एक अनोखा बंधन

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KurtWild
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Joined: 21 Oct 2014 10:45

Re: एक अनोखा बंधन

Unread post by KurtWild » 21 Oct 2014 11:02

पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, अचानक भाभी को किसी के आने की आहात सुनाई दी और उन्होंने जोर लगा के मुझे अपने से अलग कर दिया| भाभी मुझसे अलग हो अपने कपडे ठीक करने लगीं और मैं तो जैसे हैरानी से अपने साथ हो रहे इस अत्याचार के लिए उन्हें दोषी मान रहा था| इससे पहले की मैं उनसे इस अत्याचार का कारण पूछता मेरे कानों मेरीन मेरे मझिले दादा के लड़के पंकज की आवाज आई| भाभी सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गई, और मेरे भाई मेरे पास आके बैठ गया और मेरा हाल-चाल पूछने लगा| मेरा मन किया की उसे जी भर के गालियां दूँ पर अपने पिताजी के शिष्टाचार ने मेरे मुंह पर टला लगा दिया| मैंने ताने मारते हुए उसे बस इतना ही कहा :
"आपको भी अभी आना था!!!"
पंकज : क्यों भाई क्या हुआ?
मैं : कुछ नहीं...
पंकज : और बताओ क्या हाल-चाल हैं दिल्ली के?
इस तरह उसने सवालों का टोकरा नीचे पटका और मैं उसके सवालों का जवाब बेमन से देने लगा|
दिल्ली के हाल-चाल तो ऐसे पूछ रहा था जैसे इसे बड़ी चिंता है दिल्ली की| मैंने आँखें चुराके भाभी की तरफ देखा तो उनके चेहरे पर उदासी साफ़ दिख रही थी| वो उठीं और बहार चलीं गई|
मुझे इतना गुस्सा आया की पूछो मत दोस्तों| पर मन में एक आशा की किरण थी की आज नहीं तो कल सही| कल तो मैं भाभी के बहुत प्यार करूँगा और आज की रही-सही सारी कसार पूरी कर दूँगा|

पर हाय रे मेरी किस्मत!!! एक बार फिर मुझे धोका दे गई!
अगले ही दिन भाभी का भाई उन्हें मायके लेजाने आया था क्योंकि उनके मायके में हवन था| सच मानो मेरे दिल पे जैसे लाखों छुरियाँ चल गईं| आँखों में जैसे खून उत्तर आया| मन किया की भाभी को ले कर कहीं भाग जाऊं| पर समाजिक नियमों से जकड़ा होने के कारण में कुछ नहीं कर पाया| जो एक रौशनी की किरण मेरे दिल मैं बची थी उसे किसी तूफ़ान ने बुझा दिया था| में बबस खड़ा उन्हें जाते हुए देखता रहा पर दिल में कहीं न कहीं आस थी की भाभी जल्दी आ जाएगी| ऐसा लगा की जैसे मैं इसी आस के सहारे जिंदा हूँ| मुझे इतना समय भी नहीं मिला की मैं उन्हें एक गुडबाय किस दे सकूँ या काम से काम इतना ही पूछ सकूँ की आप कब लौटोगी| दिन बीतते गए पर वो नहीं आईं, मेरी जिंदगी बिलकुल नीरस हो गई| मैं किसी से बात नहीं करता था बस घर में चारपाई पर लेटा रहता| मेरा मन ये नहीं समझ पा रहा था की इसमें गलती किसकी है? पर दिमाग तो भाभी को दोषी करार दे चूका था| खेर मेरे भाव ज्यादा दिन मेरी माँ से नहीं छुप पाये, उन्होंने मेरी उदासी का कारण जैसे भाँप ही लिया|
माँ ने पिताजी से कहा की लड़के का मन अब यहाँ नहीं लग रहा| अपनी बड़ी भौजी के साथ सारा दिन बात करता था अब तो वो मायके गई है और जो नई बहु आईं हैं उनसे तो शर्म के मारे बात तक नहीं करता तो ऐसा करते हैं की शहर वापस चलते हैं| पिताजी ने कहा की मैं बात करता हूँ उससे :

पिताजी: हाँ भाई लाड-साहब क्या बात है?
मैं : जी? कुछ भी तो नहीं...
पिताजी: कुछ नहीं है तो सारा दिन यहाँ पलंग क्यों तोड़ता रहता है| जाके अपनी भाभियों से बात कर, बच्चों के साथ खेल|
मैं : नहीं पिताजी अब मन नहीं लगता यहाँ, बोर हो रहा हूँ| दिल्ली चलते हैं!
पिताजी: मैं जानता हूँ तो अपनी बड़ी भौजी को याद कर रहा है| बीटा उनके घर में हवन है इसलिए वो अपने मायके गई है, जल्द ही आ जाएगी|
मैं: नहीं पिताजी मुझे शहर जाना है, और रही बात भौजी की तो मैं उनसे कभी बात नहीं करूँगा|
पिताजी: (गरजते हुए) क्यों? क्या वो अपने मायके नहीं जा सकती, क्योंकि लाड-साहब के पास टाइम पास करने के लिए और कोई नहीं है|

मैंने कोई जवाब नहीं दिया| वे गुस्से में बहार निकल गए और अपने बड़े भाई को सारी बात बता दी| मेरे बड़के दादा और बड़की अम्मा मुझे समझाने आये:
बड़के दादा: अरे मुन्ना कोई बात नहीं, अगर तुम्हारी बड़की बहूजी नहीं है तो क्या हुआ हम सब तो हैं|
बड़की अम्मा: मुन्ना मेरी बात सुनो, तुम्हारी केवल एक भौजी थोड़े ही हैं, दो नई-नई जो आईं हैं उनसे भी बात करो...हंसी-ठिठोली करो....
मैं: (बात घुमाते हुए)… अम्मा बात ये है की गर्मियों की छुटियों का काम मिला है स्कूल से वो भी पूरा करना है|
माँ ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा की:
"हाँ, अब केवल एक महीने ही रह गया है इसकी छुटियाँ खत्म होने में|"
स्कूल की बात सुनके अब पिताजी के पास बहस करने के लिए कुछ नहीं था| उन्होंने फैसला सुनाते हुए कहा:

"ठीक है हम कल ही निकलेंगे, ट्रैन की टिकट तो इतनी जल्दी मिलेगी नहीं इसलिए बस से जायंगे|" उनके इस फैसले से मेरे बेकरार मन को चैन नहीं मिला क्योंकि दिल को अब भी लग रहा था की कल भौजी अपने मायके से जर्रूर लौट आएगी और तब मैं पिताजी को फिर से मना लूँगा| रात्रि भोज के बाद सोते समय मैं फिर से भौजी की यादों में डूब गया और मन ही मन ये प्रार्थना कर रहा था की भौजी कल लौट आएं|

सुबह हुई और चन्दर भैया को ना जाने क्या सूझी उन्होंने भाभी के मायके ये खबर पहुँचा दी की मानु आज शहर वापस जा रहा है और भाभी ने ये कहला भेजा की वो हमें रास्ते में मिलेंगी| जब मुझे इस बात का पता चला तो मेरे तन बदन में न जाने क्यों आग लग गई| मैंने पिताजी से कहा :

"पिताजी हम रास्ते में कहीं नहीं रुकेंगे, सीधा बस अड्डे जायेंगे|"

पिताजी मेरी नाराजगी समझ गए और उन्होंने मुझे समझते हुए कहा :

“बेटा, इतनी नाराजगी ठीक नहीं और भाभी का मायका बिलकुल रास्ते में पड़ता है अब हम घूमके तो नहीं जा सकते| और अगर हम रास्ते में उनके घर पर नहीं रुकेंगे तो अच्छे थोड़े ही लगेगा|"

अब मरते क्या न करते हम चल दिए और पिताजी ने रिक्शा किया मैंने सारा सामान रिक्शा पे लाद दिया| पर मैंने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया की चाहे कुछ भी हो जाए मैं रिक्शा से नहीं उतरूंगा| भाभी का मायका नज़दीक आ रहा था और में तिरछी नज़र से भाभी को दरवाजे पे खड़ा देख रहा था| उनके हाथ में एक लोटा था जिसमें गुड की लस्सी थी जो वो मेरे लिए लाइ थीं, क्योंकि उन्हें पता था की मुझे लस्सी बहुत पसंद है| माँ ने मुझे कोहनी मारते हुए रिक्शा से उतरने का इशारा किया पर मैं अपनी अकड़ी हुई गर्दन ले कर रिक्शा से नीचे नहीं उतरा| मेरा गुस्सा अभी भी भौजी और मेरे बीच में आग की दिवार के रूप में दाहक रहा था| भौजी ने पहले पिताजी और माँ के पाँव छुए और माँ ने उन्हें मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा:

"मानु बहुत नाराज है तुमसे इसीलिए रिक्क्षे से नहीं उतर रहा, जाओ उसे लस्सी दो तो शांत हो जायेगा!"

KurtWild
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Re: एक अनोखा बंधन

Unread post by KurtWild » 21 Oct 2014 11:03

ये सब मैं तिरछी नज़रों से देख रहा था और उधर माँ और पिताजी भौजी के मायके वालों से मिलने लगे| मैं अनजान लोगों से ज्यादा घुलने मिलने की कोशिश नहीं करता, यही मेरा सौभाव था और चूँकि मैं अब किशोरावस्था में था इसलिए पिताजी मुझपे इतना दबाव नहीं डालते थे| भाभी अपनी कटीली मुस्कान लेते हुए मेरी और बढ़ने लगीं| वो मेरे पास आइ और मेरी कलाई को पकड़ा और बोलीं:

“मानु ….मुझसे नाराज हो?”

मैंने उनका हाथ झिड़कते हुए अपना हाथ उनसे छुड़ा लिया|

भाभी : "मुझसे बात नहीं करोगे?"

वो परेशान हो मेरी तरफ देखने लगीं|भौजी ने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ लिया और लस्सी वाला लोटा नीचे रख दिया| इस बार उनके स्पर्श में वही कठोरता थी जो मेरे हाथ में कुछ साल पहले थी, जब मैं उन्हें जाने नहीं देना चाहता था| मुझे ऐसा लगा जैसे वो मुझे रोक कर मुझसे माफ़ी माँगना चाहती हो, परन्तु गुस्से की अग्नि ने मेरे दिल को जला रखा था| मैंने दूसरी तरफ मुंह मोड़ लिया और मेरी आँख में आंसूं छलक आये| मैं भौजी को केवल अपनी कठोरता दिखाना चाहता था न की अपने अश्रु! मैं चाहता था की उन्हें एहसास हो की जो उन्होंने मेरे साथ किया वो कितना गलत था और उन्हें ये भी महसूस कराना चाहता था की मुझे पे क्या बीती थी|
पर मेरे आंसूं छलक के सीधा भौजी के हाथ पे गिरे और उन्हें ये समझते देर न लगी की मेरी मनो दशा क्या थी| उन्होंने मेरी ठुड्डी पकड़ी और अपनी ओर घुमाई, मैंने अपनी आँख बंद कर ली और भौजी ने मेरे मुख पे आँसूं की बानी लकीर देख ली थी| उन्होंने अपने हाथ से मेरे आंसूं पोछे…. मेरा गाला बिलकुल सुख चूका था और मेरे मुख से बोल नहीं फूट रहे थे| जब मैंने आँख खोली तो देखा की भाभी मेरी और बड़े प्यार से देखते हुए उन्होंने कहा:

"अच्छा बात नहीं करनी है तो काम से काम मेरे हाथ की लस्सी तो पी लो!"
पर पता नहीं क्यों मेरे अंदर गुस्सा अभी भी शांत नहीं हुआ था और मैंने ना में सर हिलाते हुए उनके लस्सी के गिलास को अपने से दूर कर दिया|
वो बोलीं:
“मानु मेरी बात तो.......”
और ये कहती हुई रुक गयीं| मैंने पलट के देखा तो माँ और पिताजी रिक्क्षे के करीब आ चुके थे| पिताजी ने भौजी के हाथ में लस्सी वाला लोटा देखा और कहा:
“क्या हुआ बहु, अभी तक गुस्सा है?”
भौजी: हाँ काका, देखो ना लस्सी भी नहीं पी रहा|
पिताजी: अब छोड़ भी दे गुस्सा, और चल जल्दी से लस्सी पी ले देर हो रही है|
मैं जानता था की अगर मैंने कुछ बोलने की कोशिश की तो मेरी आँख से गंगा-जमुना बहने लगे गई इसलिए केवल ना में सर हिला दिया| पिताजी को ना सुनने की आदत नहीं थी और वो भी इस नाजायज गुस्से की वजह से आग बबूला हो गए|
पिताजी: रहने दो बहु, लाड़-साहब के नखरे बहुत हैं| बड़ी अकड़ आ गई है तेरी गर्दन में घर चल साड़ी अकड़ निकालता हूँ|
माँ ने बात को खत्म करने के लिए भौजी के हाथ से लोटा लेते हुए कहा:

लाओ मैं ही पी लूँ|.हम्म्म.... बहुत मीठा है| (माँ ने मुझे ललचाते हुए कहा|)
पर मेरे कान पी जू तक ना रेंगी और पिताजी ने पेड़ के नीचे खड़े तम्बाकू कहते हुए रिक्क्षे वाले को चलने के लिए आवाज लगाई| रिक्शा चल पड़ा और भौजी की नजरें रिक्क्षे का पीछा कर रहीं थी इस उम्मीद में की शायद मैं पलट कर देखूं| पर मैं नहीं मुड़ा और उन्हें तिरछी नज़र से पीछे देखता रहा|

KurtWild
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Re: एक अनोखा बंधन

Unread post by KurtWild » 21 Oct 2014 11:06

खेर हम घर लौट आये और मैं अपने ऊपर हुए इस अन्याय से बहुत विचलित था और इस वाक्या को भूल जाना चाहता था| इसलिए मैंने पढ़ाई में अपना ध्यान लगाना चालु कर दिया| धीरे-धीरे मैं सब भूल गया और अपने मित्रों की सांगत की वजह से हस्थमैथुन की कला सिख चूका था| जब घर में डी.वी.डी प्लेयर आया तो दोस्तों से ब्लू फिल्म के जुगाड़ में लग गया और जब भी मौका मिलता उन फिल्मों को देखता| अब मैं सेक्स के बारे में सब जान चूका था और कैसे ना कैसे करके किसी भी नौजवान लड़की को भोगना चाहता था|

समय का पहिया फिर घुमा और अब मैं ग्यारहवीं कक्षा में पहुँच चूका था| फरवरी का महीना था और परीक्षा में केवल एक महीना ही शेष था और स्कूल के छुटियाँ चालु थी| अचानक वो हुआ जिसकी मैं कभी कामना ही नहीं की थी| दरवाजे पर दस्तक हुई और माँ ने मुझे दरवाजा खोलने को बोला| मैं हाथ में किताब लिए दरवाजे के पास पहुंचा और बिना देखे की कौन आय है मैंने दरवाजा खोल दिया और वापस अपने कमरे जानेके लिए मुद गया| मुझे लगा की पिताजी होंगे, पर तभी मेरे कान में एक मधुर आवाज पड़ी:

"मानु...."

मैं पीछे घुमा तो देखा लाल साडी में भौजी खड़ी हैं और उनके साथ नेहा जो की अब बड़ी हो चुकी थी वो भी खड़ी मुस्कुरा रही है| मेरा मुँह खुला का खुला रह गया! अपने आपको सँभालते हुए मैंने भौजी को अंदर आने को कहा| इतने में माँ भी भौजी की आवाज सुन किचन से निकल आईं| भौजी ने उनके पैर छुए और माँ ने उन्हें आशीर्वाद दिया| मैंने कभी भी सोचा ही नहीं था की भाभी ढाई साल बाद अकेली आएँगी वो भी सिर्फ मुझसे मिलने| लगता है आज मेरी किस्मत मुझपे कुछ ज्यादा ही मेहरबान थी| माँ ने उन्हें कमरे में बैठने को बोला और मुझे जबरदस्ती अंदर भेज दिया| मैं कमरे में दाखिल हुआ तो देखा भाभी पलंग पर बैठी थी और उनकी बेटी नेहा टी.वी की और इशारा कर रही थी|

मैंने टी.वी चालु कर दिया और कार्टून लगा दिया| नेहा बड़े चाव से टी.वी के नजदीक कुर्सी पे बैठ देखने लगी| मैंने डरते हुए भाभी की तरफ देखा तो उनकी नज़र मुझपे टिकी हुई थी और इधर मेरे मन में उथल-पुथल चालु थी| दिमाग उस हादसे को फिर से याद दिल रहा था और रह-रह के वो दबा हुआ गुस्सा फिर से चहरे पर आने को बेताब था| मैं चाहता था की भाभी को पकड़ कर उनसे पूछूं की आपने मेरे साथ उस दिन धोका क्यों किया था? कमरे में सन्नाटा था केवल टी.वी की आवाज आ रही थी की तभी माँ हाथ में कोका कोला लिए अंदर आई|

भाभी झट से उठ कड़ी हुई और माँ के हाथ से ट्रे ले ली और कहने लगी:

"चाची आपने तकलीफ क्यों की मुझे बुला लिया होता|"

माँ: अरे बेटा तकलीफ कैसी आज तुम इतने दिनों बाद हमारे घर आई हो| और बताओ घर में सब ठीक ठाक तो है???.....

और इस तरह दोनों महिलाओं की गप्पें शुरू हो गई| मैं अपने दिमाग को किताब में लगाना चाहता था पर दिल फिर पुरानी बातों को याद कर खुश हो रहा था! दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं और मन बेकाबू होने लगा पर हिम्मत नहीं हुई भाभी से बात करने की| एक अजीब सी शक्ति मुझे भाभी के पास जाने से रोक रही थी| एक हिच्चक .... जैसे की वो मेरे लिए कोई अनजान शख्स हो|

परन्तु मेरा कौमार्य मेरे दिमाग पर हावी होना चाहता था पर दिमाग कह रहा था की बेटा तेरी किस्मत हमेशा ऐन वक्त पे धोका देती है| क्यों अपना दिल को तकलीफ दे रहा है? जब गावों में जहाँ की इतनी खुली जगह है वहां पर कुछ नहीं हो पाया तो ये तो तेरा अपना घर है जिसमें केवल तीन कमरे और एक छत हैं| पर दिल कह रहा था की एक कोशिश तो बनती है पर करें क्या???
जब मैं अपने दिन के सपनों से बहार आया तो माँ भाभी से पूछ रही थी:

"बेटा तुम अकेली क्यों आई हो? चन्दर नहीं आय तुम्हारे साथ?"

भाभी: काकी नेहा के पापा साथ तो आये थे पर बाहर गावों के मनोहर काका का लड़का मिला था वो उन्हें अपने साथ ले गया और वो मुझे बहार छोड़के उसके साथ चले गए|

माँ: बेटा अच्छा तुम बैठो मैं खाना बनाती हूँ|

भाभी : अरे चाची मेरे होते हुए आप क्यों खाना बनाओगी?

माँ: नहीं बेटा, तुम इतने सालों बाद आई हो ... मानु से बातें करो|

इतना कह माँ रसोई में चली गई| अब भाभी मेरी ओर देखने लगी ओर मुझे इशारे से अपने पास बैठने को बुलाया| मैं उनके पास जाने से डर रहा था क्योंकि शायद अब मैं एक बार अपना दिल टूटते हुए नहीं देखना चाहता था| पर मेरे पैर मेरे दिमाग के एकदम विपरीत सोच रहे थे, और अपने आप भाभी की ओर बढ़ने लगे| मैं उनके पास पलंग पर बैठ गया और नीचे देख हिम्मत बटोरने लगा| भाभी ने बड़े प्यार से अपने हाथों से मेरा चेहरा ऊपर उठाया, जैसे की कोई दूल्हा अपनी दुल्हन का सुन्दर मुखड़ा सुहागरात पे अपने हाथ से उठता है|

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