आठ दिन
Posted: 07 Nov 2014 22:39
आठ दिन--पार्ट-1
दोस्तो मैं यानी आपका दोस्त राज शर्मा एक कहानी लेकर हाजिर हूँ
बेबस निगाहों में है तबाही का मंज़र,
और टपकते अश्क़ की हर बूँद,
वफ़ा का इज़हार करती है,
डूबा है दिल में बेवफ़ाई का खंजर,
लम्हा-ए-बेकसि में तसावुर की दुनिया,
मौत का दीदार करती है,
आए हवा उनको कर्दे खबर मेरी मौत की,
और कहना,
के कफ़न की ख्वाहिश में मेरी लाश,
उनके आँचल का इंतेज़ार करती है......
मेरा अंदाज़ा आठ दिन का है. पूरे आठ दिन.
मैं कोई साइंटिस्ट या पथोलोगिस्त नही हूँ और ना ही कोई ज्योतिषी. मैं तो यूनिवर्सिटी में एकनॉमिक्स पढ़ाता हूँ. पर थोड़ी बहुत रिसर्च, थोड़ी किताबों की खाक छान कर मुझे पूरा यकीन है के देल्ही की गर्मी में मेरा आठ दिन का अंदाज़ा बिल्कुल ठीक बैठेगा.
क्यूंकी मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और हमेशा करता भी रहूँगा. और तुम ये बात भी बहुत अच्छी तरह जानती हो के बदलाव मुझे पसंद नही. किसी भी तरह का कोई भी बदलाव. फेरे लेते हुए जब तुमने मेरी पत्नी होने का वचन लिया था, उसी वक़्त मैने भी तुम्हारा पति होने और रहने की कसम उठाई थी.
इस कसम को तोड़ा नही जा सकता, ना बदला जा सकता, ये तुम जानती हो.
तुम घर वापिस आओगी. तुम एक बार फिर हमारे बेडरूम में कदम रखोगी. जिस वक़्त का मैने अंदाज़ा लगाया है, उस वक़्त तुम अंदर कदम रखोगी. जिस हिसाब से मैने अंदाज़ा लगाया है, उसी हिसाब से तुम मेरे नज़दीक आओगी. और फिर तुम हिसाब लगओगि के मेरा अंदाज़ा ठीक था या नही.
आठ दिन मेरी जान, आठ दिन.
शायद ये भी हक़ीकत ही है के मोहब्बत एक ज़िंदा चीज़ की तरह है और जिस तरह हर ज़िंदा चीज़ को एक दिन मरना होता है, उसी तरह से मोहब्बत भी एक दिन दम तोड़ देती है. कभी कभी अचानक और कभी धीरे धीरे, तड़प तड़प कर.
आज से आठवे दिन हमारी आठवी अन्नीवेरसरी है और इस अन्नीवेरसरी पर मैने तुम्हारे लिए एक ख़ास तोहफा तैय्यार किया है.
तुम घर पर अकेली ही आओगी, जैसा के तुमने मुझसे वादा किया है. वैसे तो तुम्हारे मुताबिक अब तुम्हारे दिल में मेरे लिए पहले वाली जगह नही रही पर फिर भी इतनी उम्मीद तो मैं तुमसे कर ही सकता हूँ के तुम मुझसे किया अपना वादा तो निभओगि ही. तुम पर मैने हमेशा यकीन किया था, तुम्हारी हर बात पे
आँख बंद करके भरोसा. कोई सवाल नही किया था मैने उस दिन जब तुमने मुझसे कहा था के तुम्हारी ज़िंदगी में और कोई दूसरा आदमी नही. ठीक उसी तरह मुझे आज भी यकीन है के तुम घर पर अकेली ही आओगी.
मुंबई से तुम्हारी फ्लाइट देल्ही एरपोर्ट पर दोपहर 3:22 पर लॅंड होगी. तुमने मुझे एरपोर्ट से तुम्हें पिक करने के लिए मैने मना किया है और मैं तुम्हारी बात को पूरी इज़्ज़त दूँगा. तुम एरपोर्ट से जनकपुरी के लिए एक टॅक्सी करोगी. तुम चाहती हो के तुम घर आओ, अपना सब समान लो और उसी टॅक्सी में बैठ कर वो रात किसी होटेल में गुज़ारो क्यूंकी मुंबई की अगली फ्लाइट अगले दिन ही है.
तुम टॅक्सी को हमारे घर के बाहर पेड़ के नीचे रुकवाओगी. टॅक्सी में बैठी कुच्छ देर तक तुम नज़र जमाए घर की तरफ खामोशी से देखती रहोगी. तुम काफ़ी थॅकी हुई होगी. उस वक़्त तुम्हें समझ नही आ रहा होगा के क्या करू. झिझक, अफ़सोस, दुख, गिल्ट की एक अजीब मिली जुली सी फीलिंग्स से तुम कुच्छ देर तक वहीं बैठी गुज़ारती रहोगी.
या शायद तुम वहाँ बैठी सिर्फ़ ये सोचो के अगले एक घंटे में सब ख़तम हो जाएगा. और आख़िर तुम्हें तुम्हारी आज़ादी मिल ही जाएगी.
अगर तुम्हारी फ्लाइट डेले नही हुई तो तुम तकरीबन 4 बजे तक घर पहुँचोगी. गर्मी उस वक़्त भी बहुत ज़्यादा होगी और टॅक्सी के ए.सी. से तुम्हारा बाहर निकलने का दिल नही कर रहा होगा. तुम्हें गये हुए 5 हफ्ते हो चुके होंगे और बाहर सड़क पर टॅक्सी में बैठी तुम घर को देखोगी और ये सोचोगी के कुच्छ भी तो नही बदला.
तुम इस बात को बिल्कुल नज़र अंदाज़ कर दोगि के हमारे लिविंग रूम के पर्दे ज़िंदगी में पहली बार तुम्हें बंद मिलेंगे. तुम इस बात को भी नज़र अंदाज़ कर दोगि के हमारे घर के बाहर बने लॉन में घास बहुर ज़्यादा बढ़ चुकी है और पानी ना मिलने की वजह से गर्मी में झुलस कर जल चुकी है.
कितने बदल गये हैं वो हालत की तरह,
अब मिलते हैं पहली मुलाक़ात की तरह,
हम क्या किसी के हुस्न का सदक़ा उतारते,
कुच्छ दिन का साथ मिला तो खैरात की तरह....
दोस्तो मैं यानी आपका दोस्त राज शर्मा एक कहानी लेकर हाजिर हूँ
बेबस निगाहों में है तबाही का मंज़र,
और टपकते अश्क़ की हर बूँद,
वफ़ा का इज़हार करती है,
डूबा है दिल में बेवफ़ाई का खंजर,
लम्हा-ए-बेकसि में तसावुर की दुनिया,
मौत का दीदार करती है,
आए हवा उनको कर्दे खबर मेरी मौत की,
और कहना,
के कफ़न की ख्वाहिश में मेरी लाश,
उनके आँचल का इंतेज़ार करती है......
मेरा अंदाज़ा आठ दिन का है. पूरे आठ दिन.
मैं कोई साइंटिस्ट या पथोलोगिस्त नही हूँ और ना ही कोई ज्योतिषी. मैं तो यूनिवर्सिटी में एकनॉमिक्स पढ़ाता हूँ. पर थोड़ी बहुत रिसर्च, थोड़ी किताबों की खाक छान कर मुझे पूरा यकीन है के देल्ही की गर्मी में मेरा आठ दिन का अंदाज़ा बिल्कुल ठीक बैठेगा.
क्यूंकी मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और हमेशा करता भी रहूँगा. और तुम ये बात भी बहुत अच्छी तरह जानती हो के बदलाव मुझे पसंद नही. किसी भी तरह का कोई भी बदलाव. फेरे लेते हुए जब तुमने मेरी पत्नी होने का वचन लिया था, उसी वक़्त मैने भी तुम्हारा पति होने और रहने की कसम उठाई थी.
इस कसम को तोड़ा नही जा सकता, ना बदला जा सकता, ये तुम जानती हो.
तुम घर वापिस आओगी. तुम एक बार फिर हमारे बेडरूम में कदम रखोगी. जिस वक़्त का मैने अंदाज़ा लगाया है, उस वक़्त तुम अंदर कदम रखोगी. जिस हिसाब से मैने अंदाज़ा लगाया है, उसी हिसाब से तुम मेरे नज़दीक आओगी. और फिर तुम हिसाब लगओगि के मेरा अंदाज़ा ठीक था या नही.
आठ दिन मेरी जान, आठ दिन.
शायद ये भी हक़ीकत ही है के मोहब्बत एक ज़िंदा चीज़ की तरह है और जिस तरह हर ज़िंदा चीज़ को एक दिन मरना होता है, उसी तरह से मोहब्बत भी एक दिन दम तोड़ देती है. कभी कभी अचानक और कभी धीरे धीरे, तड़प तड़प कर.
आज से आठवे दिन हमारी आठवी अन्नीवेरसरी है और इस अन्नीवेरसरी पर मैने तुम्हारे लिए एक ख़ास तोहफा तैय्यार किया है.
तुम घर पर अकेली ही आओगी, जैसा के तुमने मुझसे वादा किया है. वैसे तो तुम्हारे मुताबिक अब तुम्हारे दिल में मेरे लिए पहले वाली जगह नही रही पर फिर भी इतनी उम्मीद तो मैं तुमसे कर ही सकता हूँ के तुम मुझसे किया अपना वादा तो निभओगि ही. तुम पर मैने हमेशा यकीन किया था, तुम्हारी हर बात पे
आँख बंद करके भरोसा. कोई सवाल नही किया था मैने उस दिन जब तुमने मुझसे कहा था के तुम्हारी ज़िंदगी में और कोई दूसरा आदमी नही. ठीक उसी तरह मुझे आज भी यकीन है के तुम घर पर अकेली ही आओगी.
मुंबई से तुम्हारी फ्लाइट देल्ही एरपोर्ट पर दोपहर 3:22 पर लॅंड होगी. तुमने मुझे एरपोर्ट से तुम्हें पिक करने के लिए मैने मना किया है और मैं तुम्हारी बात को पूरी इज़्ज़त दूँगा. तुम एरपोर्ट से जनकपुरी के लिए एक टॅक्सी करोगी. तुम चाहती हो के तुम घर आओ, अपना सब समान लो और उसी टॅक्सी में बैठ कर वो रात किसी होटेल में गुज़ारो क्यूंकी मुंबई की अगली फ्लाइट अगले दिन ही है.
तुम टॅक्सी को हमारे घर के बाहर पेड़ के नीचे रुकवाओगी. टॅक्सी में बैठी कुच्छ देर तक तुम नज़र जमाए घर की तरफ खामोशी से देखती रहोगी. तुम काफ़ी थॅकी हुई होगी. उस वक़्त तुम्हें समझ नही आ रहा होगा के क्या करू. झिझक, अफ़सोस, दुख, गिल्ट की एक अजीब मिली जुली सी फीलिंग्स से तुम कुच्छ देर तक वहीं बैठी गुज़ारती रहोगी.
या शायद तुम वहाँ बैठी सिर्फ़ ये सोचो के अगले एक घंटे में सब ख़तम हो जाएगा. और आख़िर तुम्हें तुम्हारी आज़ादी मिल ही जाएगी.
अगर तुम्हारी फ्लाइट डेले नही हुई तो तुम तकरीबन 4 बजे तक घर पहुँचोगी. गर्मी उस वक़्त भी बहुत ज़्यादा होगी और टॅक्सी के ए.सी. से तुम्हारा बाहर निकलने का दिल नही कर रहा होगा. तुम्हें गये हुए 5 हफ्ते हो चुके होंगे और बाहर सड़क पर टॅक्सी में बैठी तुम घर को देखोगी और ये सोचोगी के कुच्छ भी तो नही बदला.
तुम इस बात को बिल्कुल नज़र अंदाज़ कर दोगि के हमारे लिविंग रूम के पर्दे ज़िंदगी में पहली बार तुम्हें बंद मिलेंगे. तुम इस बात को भी नज़र अंदाज़ कर दोगि के हमारे घर के बाहर बने लॉन में घास बहुर ज़्यादा बढ़ चुकी है और पानी ना मिलने की वजह से गर्मी में झुलस कर जल चुकी है.
कितने बदल गये हैं वो हालत की तरह,
अब मिलते हैं पहली मुलाक़ात की तरह,
हम क्या किसी के हुस्न का सदक़ा उतारते,
कुच्छ दिन का साथ मिला तो खैरात की तरह....