उसने अविश्वसनीय निगाहों से मुझे देखा । मैं उसे सोचने का कोई मौका नहीं देना चाहता था । मैंने अजगर को छीनकर बाबाजी को स्मरण किया । और उनकी गुफ़ा को लक्ष्य बनाकर अलौकिक शक्ति का उपयोग करते हुये अजगर को पूरी ताकत से अंतरिक्ष में फ़ेंक दिया ।
अब ये अजगर अपनी यात्रा पूरी करके गुफ़ा के द्वार पर गिरने बाला था । और इस तरह से संजय की रूह प्रेतभाव से आधी मुक्त हो जाती । इसके बाद संजय के दिमाग ( जो अब मेरे दिमाग से जुङा था ) से मुझे वह लिखावट ( फ़ीडिंग ) मिटा देनी थी । जो उसके और शैरी के वीच हुआ था । बस इस तरह संजय मुक्त हो जाता ।
इस हेतु मैंने शैरी को बेहद उत्तेजित भाव से पकङ लिया । और पूरी तरह कामुकता में डुबोने की कोशिश करने लगा । शैरी सम्भोग के लिये व्याकुल हो रही थी ।
जब मैंने कहा - हे ..शैरी ! अब जब कि मैं पूरी तरह से प्रथ्वी छोङकर तेरे पास आ गया हूँ । मेरा दिल कर रहा है कि तू मुझे हमारी प्रेमकहानी खुद सुनाये । ताकि आज से हम नया जीवन शुरू कर सके । वरना तू जानती ही है कि मैं सौ प्रेतनी को एक साथ संतुष्ट करने वाला वेताल हूँ । तेरी जैसी मेरे लिये लाइन लगाये खङी हैं..।
मेरी चोट निशाने पर बैठी । उसे और भी सोचने का मौका न मिले । इस हेतु मैं उसके स्तनों को सहलाने लगा ।
- तुम कितने शर्मीले थे । वह जैसे तीन महीने पहले चली गयी - मैं प्रथ्वी पर नदी में निर्वस्त्र नहा रही थी । जब तुम उस रास्ते से स्कूल से लौटकर आये थे । मैं प्रथ्वी पर नया वेताल बनाने के आदेश पर गयी थी । क्योंकि आकस्मिक दुर्घटना में मरे हुये का प्रेत बनना । और स्वेच्छा से प्रेतभाव धारण करने वाला प्रेत इनकी ताकत में लाख गुने का फ़र्क होता है ।
तुम फ़िर अक्सर उधर से ही आने लगे । लेकिन तुम इतने शर्मीले थे कि सिर्फ़ मेरी नग्न देह को देखते रहते थे । जबकि तुम्हारे द्वारा सम्भोग किये बिना मैं तुम में प्रेतभाव नहीं डाल सकती थी..तब एक दिन हारकर मैंने योनि को सामने करते हुये तुम्हें आमन्त्रण दिया और पहली बार तुमने मेरे साथ सम्भोग किया..वो कितना सुख पहुँचाने वाला था.. मैं....संजय तुम .. अब ..... दिनों ... उसने ... गयी ... कि ... जब .... दिया ....देना..नदी..किनझर..।
शैरी नही जानती थी कि मैं उसके बोलने के साथ साथ ही संजय के दिमाग से वह लेखा मिटाता जा रहा
था । हालाँकि इस प्रयास में कामोत्तेजना से मेरा भी बुरा हाल हो चुका था । उसके नाजुक अंगो से खिलवाङ करते हुये मुझे उत्तेजना हो रही थी । पर सम्भोग करते ही मेरी असलियत खुल जाती । और संजय तो मुक्त हो जाता । उसकी जगह मैं प्रेतभाव से ग्रसित हो जाता । आखिरकार संयम से काम लेते हुये मैं वो पूरी फ़ीडिंग मिटाने में कामयाब हो गया ।
शैरी कामभावना को प्रस्तुत करती हुयी मेरे सामने लेट गयी । जब अचानक मैं उसे छोङकर उठ खङा हुआ । और बोला कि अभी मैं थकान महसूस कर रहा हूँ । कुछ देर आराम के बाद मैं तुम्हें संतुष्ट करता हूँ ।
कहकर मैं लगभग दस हजार फ़ीट ऊँचाई वाले उस वृक्ष पर चढ गया । और एक निगाह किनझर को देखते हुये मैंने विशाल अंतरिक्ष में नीचे की और छलांग लगा दी । अब मैं बिना किसी प्रयास के प्रथ्वी की तरफ़ जा रहा था । मेरा ये सफ़र लगभग तीन घन्टे में पूरा होना था । जब मैं बाबाजी के गुफ़ा द्वार पर होता ।
इस पूरे मिशन में मुझे लगभग तेरह घन्टे का समय लगा था । यानी कल शाम तीन बजे से जब आज मैं गुफ़ा के द्वार पर होऊँगा । उस समय सुबह के चार बज चुके होंगे ।
मेरा अनुमान लगभग सटीक ही बैठा । ठीक सवा चार पर मैं गुफ़ा के द्वार पर था । बाबाजी ने मेरी सराहना की । और शेष कार्य खत्म कर दिये । आंटी सोकर उठी थी । संजय अभी भी अर्धबेहोशी की हालत में था ।
बाबाजी ने एक विशेष भभूत आंटी और संजय के माथे पर लगा दी । जिसके प्रभाव से वे अपनी तीन महीने की इस जिन्दगी के ये खौफ़नाक लम्हें हमेशा के लिये भूल जाने वाले थे । यहाँ तक कि उन्हें कुछ ही समय बाद ये गुफ़ा और बाबाजी भी याद नहीं रहने वाले थे ।
मैंने आंटी को साथ लेकर उन्हें और संजय को उनके घर छोङ दिया । मैं काफ़ी थक चुका था अतः घर जाकर गहरी नींद में सो गया ।
अगले दिन सुबह दस बजे मैं संजय की स्थिति पता करने उसके घर पहुँचा । तो दोनों माँ बेटे बेहद गर्मजोशी से मिले - हे प्रसून तुम इतने दिनों बाद मिले । आज छह महीने बाद तुम घर पर आये हो ।
आंटी ने भी कहा - प्रसून तुम तो हमें भूल ही जाते हो । कहाँ व्यस्त रहते हो ?
उन्हे अब कुछ भी याद नहीं था । मैंने देखा संजय कल की तुलना में स्वस्थ और प्रसन्नचित्त लग रहा था । आंटी में भी वही खुशमिजाजी दिखायी दे रही थी । उनके साथ क्या घटित हो चुका था । इसका उन्हें लेशमात्र भी अन्दाजा न था । बाबाजी ने उनकी दुखद स्मृति को भुला दिया था । एक तरह से वो पन्ने ही उनकी जिन्दगी की किताब से फ़ट चुके थे ।
मैंने एक सिगरेट सुलगायी और हौले हौले कश लगाने लगा ।
********समाप्त *********