कथा भोगावती नगरी की

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sexy
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Re: कथा भोगावती नगरी की

Unread post by sexy » 19 Sep 2015 09:50

उधर स्वागत कक्ष में महाराज की निजी सचिव देवी सुवर्णा सिंहासन पर विराजित थी. निजी सचिव का पद स्वयं महाराज शिशिन्ध्वज ने ही स्थापित किया था इसका मुख्य कारण यह था कि राज्य के विद्वान मध्यम वर्गीय ,सामाजिक नैतिकता और शिष्टाचार का पुरस्कार करने वाले खाते पीते परिवार अपनी कन्याओं को को महाराज की सेवा में भेजें .

देवी सुवर्णा स्वयं उच विद्या विभूषित विभिन्न पद्वियों से अलंकृत विदेशी मामलों की तज्ञ और महाराज के सलाहकार मंडल की प्रधान थी. उनका कर्तव्य कुछ कुछ वैसा ही था जैसा आज कल के मंत्रियों के सलाहकार नौकरशाहों का होता है. अंतर इतना था कि वह महाराज के परिचारिकाओं की स्वामिनी थी औरिस नाते महाराज की विशेष कृपा उन्हें प्राप्त थी

देवी सुवर्णा ने आमत्य द्वितवीर्य और राज वैद्य वनसवान का स्वागत किया उन्हें विराजने के लिए आसान दिया तथा उनके वरिष्ठता के अनुरूप उन्हें राज्य परिचारिका मंडल की एक एक परिचारिका आवंटित की गयी. इधर प्रधान गुप्तचर का भी आगमन हुआ उनका भी यथोचित सम्मान हुआ और वह अपनी आवंटित परिचारिका के साथ अपने आसान पर आ विराजे अब महाराज के आगमन की प्रतीक्षा हो रही थी.

देवी सुवर्णा अनुपम सौंदर्यवती थी किंतु उन्होने अत्यंत सादे श्वेत रेशमी वस्त्रों का परिधान किया था , शरीर पर एक भी आभूषण न था और उन्होने अपने केश खुले छोड़े हुए थे उनके विद्वत्ता के तेज से आलोकित उनके ललाट पर उनके रेशमी मुलायम केशों की लटे आ जातीं जिन्हें वह अपनी उंगलियों से संवारती.

देवी सुवर्णा के बारे में कहा जाता कि उन पर ” कार्येशु मंत्री शयनेशु रंभा:” की पंक्तियाँ एकदम उचित बैठती थी, महाराज किसी भी मुद्दे पर उनका परामर्श अवश्य सुनते.

तभी महाराज के आगमन की सूचना हुई सभी अपने अपने आसनों से उठ खड़े हुए , शांत कदमों से चलते हुए महाराज अपने सिंहासन पर आ विराजे और सभी को बैठने का संकेत दिया.

“सभा की कार्यवाही शुरू हो” महाराज ने आदेश दिया तदनुसार सभी ने अपने बाँयी जाँघ पर परिचारिका को बैठाया , देवी सुवर्णा स्वयं महाराज की बाँयी जाँघ पर विराजीतो गयीं. तत्पश्चात सभी ने अपनी अपनी परिचारिका के गालों का चुंबन लिया और उनके गालों पर अपना हस्ताक्षर अपनी जिव्हा से चाट कर किया फिर कानों के सिरे अपने दाँतों तले दबा कर उन्हें चर्चा में सहभागी होने का संकेत किया

जिव्हा से परिचारिका के गालों पर हस्ताक्षर करना एक प्राचीन पद्धति थी जिससे परिचारिका बैठक को सुनती थी और अंत में अपना मंतव्य अपने स्वामी को सुनाती थी.

देवी सुवर्णा महाराज की निर्वरतमान महारानी भी थी जिनका कार्यकाल पूरा होने वाला था देवी ज्योत्सना उन्हीं का स्थान लेने वालीं थी.

जब महाराज अपना हस्ताक्षर अपनी जिव्हा द्वारा सुवर्णा के गालों पर कर उसके कानो को दाँतों तले दबा रहे थे तो सुवर्णा की दर्द से हल्की चीख निकल गयी.

तत्क्षण महाराज ने अपनी मोटी अनामिका उनकी गुदा में निर्दयता पूर्वक घुसेड दी , जो ‘चुप रहने ‘ का ग़ूढ संकेत था.

” हाँ तो सभासदों चर्चा शुरू की जाय” महाराज ने आज्ञा दी.

अमात्य द्वितवीर्य बोलने को खड़े हुए इधर उनकी परिचारिका मधुस्मिता भी उनके साथ ही उठ कर खड़ी हुईं और अपने बाएँ हाथ से उनकी ग्रीवा में हाथ डाल अपने सिर को उनके वक्ष स्थल पर टीका कर उनके अंगवस्त्र को हल्का हटा कर उनके विशाल वक्ष स्थल पर अपनी जिव्हा से नक्काशी करते हुए छाती के केशों को सहला रहीं थी.

ऐसा आचरण पुंसवक राज्य की महान संस्कृति के अनुरूप ही था जिसमे स्त्री पुरुष को एक जैसे अधिकार और सम्मान प्राप्त होते थे . किसी भी परिचर्चा में सहभागी होने की पहली शर्त यह होती कि पुरुषों को अपनी पत्नी अथवा पत्नी को अपने पति को अनिवार्य रूप से सहभागी करना ही पड़ता जिससे खुले वातावरण में नि: संकोच हो कर विचारों का आदान प्रदान किया जा सकता.

किसी सहभागी के पति अथवा पत्नी के न होने पर यह परिचर्चा अथवा बैठक का संचालन करने वालों का दायित्व होता कि सहभागियों को निर्धारित पद और वरिष्ठता के अनुसार परिचारक / परिचारिका उपलब्ध कराई जाएँ.

मधुस्मिता , शुचिस्मिता , अस्मिता तथा स्मिता जैसी परिचारिकाएँ ऐसे ही बैठकों में सहभागी होतीं.

महाराज अमात्य को सुनने के लिए उत्सुक थे , देवी सुवर्णा अभी भी अपनी गुदा सहला रहीं थी , किंतु महाराज की अनामिका उनकी गुदा में शने:-शने: गहरी उतर रही थी. महाराज को आभास हो गया था क़ि अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में देवी सुवर्णा अवश्य ही कोई अप्रिय स्थिति खड़ी कर सकतीं हैं इसी कारण वह सभा में उनके सहभाग को नियंत्रित कर रहे थे . आज महाराज ने अपने निर्णय स्वयं लेने का विचार कर लिया था.

इसी बीच महाराज की पैनी उंगलियों के दबाव में श्वेत पतली रेशमी साड़ी फट गयी , और देवी सुवर्णा की ठंडी गुदा में महाराज की रत्नजडित अंगूठियों से युक्त उष्ण उंगलियाँ गुदा में सीधे गहरे तक उतर गयीं और महाराज के बढ़े हुए नाख़ून सुवर्णा के मल द्वार को चुभने लगे. एक गहरी सांस भर कर सुवर्णा ने अपने दाँतों तले होंठ दबा लिए और महाराज प्रदत्त वेदना को सहने लगीं और अमात्य की ओर देखने लगीं.

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Re: कथा भोगावती नगरी की

Unread post by sexy » 19 Sep 2015 09:50

महाराज “मैं आपसे आग्रह करूँगा कि दरबारी कार्य मंत्री श्री च्युतेश्वर को भी बैठक में सहभागी होने को आमंत्रित किया जाय , वह आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा सभागृह के बाहर कर रहे हैं. आज की बैठक में उनके मंत्रालय से संबंधित विषयों पर परिचर्चा होगी”

महाराज ने उत्तर दिया “उन्हें सम्मान सहित अंदर ले आएँ”

देवी सुवर्णा ने ताली बजाई तत्क्षण स्मिता उनके सम्मुख उपस्थित हो गयी , स्मिता संकेत समझ गयी क़ि देवी सुवर्णा और महाराज की आज्ञा से दरबारी कार्य मंत्री च्युतेश्वर की तरफ से परिचर्चा में सहभागी होना है .

तत्पश्चात राजनीति , कूटनीति और व्यवहार शास्त्रों में निपुण महाराज की निजी सचिव , और परिचारिकाओं की प्रधान महाराज की सुविद्य पत्नी देवी सुवर्णा ने अधिकार वाणी से आमत्य को आदेश दिया “मंत्री द्वितवीर्य जब तक दरबारी कार्य मंत्री च्युतेश्वर सभा में पधारते हैं आप अपना निवेदन आरम्भ करिए , च्युतेश्वर जी अपनी परिचारिका के साथ औपचारिकता पूर्ण करने के पश्चात ही सभा में सहभागी हो सकते हैं , इस बीच उनकी परिचारिका सभा में लिए गये निर्णयों से उन्हें परिचित कराएँगी.”

“जो आज्ञा देवी” अमात्य ने कहा. महाराज को देवी सुवर्णा का यों इस प्रकार उनकी उपस्थिति में अधिकार जताना उचित न लगा उन्होनें तत्क्षण देवी सुवर्णा की गुदा में उन्होने अपनी पैनी उंगली घुसेड़नी चाही परंतु देवी सुवर्णा को इस पैंतरे का आभास हो गया था बिना एक भी क्षण गँवाए उन्होनें अपनी दाँये हाथों से महाराज की अपनी गुदा में गहरे उतरती उंगली मरोड़ डाली और बाँया हाथ महाराज की धोती पर ले जा कर उनके अंडकोष के बाल जोरों से खींचे और अंडकोष मसल डाले , इस दोतरफ़ा वेदनदायक वार से महाराज दर्द से दोहरे हो गये कितनी लोक लज्जा के भय से मौन ही रहे , उन्होने दर्द से विव्हल हो, कर देवी सुवर्णा की ओर देखा , देवी सुवर्णा ने आँखें बड़ी कर होंठों से कुछ बुदबुदाई .महाराज मन मसोस कर रह गये. देवी सुवर्णा अपनी पद के अंतिम दिनों में भी अपना अधिकारों के प्रति जागरूक थी और उन्होने महाराज की एक चलने न दी.

“आदरणीय महाराज और देवी सुवर्णा की जय हो ” आमत्य और उनकी परिचारिका ने झुक कर उन्हें नमस्कार किया , देवी सुवर्णा ने मंद स्मित किया और उन्हें अपनी बात कहने की आज्ञा दी.

” आपको यह वीदित होगा कि पिछले डेढ़ वर्षों में राज्य भयानक समस्या से जूझ रहा है , पिछले डेढ़ वर्षों से राज्य में किसी भी स्त्री के गर्भ नहीं ठहर रहा है , प्रजा में भय व्याप्त है . कारण जानने के लिए जब हमने वैद्य वनसवान और गुप्तचरों को लगाया तो हमें बड़ी विचित्र बातें वीदित हुईं.

१. वैद्य वनसवान ने राज्यों के १००० पुरुषों से अपनी सुविद्य पत्नी श्यामला को संभोग द्वारा गर्भधारणा करवानी चाही परंतु
१००० में से ७७७ पुरुषों का लिंग भेदन के समय शिथिल पद जाता . इनका वीर्य पी कर वनसवान ने यह निष्कर्ष निकाला कि किसी अज्ञात रोग से इनका लिंग शिथिल हो जाता है.

२. जो २३३ भाग्यशाली पुरुष देवी श्यामला का भेदन और चोदन कर सके ,उनके वीर्य का परीक्षण करने पर यह पाया गया की उनमें शुक्राणुओं का अभाव है.इस्लिये गर्भ धारणा नही हो सकती.

३. गुप्तचर खेचर यह समाचार लाएँ हैं कि किसी ऋषि ने हमारे राज्य में इस रोग का प्रसारण किया हुआ है जो पूर्वोत्तर में घने जंगलों के बीच साधना करता है.

४. सुनने में आया है की वह एकांत प्रिय है तथा जो भी उसके एकांत में खलल डालने आता है उसकी पालतू कुतिया आगंतुकों का लिंग चबा जाती है.

अत: महाराज से सविनय निवेदन है कि सामने रखे गये तथ्यों के आधार पर उचित सोच विचार के बाद आगे की कार्यवाही का आदेश दें और उसका प्रारूप कृपा कर हम सभी को बताएँ.

सभा भवन में गहरी खामोशी छा गयी .महाराज यह ताड़ गये कि वह ऋषि और उसकी पालतू कुतिया कौन है ,वह भय से काठ हो गये आज भूतकाल के कुकर्म आज फलदायी हो रहे थे . महाराज की जाँघ पर बैठी हुई देवी सुवर्णा की तेज नज़रों से यह बात छुप ना सकी कि महाराज बहुत चिंतित हैं उन्होने अपना दाँये हाथ से महाराज के अंडकोष सहला कर उनके गुप्ताँग पर उगे बेतरतीब बालों पर अपना हाथ फैलाया मानों वह महाराज कीचिन्ता का कारण जानना चाहतीं हों परंतु महाराज मौन रहे.

देवी सुवर्णा समझ गयीं कि अब जोनिरणय लेना है उन्हीं को लेना है. तत्क्षण उन्होने आदेश दिया

“वैद्य वनसवान आपकोयः आदेश दिया जाता है कि शिलाजीत की बूटियाँ हिमालय से मंगवा कर उसकी औषधि बना कर प्रजा में नि: शुल्क बँटवाई जाएँ.

हम दरबारी कार्य मंत्री च्युतेश्वर , अमात्य द्वितवीर्य और स्वयं महाराज के साथ उन ऋषि से मिलने घनघोर वन जाएँगी जहाँ वे अपनी साधना कर रहे हैं.”

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Re: कथा भोगावती नगरी की

Unread post by sexy » 19 Sep 2015 09:50

यह सुनना था कि सभी अपने अपने आसनों से उछल पड़े , भला किस में इतना साहस है कि एक जंगली कुतिया से अपना लिंग कटवाए? परंतु राज आज्ञा का उल्लंघन भी तो नहीं किया जा सकता!

महाराज विचारों में डूब गये स्वयं उनका लिंग भी भेदन के समय कई बार शिथिल पड़ जाता यदा कदा वे छोड़न करने में सफल भी होते तो परिचारिकाओं को गर्भधारणा न करवा पाते , समस्या वाकई काफ़ी गंभीर थी.

“यदि आवश्यकता पड़ी तो हम ऋषि से कारण जानकार आम उन्हें संतुष्ट करेंगी” देवी सुवर्णा बोलीं.

देवी की इस घोषणा के साथ ही पूरा सभागृह उठा.

“पुंसवक नगरी की महान विचारक , राजनीति कूटनीति और व्यवहार नीति में निपुण , रानी , महारानियों परिचारिकाओं की प्रधान महाराज की सुविद्य पत्नी और पट्टरानी देवी सुवर्णा की … जय जय जय”

देवी मधुस्मिता और शुचिस्मिता हाथ जोड़ कर बोलीं “देवी धन्य हैं आप जो राज्य के लिए इतना बड़ा त्याग करने जा रहीं हैं किंतु उस ऋषि के लिंग की लंबाई हमारी योनि की गहराई के सामने कुछ भी नहीं , इस तुच्छ कार्य के लिए परिचारिकाओं को आज्ञा दें”

“नहीं देवी मधुस्मिता हम स्वयं उस ऋषि से रत हो कर अपने राज्य पर आई इस विपत्ति को दूर करेंगी.

तभी वहाँ पर दरबारी कार्य मंत्री च्युतेश्वर का आगमन हुआ , उन्हें देवी उन्हें देवी स्मिता ने देवी सुवर्णा के आदेशानुसार पहले ही सूचित कर दिया था उनको देवी सुवर्णा

का निर्णय ज्ञात हुआ और उन्हें यह जान कर अतीव दुख हुआ कि महाराज शिशिन्ध्वज और स्वयं उन जैसे शूर वीर के रहते देवी सुवर्णा को विवश हो कर उस ऋषि से

रत होना पडे .

“देवी सुवर्णा मैं सविनय आपसे निवेदन करूँगा क़ि आप अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें और मुझे इस स्थिति को संभालने का अवसर दें यद्यपि मैं आप जैसा कूटनीति में

निपुण तो नहीं परंतु आपकी कृपा से मैं आपके द्वारा प्रदत्त परिचारिका स्मिता को अवश्य ही ऋषि से रत करवा कर निश्चय ही उनको मना लूँगा”

मंत्री च्युतेश्वर ने देवी सुवर्णा से निवेदन किया. देवी सुवर्णा विचार में पड़ गयीं . जब भी वे विचारों में खोई होतीं वह अपनी उंगलियों से अपने गुप्तांगों के बालों को अपनी उंगलियों से लपेट कर छल्ले बनातीं . परंतु वे किनकर्तव्य विमूढ़ थी , स्पष्ट था कि स्थिति गंभीर होने के नाते उसका समाधान सरल न था. पहले जब भी कोई दुष्ट तांत्रिक अथवा ओझा किसी आपदा या महामारी का प्रसारण करता तो सैनिक उसकी खबर लेते या उसको ठिकाने लगाते . कई बार तो सेना के समलिंगी सैनिकों को उन पर छोड़ा जाता जो उन दुश्टों की गुदा में डंडा घुसेड कर उन्हें सदैव के लिए शांत कर देते कभी गंभीर स्थिति आई भी तो राज्य एक सुंदर परिचारिका को भेज कर उस दुष्ट वामाचारी को यहाँ समस्या विकट थी , सैनिकों के वहाँ जाते ही उस ऋषि कुमार की कुतिया ने उनके गुप्ताँग चबा डाले थे , और वह कुछ बता पाने की स्थिति में नहीं थे.

देवी सुवर्णा महाराज की जाँघ पर बैठी हुई सोच ही रही थी कि उसे महाराज की राय जानने की इक्षा हुई , उसने अपनी उंगलियाँ महाराज की धोती में डाली और अनामिका और अंगूठे से उनके लिंग पर किंचित दाब डालना चाहा . जैसे ही उन्होने महाराज के लिंग का स्पर्श किया उनको ज्ञात हुआ कि वह सिकुड गया है और शिथिल हो गया .

उसने चौंक कर महाराज की ओर देखा , महाराज का मुख शर्म से नीचे झुक गया . “अर्थात महाराज भी इसी दुर्धार रोग की चपेट में हैं ?” उसने स्वयं से प्रश्न किया .

फिर कुछ सोच कर उसने च्युतेश्वर को सूचित किया “ठीक है मंत्री जी हम अपने निर्णय पर पुनर्विचार करेंगी तदुपरांत आपको आदेश देंगीं , अभी के लिए सभा स्थगित की जाती है”

सभी सभासद उठ खड़े हुए और अपनी परिचारिका के साथ महाराज और देवी सुवर्णा को नमन कर सभगृह से बाहर चले गये.

अभी भी महाराज और सुवर्णा सभागृह में ही उपस्थित्त थे वे किसी गुप्त मंत्रणा के लिए अभी भी वहाँ रुके हुए थे.

सभासदों के जाने के उपरांत देवी सुवर्णा ने महाराज से पूछा “महाराज क्या आप बताने का कष्ट करेंगें कि उस ऋषि की कथा सुन कर आपका लिंग शिथिल क्यों पड़ गया और आप तनावग्रस्त क्यों हो गये?”

“मैं इस प्रश्न का उत्तर देना उचित नहीं समझता देवी”
“आपको देना होगा”
महाराज झल्ला उठे”व्यर्थ का आग्रह न करें देवी” इतना कह कर देवी को चुप करने के लिए उन्होने पुन : एक बार देवी की गुदा में अपनी पैनी उंगली डालनी चाही परंतु देवी ने उनका वार बेकार कर दिया.

“अपनी मर्यादा में रहो देवी सुवर्णा , तुम अग्नि से खेल रही हो”

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