Thriller -इंतकाम की आग compleet

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raj..
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Re: Thriller -इंतकाम की आग

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 08:20

रेलवे प्लॅटफार्म पर जैसे लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा था. भीड़ मे लोग अपना अपना सामान लेकर बड़ी मुश्किल से रास्ता निकालते हुए वहाँ से जा रहे थे. शायद अभी अभी कोई ट्रेन आई हो. वही प्लॅटफार्म पर एक कोने मे चंदन, सुनील, अशोक और सिकंदर पत्ते खेल रहे थे. उन चारों मे शिकेन्दर, उसके हावभाव से और उसका जो तीनो पर एक प्रभाव दिख रहा था उससे, उनका लीडर लग रहा था. शिकेन्दर लगभग 25 के आस पास, कसे हुए और मजबूत शरीर का मालिक, एक लंबा चौड़ा युवक था.

"देखो अपनी गाड़ी आने मे अभी बहुत वक्त है.. कम से कम और तीन गेम हो सकते है..." शिकेन्दर ने पत्ते बाँट ते हुए कहा.

"सुनील तुम इस काग़ज़ पर पायंट्स लिखो..." अशोक ने एक हाथ से पत्ते पकड़ते हुए और दूसरे हाथ से जेब से एक काग़ज़ का टुकड़ा निकाल कर सुनील के हाथ मे देते हुए कहा.

"और, लालटेन ज़्यादा हुशियारी नही चलेगी' सुनील ने चंदन को ताकीद दी. वे चंदन को उसके चश्मे की वजह से लालटेन ही कहते थे. शिकेन्दर का ध्यान पत्ते खेलते वक्त यूँ ही प्लॅटफार्म पर उमड़ पड़ी भीड़ की तरफ गया.

भीड़ मे मीनू और शरद एक दूसरे का हाथ पकड़ कर किसी परदेसी अजनबी की तरह चल रहे थे.

उसने मीनू की तरफ सिर्फ़ देखा और खुले मुँह देखता ही रह गया.

"बाप, क्या माल है..." उसके खुले मुँह से अनायास ही निकल गया. सुनील, चंदन और अशोक भी अपना गेम छोड़ कर उधर देखने लगे. उनका भी देखते हुए खुला मुँह बंद होने को तैय्यार नही था.

"कबूतरी कबूतर के साथ भाग आई है शायद..." शिकेन्दर के अनुभवी नज़र ने भाँप लिया.

'उस कबूतर के बजाय मुझे उसके साथ रहना चाहिए था..." सुनील ने कहा.

शिकेन्दर ने सबके पास से पत्ते छीन कर लेते हुए कहा, 'देखो, अब यह गेम बंद कर दो... हम अब एक दूसरा ही गेम खेलते है..."

सबके चेहरे खुशी से दमक ने लगे. वे शिकेन्दर के बोलने का छिपा अर्थ जानते थे. वैसे वे वह गेम कोई पहली बार नही खेल रहे थे. सब उत्साह से भरे एक दम उठकर खड़े हो गये...

"अरे, देखो ज़रा ख़याल रहे.... साले कहीं घुस जाएँगे तो बाद मे मिलेंगे नही..." अशोक ने उठते हुए कहा.

फिर वे उनके ख़याल मे ना आए इतना फासला रखते हुए उनके पीछे पीछे जाने लगे.

"आए...लालटेन तुम ज़रा आगे जाओ... साले पहले ही तुझे चश्मे से ज़रा कम ही दिखता है..." शिकेन्दर ने चंदन को आगे धकेलते हुए कहा. चंदन मीनू और शरद के ख़याल मे नही आए ऐसा सामने दौड़ते हुए गया.

दिन भर इधर उधर घूमने मे वक्त कैसा निकल गया यह शरद और मीनू को पता ही नही चला. कुछ देर बाद शाम भी हो गयी. शरद और मीनू एक दूसरे का हाथ पकड़ कर मस्त मज़े मे फुतपाथ पर चल रहे थे. सामने एक जगह रास्ते पर हार्ट शेप के हिड्रोज़ से भरे लाल गुब्बारे बेचनेवाला फेरीवाला उन्हे दिखाई दिया. वे उसके पास गये. शरद ने गुब्बारों का एक बड़ा सा दस्ता खरीद कर मीनू को दिया. पकड़ ने के लिए जो धागा था उसके हिसाब से वह दस्ता बड़ा होने से धागा टूट गया और वह दस्ता उड़कर आकाश की ओर निकल पड़ा. शरद ने दौड़कर जाकर, उँची उँची छलांगे लगाकर उसे पकड़ने का प्रयास किया लेकिन वह धागा उसके हाथ नही आया. वे लाल गुब्बारे मानो एकदुसरे को धक्के देते हुए उपर आकाश मे जा रहे थे. शरद की उस धागे को पकड़ ने की जी तोड़ कोशिश देख कर मीनू खिल खिलाकर हंस रही थी.

और उनके काफ़ी पीछे शिकेन्दर, अशोक, चंदन और सुनील किसी के ख़याल मे नही आए इसका ध्यान रखते हुए उनका पीछा कर रहे थे.

मीनू और शरद एक जगह आइस्क्रीम खाने के लिए रुक गये. उन्होने एक कों लिया और उसमे ही दोनो खाने लगे. आइस्क्रीम खाते वक्त मीनू का ध्यान शरद के चेहरे की तरफ गया और वह खिलखिलाकर हंस पड़ी.

"क्या हुआ...?" शरद ने पूछा.

"आईने मे देखो.." मीनू वही पास एक गाड़ी को लगे आईने की तरफ इशारा कर बोली.

शरद ने आईने मे देखा तो उसके नाक के सिरे को आइस्क्रीम लगा था. अपना वह हुलिया देख कर उसे भी हँसी आ रही थी. उसने वह पोंछ लिया और एक प्रेम भरी नज़र से मीनू की तरफ देखा.

"सचमुच अपनी रूचि कितनी मिलती जुलती है..." मीनू ने कहा.

"फिर... वह तो रहने वाली है... क्यों कि... वी आर दा पर्फेक्ट मॅच..." शरद गर्व से बोल रहा था.

आइस्क्रीम खाते हुए अचानक मीनू का ख़याल दूर खड़े शिकेन्दर की तरफ गया. शिकेन्दर ने झट से अपनी नज़र फेर ली. मीनू को उसकी नज़र अजीब लगी थी और उसकी गतिविधियाँ भी..

"शरद मुझे लगता है अब हमे यहाँ से निकलना चाहिए..."मीनू ने कहा और वह वहाँ से निकल पड़ी. शरद उलझन मे सहमा सा उसके पीछे पीछे जाने लगा...

वहाँ से आगे काफ़ी समय तक चलने के बाद वे एक कपड़े के दुकान मे घुस गये. अब काफ़ी रात हो चुकी थी. मीनू को शक था कि कहीं वह पहले दिखा हुआ लड़का उनका पीछा तो नही कर रहा है. इसलिए उसने दुकान मे जाने के बाद वहाँ से एक सन्करि दरार से बाहर झाँक कर देखा. बाहर शिकेन्दर उसके और दो साथी के साथ चर्चा करते हुए इधर उधर देख रहा था. शरद उन लोगों को दिख सके ऐसे जगह पर खड़ा था.

"शरद पीछे मुड़कर मत देखो.. मुझे लगता है वह लड़के अपना पीछा कर रहे है..." मीनू दबे स्वर मे बोली...

"कौन..? किधर..?" शरद ने गड़बड़ाते हुए पूछा...

"चलो जल्दी यहाँ से हम निकल जाते है... वे हम तक पहुँचने नही चाहिए..." मीनू ने उसे वहाँ से बाहर निकाला.

वे दोनो लंबे लंबे कदम डालते हुए फुतपाथ पर चल रहे थे लोगों की भीड़ से रास्ता निकालते हुए वहाँ से जाने लगे.

अपना पीछा हो रहा है इसका अब पूरा यकीन मीनू और शरद को हो चुका था. वे दोनो भी घबराए और सहमे हुए थे. यह शहर उनके लिए नया था. वे उन चोरों से बचने के लिए जिधर रास्ता मिलता उधर जा रहे थे. चलते चलते वे एक ऐसे सुनसान जगह पर आए कि जहाँ लोग लगभग नही के बराबर थे. वैसे रात भी काफ़ी हो चुकी थी. यह भी एक वहाँ लोग ना होने की वजह हो सकती थी. उसने पीछे मुड़कर देखा. शिकेन्दर और उसके दोस्त अभी भी उनका पीछा कर रहे थे. मीनू का दिल धड़कने लगा. शरद को भी कुछ सूझ नही रहा था. अब क्या किया जाय, दोनो भी इस सहमे हुए थे. वे तेज़ी से चल रहे थे और उनसे जितना दूर जा सकते है उतनी कोशिश कर रहे थे. आगे रास्ते पर तो और भी घना अंधेरा था. वे दोनो और उनके पीछे उनका पीछा कर रहे वे चार लड़के इनके अलावा उनको वहाँ और कोई भी नही दिख रहा था.

"लगता है उनके ख़याल मे आया है कि हम उनका पीछा कर रहे है..." चंदन अपने साथियों से बोला.

"आने दो.. वह तो कभी ना कभी उनके ख़याल मे आने ही वाला था..." शिकेन्दर ने बेफिक्र अंदाज़ मे कहा.

"वे बहुत डरे हुए भी लग रहे है..." सुनील ने कहा.

"डरना तो चाहिए... अब डर के वजह से ही अपना काम होनेवाला है.. कभी कभी डर ही आदमी को कमजोर बना देता है..." अशोक ने कहा.

शरद ने पीछे मुड़कर देखा तो वे चारों तेज़ी से उनकी तरफ आ रहे थे.

"मीनू.. चलो दौड़ो..." शरद उसका हाथ पकड़ते हुए बोला.

एक दूसरे का हाथ पकड़ कर वे अब ज़ोर से दौड़ने लगे.

"हमे पोलीस मे जाना चाहिए क्या...?" मीनू ने दौड़ते हुए पूछा.

"अब यहाँ कहाँ है पोलीस.... और अगर हम ढूंढकर गये भी.. तो वे भी हमे ही ढूँढ रहे होंगे... अब तक तुम्हारे घरवालों ने पोलीस मे रिपोर्ट दर्ज की होगी..." शरद दौड़ते हुए किसी तरह बोल पा रहा था.

क्रमशः……………………

raj..
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Re: Thriller -इंतकाम की आग

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 08:21

इंतकाम की आग--10

गतान्क से आगे………………………

दौड़ते हुए वे घने अंधेरे मे डूबे हुए एक सन्करि गली मे घुस गये. शिकेन्दर और उसके दोस्त भी उनके पीछे ही थे. वे जब गली मे घुसने ही वाले थे कि उतने मे एक बड़ा सा ट्रक रास्ते से उनके और उस गली के बीच मे से गुजर गया. वे ट्रक पास होने तक रुक गये और जब ट्रक पास हो चुका तब उनको उस गली मे कोई नही दिख रहा था. वे गली मे घुस गये. गली के दूसरे सिरे तक तेज़ी से दौड़ गये. वहाँ रुक कर उन्होने आजूबाजू देखा. लेकिन उन्हे शरद और मीनू कही नही देखाई दे रहे थे.

शिकेन्दर और उसके दोस्त इधर उधर देखते हुए एक चोराहे पर खड़े हो गये. उन्हे मीनू और शरद कहीं भी नही दिखाई दे रहे थे.

"हम सब लोग चारो तरफ फैलकर उन्हे ढूँढते है.. वे हमारे हाथ से छूटने नही चाहिए..." शिकेन्दर ने कहा.

चार लोग चार दिशा मे, चार रास्ते से जाकर फैल गये और उन्हे ढूँढ ने लगे.

मीनू और शरद रास्ते के किनारे पड़े एक ड्रेनेज पाइप मे छिप गये थे. शायद ड्रेनेज पाइप्स नये डालने के लिए या बदल ने के लिए वहाँ लाकर डाले होंगे. इतने मे अचानक उन्हे उनकी तरफ दौड़ते हुए आ रहे किसी के पैरों की आहट हो गयी. वे अब वहाँ से हिल भी नही सकते थे. वे अगर इस हाल मे उन्हे मिले तो उनके पास करने के लिए कुछ नही बचा था. उन्होने बिल्ली के जैसे अपनी आँखें मूंद कर अपने आपको जितना हो सकता है उतना सिमटने की कोशिस की. इसके अलावा वे कर भी क्या सकते थे...?

अब उनके ख़याल मे आया कि वह दौड़कर आनेवाला, उन्ही चारों मे से एक, अब उनके पाइप के पास पहुँच गया है.. वह नज़दीक आते ही शरद और मीनू एकदम शांत लगभग साँसे रोक कर कुछ भी हरकत ना करते हुए वैसे ही छिपे रहे. वह अब पाइप के एकदम पास आकर पहुँचा था.

वह उन चारों मे से ही एक चंदन था. उसने आजूबाजू देखा.

"साले कहाँ गायब हो गये...?" वह चिढ़कर अपने आप से ही बड़बड़ाया.

उतने मे चंदन का पाइप की तरफ ख़याल गया.

ज़रूर साले इस पाइप मे छिपे होंगे...

उसने अनुमान लगाया. वह पाइप के और करीब गया. वह अब झुक कर पाइप मे देखने ही वाला था. इतने मे....

"चंदन... ज़रा इधर तो आओ... जल्दी..." उधर से शिकेन्दर ने उसे आवाज़ दिया.

चंदन पाइप मे झुक कर देखते देखते रुक गया, उसने आवाज़ आई उस दिशा मे देखा और मुड़कर दौड़ते हुए उसे दिशा मे चला गया.

जानेवाले पेरो की आवाज़ आते ही मीनू और शरद ने सुकून की सांस ली.

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raj..
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Re: Thriller -इंतकाम की आग

Unread post by raj.. » 13 Oct 2014 08:21

होटेल के एक कमरे मे मीनू और शरद बेड पर एकदुसरे के आमने सामने बैठे थे. शरद ने मीनू के चेहरे पर आती बालों की लाटो को एक तरफ हटाया.

"मुझे तो डर ही लगा था कि शायद हम उनके चुंगले मे ना फँस जाए..." मीनू ने कहा.

वह अभी भी उसे भयानक मन्स्थिति से बाहर नही निकल पाई थी..

"देखो... मेरे होते हुए तुम्हे चिंता करने की क्या ज़रूरत...? में तुम्हे कुछ भी नही होने दूँगा... आइ प्रॉमिस..." वह उसे सांत्वना देने की कोशिश करते हुए बोला.

उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए उसके तरफ देखा.

सचमुच उसे उसके इस शब्दोसे कितना अच्छा लगा था...

धीरे से शरद उसके पास खिसक गया. मीनू ने उसकी आँखों मे देखा. शरद भी अब उसकी आँखों से अपनी नज़रे हटाने के लिए तैय्यार नही था. धीरे धीरे उनके सांसो की गति बढ़ने लगी. हल्के ही शरद ने उसे अपनी बाहों मे खींच लिया. उसे भी मानो उसकी सुरक्षित बाहों मे अच्छा लग रहा था.

शरद ने धीरे से उसे बेड पर लिटाकर उसका चेहरा अपनी हाथों मे लेकर वह उसकी तरफ एकटक देखने लगा. धीरे धीरे उसकी तरफ झुकता गया और उसके गर्म होंठ अब उसके तपते होंठोपर टिक गये. दोनो भी बेकाबू होकर एक दूसरे को आवेग मे चूमने लगे. इतने आवेग मे कि वे दोनो 'ढप्पक' से बेड के नीचे फर्शपर गिर गये. मीनू नीचे और उसके उपर शरद गिर गया. दर्द से कराहते हुए मीनू ने उसे दूर धकेला.

"मेरी क्या हड्डियाँ तोड़ोगे...?" वह कराहते हुए बोली.

शरद झट से उठ गया और उसे उपर उठाने का प्रयास करने लगा.

"आइ एम सौरी... आइ एम सो सॉरी..." वह बोला.

मीनू ने उसे एक थप्पड़ मारनेका अवीरभाव किया. उसने भी डर के मारे अपनी आँखें बंद कर अपना चेहरा दूसरी तरफ हटाया. मीनू मन ही मन मुस्कुराइ. किसी छोटे बच्चे की तरह मासूम भाव उसके चेहरे पर उभर आए थे. उसकी इसी मासूम आड़ा पर तो वह फिदा हुई थी. उसने उसका चेहरा अपने हाथों मे लिया और उसकी होंठो को वह कस कर चूमने लगी. वह भी उसी तड़प, उसी आवेग के साथ जवाब मे उसे चूमने लगा. अब तो उन्होने नीचे फर्शपर बिछे गाळीचे से उठकर उपर जाने के भी जहमत नही उठाई. असल मे वे एक क्षण भी गवाना नही चाहते थे. वे नीच गलिचे पर ही लेटकर एक दूसरे के उपर चुंबन की बरसात करने लगे. चूमने के साथ ही उनके हाथ एक दूसरे के कपड़े निकल ने मे व्यस्त थे. शरद अब उसके सारे कपड़े निकाल कर उसमे समा जाने को बेताब हुआ था. वह धीरे धीरे बड़ी बड़ी सांसो के साथ मीनू के उपर झुकने लगा. इतने मे.. इतने मे उनके कमरे के दरवाजे पर किसी ने नॉक किया. वे मानो जैसे थे वैसे बर्फ की तरह जम गये. गड़बड़कर वे एक दूसरे की तरफ देखने लगे.

हमे दरवाजा बजने का आभास तो नही हुआ...?

तब फिर से एकबार दरवाजे पर नॉक सुनाई दी... इसबार थोड़ी ज़ोर से..

सर्विस बॉय तो नही होगा...

"कौन है...?" शरद ने पूछा.

"पोलीस...." बाहर से आवाज़ आए.

दोनो गलिचे से उठकर कपड़े पहन ने लगे.

पोलीस यहाँ तक कैसे पहुँच गयी...?

शरद और मीनू सोचने लगे.

उन्होने अपने कपड़े पहन ने के बाद शरद सहमे हुए स्थिति मे दरवाजे तक गया. उसने फिर से एक बार मीनू की तरफ देखा. अब इस परिस्थिति का सामना कैसे किया जाए इसकी वे मन ही मन तैय्यार करने लगे थे. शरद की होल से बाहर झाँक कर देखने लगा. लेकिन बाहर अंधेरे के सिवा कुछ नज़र नही आ रहा था.

या उस की होल मे कुछ प्राब्लम होगा...

सावधानी से, धीरे से उसने दरवाज़ा खोला और दरवाज़ा थोड़ा तिरछा करते हुए बाहर झाँक ने का प्रयास कर रहा था और तभी .... शिकेन्दर, अशोक, सुनील और चंदन दरवाज़ा ज़ोर से धकेलते हुए कमरे मे घुस गये.

क्या हो रहा है यह समझने के पहले ही शिकेन्दर ने दरवाजे को अंदर से कुण्डी लगा ली थी. किसी चीते की फुर्ती से अशोक ने चाकू निकाल कर मीनू के गर्दन पर रख दिया और दूसरे हाथ से वह चिल्लाए नही इसलिए उसका मुँह दबाया.

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