ज़िंदगी के रंग compleet

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rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 14 Oct 2014 15:13

ज़िंदगी के रंग--9

गतान्क से आगे..................

अली:"मैं कोई बच्चा नही हूँ भाई और बखूबी जानता हूँ कि क्या सही है और क्या तमाशा है? ये घर मेरा भी उतना है जितना आप का है इस लिए मुझ पर रौब झाड़ने की कोई ज़रोरत नही." अली भी अब तो गुस्से मे आ चुका था और उसकी आवाज़ भी इमरान की तरहा उँची हो गयी थी. दोसरि तरफ उसकी भाबी सहमी हुई दोनो भाईयों को देख रही थी और मन ही मन दुआ कर रही थी के वो दोनो शांत हो जाए. पकोडे तेल मे अब जलने लगे थे पर कोई ध्यान नही दे रहा था.

इमरान:"अब तुम्हारी ज़ुबान भी निकल आई है? बोलो किस रिश्ते से उसे घर ले आए हो? क्या भगा के लाए हो उसे? इस घर को समझ क्या रखा है तुमने?"

अली:"आप को कोई हक़ नही पोहन्च्ता मुझ से सवाल जवाब करने का. अब्बा को घर आने दें फिर मैं उनसे खुद बात कर लूँगा."

शा:"इमरान प्लीज़ आप मेरे साथ चले. आपकी पहले ही तबीयत ठीक नही. ये सब बाते अब्बा जान के आने के बाद भी तो हो सकती हैं." इमरान को गुस्सा तो बहुत चढ़ा हुआ था पर वो देख चुका था के अली भी गुस्से से आग बाबूला हुआ हुआ है. "एक बार अब्बा घर आ जाए तब देखता हूँ के इसकी ज़ुबान क्या ऐसे ही चलती है?" ये सोच कर वो गुस्से से पैर पटकता हुआ अपने कमरे की ओर चल पड़ा और आईशा भी उसके पीछे पीछे चल पड़ी. अली ने चूल्हा बंद किया और अपने गुस्से को शांत करने लगा. थोड़ी देर बाद जो उसका मूड ठीक हुआ तो कोल्ड ड्रिंक्स और मिठाई ले कर ड्रॉयिंग रूम की ओर चलने लगा. जब वहाँ पोहन्चा तो देखा के मोना नही थी. वो बेचारी तो जब ज़ोर ज़ोर से आवाज़ आनी शुरू हुई थी तब ही चुपके से घर से बाहर चली गयी थी.

अली उसका पीछा करते फिर ना आ जाए इस लिए उसने जल्दी से एक टॅक्सी को रोका और उस मे सवार हो गयी और अपना मोबाइल भी ऑफ कर दिया. उसकी ज़िंदगी तो पहले ही मुस्किलौं का शिकार हो गयी थी और वो अब अपनी वजा से उसे भी परेशान नही करना चाहती थी. एक बार फिर वोई तन्हाई का आहेसास वापिस चला आया. आज चंद ही घेंटो मे दोसरि बार वो अपने आप को इतना अकेला महसूस कर रही थी. अब एक बार फिर एक ऐसे सफ़र पे चल पड़ी थी जिस की मंज़िल का कुछ पता नही था. "ग़लती मेरी ही है जो ऐसे उसके घर चली गयी. ठीक ही तो था उसका भाई. भला कौनसी शरीफ लड़की ऐसे किसी लड़के के घर बिना किसी रिश्ते के समान बाँध कर चली जाती है? मैं अब अपने आप को यौं टूटने नही दूँगी. मैं यहाँ अपने परिवार का सहारा बनने आई थी और ये ही मेरी ज़िंदगी का लक्ष्य है. प्यार मोहबत की इस मे कोई गुंजाइश नही." ये ही बाते वो सौचते हुए तन्हा ज़िंदगी के सफ़र मे एक नयी ओर चल पड़ी. आज कल के नौजवान प्यार मे अंधे हो कर चाँद तारे तोड़ लाने की बाते तो आसानी से कर लेते हैं पर ज़िंदगी की सच्चाईयो को जाने क्यूँ भुला देते हैं? ये बड़े बड़े वादे बेमायानी शब्दो से ज़्यादा कुछ भी तो नही होते.

वो हर मोड़ पे साथ देने के वादे

वो एक दूजे के लिए जान दे देने की कसमे

थी सब बेकार की बाते थे सब झूठे किस्से

एक दिन कॉलिंग सेंटर पे एक छोड़ी सी पार्टी रखी गयी. पार्टी की तैयारी का ज़िम्मा किरण को दे दिया गया. सरहद ने उसकी मदद करने का पूछा तो किरण ने हां कर दी. दोनो अगले दिन पार्टी का समान लेने बेज़ार चले गये. अब एक छोटी सी पार्टी के लिए कौनसी कोई बहुत ज़्यादा चीज़ो की ज़रोरत थी? 1 घेंटे मे ही वो समान ले कर फारिग हो गये. सरहद ने हिम्मत कर के किरण को खाने का पूछ ही लिया.

सरहद:"किरण अगर बुरा ना मानो तो मुझे तो बहुत भूक लग रही है. आप ने भी अभी खाना नही खाया होगा मुझे लगता है. ये सामने ही तो रेस्टोरेंट भी है. अगर आप बुरा ना माने तो क्या चल के थोड़ी पेट पूजा कर ली जाए?"

किरण:"इस मे बुरा मानने वाली क्या बात है? चलो चलते हैं." उसने थोड़ा सा मुस्कुरा के जवाब दिया. सरहद देखने मे जैसा लगता था उसकी वजा से शुरू शुरू मे तो किरण को अजीब सा लगा. फिर उसने ये भी महसूस किया के वो हर वक़्त उसकी ओर ही देखता रहता था. लेकिन जैसे जैसे कुछ समय बीता उसकी सौच सरहद के बारे मे बदलने लगी. किसी ने सच ही कहा है के रूप रंग ही सब कुछ नही होता. थोड़े ही अरसे मे वो अच्छे दोस्त भी बन गये थे. ये अलग बात थी के किरण ने इस दोस्ती को ऑफीस तक ही रखा. कुछ महीने पहले जो हुआ था उसका दर्द उसके शरीर से तो चला गया था पर शायद हमेशा हमेशा के लिए उसके ज़हन मे रह गया था. किरण के अंदर उस दिन के बाद बहुत बदलाव आ गया था लेकिन उसकी ज़िंदगी मे तो फिर भी कुछ ख़ास बदलाव नही आया और आता भी केसे? किरण ने अपनी खुशिया मारनी शुरू कर दी थी पर अपनी ज़रूरतो का तो कुछ नही कर सकती थी ना? घर पे बूढ़ी मा की तबीयत दिन ब दिन खराब होती जा रही थी और डॉक्टर और दवाओ के खर्चे थे के आसमान को चू रहे थे. उसकी कॉल सेंटर की तन्खा से ये सब कहाँ चलने वाला था? ना चाहते हुए भी मनोज की रखेल बन के उसे रहना पड़ रहा था. "क्या कभी मैं इस जहन्नुम ज़िंदगी से छुटकारा ले पाउन्गी?" ऐसा वो अक्सर सौचती थी और बहुत बार तो आत्म हत्या के ख़याल भी ज़हन मे आए पर उसे पता था के उसकी मौत का सदमा उसकी मा नही सह पाएगी. जिस मा ने उसके लिए इतना कुछ किया उसे वो तन्हा कैसा छोड़ के जा सकती थी? अपने हालत की वजा से बेबस वो वैसे ही जीने लगी जैसा के मनोज चाहता था. वो नही चाहती थी के कभी भी कोई लड़का उसके इर्द गिर्द नज़र आए और मनोज के अंदर का वहसी फिर जाग जाए. इसी लिए वो बस पकड़ लेती थी पर अली आंड मोना के साथ गाड़ी मे नही बैठती थी और अब सरहद को भी ज़्यादा पास नही आने दे रही थी. फिर भी धीरे धीरे ही सही पर उन दोनो मे दोस्ती गहरी होती जा रही ही. शायद इस की एक वजा ये भी थी के किरण ने कभी भी उससे अपने जिश्म को दूसरो मर्दो की तरहा हवस भरी नज़रौं से देखते नही देखा था. जब भी उसने देखा के वो उसकी तरफ देख रहा है, उसकी आँखौं मे किरण को कुछ और ही महसूस हुआ. ना जाने वो क्या जज़्बात थे पर हवस तो हरगिज़ ना थी. उसकी बतो मे भी सच्चाई महसूस होती थी और ऐसे ज़्यादा बंदे तो किरण ने देखे नही थे. था तो अली भी आदत का अच्छा बंदा पर वो तो पागलौं की तरहा मोना से प्यार करता था. "अजब बात है के मोना के इलावा सब देख सकते हैं के अली उसके प्यार मे केसे दीवाना बना हुआ है?" वो सौच कर मुस्कराने लगी. रेस्टोरेंट मे ज़्यादा रश नही था और उनको आराम से एक कोने पे मेज मिल गयी और दोनो ने खाने का ऑर्डर दे दिया.

rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 14 Oct 2014 15:14

सरहद:"यहाँ मेरे साथ आने का शुक्रिया." उसने थोड़ा सा शर्मा के कहा. उसका ये ही भोलापन तो किरण को अच्छा लगता था.

किरण:"इस मे कौनसी बड़ी बात है? फिर भी इतना ही आहेसन मान रहे हो तो मेरा बिल भी भर देना." आज भी किरण का चंचल्पन कभी कभार वापिस आ ही जाता था. वैसे मुस्कुराती हुई सरहद को वो बहुत अछी लगी. इस किरण को तो ही वो बचपन से देख रहा था पर पछले कुछ आरसे से वो जाने कहाँ खो गयी थी? जहाँ एक तरफ वो उसकी संजीदगी और दूसरे लड़को को पास ना आने देने की वजा से बहुत खुश था वहाँ साथ ही साथ वो इस शोख चंचल किरण को मिस भी करने लगा था.

सरहद:"जी ज़रूर. इस से बढ़ के मेरे लिए और खुशी क्या होगी? वैसे अगर आप बुरा ना माने तो एक बात कहू?"

किरण:"कह के देखो फिर सोचूँगी के बुरा मानने वाली बात है के नही?" कुछ समय ही सही पर वो मनोज, अपने हालात सब को भूल के इन सब चीज़ो से आज़ाद एक दोस्त के साथ बात चीत का मज़ा ले रही थी.

सरहद:"आप यौंही हंसते मुस्कुराते अछी लगती हैं. संजीदा ना रहा करो ज़्यादा." उसकी इस बात ने जाने कहाँ से किरण के अंदर छुपे गम के तार को फिर से छेड़ दिया था.

किरण:"ये हँसी कब साथ देती है? अगर ज़्यादा हँसो भी तो आँखौं से आँसू निकल आते हैं. जब के गम अगर दुनिया मे आप के साथ और कोई भी ना हो तब भी आप का साथ नही छोड़ते." ये कह कर वो तो चुप ही गयी और ना जाने किन ख्यालो मे खो गयी पर उसकी बात का सरहद पे गहरा असर हुआ. इस खोबसूरत चंचल लड़की ने अपने दिल पे कितने गम छुपा कर रखे हुए हैं इनका आहेसास पहली दफ़ा उसे तब हुआ. "मैं ये तो नही जानता के क्या चेएज़ तुम्हे इतना परेशान कर रही है किरण पर हां ये वादा zअरोओऱ करता हूँ के एक दिन तुम्हे इन गमो से छुटकारा दिला कर ही दम लूँगा." ये वादा दिल ही दिल उसने अपने आप से किया.

अली भाग के घर से बाहर निकला पर मोना कहीं नज़र नही आ रही थी. वो जल्दी से अपनी गाड़ी मे बैठ कर मोना को ढूँदने लगा लेकिन वो तो गायब ही हो गयी थी. मोबाइल पे भी फोन किए लेकिन मोबाइल भी मोना ने बंद कर दिया था. उसकी परेशानी गुस्से मे बदलने लगी और ये गुस्सा घर जा कर वो इमरान पे निकालने लगा. असलम साहब जो घर पोहन्चे तो एक जंग का सा समा था. उनके दोनो बेटो की आवाज़ से घर गूँज रहा था और साथ ही साथ उनकी बहू के रोने की आवाज़ भी महसूस हो रही थी. परेशानी से भाग कर वो जिस जगह से शोर आ रहा था वहाँ पोहन्चे तो देखा के इमरान के कमरे के बाहर दोनो भाईयों ने एक दोसरे का गिरेबान पकड़ा हुआ है और एक दूजे को बुरा भला कह रहे हैं. उन से थोड़ी ही दूर बेचारी आईशा रोई जा रही थी. असलम साहब को देखते साथ ही वो भाग कर उनके पास आई और रोते रोते कहा.

आईशा:"अब्बा जी देखिए ना ये दोनो क्या कर रहे हैं?"

असलम:"ये क्या हो रहा है?" उन्हो ने गूँजती हुई आवाज़ मे जो कहा तो उनके दोनो बेटे उनकी ओर देखने लगे. उन्हे देखते साथ ही दोनो ने एक दूजे के गिरेबान छोड़ दिए.

असलम:"मैं पूछता हूँ के ये हो क्या रहा है?" उनके ये कहने की देर थी के दोनो उँची उँची अपनी कहानी सुनाने लगे.

असलम:"चुप कर जाओ तुम दोनो! बहू तुम बताओ क्या हुआ है?" आईशा जल्दी जल्दी जो कुछ भी हुआ बताने लगी. जब वो सारा किस्सा सुना कर चुप हो गयी तो कुछ देर के लिए खामोशी छा गयी. आख़िर असलम साहब ने ये खामोशी तोड़ी.

असलम:"इमरान क्या ये ही तमीज़ सिखाई है तुम्हे मैने? और अली क्या तुम इतने बड़े हो गये हो के अपने भाई का गिरेबान पकड़ने लगो?"

इमरान:"ये घर मे ऐसे किसी भी लड़की को ले आए और मैं चुप चाप तमाशा देखता रहू क्या?" उसने गुस्से से पूछा.

असलम:"आवाज़ आहिस्ता करो! क्या सही है और क्या ग़लत उसका फ़ैसला लेने के लिए अभी तुम्हारा बाप ज़िंदा है. अगर ये उस लड़की को घर ले भी आया तो एक घर आए हुए मेहमान के साथ बदतमीज़ी करते तुम्हे शर्म नही आई?" ये सुन कर इमरान ने अपना सर झुका लिया.

असलम:"कौन लड़की थी वो अली सच सच बताओ?" ये सुन कर अली मोना के बारे मे सब कुछ बताने लगा. जब वो सारी कहानी सुना चुका तो असलम साहब ने पूछा.

असलम:"क्या तुम उससे प्यार करते हो?"

अली:"जी बाबा."

असलम:"तुम अपनी पढ़ाई पे ध्यान दो और उसकी फिकर मत करो. जैसे ही तुम्हे पता चले के वो कहाँ है मुझे बता देना. मैं उसके रहने सहने का बंदोबस्त कर दूँगा. आगे तुम दोनो का क्या करना है ये मुझे सौचने के लिए वक़्त दो. और हां एक बात कान खोल के तुम दोनो सुन लो. आज के बाद इस घर मे ऐसा कोई तमाशा हुआ तो तुम दोनो को घर से निकाल दूँगा. अब जाओ दूर हो जाओ मेरी नज़रौं से." वो सब तो अपने अपने कमरो मे चुप कर के चले गये पर असलम सहाब सौचने लगे "कौन है ये लड़की और इसका अब क्या किया जाए?"........

क्रमशः....................


rajaarkey
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Re: ज़िंदगी के रंग

Unread post by rajaarkey » 14 Oct 2014 15:15

ज़िंदगी के रंग--10

गतान्क से आगे..................

अब कहीं ना कहीं तो जाना ही था पर जाए तो जाए कहाँ? आख़िर टॅक्सी वाले को एक घर का पता बता के वहाँ चलने का उसने कह दिया. मोना ने अपनी आँखे बंद कर ली थी और दिमाग़ मे कोई ख़याल नही आने दे रही थी. ऐसे मे उसे टॅक्सी ड्राइवर शीशे से उसकी छाती की तरफ देख ललचाई हुई नज़रौं से देख रहा है ये भी नज़र नही आया. थोड़ी देर बाद टॅक्सी रुकी तो उसने अपनी आँखे खोल दी और टॅक्सी वाले को उसके पेसे दे कर उतर गयी. अब तो उसकी सभी उम्मीदें ही टूट चुकी थी. यहाँ से भी इनकार हुआ तो वो क्या करेगी ये सौचना भी नही चाह रही थी पर साथ ही साथ दिल मे अब कोई उम्मीद भी नही बची थी. ऐसे मे धीरे से उसने घर की घेंटी बजा दी. थोड़ी ही देर मे किरण ने घर का दरवाज़ा खोल दिया. मोना को देखते ही उसका चेहरा चमक उठा.

किरण:"मोना! तू और यहाँ? क्या रास्ता भूल गयी आज?"

मोना:"कुछ ऐसा ही समझ लो."

किरण:"आरे पहले अंदर तो आ बैठ कर बाते करते हैं." ये कह कर वो तो थोड़ा हट गयी लेकिन जब मोना घर मे दाखिल हो रही थी तो उसके पुराने सूटकेस पर पहली बार किरण की नज़र पड़ी. अब वो बच्ची तो थी नही. समझ गयी के कुछ तो गड़-बाड़ है. दोनो सहेलियाँ जा कर ड्रॉयिंग रूम मे बैठ गयी.

किरण:"तो बैठ मे तेरे लिए चाय ले बना कर लाती हूँ." ये कह कर वो उठने लगी तो मोना ने हाथ से पकड़ लिया.

मोना:रहने दे बस थोड़ी देर मेरे पास ही बैठ जा." उसकी आँखौं मे उभरते हुए आँसू देख कर अब तो किरण भी परेशान हो गयी और समझ गयी के ज़रूर कोई बड़ी बात हुई है. उसने किरण को गले से लगा लिया जैसे ही उसकी आँखौं से आँसू बहने लगे और थोड़ी देर उसे रोने दिया. आँसुओ से किरण का वैसे भी पुराना रिश्ता था. वो जानती थी के एक बार ये बह गये तो मन थोड़ा शांत हो जाएगा. थोड़ी देर बाद उसने धीरे से पूछा

किरण:"बस बस ऐसे रोते नही हैं. क्या हुआ है मुझे बता?" आँसू पूछते हुए मोना जो कुछ भी हुआ उसे बताने लगी और तब चुप हुई जब सब कुछ बोल चुकी थी.

किरण:"रोती क्यूँ है? तुझे तो खुश होना चाहिए के उस चुरैल से तेरी जान छूटी. रही बात अली की तो इस मे उसका भी तो कसूर नही है ना? तुझे तो मेरे पास फॉरन आ जाना चाहिए था. अपने बाप के घर मे बिना किसी संबंध के वो तुझे रख भी केसे सकता था? चल अब परेशान ना हो और इसको अब अपना ही घर समझ." ये सुनते साथ ही मोना ने किरण को गले से लगा लिया और एक बार फिर उसकी आँखो से आँसू बहने लगे पर इस बार ये खुशी के आँसू थे.

मोना:"मैं तेरा ये अहेसान कभी नही भूलूंगी. आज जब सब दरवाज़े बंद हो गये तो तू भी साथ ना देती तो जाने मेरा क्या होता?"

किरण:"दोस्ती मे कैसा अहेसान? हां पर एक समस्या है."

मोना:"क्या?" उसने घबरा के पूछा.

किरण:"उपर का कमरा तो किराए पे चढ़ा हुआ है. तुझे मेरे साथ ही कमरे मे मेरे बिस्तर पे सोना होगा."

मोना:"आरे इसकी क्या ज़रूरत है? मैं नीचे ज़मीन पे कपड़ा बिछा के सो जाउन्गी ना."

किरण:"चल अब मदर इंडिया ना बन और घबरा ना डबल बेड है मेरा. पिता जी ने मेरे दहेज के लिए खरीद के रखा था. अब उसपे तेरे साथ सुहागरात मनाउन्गी." किरण के साथ मोना भी हँसने लगी और उसके गम के बादल छाटने लगे. थोड़ी देर बाद किरण ने मोना को अपनी माता जी से मिलाया और उन्हे बताया के वो अब उनके साथ ही रहे गी. उनकी तबीयात दिन बा दिन महनगी दवाइयो के बावजूद बिगड़ रही थी और अब तो वो ज़्यादा बोल भी नही पाती थी. प्यार से बस अपना हाथ मोना के सर पे रख के उसे आशीर्वाद दे दिया. उन्हे देख कर मोना को भी उसकी मा की याद आ गयी. जाने उसके माता पिता केसे होंगे वो सौचने लगी? कभी कभार ही उनसे वो बात कर पाती थी और अब तो बात किए हुए काफ़ी दिन हो गये थे. ममता के फोन से उसने एक बार ही बस फोन किया था और ममता के चेहरे के तेवर देख कर ना सिरफ़ फोन जल्दी बंद कर दिया बल्कि दोबारा उसके फोनसे फ़ोन करने की जुरत भी नही हुई. जब से नौकरी मिली थी मोबाइल लेने के बाद 2-3 बार फोन तो उसने किया था लेकिन कॉल भी तो महनगी पड़ती थी और उसके अपने छोटे मोटे खर्चे पहले ही मुस्किल से पूरे हो रहे थे पहले ही.


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