कथा भोगावती नगरी की
Re: कथा भोगावती नगरी की
“आप भूल रहे हैं महाराज…आपकी पत्नी होनेके नाते मैं भोगावती ही नहीं पुंसवक राज्य की भी महारानी हूँ , और आपके सैनिक स्वयं मेरे अधीनस्थ हैं”
इतना सुन कर महाराज के भय से तोते उड़ गये.
“ध्यान से सुनीएगा महाराज” देवी सुवर्णा ने महाराज के कानों पर जिव्हा फेरते हुए उनके कानों में फुसफुसाया “आपके सैनिकों की निष्ठा पुंसवक राज्य से अधिक भोगावती की स्त्रियों की योनि के प्रति है”
स्तब्ध महाराज को देवी सुवर्णा के इन शब्दों ने ऐसा कष्ट पंहुचाया जैसे किसी चंडाल ने उनके कानों में गर्म सीसा उडेल दिया हो.
“क्या कहती हैं आप?” उन्होने विस्मय से पूछा
देवी सुवर्णा ने अपने दाँत उनकी गर्दन में गड़ा कर कहा “सत्य कड़वा होता है महाराज” सुवर्णा ने मुस्कुरा कर कहा “परंतु सत्य को कोई झुठला नहीं सकता” फिर अपनी जिव्हा से उनकी गर्दन पर उभरे दाँतों के निशान को चाटते बोलीं “समझे मेरे महाराज?”
“इसे प्रमाणित करो” महाराज बोले
देवी सुवर्णा महाराज के शब्दों को सुन खिलखिलाई “प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता महाराज?” अपनी खुली लटो को उंगलियों से संवारती बोली.
“हम जानना चाहते हैं देवी”
“जैसी आपकी इच्छा महाराज , मैं आपको निराश नहीं करूँगी” सुवर्णा उनकी दाढ़ी सहलाती बोलीं और उनके गालों पर एक चुंबन जड़ कर फिर वह खड़ी हो गयीं
देवी सुवर्णा ने ताली बजाई तत्क्षण सेवा में एक बलिष्ठ भुजाओं वाला सेवक हाथ जोड़कर उपस्थित हुआ
“क्या आज्ञा है मनस्वीनी?”
“जाओ जा कर महाराज के अंगरक्षक पर्वत को यहाँ ले कर आओ , उनसे कहो कि महाराज ने उन्हें याद किया है”
“जो आज्ञा मनस्वीनी” कहकर सेवक गया
सुवर्णा कूद कर शैया पर आ गिरी और महाराज के पहलू में सिमटते हुए बोली
“देखिएगा महाराज , कहीं प्रत्यक्ष प्रमाण देख कर आप विचलित न होइएगा” सुवर्णा हँसने लगी
“असंभव” महाराज अपने पंजो से सिंहासन का स्वर्ण जडित कंगूरा भींचते बोले ” भला हम क्यों विचलित होंगें?”
“सोच लीजिए महाराज , यदि पर्वत ने आपके आज्ञा पालन से मना किया और आप विचलित हुए तो जो ५ वर मैं माँगूँ आपको देने पड़ेंगे” सुवर्णा ने बड़े आत्मविश्वास से कहा.
“तथास्तु” महाराज ने सहमति दर्शाई . उन्होने सोचा – पर्वत उनका विश्वासपात्र अंगरक्षक था , उनकी आज्ञा की अवहेलना करने से पूर्व वह साक्षात मृत्यु का वरण कर लेता. वह भला इस कुलटा देवी सुवर्णा का आदेश क्यों मानेगा ? उसकी राज निष्ठा पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता फिर इस देवी सुवर्णा की योनि का जल क्या अमृत हो गया जिसको चख कर वह अपने स्वामी से विद्रोह कर बैठेगा? नहीं नहीं .. कदापि नहीं. आज इस अहमकारी स्त्री का गर्व तोड़ कर इसको नीचा दिखा कर पदच्युत करके वे देवी ज्योत्सना को अपनी पट्टरानी घोषित कर देंगे फिर भले ही उन्हें देवी ज्योत्सना से बलपूर्वक
आग्रह करना पड़े.
कुछ समय बीता और महाराज के अंगरक्षक पर्वत का आगमन हुआ. पर्वत अपने नामानुसार ही लंबा चौड़ा डील डौल वाला
सशक्त और मजबूत यष्टि का पुरुष था . उसकी बाँहों तले दब कर और उसकी चौड़ी छाती पर सिर रख कर किसी भी स्त्री की योनी किसी निर्झर की भाँति बहने लग जाती
“प्रणाम महाराज , प्रणाम देवी सुवर्णा , मेरा अहोभग्य कि आपने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया कृपया बताएँ मेरे लिए क्या आदेश है?” पर्वत धीर गंभीर वाणी में बोला
देवी सुवर्णा ने महाराज की ओर देख कर अपनी भौंह टेढ़ी की मानों वह महाराज को आज़माने का अवसर दे कर कह रहीं हो “पहले आप”
महाराज आत्मविश्वास से लबरेज आगे आए और देवी सुवर्णा की ओर उंगली दिखा कर उन्होने आदेश दिया “पर्वत इस स्त्री का झोंटा पकड़ कर इस कुलटा नारी को हमारे कक्ष से बाहर निकालो”
पर्वत पट्टरानी सुवर्णा के प्रति महाराज के ऐसे कठोर शब्द सुन कर स्तब्ध रह गया , उसने सोचा कहीं उसके सुनने में कोई चूक तो नहीं हो गयी “किस विचार में पड़ गये पर्वत? हमारी आज्ञा का तत्काल पालन किया जाए” महाराज के बोल उसके सीने में नश्तर की तरफ चुभ गये. उसका क्रोध में चेहरा लाल हो गया और भुजाएँ फड़कने लगीं वह कुछ कदम चल कर् महाराज की तरफ बढ़ा “तुमने सुना नहीं पर्वत ? हमने क्या कहा…?” महाराज की उँची आवाज़ कक्ष में गूँजी और तुरंत ही कुछ चटखने की ध्वनि सुनाई दी “चटाक क क क” इस थप्पड़ की अनुगूंज दूर तक बहुत देर तक सुनाई दी गयी. बेचारे महाराज फर्श पर अचेत गिरे थे. जब वह उठे तो फटी फटी आँखों से विस्मय चकित हो कर कभी मुस्कुराती सुवर्णा को देखते कभी पर्वत को और बीच में समय मिलता तो अपने सूज कर लाल हुए गाल को सहलाते जिस पर उनके अंगरक्षक पर्वत की पाँचों उंगलियों की छाप पड़ गयी थी.
इतना सुन कर महाराज के भय से तोते उड़ गये.
“ध्यान से सुनीएगा महाराज” देवी सुवर्णा ने महाराज के कानों पर जिव्हा फेरते हुए उनके कानों में फुसफुसाया “आपके सैनिकों की निष्ठा पुंसवक राज्य से अधिक भोगावती की स्त्रियों की योनि के प्रति है”
स्तब्ध महाराज को देवी सुवर्णा के इन शब्दों ने ऐसा कष्ट पंहुचाया जैसे किसी चंडाल ने उनके कानों में गर्म सीसा उडेल दिया हो.
“क्या कहती हैं आप?” उन्होने विस्मय से पूछा
देवी सुवर्णा ने अपने दाँत उनकी गर्दन में गड़ा कर कहा “सत्य कड़वा होता है महाराज” सुवर्णा ने मुस्कुरा कर कहा “परंतु सत्य को कोई झुठला नहीं सकता” फिर अपनी जिव्हा से उनकी गर्दन पर उभरे दाँतों के निशान को चाटते बोलीं “समझे मेरे महाराज?”
“इसे प्रमाणित करो” महाराज बोले
देवी सुवर्णा महाराज के शब्दों को सुन खिलखिलाई “प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता महाराज?” अपनी खुली लटो को उंगलियों से संवारती बोली.
“हम जानना चाहते हैं देवी”
“जैसी आपकी इच्छा महाराज , मैं आपको निराश नहीं करूँगी” सुवर्णा उनकी दाढ़ी सहलाती बोलीं और उनके गालों पर एक चुंबन जड़ कर फिर वह खड़ी हो गयीं
देवी सुवर्णा ने ताली बजाई तत्क्षण सेवा में एक बलिष्ठ भुजाओं वाला सेवक हाथ जोड़कर उपस्थित हुआ
“क्या आज्ञा है मनस्वीनी?”
“जाओ जा कर महाराज के अंगरक्षक पर्वत को यहाँ ले कर आओ , उनसे कहो कि महाराज ने उन्हें याद किया है”
“जो आज्ञा मनस्वीनी” कहकर सेवक गया
सुवर्णा कूद कर शैया पर आ गिरी और महाराज के पहलू में सिमटते हुए बोली
“देखिएगा महाराज , कहीं प्रत्यक्ष प्रमाण देख कर आप विचलित न होइएगा” सुवर्णा हँसने लगी
“असंभव” महाराज अपने पंजो से सिंहासन का स्वर्ण जडित कंगूरा भींचते बोले ” भला हम क्यों विचलित होंगें?”
“सोच लीजिए महाराज , यदि पर्वत ने आपके आज्ञा पालन से मना किया और आप विचलित हुए तो जो ५ वर मैं माँगूँ आपको देने पड़ेंगे” सुवर्णा ने बड़े आत्मविश्वास से कहा.
“तथास्तु” महाराज ने सहमति दर्शाई . उन्होने सोचा – पर्वत उनका विश्वासपात्र अंगरक्षक था , उनकी आज्ञा की अवहेलना करने से पूर्व वह साक्षात मृत्यु का वरण कर लेता. वह भला इस कुलटा देवी सुवर्णा का आदेश क्यों मानेगा ? उसकी राज निष्ठा पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता फिर इस देवी सुवर्णा की योनि का जल क्या अमृत हो गया जिसको चख कर वह अपने स्वामी से विद्रोह कर बैठेगा? नहीं नहीं .. कदापि नहीं. आज इस अहमकारी स्त्री का गर्व तोड़ कर इसको नीचा दिखा कर पदच्युत करके वे देवी ज्योत्सना को अपनी पट्टरानी घोषित कर देंगे फिर भले ही उन्हें देवी ज्योत्सना से बलपूर्वक
आग्रह करना पड़े.
कुछ समय बीता और महाराज के अंगरक्षक पर्वत का आगमन हुआ. पर्वत अपने नामानुसार ही लंबा चौड़ा डील डौल वाला
सशक्त और मजबूत यष्टि का पुरुष था . उसकी बाँहों तले दब कर और उसकी चौड़ी छाती पर सिर रख कर किसी भी स्त्री की योनी किसी निर्झर की भाँति बहने लग जाती
“प्रणाम महाराज , प्रणाम देवी सुवर्णा , मेरा अहोभग्य कि आपने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया कृपया बताएँ मेरे लिए क्या आदेश है?” पर्वत धीर गंभीर वाणी में बोला
देवी सुवर्णा ने महाराज की ओर देख कर अपनी भौंह टेढ़ी की मानों वह महाराज को आज़माने का अवसर दे कर कह रहीं हो “पहले आप”
महाराज आत्मविश्वास से लबरेज आगे आए और देवी सुवर्णा की ओर उंगली दिखा कर उन्होने आदेश दिया “पर्वत इस स्त्री का झोंटा पकड़ कर इस कुलटा नारी को हमारे कक्ष से बाहर निकालो”
पर्वत पट्टरानी सुवर्णा के प्रति महाराज के ऐसे कठोर शब्द सुन कर स्तब्ध रह गया , उसने सोचा कहीं उसके सुनने में कोई चूक तो नहीं हो गयी “किस विचार में पड़ गये पर्वत? हमारी आज्ञा का तत्काल पालन किया जाए” महाराज के बोल उसके सीने में नश्तर की तरफ चुभ गये. उसका क्रोध में चेहरा लाल हो गया और भुजाएँ फड़कने लगीं वह कुछ कदम चल कर् महाराज की तरफ बढ़ा “तुमने सुना नहीं पर्वत ? हमने क्या कहा…?” महाराज की उँची आवाज़ कक्ष में गूँजी और तुरंत ही कुछ चटखने की ध्वनि सुनाई दी “चटाक क क क” इस थप्पड़ की अनुगूंज दूर तक बहुत देर तक सुनाई दी गयी. बेचारे महाराज फर्श पर अचेत गिरे थे. जब वह उठे तो फटी फटी आँखों से विस्मय चकित हो कर कभी मुस्कुराती सुवर्णा को देखते कभी पर्वत को और बीच में समय मिलता तो अपने सूज कर लाल हुए गाल को सहलाते जिस पर उनके अंगरक्षक पर्वत की पाँचों उंगलियों की छाप पड़ गयी थी.
Re: कथा भोगावती नगरी की
वीर पर्वत ने अपनी स्वामिनी की योनी के प्रति अपनी अटूट निष्ठा को महाराज के सम्मुख प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित कर दिया था .
“स्मरण रहे महाराज” देवी सुवर्णा हंसते हुए बोली “आपने वचन दिया है , मुझे पाँच वर देने का”
महाराज ने “हाँ” में गर्दन हिलाई.
“और हम देख सकती हैं कि पर्वत के कर्म से आप ख़ासे विचलित भी हैं” देवी ने महाराज के गाल की ओर इंगित किया और फिर कहा “चिंतित न होइए महाराज , मैं उचित समय आने पर अपने पाँच वरों को प्राप्त कर लूँगीं”
फिर उसने हाथ जोड़ कर महाराज से कहा “कृपया अब आप विश्राम कीजिए हमें समुचित विचार विमर्श के बाद च्युतेश्वर और मंत्री से वार्ता करनी है”
तत्क्षण उन्होने तालियाँ बजाई , दो सेविकाएँ आई और महाराज को सहारा दे कर उनके निजी कक्ष की ओर ले गयीं.
इधर देवी सुवर्णा पर्वत की ओर देख कर मुस्काई “बधाई हो पर्वत , तुमने महाराज के समक्ष अपनी निष्ठा का सादर प्रत्यक्षीकरण सफलतापूर्वक कर दिया”
पर्वत अपने घुटनों पर आ बैठा “हे मनस्वीनी मैं आपका सेवक हूँ , आपके योँनी रस को चखकर उसकी सदैव रक्षा करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ , मैं महाराज का आपके प्रति दुर्व्यवहार भला कैसे सहन करता?”
“तुम्हारी इसी सेवा भावना एवं तत्परता से हम ख़ासी प्रसन्न हैं पर्वत” सुवर्णा ने जवाब दिया और उसके स्नंनिकट आ गयी
उसकी जाँघ घुटनों पर बैठे पर्वत के मुँह के ठीक सामने थी. पर्वत देवी सुवर्णा का इशारा समझ गया.
उसने अपनी जिव्हा निकाली और उसके अग्र भाग से देवी सुवर्णा की नाभि में जमी मैल को स्वच्छ करने लगा.
इधर थके हारे महाराज अपने कक्ष में पंहुचे तो क्या देखते हैं उनकी प्रिय परिचारिका उनकी शैया पर उल्टी पड़ी है , उसके अव्यवस्थित बिखरे हुए केश यहाँ वहाँ टूटे पड़े हैं , सिक्ता के काले नर्म मुलायम केवड़े के धुएँ से सुगंधित लंबे केशों में
उनके द्वारा लगाया गया गजरा भी उसकी फर्श पर पड़ी कंचुकी पर मुरझाया सा पड़ा है.
उन्होने सेविकाओं को जाने का इशारा किया वे तुरंत वहाँ से प्रस्थान कर गयीं. सिक्ता को जैसे ही महाराज की आहट हुई वह तुरंत ही संयत हो कर बैठ गयी.
महाराज की नज़रे सिक्ता से मिलीं उन्होने देखा सिक्ता की भौंहों के मध्यभाग में खुजली के कारण कुछ सूजन बनी हुई थी.
कानों में स्वर्ण की बालियां नदारद थी और कानों के पोर किसी ने निर्ममता पूर्वक चबाए थे.
सिक्ता के तरबूज जितने बड़े स्तनों पर भी नाखूनों से खुरचने और दाँतों से काटने के निशान थे और नाभि से गहरा गाढ़ा चिपचिपा सा रस टपक रहा था ऐसा ही रस उंसकी योनि से भी टपक रहा था परंतु वह किंचित लहू लुहान थी.
महाराज विस्मय चकित हो कर आगे बढ़े और सिक्ता का सिर अपने दोनो हाथों में ले कर बोले
“देवी किसने आपकी ऐसी दुर्दशा की ? किसका काल आया है आज?”
सिक्ता ने शर्म और दुख के आवेग से अपनी गर्दन झुका ली और बगले झाँकने लगी.
तभी कक्ष में एक कोने से धव्नि गूँजी “महाराज”
रुद्र्प्रद बोला “महाराज आपको सादर स्मरण हो कि आपने ही देवी सिक्ता को संतुष्ट करने की राजाज्ञा दी थी”
महाराज का विस्मय अभी भी कम न हुआ था , उन्होने सिक्ता के केश हाथ में लिए और उसके स्तनों को मसल्ते हुए बोले
“देखो , देखो सेवक इसकी सुगंधित श्यामवरणीय केश राशि कैसे अव्यवस्थित रूप से इसके कंधों पर झूल रही है और इसकी लटे तुम्हारे चिपचिपे वीर्य की स्निग्धता से आपस में चिपकी हुईं हैं”
“देखो सेवक इसके दुग्ध जैसे शुभ्र सुकोमल शरीर पर तुम्हारे नखों और दाँतों ने कितने घाव कर दिए हैं” महाराज ने नग्न सिक्ता को खड़ा किया , फिर इसके पृष्ठ भाग पर हाथ फेरते हुए बोले “देखों तुम्हारी जांघों से टकरा-टकरा कर इसके चूतड़ भी लालिमा लिए हुए हैं”
“अरे इतनी निर्ममता पूर्वक तो कोई अपनी स्व-पत्नीका ही चोदन करता है हमारी राजाज्ञा तो सिक्ता को संतुष्ट करने के लिए थी , तुमने क्या सोच कर बिना किसी अधिकार के हमारी प्रिय परिचारिका का चोदन किया?” महाराज ने रुद्र्प्रद से प्रश्न किया.
रुद्र्प्रद हाथ जोड़े आगे बढ़ा और उसने निवेदन किया “आपको चकित करने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ महाराज परंतु मैं आपके समक्ष यह बात रखना चाहूँगा कि आपके साथ खड़ी आपकी प्रिय परिचारिका जो आपकी यौन कुंठाओं को शांत कर उनका शमन करती है वह मेरी अर्धांगिनी तृप्ति है”
यह सुन महाराज पर जैसे वज्राघात हुआ उनके मुँह से निकल पड़ा “क्या???”
“जी हाँ महाराज” सिक्ता सिसकते हुए बोली उसने अपने आँसू पोंछें.
“महाराज आपको विदित हो कि मान्यता अनुसार स्त्री की योनि पर प्रथम अधिकार उसके पति का ही होता है” रुद्र्प्रद ने कहा
“तदनुसार आपकी आज्ञा पा कर उसका अर्थ लगा कर मैने जो उचित समझा सो किया”
“स्मरण रहे महाराज” देवी सुवर्णा हंसते हुए बोली “आपने वचन दिया है , मुझे पाँच वर देने का”
महाराज ने “हाँ” में गर्दन हिलाई.
“और हम देख सकती हैं कि पर्वत के कर्म से आप ख़ासे विचलित भी हैं” देवी ने महाराज के गाल की ओर इंगित किया और फिर कहा “चिंतित न होइए महाराज , मैं उचित समय आने पर अपने पाँच वरों को प्राप्त कर लूँगीं”
फिर उसने हाथ जोड़ कर महाराज से कहा “कृपया अब आप विश्राम कीजिए हमें समुचित विचार विमर्श के बाद च्युतेश्वर और मंत्री से वार्ता करनी है”
तत्क्षण उन्होने तालियाँ बजाई , दो सेविकाएँ आई और महाराज को सहारा दे कर उनके निजी कक्ष की ओर ले गयीं.
इधर देवी सुवर्णा पर्वत की ओर देख कर मुस्काई “बधाई हो पर्वत , तुमने महाराज के समक्ष अपनी निष्ठा का सादर प्रत्यक्षीकरण सफलतापूर्वक कर दिया”
पर्वत अपने घुटनों पर आ बैठा “हे मनस्वीनी मैं आपका सेवक हूँ , आपके योँनी रस को चखकर उसकी सदैव रक्षा करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ , मैं महाराज का आपके प्रति दुर्व्यवहार भला कैसे सहन करता?”
“तुम्हारी इसी सेवा भावना एवं तत्परता से हम ख़ासी प्रसन्न हैं पर्वत” सुवर्णा ने जवाब दिया और उसके स्नंनिकट आ गयी
उसकी जाँघ घुटनों पर बैठे पर्वत के मुँह के ठीक सामने थी. पर्वत देवी सुवर्णा का इशारा समझ गया.
उसने अपनी जिव्हा निकाली और उसके अग्र भाग से देवी सुवर्णा की नाभि में जमी मैल को स्वच्छ करने लगा.
इधर थके हारे महाराज अपने कक्ष में पंहुचे तो क्या देखते हैं उनकी प्रिय परिचारिका उनकी शैया पर उल्टी पड़ी है , उसके अव्यवस्थित बिखरे हुए केश यहाँ वहाँ टूटे पड़े हैं , सिक्ता के काले नर्म मुलायम केवड़े के धुएँ से सुगंधित लंबे केशों में
उनके द्वारा लगाया गया गजरा भी उसकी फर्श पर पड़ी कंचुकी पर मुरझाया सा पड़ा है.
उन्होने सेविकाओं को जाने का इशारा किया वे तुरंत वहाँ से प्रस्थान कर गयीं. सिक्ता को जैसे ही महाराज की आहट हुई वह तुरंत ही संयत हो कर बैठ गयी.
महाराज की नज़रे सिक्ता से मिलीं उन्होने देखा सिक्ता की भौंहों के मध्यभाग में खुजली के कारण कुछ सूजन बनी हुई थी.
कानों में स्वर्ण की बालियां नदारद थी और कानों के पोर किसी ने निर्ममता पूर्वक चबाए थे.
सिक्ता के तरबूज जितने बड़े स्तनों पर भी नाखूनों से खुरचने और दाँतों से काटने के निशान थे और नाभि से गहरा गाढ़ा चिपचिपा सा रस टपक रहा था ऐसा ही रस उंसकी योनि से भी टपक रहा था परंतु वह किंचित लहू लुहान थी.
महाराज विस्मय चकित हो कर आगे बढ़े और सिक्ता का सिर अपने दोनो हाथों में ले कर बोले
“देवी किसने आपकी ऐसी दुर्दशा की ? किसका काल आया है आज?”
सिक्ता ने शर्म और दुख के आवेग से अपनी गर्दन झुका ली और बगले झाँकने लगी.
तभी कक्ष में एक कोने से धव्नि गूँजी “महाराज”
रुद्र्प्रद बोला “महाराज आपको सादर स्मरण हो कि आपने ही देवी सिक्ता को संतुष्ट करने की राजाज्ञा दी थी”
महाराज का विस्मय अभी भी कम न हुआ था , उन्होने सिक्ता के केश हाथ में लिए और उसके स्तनों को मसल्ते हुए बोले
“देखो , देखो सेवक इसकी सुगंधित श्यामवरणीय केश राशि कैसे अव्यवस्थित रूप से इसके कंधों पर झूल रही है और इसकी लटे तुम्हारे चिपचिपे वीर्य की स्निग्धता से आपस में चिपकी हुईं हैं”
“देखो सेवक इसके दुग्ध जैसे शुभ्र सुकोमल शरीर पर तुम्हारे नखों और दाँतों ने कितने घाव कर दिए हैं” महाराज ने नग्न सिक्ता को खड़ा किया , फिर इसके पृष्ठ भाग पर हाथ फेरते हुए बोले “देखों तुम्हारी जांघों से टकरा-टकरा कर इसके चूतड़ भी लालिमा लिए हुए हैं”
“अरे इतनी निर्ममता पूर्वक तो कोई अपनी स्व-पत्नीका ही चोदन करता है हमारी राजाज्ञा तो सिक्ता को संतुष्ट करने के लिए थी , तुमने क्या सोच कर बिना किसी अधिकार के हमारी प्रिय परिचारिका का चोदन किया?” महाराज ने रुद्र्प्रद से प्रश्न किया.
रुद्र्प्रद हाथ जोड़े आगे बढ़ा और उसने निवेदन किया “आपको चकित करने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ महाराज परंतु मैं आपके समक्ष यह बात रखना चाहूँगा कि आपके साथ खड़ी आपकी प्रिय परिचारिका जो आपकी यौन कुंठाओं को शांत कर उनका शमन करती है वह मेरी अर्धांगिनी तृप्ति है”
यह सुन महाराज पर जैसे वज्राघात हुआ उनके मुँह से निकल पड़ा “क्या???”
“जी हाँ महाराज” सिक्ता सिसकते हुए बोली उसने अपने आँसू पोंछें.
“महाराज आपको विदित हो कि मान्यता अनुसार स्त्री की योनि पर प्रथम अधिकार उसके पति का ही होता है” रुद्र्प्रद ने कहा
“तदनुसार आपकी आज्ञा पा कर उसका अर्थ लगा कर मैने जो उचित समझा सो किया”
Re: कथा भोगावती नगरी की
सेवक” महाराज क्रोधातिरेक में चिल्लाए , महाराज का चिल्लाना सुन कर पर्वत और देवी सुवर्णा भी वहाँ दौड़े दौड़े पंहुचे.
सब पर क्रोधित कटाक्ष डालते हुए बोले “हमसे महत्वपूर्ण तथ्य जान बूझ कर छुपाए गये हैं” फिर रुद्र्प्रद की ओर मुड़ कर बोले “तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि परिचारिका की योनी पर पहला अधिकार स्वयं राजा का होता है , जा कर पूछो अपनी पत्नी से”
फिर महाराज सिक्ता की ओर मुड़े और उस पर दृष्टि पात किया और कहा ” सिक्ता पति को सामने पा कर अपने स्वामी को भी भूल गयी ? हमें थोडा मंत्रणा के लिए क्या जाना पड़ गया तुम्हारी योनि तो जलप्रपात ही बन गयी ? क्यों ? हमारे सामने आने पर तो तुम्हारी योनी किसी मरुस्थल की मौसमी नदी के भाँति सूखी हो जाती है”
सिक्ता अपने निजी अंगों का इस प्रकार भोंड़ा वर्णन सुन कर झेंप गयी.
देवी सुवर्णा ने गला साफ कर कहा “क्षमा काइज़िएगा महाराज”……
“क्षमा कीजिएगा महाराज” देवी सुवर्णा की रौबदार ध्वनी गूँजी “किसी स्त्री के निजी अंगों का इस प्रकार असभ्यता पूर्वक भौंड़ा वर्णन करना आपको शोभा नहीं देता”
“देवी सुवर्णा” महाराज ने आँखें तरेरि “यह आपका विषय नहीं है आप बीच में न ही बोलें तो उचित होगा” महाराज ने देवी सुवर्णा को सब के समक्ष डपटा.
अपनी स्वामिनी का यों इस प्रकार सबके सामने किया गया अपमान पर्वत को तनिक न भाया वह कुछ बोलने को हुआ परंतु देवी सुवर्णा ने उसे शांत रहने का इशारा किया और बोलीं
“यह निश्चय ही हमारे अवलोकन और चिंतन का विषय है महाराज जैसा कि इस सेवक के शब्दों से विदित हुआ है यह अपनी पत्नी का चोदन कर रहा था , पत्नी का चोदन करना कोई अपराध नही है महाराज”
“आप भूल रहीं हैं , इसकी पत्नी हमारी परिचारिका है”
“परिचारिका भी तो एक स्त्री है .. और स्त्री की योनी पर प्रथम अधिकार…..”
“बस बहुत हो चुका….” महाराज चीखे “आपकी यह बातें सुन सुन कर हमारे कान पक गये हैं”
सुवर्णा हंसते हुए बोली “निस्संदेह .. महाराज कानों के साथ साथ आपके बाल भी पक चुके हैं किंतु अभी भी आपकोइस्का भावार्थ समझ न आया”
“हम कुछ समझना नही चाहते” महाराज गुस्से से बोले ” कृपया हमें समझाने की चेष्टा न कीजिए , वे असफल ही होंगीं”
“निस्संदेह” सुवर्णा ने प्रत्युत्तर दिया
“जब आपको कोई इस बारे में संदेह नहीं तो फिर क्यों फ़िजूल में मुँह चलाती हैं?” महाराज गॉस से बोले
“संदेह इस बात का नहीं है महाराज की आप भोग विलासी , जिद्दी , काम लिप्सा से युक्त एक मरण प्राय: बूढ़े हैं जिसका मन तो सारे जगत की सुंदर स्त्रियों का चोदन करने का होता है परंतु शरीर साथ नहीं देता और लिंग तो ज़रा भी नहीं तन कर खड़ा नहीं होता वरन अवसर आने पर बासी मूली की तरह लुला पड़ जाता है.
“सुवर्णा” महाराज गुस्से से चीख पड़े.
“बुरा लगा न महाराज अपने गुप्तांगों का सार्वजनिक रूप से वर्णन सुन कर?” सुवर्णा बोली “ज़रा सोचिए सिक्ता और उसके पति की क्या अवस्था हुई होगी?” देवी सुवर्णा का कहना जारी रहा “अपनी स्त्री के गुप्तांगों का किसी पर पुरुष द्वारा ऐसा वीभत्स वर्णन सुन किस पुरुष के तन बदन में अग्नि न लगती होगी?”
“हम सिक्ता के स्वामी है वह हमारी सेवा में परिचारिका पूरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद राज्य परिचारिका मंडल द्वारा नियुक्त हुईं हैं” महाराज ने तर्क किया
“वाह महाराज वाह!” सुवर्णा ने ताली बजा कर महाराज पर व्यंग कसा “आपके राज्य में निवासियों को जहाँ दो समय का भोजन नहीं मिल पाता , विवाह आदि संस्कार के लिए कुँवारी कन्याओं का मिलना दुर्लभ है वहाँ जनता की निधि से आप स्वयं के मनोरंजन के लिए ऐसा मंडल नियुक्त करते हैं जो राज्य की कुमारिकाओं को आपके निजी आमोद प्रमोद के लिए प्रशिक्षण दे कर बतौर परिचारिका नियुक्त करता है? धिक्कार है ..परिचारिका तो बहुत सौम्य शब्द है महाराज वस्तुत: यह परिचारिकाएँ तो आपकी निजी गणिका हैं”
“आप स्वयं उस मंडल की गणमान्य सदस्या हैं और प्रधान भी” महाराज ने याद दिलाते कहा.
“हम आपकी पत्नी हैं और मंत्री भी” सुवर्णा ने कहा
“किंतु परिचारिका मंडल की प्रधान भी हैं , आज से पहले आपने इस बात का विरोध न किया आज ऐसा क्या हो गया?” महाराज ने जानना चाहा
“निस्संदेह महाराज” सुवर्णा ने आँखें छोटी कर बोला ” अभी आपने कुछ समय पहले आपने हमें हमारे ५ वर प्रदान करने का वचन दिया है और इसी वर के अधिकार से हम माँग करतीं हैं कि राज्य परिचारिका मंडल तत्काल प्रभाव से बर्खास्त हो और परिचारिकाओं का पुनर्वास राज्य के खर्चे से किया जाए जो विवहित परिचारिकाएँ हैं वह अपने पति के साथ जीवन यापन करें और जो अविवाहित है वह अपनी पसंद के पुरुष से उसकी सहमति से विवाह कर सकतीं हैं अथवा संग रह कर सहजीवन का लाभ उठा सकतीं हैं.
सब पर क्रोधित कटाक्ष डालते हुए बोले “हमसे महत्वपूर्ण तथ्य जान बूझ कर छुपाए गये हैं” फिर रुद्र्प्रद की ओर मुड़ कर बोले “तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि परिचारिका की योनी पर पहला अधिकार स्वयं राजा का होता है , जा कर पूछो अपनी पत्नी से”
फिर महाराज सिक्ता की ओर मुड़े और उस पर दृष्टि पात किया और कहा ” सिक्ता पति को सामने पा कर अपने स्वामी को भी भूल गयी ? हमें थोडा मंत्रणा के लिए क्या जाना पड़ गया तुम्हारी योनि तो जलप्रपात ही बन गयी ? क्यों ? हमारे सामने आने पर तो तुम्हारी योनी किसी मरुस्थल की मौसमी नदी के भाँति सूखी हो जाती है”
सिक्ता अपने निजी अंगों का इस प्रकार भोंड़ा वर्णन सुन कर झेंप गयी.
देवी सुवर्णा ने गला साफ कर कहा “क्षमा काइज़िएगा महाराज”……
“क्षमा कीजिएगा महाराज” देवी सुवर्णा की रौबदार ध्वनी गूँजी “किसी स्त्री के निजी अंगों का इस प्रकार असभ्यता पूर्वक भौंड़ा वर्णन करना आपको शोभा नहीं देता”
“देवी सुवर्णा” महाराज ने आँखें तरेरि “यह आपका विषय नहीं है आप बीच में न ही बोलें तो उचित होगा” महाराज ने देवी सुवर्णा को सब के समक्ष डपटा.
अपनी स्वामिनी का यों इस प्रकार सबके सामने किया गया अपमान पर्वत को तनिक न भाया वह कुछ बोलने को हुआ परंतु देवी सुवर्णा ने उसे शांत रहने का इशारा किया और बोलीं
“यह निश्चय ही हमारे अवलोकन और चिंतन का विषय है महाराज जैसा कि इस सेवक के शब्दों से विदित हुआ है यह अपनी पत्नी का चोदन कर रहा था , पत्नी का चोदन करना कोई अपराध नही है महाराज”
“आप भूल रहीं हैं , इसकी पत्नी हमारी परिचारिका है”
“परिचारिका भी तो एक स्त्री है .. और स्त्री की योनी पर प्रथम अधिकार…..”
“बस बहुत हो चुका….” महाराज चीखे “आपकी यह बातें सुन सुन कर हमारे कान पक गये हैं”
सुवर्णा हंसते हुए बोली “निस्संदेह .. महाराज कानों के साथ साथ आपके बाल भी पक चुके हैं किंतु अभी भी आपकोइस्का भावार्थ समझ न आया”
“हम कुछ समझना नही चाहते” महाराज गुस्से से बोले ” कृपया हमें समझाने की चेष्टा न कीजिए , वे असफल ही होंगीं”
“निस्संदेह” सुवर्णा ने प्रत्युत्तर दिया
“जब आपको कोई इस बारे में संदेह नहीं तो फिर क्यों फ़िजूल में मुँह चलाती हैं?” महाराज गॉस से बोले
“संदेह इस बात का नहीं है महाराज की आप भोग विलासी , जिद्दी , काम लिप्सा से युक्त एक मरण प्राय: बूढ़े हैं जिसका मन तो सारे जगत की सुंदर स्त्रियों का चोदन करने का होता है परंतु शरीर साथ नहीं देता और लिंग तो ज़रा भी नहीं तन कर खड़ा नहीं होता वरन अवसर आने पर बासी मूली की तरह लुला पड़ जाता है.
“सुवर्णा” महाराज गुस्से से चीख पड़े.
“बुरा लगा न महाराज अपने गुप्तांगों का सार्वजनिक रूप से वर्णन सुन कर?” सुवर्णा बोली “ज़रा सोचिए सिक्ता और उसके पति की क्या अवस्था हुई होगी?” देवी सुवर्णा का कहना जारी रहा “अपनी स्त्री के गुप्तांगों का किसी पर पुरुष द्वारा ऐसा वीभत्स वर्णन सुन किस पुरुष के तन बदन में अग्नि न लगती होगी?”
“हम सिक्ता के स्वामी है वह हमारी सेवा में परिचारिका पूरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद राज्य परिचारिका मंडल द्वारा नियुक्त हुईं हैं” महाराज ने तर्क किया
“वाह महाराज वाह!” सुवर्णा ने ताली बजा कर महाराज पर व्यंग कसा “आपके राज्य में निवासियों को जहाँ दो समय का भोजन नहीं मिल पाता , विवाह आदि संस्कार के लिए कुँवारी कन्याओं का मिलना दुर्लभ है वहाँ जनता की निधि से आप स्वयं के मनोरंजन के लिए ऐसा मंडल नियुक्त करते हैं जो राज्य की कुमारिकाओं को आपके निजी आमोद प्रमोद के लिए प्रशिक्षण दे कर बतौर परिचारिका नियुक्त करता है? धिक्कार है ..परिचारिका तो बहुत सौम्य शब्द है महाराज वस्तुत: यह परिचारिकाएँ तो आपकी निजी गणिका हैं”
“आप स्वयं उस मंडल की गणमान्य सदस्या हैं और प्रधान भी” महाराज ने याद दिलाते कहा.
“हम आपकी पत्नी हैं और मंत्री भी” सुवर्णा ने कहा
“किंतु परिचारिका मंडल की प्रधान भी हैं , आज से पहले आपने इस बात का विरोध न किया आज ऐसा क्या हो गया?” महाराज ने जानना चाहा
“निस्संदेह महाराज” सुवर्णा ने आँखें छोटी कर बोला ” अभी आपने कुछ समय पहले आपने हमें हमारे ५ वर प्रदान करने का वचन दिया है और इसी वर के अधिकार से हम माँग करतीं हैं कि राज्य परिचारिका मंडल तत्काल प्रभाव से बर्खास्त हो और परिचारिकाओं का पुनर्वास राज्य के खर्चे से किया जाए जो विवहित परिचारिकाएँ हैं वह अपने पति के साथ जीवन यापन करें और जो अविवाहित है वह अपनी पसंद के पुरुष से उसकी सहमति से विवाह कर सकतीं हैं अथवा संग रह कर सहजीवन का लाभ उठा सकतीं हैं.