जवानी की दहलीज compleet
Posted: 09 Nov 2014 14:43
जवानी की दहलीज-1
बात उन दिनों की है जब इस देश में टीवी नहीं होता था ! इन्टरनेट और मोबाइल तो और भी बाद में आये थे। मैं उन दिनों जवानी की दहलीज पर क़दम रख रही थी। मेरा नाम सरोजा है पर घर में मुझे सब भोली ही बुलाते हैं। मैं 19 साल की सामान्य लड़की हूँ, गेहुँवा रंग, कद 5'3", वज़न 50 किलो, लंबे काले बाल, जो आधी लम्बाई के बाद घुंघराले थे, काली आँखें, गोल नाक-नक्श, लंबी गर्दन, मध्यम आकार के स्तन और उभरे हुए नितम्भ।
हम कुरनूल (आंध्र प्रदेश) के पास एक कसबे में रहते थे। मेरे पिताजी वहाँ के जागीरदार और सांसद श्री रामाराव के फार्म-हाउस में बागवानी का काम करते थे। मेरी एक बहन शीलू है जो मुझसे चार साल छोटी है और उस पर भी यौवन का साया सा पड़ने लगा है। लड़कपन के कारण उसे उसके पनपते स्तनों का आभास नहीं हुआ है पर आस-पड़ोस के लड़के व मर्द उसे दिलचस्पी से देखने लगे हैं। पिछले साल उसकी पहली माहवारी ने उसे उतना ही चौंकाया और डराया था जितना हर अबोध लड़की को होता है।
मैंने ही उसे समझाया और संभाला था, उसके घर से बाहर जाने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थीइ जैसा कि गांव की लड़कियों के साथ प्राय: होता है। मेरा एक भाई गुन्टू है जो कि मुझसे 12 साल छोटा है और जो मुझे माँ समान समझता है। वह बहुत छोटा था जब हमारी माँ एक सड़क हादसे में गुज़र गई थी और उसे एक तरह से मैंने ही पाला है।
हम एक गरीब परिवार के हैं और एक ऐसे समाज से सम्बंधित हैं जहाँ लड़कियों का कोई महत्त्व या औचित्य नहीं होता। जब माँ थी तो वह पहले खाना पिताजी और गुन्टू को देती थी और बाद में शीलू और मेरा नंबर आता था। वह खुद सबसे बाद में बचा-कुचा खाती थी। घर में कभी कुछ अच्छा बनता था या मिठाई आती थी तो वह हमें कम और पिताजी और गुन्टू को ज़्यादा मिलती थी। हालांकि गुन्टू मुझसे बहुत छोटा था फिर भी हमें उसका सारा काम करना पड़ता था। अगर वह हमारी शिकायत कर देता तो माँ हमारी एक ना सुनती। हमारे समाज में लड़कों को सगा और लड़कियों को पराई माना जाता है इसीलिए लड़कियों पर कम से कम खर्चा और ध्यान लगाया जाता है।
माँ के जाने के बाद मैंने भी गुन्टू को उसी प्यार और लाड़ से पाला था।
पिताजी हमारे मालिक के खेतों और बगीचों के अलावा उनके बाकी काम भी करने लगे थे। इस कारण वे अक्सर व्यस्त रहते थे और कई बार कुरनूल से बाहर भी जाया करते थे। मुझे घर के काम करने की आदत सी हो गई थी। वैसे भी हम लड़कियों को घर के काम करने की शुरुआत बहुत जल्दी हो जाया करती है और मैं तो अब 19 की होने को आई हूँ। अगर मेरी माँ जिंदा होती तो मेरी शादी कब की हो गई होती...
पर अब शीलू और गुन्टू की देखभाल के लिए मेरा घर पर होना ज़रूरी है इसलिए पिताजी मेरी शादी की जल्दी में नहीं हैं। हम रामारावजी के फार्म-हाउस की चारदीवारी के अंदर एक छोटे से घर में रहते हैं। हमारे घर के सब तरफ बहुत से फलों के पेड़ लगे हुए हैं जो कि पिताजी ने कई साल पहले लगाये थे। पास ही एक कुंआ भी है। रामारावजी ने कुछ गाय-भैंस भी रखी हुई हैं जिनका बाड़ा हमारे घर से कुछ दूर पर है।
रामारावजी एक कड़क किस्म के इंसान हैं जिनसे सब लोग बहुत डरते हैं पर वे अंदर से दयालु और मर्मशील हैं। वे अपने सभी नौकरों की अच्छी तरह देखभाल करते हैं। उनकी दया से हम गरीब हो कर भी अच्छा-भला खाते-पीते हैं। शीलू और गुन्टू भी उनकी कृपा से ही स्कूल जा पा रहे हैं।
रामारावजी की पत्नी का स्वर्गवास हुए तीन बरस हो गए थे। उनके तीन बेटे हैं जो कि जागीरदारी ठाटबाट के साथ बड़े हुए हैं। उनमें बड़े घर के बिगड़े हुए बेटों के सभी लक्षण हैं। सबसे बड़ा, महेश, 25-26 साल का होगा। उसे हैदराबाद के कॉलेज से निकाला जा चुका था और वह कुरनूल में दादागिरी करता था। उसका एक गिरोह था जिसमें हमेशा 4-5 लड़के होते थे जो एक खुली जीप में आते-जाते। उनका काम मटरगश्ती करना, लड़कियों को छेड़ना और अपने बाप के नाम पर ऐश करना होता था। महेश शराब और सिगरेट का शौक़ीन था और लड़कियाँ उसकी कमजोरी थीं। दिखने में महेश कोई खास नहीं था बल्कि उसके गिरोह के लगभग सभी लड़के उससे ज़्यादा सुन्दर, सुडौल, लंबे और मर्दाना थे पर बाप के पैसे और रुतबे के चलते, रौब महेश का ही चलता था।
महेश से छोटा, सुरेश, कोई 22 साल का होगा। वह पढ़ाकू किस्म का था और कई मायनों में महेश से बिल्कुल अलग। वह कुरनूल के ही एक कॉलेज में पढ़ता था और घर पर उसका ज़्यादातर समय इन्टरनेट और किताबों में बीतता था। उसका व्यक्तित्व और उसके शौक़ ऐसे थे कि वह अक्सर अकेला ही रहता था।
सुरेश से छोटा भाई, नितेश था जो 19 साल का होगा। वह एक चंचल, हंसमुख और शरारती स्वभाव का लड़का था। उसने अभी अभी जूनियर कॉलेज खत्म किया था और वह विदेश में आगे की पढ़ाई करना चाहता था। इस मामले में रामारावजी उससे सहमत थे। उन्हें अपने सबसे छोटे बेटे से बहुत उम्मीदें थीं... उन्हें भरोसा हो गया था कि महेश उनके हाथ से निकल गया है और सुरेश का स्वभाव ऐसा नहीं था कि वह उनकी उम्मीदों पर खरा उतरे क्योंकि वह राजनीति या व्यापार दोनों के लायक नहीं था।
तीनों भाई दिखने, पहनावे, व्यवहार और अपने तौर-तरीकों में एक दूसरे से बिल्कुल अलग अलग थे।
मुझे तीनों में से नितेश सबसे अच्छा लगता था। एक वही था जो अगर मुझे देखता तो मुस्कुराता था। कभी कभी वह मुझसे बात भी करता था। कोई खास नहीं... "तुम कैसी हो?... घर में सब कैसे हैं?.... कोई तकलीफ़ तो नहीं?" इत्यादि पूछता रहता था।
नितेश मुझे बहुत अच्छा लगता था, सारे जवाब मैं सर झुकाए नीची नज़रों से ही देती थी। मेरे जवाब एक दो शब्द के ही होते थे... ज़्यादा कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी। इतने बड़े घर के लड़के से बात करने में हिचकिचाहट भी होती और लज्जा भी आती थी। कभी कभी, अपनी उँगलियों में अपनी चुन्नी के किनारे को मरोड़ती हुई अपनी नज़रें ऊपर करने की कोशिश करती थी... पर नितेश से नज़रें मिलते ही झट से अपने पैरों की तरफ नीचे देखने लगती थी।
नितेश अक्सर हँस दिया करता पर एक बार उसने अपनी ऊँगली से मेरी ठोड़ी ऊपर करते हुए पूछा,"नीचे क्यों देख रही हो? मेरी शकल देखने लायक नहीं है क्या?"
उसके स्पर्श से मैं सकपका गई और मेरी आवाज़ गुम हो गई। कुछ बोल नहीं पाई। उसका हाथ मेरी ठोड़ी से हटा नहीं था। मेरा चेहरा ऊपर पर नज़रें नीचे गड़ी थीं।
"अब मैं दिखने में इतना बुरा भी नहीं हूँ !" कहते हुए उसने मेरी ठोड़ी और ऊपर कर दी और एक छोटा कदम आगे बढ़ाते हुए मेरे और नजदीक आ गया।
मेरी झुकी हुई आँखें बिल्कुल बंद हो गईं। मेरी सांस तेज़ हो गई और मेरे माथे पर पसीने की छोटी छोटी बूँदें छलक पड़ीं।
नितेश ने मेरी ठोड़ी छोड़ कर अपने दोनों हाथ मेरे हाथों पर रख दिए जो चुन्नी के किनारे से गुत्थम-गुत्था कर रहे थे...
"इस बेचारे दुपट्टे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? इसे क्यों मरोड़ रही हो?" कहते हुए नितेश ने मेरे हाथ अपने हाथों में ज़ोर से पकड़ लिए।
किसी लड़के ने मेरा हाथ इस तरह कभी नहीं पकड़ा था। मुझे यकायक रोमांच, भय, कुतूहल और लज्जा का एक साथ आभास हुआ। समझ में नहीं आया कि क्या करूँ।
एक तरफ नितेश की नज़दीकी और उसका स्पर्श मुझे अपार आनन्द का अनुभव करा रहा था वहीं हमारे बीच का अपार फर्क मुझे यह खुशी महसूस करने से रोक रहा था। मैं आँखें मूंदे खड़ी रही और धीरे से अपने हाथ नितेश के हाथों से छुड़ाने लगी।
"छोड़ो जी... कोई देख लेगा..." मेरे मुँह से मरी हुई आवाज़ निकली।
"तुम बहुत भोली हो" नितेश ने मेरा हाथ एक बार दबाकर छोड़ते हुए कहा। नितेश के उस छोटे से हाथ दबाने में एक आश्वासन और सांत्वना का संकेत था जो मुझे बहुत अच्छा लगा।
मैं वहाँ से भाग गई।
रामारावजी के घर में कई नौकर-चाकर थे जिनमें एक ड्राईवर था... कोई 30-32 साल का होगा। उसका वैसे तो नाम गणपत था पर लोग उसे भोंपू के नाम से बुलाते थे क्योंकि गाड़ी चलाते वक्त उसे ज़्यादा होर्न बजाने के लत थी। भोंपू शादीशुदा था पर उसका परिवार उसके गांव ओंगोल में रहता था। उसकी पत्नी ने हाल ही में एक बिटिया को जन्म दिया था। भोंपू एक मस्त, हंसमुख किस्म का आदमी था। वह दसवीं तक पढ़ा हुआ भी था और गाड़ी चलाने के अलावा अपने फ्री समय में बच्चों को ट्यूशन भी दिया करता था।
इस वजह से उसका आना-जाना हमारे घर भी होता था। हफ्ते में दो दिन और हर छुट्टी के दिन वह शीलू और गुंटू को पढ़ाने आता था। उसका चाल-चलन और पढाने का तरीका दोनों को अच्छा लगता था और वे उसके आने का इंतज़ार किया करते थे। जब पिताजी बाहर होते वह हमारे घर के मरदाना काम भी खुशी खुशी कर देता था। भोंपू शादी-शुदा होने के कारण यौन-सुख भोग चुका था और अपनी पत्नी से दूर रहने के कारण उसकी यौन-पिपासा तृप्त नहीं हो पाती थी। ऐसे में उसका मेरी ओर खिंचाव प्राकृतिक था। वह हमेशा मुझे आकर्षित करने में लगा रहता। वह एक तंदुरुस्त, हँसमुख, मेहनती और ईमानदार इंसान था। अगर वह विवाहित ना होता तो मुझे भी उसमें दिलचस्पी होती।
एक दिन जब वह बच्चों को पढ़ा रहा था और मैं खाना बना रही थी, मेरा पांव रसोई में फिसल गया और मैं धड़ाम से गिर गई। गिरने की आवाज़ और मेरी चीख सुनकर वह भागा भागा आया। मेरे दाहिने पैर में मोच आ गई थी और मैंने अपना दाहिना घुटना पकड़ा हुआ था।
उसने मेरा पैर सीधा किया और घुटने की तरफ देख कर पूछा,"क्या हुआ?"
मैंने उसे बताया मेरा पांव फिसलते वक्त मुड़ गया था और मैं घुटने के बल गिरी थी। उसने बिना हिचकिचाहट के मेरा घाघरा घुटने तक ऊपर किया और मेरा हाथ घुटने से हटाने के बाद उसका मुआयना करने लगा। उसने जिस तरह मेरी टांगें घुटने तक नंगी की मुझे बहुत शर्म आई और मैंने झट से अपना घाघरा नीचे खींचने की कोशिश की।
ऐसा करने में मेरे मोच खाए पैर में ज़ोर का दर्द हुआ और मैं नीचे लेट गई। इतने में शीलू और गुंटू भी वहाँ आ गए और एक साथ बोले "ओह... दीदी... क्या हुआ?"
"यहाँ पानी किसने गिराया था? मैं फिसल गई..." मैंने करहाते हुए कहा।
"सॉरी दीदी... पानी की बोतल भरते वक्त गिर गया होगा..." गुंटू ने कान पकड़ते हुए कहा।
"कोई बात नहीं... तुम दोनों जाकर पढ़ाई करो... मैं ठीक हूँ !"
जब वे नहीं गए तो मैंने ज़ोर देकर कहा,"चलो... जाओ..." और वे चले गए।
अब भोंपू ने अपने हाथ मेरी गर्दन और घुटनों के नीचे डाल कर मुझे उठा लिया और खड़ा हो गया। मैंने अपनी दाहिनी टांग सीधी रखी और दोनों हाथ उसकी गरदन में डाल दिए। उसने मुझे अपने बदन के साथ सटा लिया और छोटे छोटे कदमों से मेरे कमरे की ओर चलने लगा।
उसे कोई जल्दी नहीं थी... शायद वह मेरे शरीर के स्पर्श और मेरी मजबूर हालत का पूरा फ़ायदा उठाना चाहता होगा। उसकी पकड़ इस तरह थी कि मेरा एक स्तन उसके सीने में गड़ रहा था। उसकी नज़रें मेरी आँखों में घूर रही थीं... मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं।
उसने मुझे ठीक से उठाने के बहाने एक बार अपने पास चिपका लिया और फिर अपना एक हाथ मेरी पीठ पर और एक मेरे नितम्भ पर लगा दिया। ना जाने क्यों मुझे उसका स्पर्श अच्छा लग रहा था... पहली बार किसी मर्द ने मुझे इस तरह उठाया था। मेरे बदन में एक सुरसुराहट सी होने लगी थी...
कमरे में पहुँच कर उसने धीरे से झुक कर मुझे बिस्तर पर डालने की कोशिश की। वह चाहता तो मुझे सीधा बिस्तर पर डाल सकता था पर उसने मुझे अपने बदन से सटाते हुए नीचे सरकाना शुरू किया जिससे मेरी पीठ उसके पेट से रगड़ती हुई नीचे जाने लगी और एक क्षण भर के लिए उसके उठे हुए लिंग का आभास कराते हुए मेरी पीठ बिस्तर पर लग गई।
अब मैं बिस्तर पर थी और उसके दोनों हाथ मेरे नीचे। उसने धीरे धीरे अपने हाथ सरकाते हुए बाहर खींचे... उसकी आँखों में एक नशा सा था और उसकी सांस मानो रुक रुक कर आ रही थी। वह मुझे एक अजीब सी नज़र से देख रहा था... उसका ध्यान मेरे वक्ष, पेट और जाँघों पर केंद्रित था।
मैं चोरी चोरी नज़रों से उसे देख रही थी।
उसने सीधे होकर एक बार अपने हाथों को ऊपर और पीछे की ओर खींच कर अंगड़ाई सी ली जिससे उसका पेट और जांघें आगे को मेरी तरफ झुक गईं। उसके तने हुए लिंग का उभार उसकी पैन्ट में साफ़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर इस अवस्था में रुक कर उसने हम्म्म्म की आवाज़ निकालते हुए अपने आप को सीधा किया। फिर उसने शीलू को बुलाकर थोड़ा गरम पानी और तौलिया लाने को कहा। जब तक शीलू ये लेकर आती उसने गुंटू और शीलू के गणित अभ्यास के लिए कुछ सवाल लिख दिए जिन्हें करने में वे काफी समय तक व्यस्त रहेंगे। तब तक शीलू गरम पानी और तौलिया ले आई।
"शीलू और गुंटू ! मैंने तुम दोनों के लिए कुछ सवाल लिख दिए हैं... तुम दोनों उनको करो... तब तक मैं तुम्हारी दीदी की चोट के बारे में कुछ करता हूँ... ठीक है?"
"ठीक है।" कहकर शीलू ने मेरी ओर देखा और पूछा,"अब कैसा लग रहा है?"
मैंने कहा,"पहले से ठीक है.... तुम जाओ और पढ़ाई करो..." मैंने अधीरता से कहा।
पता नहीं क्यों मेरा मन भोंपू के साथ समय बिताने का हो रहा था... मन में एक उत्सुकता थी कि अब वह क्या करेगा...
"कुछ काम हो तो मुझे बुला लेना..." कहती हुई शीलू भाग गई।
भोंपू ने एक कुर्सी खींच कर बिस्तर के पास की और उस पर गरम पानी और तौलिया रख दिया... फिर खुद मेरे पैरों की तरफ आकर बैठ गया और मेरा दाहिना पांव अपनी गोद में रख लिया। फिर उसने तौलिए को गरम पानी में भिगो कर उसी में निचोड़ा और गरम तौलिए से मेरे पांव को सेंक देने लगा। गरम सेंक से मुझे आराम आने लगा। थोड़ा सेंकने के बाद उसने मेरे पांव को हल्के हल्के गोल-गोल घुमाना शुरू किया। मेरा दर्द पहले से कम था पर फिर भी था। मेरे "ऊऊंह आह" करने पर उसने पांव फिर सी अपनी जांघ पर रख दिया और गरम तौलिए से दुबारा सेंकने लगा। ठोड़ी देर में पानी ठंडा हो गया तो उसने शीलू को बुला कर और गरम पानी लाने को कहा।
जब तक वह लाती भोंपू ने मेरे दाहिने पैर और पिंडली को सहलाना और दबाना शुरू कर दिया। वह प्यार से हाथ चला रहा था... सो मुझे भी मज़ा आ रहा था।
जब शीलू गरम पानी देकर चली गई तो भोंपू ने मेरे दाहिने पैर को अपनी जाँघों के बीच में बिस्तर पर टिका दिया। उसकी दाईं टांग मेरी टांगों के बीच, घुटनों से मुड़ी हुई बिस्तर पर टिकी थी और उसकी बाईं टांग बिस्तर से नीचे ओर लटक रही थी। अब उसने तौलिए को गीला करके मेरे दाहिने घुटने की सेंक करना शुरू किया। ऐसा करने के लिए जब वह आगे को झुकता तो मेरे दाहिने पांव का तलवा उसकी जाँघों के बीच उसकी तरफ खिसक जाता। एक दो बार इस तरह करने से मेरा तलवा हल्के से उसके लिंग के इलाके को छूने लगा। उसके छूते ही जहाँ मेरे शरीर में एक डंक सा लगा मैंने देखा कि भोंपू के शरीर से एक गहरी सांस छूटी और उसने एक क्षण के लिए मेरे घुटने की मालिश रोक दी। अब उसने अपने कूल्हों को हिला-डुला कर अपने आप को थोड़ा आगे कर लिया। अब जब वह आगे झुकता मेरा तलवा उसके यौनांग पर अच्छी तरह ऐसे लग रहा था मानो ड्राईवर ब्रेक पेडल दबा रहा हो। मेरे तलवे को कपड़ों में छुपे उसके लिंग का उभार महसूस हो रहा था।
kramashah.........................
बात उन दिनों की है जब इस देश में टीवी नहीं होता था ! इन्टरनेट और मोबाइल तो और भी बाद में आये थे। मैं उन दिनों जवानी की दहलीज पर क़दम रख रही थी। मेरा नाम सरोजा है पर घर में मुझे सब भोली ही बुलाते हैं। मैं 19 साल की सामान्य लड़की हूँ, गेहुँवा रंग, कद 5'3", वज़न 50 किलो, लंबे काले बाल, जो आधी लम्बाई के बाद घुंघराले थे, काली आँखें, गोल नाक-नक्श, लंबी गर्दन, मध्यम आकार के स्तन और उभरे हुए नितम्भ।
हम कुरनूल (आंध्र प्रदेश) के पास एक कसबे में रहते थे। मेरे पिताजी वहाँ के जागीरदार और सांसद श्री रामाराव के फार्म-हाउस में बागवानी का काम करते थे। मेरी एक बहन शीलू है जो मुझसे चार साल छोटी है और उस पर भी यौवन का साया सा पड़ने लगा है। लड़कपन के कारण उसे उसके पनपते स्तनों का आभास नहीं हुआ है पर आस-पड़ोस के लड़के व मर्द उसे दिलचस्पी से देखने लगे हैं। पिछले साल उसकी पहली माहवारी ने उसे उतना ही चौंकाया और डराया था जितना हर अबोध लड़की को होता है।
मैंने ही उसे समझाया और संभाला था, उसके घर से बाहर जाने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थीइ जैसा कि गांव की लड़कियों के साथ प्राय: होता है। मेरा एक भाई गुन्टू है जो कि मुझसे 12 साल छोटा है और जो मुझे माँ समान समझता है। वह बहुत छोटा था जब हमारी माँ एक सड़क हादसे में गुज़र गई थी और उसे एक तरह से मैंने ही पाला है।
हम एक गरीब परिवार के हैं और एक ऐसे समाज से सम्बंधित हैं जहाँ लड़कियों का कोई महत्त्व या औचित्य नहीं होता। जब माँ थी तो वह पहले खाना पिताजी और गुन्टू को देती थी और बाद में शीलू और मेरा नंबर आता था। वह खुद सबसे बाद में बचा-कुचा खाती थी। घर में कभी कुछ अच्छा बनता था या मिठाई आती थी तो वह हमें कम और पिताजी और गुन्टू को ज़्यादा मिलती थी। हालांकि गुन्टू मुझसे बहुत छोटा था फिर भी हमें उसका सारा काम करना पड़ता था। अगर वह हमारी शिकायत कर देता तो माँ हमारी एक ना सुनती। हमारे समाज में लड़कों को सगा और लड़कियों को पराई माना जाता है इसीलिए लड़कियों पर कम से कम खर्चा और ध्यान लगाया जाता है।
माँ के जाने के बाद मैंने भी गुन्टू को उसी प्यार और लाड़ से पाला था।
पिताजी हमारे मालिक के खेतों और बगीचों के अलावा उनके बाकी काम भी करने लगे थे। इस कारण वे अक्सर व्यस्त रहते थे और कई बार कुरनूल से बाहर भी जाया करते थे। मुझे घर के काम करने की आदत सी हो गई थी। वैसे भी हम लड़कियों को घर के काम करने की शुरुआत बहुत जल्दी हो जाया करती है और मैं तो अब 19 की होने को आई हूँ। अगर मेरी माँ जिंदा होती तो मेरी शादी कब की हो गई होती...
पर अब शीलू और गुन्टू की देखभाल के लिए मेरा घर पर होना ज़रूरी है इसलिए पिताजी मेरी शादी की जल्दी में नहीं हैं। हम रामारावजी के फार्म-हाउस की चारदीवारी के अंदर एक छोटे से घर में रहते हैं। हमारे घर के सब तरफ बहुत से फलों के पेड़ लगे हुए हैं जो कि पिताजी ने कई साल पहले लगाये थे। पास ही एक कुंआ भी है। रामारावजी ने कुछ गाय-भैंस भी रखी हुई हैं जिनका बाड़ा हमारे घर से कुछ दूर पर है।
रामारावजी एक कड़क किस्म के इंसान हैं जिनसे सब लोग बहुत डरते हैं पर वे अंदर से दयालु और मर्मशील हैं। वे अपने सभी नौकरों की अच्छी तरह देखभाल करते हैं। उनकी दया से हम गरीब हो कर भी अच्छा-भला खाते-पीते हैं। शीलू और गुन्टू भी उनकी कृपा से ही स्कूल जा पा रहे हैं।
रामारावजी की पत्नी का स्वर्गवास हुए तीन बरस हो गए थे। उनके तीन बेटे हैं जो कि जागीरदारी ठाटबाट के साथ बड़े हुए हैं। उनमें बड़े घर के बिगड़े हुए बेटों के सभी लक्षण हैं। सबसे बड़ा, महेश, 25-26 साल का होगा। उसे हैदराबाद के कॉलेज से निकाला जा चुका था और वह कुरनूल में दादागिरी करता था। उसका एक गिरोह था जिसमें हमेशा 4-5 लड़के होते थे जो एक खुली जीप में आते-जाते। उनका काम मटरगश्ती करना, लड़कियों को छेड़ना और अपने बाप के नाम पर ऐश करना होता था। महेश शराब और सिगरेट का शौक़ीन था और लड़कियाँ उसकी कमजोरी थीं। दिखने में महेश कोई खास नहीं था बल्कि उसके गिरोह के लगभग सभी लड़के उससे ज़्यादा सुन्दर, सुडौल, लंबे और मर्दाना थे पर बाप के पैसे और रुतबे के चलते, रौब महेश का ही चलता था।
महेश से छोटा, सुरेश, कोई 22 साल का होगा। वह पढ़ाकू किस्म का था और कई मायनों में महेश से बिल्कुल अलग। वह कुरनूल के ही एक कॉलेज में पढ़ता था और घर पर उसका ज़्यादातर समय इन्टरनेट और किताबों में बीतता था। उसका व्यक्तित्व और उसके शौक़ ऐसे थे कि वह अक्सर अकेला ही रहता था।
सुरेश से छोटा भाई, नितेश था जो 19 साल का होगा। वह एक चंचल, हंसमुख और शरारती स्वभाव का लड़का था। उसने अभी अभी जूनियर कॉलेज खत्म किया था और वह विदेश में आगे की पढ़ाई करना चाहता था। इस मामले में रामारावजी उससे सहमत थे। उन्हें अपने सबसे छोटे बेटे से बहुत उम्मीदें थीं... उन्हें भरोसा हो गया था कि महेश उनके हाथ से निकल गया है और सुरेश का स्वभाव ऐसा नहीं था कि वह उनकी उम्मीदों पर खरा उतरे क्योंकि वह राजनीति या व्यापार दोनों के लायक नहीं था।
तीनों भाई दिखने, पहनावे, व्यवहार और अपने तौर-तरीकों में एक दूसरे से बिल्कुल अलग अलग थे।
मुझे तीनों में से नितेश सबसे अच्छा लगता था। एक वही था जो अगर मुझे देखता तो मुस्कुराता था। कभी कभी वह मुझसे बात भी करता था। कोई खास नहीं... "तुम कैसी हो?... घर में सब कैसे हैं?.... कोई तकलीफ़ तो नहीं?" इत्यादि पूछता रहता था।
नितेश मुझे बहुत अच्छा लगता था, सारे जवाब मैं सर झुकाए नीची नज़रों से ही देती थी। मेरे जवाब एक दो शब्द के ही होते थे... ज़्यादा कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी। इतने बड़े घर के लड़के से बात करने में हिचकिचाहट भी होती और लज्जा भी आती थी। कभी कभी, अपनी उँगलियों में अपनी चुन्नी के किनारे को मरोड़ती हुई अपनी नज़रें ऊपर करने की कोशिश करती थी... पर नितेश से नज़रें मिलते ही झट से अपने पैरों की तरफ नीचे देखने लगती थी।
नितेश अक्सर हँस दिया करता पर एक बार उसने अपनी ऊँगली से मेरी ठोड़ी ऊपर करते हुए पूछा,"नीचे क्यों देख रही हो? मेरी शकल देखने लायक नहीं है क्या?"
उसके स्पर्श से मैं सकपका गई और मेरी आवाज़ गुम हो गई। कुछ बोल नहीं पाई। उसका हाथ मेरी ठोड़ी से हटा नहीं था। मेरा चेहरा ऊपर पर नज़रें नीचे गड़ी थीं।
"अब मैं दिखने में इतना बुरा भी नहीं हूँ !" कहते हुए उसने मेरी ठोड़ी और ऊपर कर दी और एक छोटा कदम आगे बढ़ाते हुए मेरे और नजदीक आ गया।
मेरी झुकी हुई आँखें बिल्कुल बंद हो गईं। मेरी सांस तेज़ हो गई और मेरे माथे पर पसीने की छोटी छोटी बूँदें छलक पड़ीं।
नितेश ने मेरी ठोड़ी छोड़ कर अपने दोनों हाथ मेरे हाथों पर रख दिए जो चुन्नी के किनारे से गुत्थम-गुत्था कर रहे थे...
"इस बेचारे दुपट्टे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? इसे क्यों मरोड़ रही हो?" कहते हुए नितेश ने मेरे हाथ अपने हाथों में ज़ोर से पकड़ लिए।
किसी लड़के ने मेरा हाथ इस तरह कभी नहीं पकड़ा था। मुझे यकायक रोमांच, भय, कुतूहल और लज्जा का एक साथ आभास हुआ। समझ में नहीं आया कि क्या करूँ।
एक तरफ नितेश की नज़दीकी और उसका स्पर्श मुझे अपार आनन्द का अनुभव करा रहा था वहीं हमारे बीच का अपार फर्क मुझे यह खुशी महसूस करने से रोक रहा था। मैं आँखें मूंदे खड़ी रही और धीरे से अपने हाथ नितेश के हाथों से छुड़ाने लगी।
"छोड़ो जी... कोई देख लेगा..." मेरे मुँह से मरी हुई आवाज़ निकली।
"तुम बहुत भोली हो" नितेश ने मेरा हाथ एक बार दबाकर छोड़ते हुए कहा। नितेश के उस छोटे से हाथ दबाने में एक आश्वासन और सांत्वना का संकेत था जो मुझे बहुत अच्छा लगा।
मैं वहाँ से भाग गई।
रामारावजी के घर में कई नौकर-चाकर थे जिनमें एक ड्राईवर था... कोई 30-32 साल का होगा। उसका वैसे तो नाम गणपत था पर लोग उसे भोंपू के नाम से बुलाते थे क्योंकि गाड़ी चलाते वक्त उसे ज़्यादा होर्न बजाने के लत थी। भोंपू शादीशुदा था पर उसका परिवार उसके गांव ओंगोल में रहता था। उसकी पत्नी ने हाल ही में एक बिटिया को जन्म दिया था। भोंपू एक मस्त, हंसमुख किस्म का आदमी था। वह दसवीं तक पढ़ा हुआ भी था और गाड़ी चलाने के अलावा अपने फ्री समय में बच्चों को ट्यूशन भी दिया करता था।
इस वजह से उसका आना-जाना हमारे घर भी होता था। हफ्ते में दो दिन और हर छुट्टी के दिन वह शीलू और गुंटू को पढ़ाने आता था। उसका चाल-चलन और पढाने का तरीका दोनों को अच्छा लगता था और वे उसके आने का इंतज़ार किया करते थे। जब पिताजी बाहर होते वह हमारे घर के मरदाना काम भी खुशी खुशी कर देता था। भोंपू शादी-शुदा होने के कारण यौन-सुख भोग चुका था और अपनी पत्नी से दूर रहने के कारण उसकी यौन-पिपासा तृप्त नहीं हो पाती थी। ऐसे में उसका मेरी ओर खिंचाव प्राकृतिक था। वह हमेशा मुझे आकर्षित करने में लगा रहता। वह एक तंदुरुस्त, हँसमुख, मेहनती और ईमानदार इंसान था। अगर वह विवाहित ना होता तो मुझे भी उसमें दिलचस्पी होती।
एक दिन जब वह बच्चों को पढ़ा रहा था और मैं खाना बना रही थी, मेरा पांव रसोई में फिसल गया और मैं धड़ाम से गिर गई। गिरने की आवाज़ और मेरी चीख सुनकर वह भागा भागा आया। मेरे दाहिने पैर में मोच आ गई थी और मैंने अपना दाहिना घुटना पकड़ा हुआ था।
उसने मेरा पैर सीधा किया और घुटने की तरफ देख कर पूछा,"क्या हुआ?"
मैंने उसे बताया मेरा पांव फिसलते वक्त मुड़ गया था और मैं घुटने के बल गिरी थी। उसने बिना हिचकिचाहट के मेरा घाघरा घुटने तक ऊपर किया और मेरा हाथ घुटने से हटाने के बाद उसका मुआयना करने लगा। उसने जिस तरह मेरी टांगें घुटने तक नंगी की मुझे बहुत शर्म आई और मैंने झट से अपना घाघरा नीचे खींचने की कोशिश की।
ऐसा करने में मेरे मोच खाए पैर में ज़ोर का दर्द हुआ और मैं नीचे लेट गई। इतने में शीलू और गुंटू भी वहाँ आ गए और एक साथ बोले "ओह... दीदी... क्या हुआ?"
"यहाँ पानी किसने गिराया था? मैं फिसल गई..." मैंने करहाते हुए कहा।
"सॉरी दीदी... पानी की बोतल भरते वक्त गिर गया होगा..." गुंटू ने कान पकड़ते हुए कहा।
"कोई बात नहीं... तुम दोनों जाकर पढ़ाई करो... मैं ठीक हूँ !"
जब वे नहीं गए तो मैंने ज़ोर देकर कहा,"चलो... जाओ..." और वे चले गए।
अब भोंपू ने अपने हाथ मेरी गर्दन और घुटनों के नीचे डाल कर मुझे उठा लिया और खड़ा हो गया। मैंने अपनी दाहिनी टांग सीधी रखी और दोनों हाथ उसकी गरदन में डाल दिए। उसने मुझे अपने बदन के साथ सटा लिया और छोटे छोटे कदमों से मेरे कमरे की ओर चलने लगा।
उसे कोई जल्दी नहीं थी... शायद वह मेरे शरीर के स्पर्श और मेरी मजबूर हालत का पूरा फ़ायदा उठाना चाहता होगा। उसकी पकड़ इस तरह थी कि मेरा एक स्तन उसके सीने में गड़ रहा था। उसकी नज़रें मेरी आँखों में घूर रही थीं... मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं।
उसने मुझे ठीक से उठाने के बहाने एक बार अपने पास चिपका लिया और फिर अपना एक हाथ मेरी पीठ पर और एक मेरे नितम्भ पर लगा दिया। ना जाने क्यों मुझे उसका स्पर्श अच्छा लग रहा था... पहली बार किसी मर्द ने मुझे इस तरह उठाया था। मेरे बदन में एक सुरसुराहट सी होने लगी थी...
कमरे में पहुँच कर उसने धीरे से झुक कर मुझे बिस्तर पर डालने की कोशिश की। वह चाहता तो मुझे सीधा बिस्तर पर डाल सकता था पर उसने मुझे अपने बदन से सटाते हुए नीचे सरकाना शुरू किया जिससे मेरी पीठ उसके पेट से रगड़ती हुई नीचे जाने लगी और एक क्षण भर के लिए उसके उठे हुए लिंग का आभास कराते हुए मेरी पीठ बिस्तर पर लग गई।
अब मैं बिस्तर पर थी और उसके दोनों हाथ मेरे नीचे। उसने धीरे धीरे अपने हाथ सरकाते हुए बाहर खींचे... उसकी आँखों में एक नशा सा था और उसकी सांस मानो रुक रुक कर आ रही थी। वह मुझे एक अजीब सी नज़र से देख रहा था... उसका ध्यान मेरे वक्ष, पेट और जाँघों पर केंद्रित था।
मैं चोरी चोरी नज़रों से उसे देख रही थी।
उसने सीधे होकर एक बार अपने हाथों को ऊपर और पीछे की ओर खींच कर अंगड़ाई सी ली जिससे उसका पेट और जांघें आगे को मेरी तरफ झुक गईं। उसके तने हुए लिंग का उभार उसकी पैन्ट में साफ़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर इस अवस्था में रुक कर उसने हम्म्म्म की आवाज़ निकालते हुए अपने आप को सीधा किया। फिर उसने शीलू को बुलाकर थोड़ा गरम पानी और तौलिया लाने को कहा। जब तक शीलू ये लेकर आती उसने गुंटू और शीलू के गणित अभ्यास के लिए कुछ सवाल लिख दिए जिन्हें करने में वे काफी समय तक व्यस्त रहेंगे। तब तक शीलू गरम पानी और तौलिया ले आई।
"शीलू और गुंटू ! मैंने तुम दोनों के लिए कुछ सवाल लिख दिए हैं... तुम दोनों उनको करो... तब तक मैं तुम्हारी दीदी की चोट के बारे में कुछ करता हूँ... ठीक है?"
"ठीक है।" कहकर शीलू ने मेरी ओर देखा और पूछा,"अब कैसा लग रहा है?"
मैंने कहा,"पहले से ठीक है.... तुम जाओ और पढ़ाई करो..." मैंने अधीरता से कहा।
पता नहीं क्यों मेरा मन भोंपू के साथ समय बिताने का हो रहा था... मन में एक उत्सुकता थी कि अब वह क्या करेगा...
"कुछ काम हो तो मुझे बुला लेना..." कहती हुई शीलू भाग गई।
भोंपू ने एक कुर्सी खींच कर बिस्तर के पास की और उस पर गरम पानी और तौलिया रख दिया... फिर खुद मेरे पैरों की तरफ आकर बैठ गया और मेरा दाहिना पांव अपनी गोद में रख लिया। फिर उसने तौलिए को गरम पानी में भिगो कर उसी में निचोड़ा और गरम तौलिए से मेरे पांव को सेंक देने लगा। गरम सेंक से मुझे आराम आने लगा। थोड़ा सेंकने के बाद उसने मेरे पांव को हल्के हल्के गोल-गोल घुमाना शुरू किया। मेरा दर्द पहले से कम था पर फिर भी था। मेरे "ऊऊंह आह" करने पर उसने पांव फिर सी अपनी जांघ पर रख दिया और गरम तौलिए से दुबारा सेंकने लगा। ठोड़ी देर में पानी ठंडा हो गया तो उसने शीलू को बुला कर और गरम पानी लाने को कहा।
जब तक वह लाती भोंपू ने मेरे दाहिने पैर और पिंडली को सहलाना और दबाना शुरू कर दिया। वह प्यार से हाथ चला रहा था... सो मुझे भी मज़ा आ रहा था।
जब शीलू गरम पानी देकर चली गई तो भोंपू ने मेरे दाहिने पैर को अपनी जाँघों के बीच में बिस्तर पर टिका दिया। उसकी दाईं टांग मेरी टांगों के बीच, घुटनों से मुड़ी हुई बिस्तर पर टिकी थी और उसकी बाईं टांग बिस्तर से नीचे ओर लटक रही थी। अब उसने तौलिए को गीला करके मेरे दाहिने घुटने की सेंक करना शुरू किया। ऐसा करने के लिए जब वह आगे को झुकता तो मेरे दाहिने पांव का तलवा उसकी जाँघों के बीच उसकी तरफ खिसक जाता। एक दो बार इस तरह करने से मेरा तलवा हल्के से उसके लिंग के इलाके को छूने लगा। उसके छूते ही जहाँ मेरे शरीर में एक डंक सा लगा मैंने देखा कि भोंपू के शरीर से एक गहरी सांस छूटी और उसने एक क्षण के लिए मेरे घुटने की मालिश रोक दी। अब उसने अपने कूल्हों को हिला-डुला कर अपने आप को थोड़ा आगे कर लिया। अब जब वह आगे झुकता मेरा तलवा उसके यौनांग पर अच्छी तरह ऐसे लग रहा था मानो ड्राईवर ब्रेक पेडल दबा रहा हो। मेरे तलवे को कपड़ों में छुपे उसके लिंग का उभार महसूस हो रहा था।
kramashah.........................