम्हारे पांव और घुटने में चोट है... इन पर ज़ोर मत डालो... मैं हूँ ना !"
और उसने मुझे अपनी बाहों में उठा लिया... मैंने अपनी बाहें उसकी गर्दन में डाल दी... उसने मुझे अपने शरीर के साथ चिपका लिया और मेरे कमरे की तरफ चलने लगा।
"बड़ी खुशबू आ रही है... क्या बात है?"
"मैं तो नहाई हूँ... तुम नहाये नहीं क्या?"
"नहीं... सोचा था तुम नहला दोगी !"
"धत्त... बड़े शैतान हो !"
"नहीं... बच्चा हूँ !"
"हरकतें तो बच्चों वाली नहीं हैं !!"
"तुम्हें क्या पता... ये हरकतें बच्चों के लिए ही करते हैं..."
"मतलब?... उफ़... तुमसे तो बात भी नहीं कर सकते...!!" मैंने उसका मतलब समझते हुए कहा।
उसने मुझे धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया।
"कल कैसा लगा?"
"तुम बहुत शैतान हो !"
"शैतानी में ही मज़ा आता है ! मुझे तो बहुत आया... तुम्हें?"
"चुप रहो !"
"मतलब बोलूँ नहीं... सिर्फ काम करूँ?"
"गंदे !" मैंने मुंह सिकोड़ते हुए कहा और बिस्तर पर बैठ गई।
"ठीक है... मैं गरम पानी लेकर आता हूँ।"
भोंपू रसोई से गरम पानी ले आया। तौलिया मैंने बिस्तर पर पहले ही रखा था। उसने मुझे बिस्तर के एक किनारे पर पीठ के बल लिटा दिया और मेरे पांव की तरफ बिस्तर पर बैठ गया। उसके दोनों पांव ज़मीं पर टिके थे और उसने मेरे दोनों पांव अपनी जाँघों पर रख लिए। अब उसने गरम तौलिए से मेरे दोनों पांव को पिंडलियों तक साफ़ किया। फिर उसने अपनी जेब से दो ट्यूब निकालीं और उनको खोलने लगा। मैंने अपने आपको अपनी कोहनियों पर ऊँचा करके देखना चाहा तो उसने मुझे धक्का देकर वापस धकेल दिया।
"डरो मत... ऐसा वैसा कुछ नहीं करूँगा... देख लो एक विक्स है और दूसरी क्रीम... और अपना दुपट्टा मुझे दो।"
मैंने अपना दुपट्टा उसे पकड़ा दिया।
उसने मेरे चोटिल घुटने पर गरम तौलिया रख दिया और मेरे बाएं पांव पर विक्स और क्रीम का मिश्रण लगाने लगा। पांव के ऊपर, तलवे पर और पांव की उँगलियों के बीच में उसने अच्छी तरह मिश्रण लगा दिया। मुझे विक्स की तरावट महसूस होने लगी। मेरे जीवन की यह पहली मालिश थी। बरसों से थके मेरे पैरों में मानो हर जगह पीड़ा थी... उसकी उँगलियाँ और अंगूठे निपुणता से मेरे पांव के मर्मशील बिंदुओं पर दबाव डाल कर उनका दर्द हर रहे थे। कुछ ही मिनटों में मेरा बायाँ पांव हल्का और स्फूर्तिला महसूस होने लगा।कुछ देर और मालिश करने के बाद उस पांव को मेरे दुपट्टे से बाँध दिया और अब दाहिने पांव पर वही क्रिया करने लगा।
"इसको बांधा क्यों है?" मैंने पूछा।
"विक्स लगी है ना बुद्धू... ठण्ड लग जायेगी... फिर तेरे पांव को जुकाम हो जायेगा !!" उसने हँसते हुए कहा।
"ओह... तुम तो मालिश करने में तजुर्बेकार हो !"
"सिर्फ मालिश में ही नहीं... तुम देखती जाओ... !"
"गंदे !!"
"मुझे पता है लड़कियों को गंदे मर्द ही पसंद आते हैं... हैं ना?"
"तुम्हें लड़कियों के बारे बहुत पता है?"
"मेरे साथ रहोगी तो तुम्हें भी मर्दों के बारे में सब आ जायेगा !!"
"छी... गंदे !!"
kramashah.........................