कायाकल्प - Hindi sex novel
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
वह कुछ कर या कह पाती उससे पहले ही मैंने अपने आप को छोड़ दिया – मेरे गर्म, सफ़ेद वीर्य के लम्बे मोटे डोरे उसके पेट और जाँघों पर छलक गए। वीर्य की कुछ छोटी-छोटी बूँदें उसके योनि के बालों पर उलझ गईं। ऐसा करते हुए मेरी भरी हुई साँसों के साथ कराहें भी निकल गयीं – मेरे पाँव इस तरह कांपे की मुझे लगा की मैं अभी गिर जाऊँगा। मैंने पकड़ कर अपने आप को सम्हाला।
संध्या ने मेरे वीर्य से सने और रक्त वर्ण लिंग को देखा, फिर अपने पेट पर पड़े वीर्य को देखा और फिर बड़े अविश्वास से मेरी तरफ देखा। कुछ देर ऐसे ही घूरने के बाद उसने हाँफते हुए बोला,
“आपने ऐसे क्यों किया? मैंने आपको बोला था की आपका बीज मुझे मेरे अन्दर चाहिए!”
मैं अभी भी अपने आनंद के चरम पर था।
“जानेमन! सॉरी! आगे से सारा सीमन आपके अन्दर ही डालूँगा!”
मेरी बात सुन कर पहले तो उसको संतोष हुआ और फिर यह सोच कर की मेरा वीर्य लेने के लिए उसको सम्भोग करना पड़ेगा, उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया।
“इन द मीनटाइम, क्लीन दिस …” मैंने लिंग की तरफ इशारा करते हुए कहा।
संध्या मेरे यह कहने पर उठी और मेरे अर्ध उत्तेजित लिंग को अपने मुंह में लेकर चूसने लगी।
नीलम का परिप्रेक्ष्य:
नीलम ने जो कुछ देखा, उससे उसका मन जुगुप्सा से पुनः भर गया। दीदी जीजू के छुन्नू को मुँह में भर कर चूस रही थी।
‘पहले जीजू, और अब दीदी! ये शादी करते ही क्या हो गया इसको? कितना गन्दा गन्दा काम! और वो भी ऐसे खुले में? और वो जीजू ने दीदी के ऊपर ही पेशाब कर दिया! (नीलम की रूद्र का वीर्यपात पेशाब करने जैसा लगा)? अरे इतनी जोर से लगी थी तो वहां बगल में कर लेते!’
नीलम ने देखा की कुछ देर चूसने के बाद दीदी जीजू से अलग हो गयी और दोनों ही उठ कर झील की तरफ चलने लगे। वहां पहुँच कर जीजू और दीदी अपने अपने शरीर को धोने लगे, और कुछ देर में वापस आकर उसी टीले पर बैठ गए। और आपस में एक दूसरे को गले लगा कर चूमने और पलासने लगे। लेकिन दोनों ने कपडे अभी तक नहीं पहने।
‘अरे! ऐसे तो दोनों को ठंडक लग जाएगी और इनकी तबियत ख़राब हो जाएगी। कुछ तो करना पड़ेगा! ये दोनों तो न जाने कब तक कपडे नहीं पहनेंगे – मैं ही उनके पास चली जाती हूँ। जब इन्ही लोगो को कोई शर्म नहीं है तो मैं क्यों शरमाऊँ?’
मेरा परिपेक्ष्य:
“दीदी?” यह आवाज़ सुन कर हम दोनों ही चौंक गए – हमारा चुम्बन और आलिंगन टूट गया और उस आवाज़ की दिशा में हड़बड़ा कर देखने लगे। मैंने देखा की वहां तो नीलम खड़ी है।
“अरे! नीलम?” संध्या हड़बड़ा गयी – एक हाथ से उसने अपने स्तन और दूसरे से अपनी योनि छुपाने का प्रयास किया। “…. तू कब आई?” यह प्रश्न उसने अपनी शर्मिंदगी छुपाने के लिए किया था। संध्या को समझ आ गया था की उन दोनों की गरमागरम रति-क्रिया नीलम बहुत देर से देख रही है।
मैंने नीलम को देखकर अपनी नितांत नग्नता को महसूस किया और मैं भी हड़बड़ी में अपने शरीर को ढकने का असफल प्रयास करने लगा। हमारे कपडे उस चट्टान पर थोड़ा दूर रखे हुए थे, अतः चाह कर भी हम लोग जल्दी से कपडे नहीं पहन सकते थे।
“दीदी मैं अभी आई हूँ …. माँ ने आप दोनों के पीछे भेजा था मुझे, आप लोगो को वापस लिवाने के लिए। वो कह रही थी की मौसम खराब हो जाएगा और आप लोगो की तबियत न ख़राब हो जाए!”
कहते हुए उसने एक भरपूर नज़र मेरे शरीर पर डाली। मुझे मालूम था की नीलम ने मुझे और संध्या को पूरा नग्न तो देख ही लिया है, तो अब छुपाने को क्या ही है? अतः मैंने भी अपने शरीर को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की – उसने हमको काफी देर तक देखा होगा – संभव है की सम्भोग करते हुए भी। संभव नहीं, निश्चित है। लिहाज़ा, अब उससे छुपाने को अब कुछ रह नहीं गया था।
नीलम के हाव भाव देख कर मुझे लगा की वह हमारी नग्नता से काफी नर्वस है। हो सकता है की हमारे सम्भोग को देख कर वह लज्जित या जेहनी तौर पर उलझ गयी हो। उधर संध्या बड़े जतन से अपने स्तनों को अपने हाथों से ढँके हुए थी।
“अच्छा …” संध्या ने शर्माते हुए कहा। वो बेचारी जितना सिमटी जा रही थी, उसके अंग उतने अधिक अनावृत होते जा रहे थे। “…. वो हमारे कपड़े यहाँ ले आ …. प्लीज!” संध्या ने विनती करी। नीलम बात मान कर हमारे कपड़े लाने लगी।
संध्या ने मेरे वीर्य से सने और रक्त वर्ण लिंग को देखा, फिर अपने पेट पर पड़े वीर्य को देखा और फिर बड़े अविश्वास से मेरी तरफ देखा। कुछ देर ऐसे ही घूरने के बाद उसने हाँफते हुए बोला,
“आपने ऐसे क्यों किया? मैंने आपको बोला था की आपका बीज मुझे मेरे अन्दर चाहिए!”
मैं अभी भी अपने आनंद के चरम पर था।
“जानेमन! सॉरी! आगे से सारा सीमन आपके अन्दर ही डालूँगा!”
मेरी बात सुन कर पहले तो उसको संतोष हुआ और फिर यह सोच कर की मेरा वीर्य लेने के लिए उसको सम्भोग करना पड़ेगा, उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया।
“इन द मीनटाइम, क्लीन दिस …” मैंने लिंग की तरफ इशारा करते हुए कहा।
संध्या मेरे यह कहने पर उठी और मेरे अर्ध उत्तेजित लिंग को अपने मुंह में लेकर चूसने लगी।
नीलम का परिप्रेक्ष्य:
नीलम ने जो कुछ देखा, उससे उसका मन जुगुप्सा से पुनः भर गया। दीदी जीजू के छुन्नू को मुँह में भर कर चूस रही थी।
‘पहले जीजू, और अब दीदी! ये शादी करते ही क्या हो गया इसको? कितना गन्दा गन्दा काम! और वो भी ऐसे खुले में? और वो जीजू ने दीदी के ऊपर ही पेशाब कर दिया! (नीलम की रूद्र का वीर्यपात पेशाब करने जैसा लगा)? अरे इतनी जोर से लगी थी तो वहां बगल में कर लेते!’
नीलम ने देखा की कुछ देर चूसने के बाद दीदी जीजू से अलग हो गयी और दोनों ही उठ कर झील की तरफ चलने लगे। वहां पहुँच कर जीजू और दीदी अपने अपने शरीर को धोने लगे, और कुछ देर में वापस आकर उसी टीले पर बैठ गए। और आपस में एक दूसरे को गले लगा कर चूमने और पलासने लगे। लेकिन दोनों ने कपडे अभी तक नहीं पहने।
‘अरे! ऐसे तो दोनों को ठंडक लग जाएगी और इनकी तबियत ख़राब हो जाएगी। कुछ तो करना पड़ेगा! ये दोनों तो न जाने कब तक कपडे नहीं पहनेंगे – मैं ही उनके पास चली जाती हूँ। जब इन्ही लोगो को कोई शर्म नहीं है तो मैं क्यों शरमाऊँ?’
मेरा परिपेक्ष्य:
“दीदी?” यह आवाज़ सुन कर हम दोनों ही चौंक गए – हमारा चुम्बन और आलिंगन टूट गया और उस आवाज़ की दिशा में हड़बड़ा कर देखने लगे। मैंने देखा की वहां तो नीलम खड़ी है।
“अरे! नीलम?” संध्या हड़बड़ा गयी – एक हाथ से उसने अपने स्तन और दूसरे से अपनी योनि छुपाने का प्रयास किया। “…. तू कब आई?” यह प्रश्न उसने अपनी शर्मिंदगी छुपाने के लिए किया था। संध्या को समझ आ गया था की उन दोनों की गरमागरम रति-क्रिया नीलम बहुत देर से देख रही है।
मैंने नीलम को देखकर अपनी नितांत नग्नता को महसूस किया और मैं भी हड़बड़ी में अपने शरीर को ढकने का असफल प्रयास करने लगा। हमारे कपडे उस चट्टान पर थोड़ा दूर रखे हुए थे, अतः चाह कर भी हम लोग जल्दी से कपडे नहीं पहन सकते थे।
“दीदी मैं अभी आई हूँ …. माँ ने आप दोनों के पीछे भेजा था मुझे, आप लोगो को वापस लिवाने के लिए। वो कह रही थी की मौसम खराब हो जाएगा और आप लोगो की तबियत न ख़राब हो जाए!”
कहते हुए उसने एक भरपूर नज़र मेरे शरीर पर डाली। मुझे मालूम था की नीलम ने मुझे और संध्या को पूरा नग्न तो देख ही लिया है, तो अब छुपाने को क्या ही है? अतः मैंने भी अपने शरीर को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की – उसने हमको काफी देर तक देखा होगा – संभव है की सम्भोग करते हुए भी। संभव नहीं, निश्चित है। लिहाज़ा, अब उससे छुपाने को अब कुछ रह नहीं गया था।
नीलम के हाव भाव देख कर मुझे लगा की वह हमारी नग्नता से काफी नर्वस है। हो सकता है की हमारे सम्भोग को देख कर वह लज्जित या जेहनी तौर पर उलझ गयी हो। उधर संध्या बड़े जतन से अपने स्तनों को अपने हाथों से ढँके हुए थी।
“अच्छा …” संध्या ने शर्माते हुए कहा। वो बेचारी जितना सिमटी जा रही थी, उसके अंग उतने अधिक अनावृत होते जा रहे थे। “…. वो हमारे कपड़े यहाँ ले आ …. प्लीज!” संध्या ने विनती करी। नीलम बात मान कर हमारे कपड़े लाने लगी।
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“आप लोग ऐसे नंग्युल …. मेरा मतलब ऐसे नंगे क्यों हैं? ठंडक लग जायेगी न! कर क्या रहे थे आप लोग?” उसने एक ही सांस में पूछ डाला।
“हम लोग एक दूसरे को प्यार कर रहे थे, बच्चे!” मैंने माहौल को हल्का बनाने के लिए कहा।
“प्यार कर रहे थे, या मेरी दीदी को मार रहे थे। मैंने देखा … दीदी दर्द के मारे कराह रही थी, लेकिन आप थे की उसको मारते ही जा रहे थे।”
‘ओके! तो उसने हम दोनों को सम्भोग करते देख लिया है।‘ मुझे लगा की नीलम हम दोनों को ऐसे देख कर संभवतः चकित हो गयी है – वैसे जब बच्चे इस तरह की घटना घटते देखते हैं, तो समझ नहीं पाते की क्या हो रहा है। कई बार वे डर भी जाते हैं, और उस डर की घुटन से अजीब तरह से बर्ताव करने लगते हैं। नीलम सतही तौर पर उतनी बुरी हालत में नहीं लग रही थी, लेकिन कुछ कह नहीं सकते थे। मुझे लग रहा था की उसमें इस घटना को समझने की दक्षता तो थी, लेकिन अभी उचित और पर्याप्त ज्ञान नहीं था।
उसने पहले संध्या को, और फिर मुझको हमारे कपड़े दिए, मैंने कपडे लेते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और अपने ओर खींच कर उसकी कमर को पकड़ लिया और उसकी आँख में आँख डाल कर, मुस्कुराते हुए, बहुत ही नरमी से कहा,
“तुम्हारी दीदी को मारने की मैं सपने में भी नहीं सोच सकता – वो जान है मेरी! उसकी ख़ुशी मेरे लिए सब कुछ है और मैं उसकी ख़ुशी के लिए कुछ भी करूंगा। हम लोग वाकई एक दूसरे को प्यार कर रहे थे – वैसे जैसे की शादीशुदा लोग करते हैं। लेकिन, तुम अभी यह बात नहीं समझोगी। जब तुम्हारी शादी हो जायेगी न, तब तुमको मालूम होगा की दाजू सही कह रहे थे। तब तक मेरी कही हुई बात पर भरोसा करो …. ओके? तुम्हारी दीदी और मैं, हम दोनों एक हैं!”
नीलम ने अत्यंत मिले जुले भाव से मुझे देखा (मुझे स्पष्ट नहीं समझ आया की वह क्या सोच रही थी) और फिर सर हिला कर हामी भरी। मैंने उसके माथे पर एक छोटा सा चुम्बन दिया। मैंने देखा की उधर संध्या कपड़े पहनते हुए हमको ध्यान से देख रही है, और जब मैंने नीलम को चूमा, तो संध्या मुस्कुरा उठी। उस मुस्कान में मेरे लिए प्रशंसा और प्यार भरा हुआ था। नीलम मेरे द्वारा इस तरह खुले आम चूमे जाने से शरमा गयी – उसके गाल सेब जैसे लाल हो गए, अतः मैंने उसको जोर से गले से लगा लिया, जिससे उसको और शर्मिंदगी न हो।
जब वो अलग हुई तो बोली, “दाजू, आप बहुत अच्छे हो! … और एक बात कहूं? आप और दीदी साथ में बहुत सुन्दर लगते हैं!” इसके जवाब में नीलम को मेरी तरफ से एक और चुम्बन मिला, और कुछ ही देर में संध्या की तरफ से भी, जो अब तक अपने कपडे पहन चुकी थी।
कोई दो मिनट में हम दोनों ही शालीनता पूर्वक तरीके से कपड़े पहन कर, नीलम के साथ वापस घर को रवाना हो रहे थे।
वापस आते समय हम बिलकुल अलग रास्ते से आये और तब मुझे समझ आया की संध्या मुझे लम्बे और एकांत रास्ते से लायी थी – यह सोच कर मेरे होंठों पर शरारत भरी मुस्कान आ गयी। खैर, इस नए रास्ते के अपने फायदे थे। यह रास्ता अपेक्षाकृत छोटा था और इस रास्ते पर घर और दुकाने भी थीं। वैसे अगर मन में मौसम खराब होने की आशंका हो तो अच्छा ही है की आप आबादी वाली जगह पर हों – इससे सहायता मिलने में आसानी रहती है।
इस छोटी जगह में मैं एक मुख़्तलिफ़ इंसान था। ऐसा सोचिये जैसे की स्वदेस फिल्म का ‘मोहन भार्गव’। मैं स्थानीय नहीं था, बल्कि बाहर से आया था; मेरे हाव भाव और ढंग बहुत भिन्न थे; मुझे इनकी भाषा नहीं आती थी, इन्ही लोगो को दया कर के मुझसे हिंदी में बात करनी पड़ती थी – मुझसे ये लोग कई सारे मजेदार प्रश्न पूछते जिनसे इनका भोलापन ही उजागर होता; और तो और बहुत सारे लोग मुझे बहुत ही जिज्ञासु निगाहों से देखते थे – मुझसे बात करने के बजाय मुझे देख कर आपस में ही खुसुर पुसुर करने लगते। लेकिन, अब सबसे बड़ी बात यह थी की मैं यहाँ का दामाद था। इसलिए लोग ऐसे ही काफी मित्रवत व्यवहार कर रहे थे। यहाँ जितने भी लोगों ने हमको देखा, सभी ने हमसे मुलाक़ात की, अपने घर में बुलाया और आशीर्वाद दिया। नाश्ते इत्यादि के आग्रह करने पर हमने कई लोगो को टाला, लेकिन एक परिवार ने हमको जबरदस्ती घर में बुला ही लिया और हमारे लिए चाय और हलके नाश्ते का बंदोबस्त भी किया। वहां करीब आधे घंटे बैठे और जब तक हम लोग वापस आये तब शाम होने लगी थी।
“हम लोग एक दूसरे को प्यार कर रहे थे, बच्चे!” मैंने माहौल को हल्का बनाने के लिए कहा।
“प्यार कर रहे थे, या मेरी दीदी को मार रहे थे। मैंने देखा … दीदी दर्द के मारे कराह रही थी, लेकिन आप थे की उसको मारते ही जा रहे थे।”
‘ओके! तो उसने हम दोनों को सम्भोग करते देख लिया है।‘ मुझे लगा की नीलम हम दोनों को ऐसे देख कर संभवतः चकित हो गयी है – वैसे जब बच्चे इस तरह की घटना घटते देखते हैं, तो समझ नहीं पाते की क्या हो रहा है। कई बार वे डर भी जाते हैं, और उस डर की घुटन से अजीब तरह से बर्ताव करने लगते हैं। नीलम सतही तौर पर उतनी बुरी हालत में नहीं लग रही थी, लेकिन कुछ कह नहीं सकते थे। मुझे लग रहा था की उसमें इस घटना को समझने की दक्षता तो थी, लेकिन अभी उचित और पर्याप्त ज्ञान नहीं था।
उसने पहले संध्या को, और फिर मुझको हमारे कपड़े दिए, मैंने कपडे लेते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और अपने ओर खींच कर उसकी कमर को पकड़ लिया और उसकी आँख में आँख डाल कर, मुस्कुराते हुए, बहुत ही नरमी से कहा,
“तुम्हारी दीदी को मारने की मैं सपने में भी नहीं सोच सकता – वो जान है मेरी! उसकी ख़ुशी मेरे लिए सब कुछ है और मैं उसकी ख़ुशी के लिए कुछ भी करूंगा। हम लोग वाकई एक दूसरे को प्यार कर रहे थे – वैसे जैसे की शादीशुदा लोग करते हैं। लेकिन, तुम अभी यह बात नहीं समझोगी। जब तुम्हारी शादी हो जायेगी न, तब तुमको मालूम होगा की दाजू सही कह रहे थे। तब तक मेरी कही हुई बात पर भरोसा करो …. ओके? तुम्हारी दीदी और मैं, हम दोनों एक हैं!”
नीलम ने अत्यंत मिले जुले भाव से मुझे देखा (मुझे स्पष्ट नहीं समझ आया की वह क्या सोच रही थी) और फिर सर हिला कर हामी भरी। मैंने उसके माथे पर एक छोटा सा चुम्बन दिया। मैंने देखा की उधर संध्या कपड़े पहनते हुए हमको ध्यान से देख रही है, और जब मैंने नीलम को चूमा, तो संध्या मुस्कुरा उठी। उस मुस्कान में मेरे लिए प्रशंसा और प्यार भरा हुआ था। नीलम मेरे द्वारा इस तरह खुले आम चूमे जाने से शरमा गयी – उसके गाल सेब जैसे लाल हो गए, अतः मैंने उसको जोर से गले से लगा लिया, जिससे उसको और शर्मिंदगी न हो।
जब वो अलग हुई तो बोली, “दाजू, आप बहुत अच्छे हो! … और एक बात कहूं? आप और दीदी साथ में बहुत सुन्दर लगते हैं!” इसके जवाब में नीलम को मेरी तरफ से एक और चुम्बन मिला, और कुछ ही देर में संध्या की तरफ से भी, जो अब तक अपने कपडे पहन चुकी थी।
कोई दो मिनट में हम दोनों ही शालीनता पूर्वक तरीके से कपड़े पहन कर, नीलम के साथ वापस घर को रवाना हो रहे थे।
वापस आते समय हम बिलकुल अलग रास्ते से आये और तब मुझे समझ आया की संध्या मुझे लम्बे और एकांत रास्ते से लायी थी – यह सोच कर मेरे होंठों पर शरारत भरी मुस्कान आ गयी। खैर, इस नए रास्ते के अपने फायदे थे। यह रास्ता अपेक्षाकृत छोटा था और इस रास्ते पर घर और दुकाने भी थीं। वैसे अगर मन में मौसम खराब होने की आशंका हो तो अच्छा ही है की आप आबादी वाली जगह पर हों – इससे सहायता मिलने में आसानी रहती है।
इस छोटी जगह में मैं एक मुख़्तलिफ़ इंसान था। ऐसा सोचिये जैसे की स्वदेस फिल्म का ‘मोहन भार्गव’। मैं स्थानीय नहीं था, बल्कि बाहर से आया था; मेरे हाव भाव और ढंग बहुत भिन्न थे; मुझे इनकी भाषा नहीं आती थी, इन्ही लोगो को दया कर के मुझसे हिंदी में बात करनी पड़ती थी – मुझसे ये लोग कई सारे मजेदार प्रश्न पूछते जिनसे इनका भोलापन ही उजागर होता; और तो और बहुत सारे लोग मुझे बहुत ही जिज्ञासु निगाहों से देखते थे – मुझसे बात करने के बजाय मुझे देख कर आपस में ही खुसुर पुसुर करने लगते। लेकिन, अब सबसे बड़ी बात यह थी की मैं यहाँ का दामाद था। इसलिए लोग ऐसे ही काफी मित्रवत व्यवहार कर रहे थे। यहाँ जितने भी लोगों ने हमको देखा, सभी ने हमसे मुलाक़ात की, अपने घर में बुलाया और आशीर्वाद दिया। नाश्ते इत्यादि के आग्रह करने पर हमने कई लोगो को टाला, लेकिन एक परिवार ने हमको जबरदस्ती घर में बुला ही लिया और हमारे लिए चाय और हलके नाश्ते का बंदोबस्त भी किया। वहां करीब आधे घंटे बैठे और जब तक हम लोग वापस आये तब शाम होने लगी थी।
Re: कायाकल्प - Hindi sex novel
इस समय तक मुझे वाकई ठंडक लगने लगी थी – और लम्बे समय तक अनावृत अवस्था में रहने से ठण्ड कुछ अधिक ही लग रही थी।
घर आकर देखा की आस पास की पाँच-छः स्त्रियाँ आकर रसोई घर में कार्यरत थी। पता चला की आज भी कुछ पकवान बनेंगे! मैंने सवेरे जो मैती आन्दोलन के लिए जिस प्रकार का सहयोग दिया था, उससे प्रभावित होकर स्त्रियाँ कर-सेवा करने आई थी और साझे में खाना बना रही थी। वो सारे परिवार आ कर एक साथ खाना खायेंगे। मैंने संध्या से गुजारिश करी की कुछ स्थानीय और रोज़मर्रा का खाना बनाए। वो तो तुरंत ही शुरू ही किया गया था, इसलिए मेरी यह विनती मान ली गयी।
खाने के पहले करीबी लोग साथ बैठ कर हंसी मजाक कर रहे थे। एक भाई साहब अपने घर से म्यूजिक सिस्टम ले आये थे और उस पर ‘गोल्डन ओल्डीस’ वाले गीत बजा रहे थे। उन्होंने ने ही बताया की संध्या गाती भी है, और बहुत अच्छा गाती है। उसकी यह कला तो खैर मुझे मालूम नहीं थी। वैसे भी, हमको एक दूसरे के बारे में मालूम ही क्या था? मुझे उसके बारे में बस यह मालूम था की उसको देखते ही मेरे दिल ने आवाज़ दी की यही वह लड़की है जिसके साथ तुम्हे पूरी उम्र गुजारनी है।
मेरे अनुरोध करने पर संध्या ने गाना आरम्भ किया —
‘तेरा मेरा प्यार अमर, फिर क्यो मुझ को लगता हैं डर ,
मेरे जीवन साथी बता, क्यो दिल धड़के रह रह कर’
उसकी आवाज़ का भोलापन और सच्चाई मेरे दिल को सीधा छू गया। उसकी आवाज़ लता जी जैसी तो नहीं थी, लेकिन उसकी मिठास उनकी आवाज़ से सौ गुना अधिक थी। मेरा मन उस आवाज़ के सागर में गोते लगाने लगा।
‘कह रहा हैं मेरा दिल अब ये रात ना ढले,
खुशियों का ये सिलसिला, ऐसे ही चला चले”
मेरे मन में हमारे साथ बिताये हुए इन दो दिनों की घटनाएं और दृश्य चलचित्र की भाँति चलने लगे। मन में एक हूक सी हो गयी। संध्या के बगैर एक भी पल नहीं चाहिए मुझे मेरे जीवन में!
‘चलती हू मैं तारों पर, फिर क्यो मुझ को लगता हैं डर’
वही डर जो मुझे भी लगता है। प्यार में होना, जहाँ अत्यधिक संतोषप्रद और परिपूरक होता है, वहीँ अपने प्रेम को खोने का डर भी लगता है। गाना ख़तम हो गया था, और मैं संध्या की आँखों में देख रहा था – और वो मुझे! उसकी आँखों में यकीन दिलाने वाली चमक थी – इस बात का यकीन की मैं तुम्हारे साथ हूँ, हमेशा! मेरे ह्रदय में एक धमक सी हो गयी। ऐसा कभी नहीं हुआ। हमारा प्रेम बढ़ता ही जा रहा था, और हमारे साथ के प्रत्येक पल के साथ और प्रगाढ़ होता जा रहा था।
जब थाली परोसी गयी तो मैं घबरा गया – ये रोज़मर्रा की थाली है?! मुझको जो परोसा गया वह था – पुलाव, राजमा दाल, स्वांटे के पकौड़े, स्वाले (एक तरह के परांठे), और खीर – जो संध्या ने बनायी। सबसे अच्छी बात मुझको यह लगी की सभी लोग टाट-पट्टी पर साथ में बैठ कर साथ में खाना खा रहे थे। यहाँ लगता है की स्त्रियाँ अपने पतियों के साथ बैठ कर खाना नहीं खाती, लेकिन मेरे दबाव में संध्या मेरे साथ ही खाने बैठ गयी। वह सलज्ज, लेकिन संयत लग रही थी। पहले तो शादी होने के बाद भी शलवार-कुर्ता पहनना, फिर खुलेआम एक रोमांटिक गाना, और अब साथ में बैठ कर खाना – इस छोटी सी जगह के लिए बहुत बड़ा अपवाद था।
पहाड़ पर चढ़ने, और ठंडक में इतनी देर तक अनावृत रहने से मेरी भूख काफी बढ़ गयी थी, इसलिए मैंने छक कर खाया, और संध्या को भी आग्रह कर के खिलाया। खाने के बाद कस्बे के बड़े-बूढ़े लोग भी साथ आ गए – हम लोग अलाव जला कर उसके इर्द-गिर्द बैठे और कुछ देर यूँ ही इधर उधर की बात की। यहाँ पर कल और रहना था और परसों वापस अपने शहर – कंक्रीट जंगल – को! मेरे पास वैसे तो छुट्टियाँ काफी थीं, लेकिन अभी तक हनीमून का कोई प्लान नहीं बनाया था।
मैंने संध्या से शादी के पहले पूछा था की वो कहाँ जाना पसंद करेगी, लेकिन यह प्रतीत होता था की उसको हनीमून जैसी चीज़ के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। और उस समय हम दोनों इतनी कम बाते करते थे की यह संभव नहीं था की इसके बारे में संध्या को तफसील से बता पाऊँ! मुझे यह अचानक ही याद आया की हनीमून का तो कोई प्लान ही नहीं बनाया है।
‘ठीक है …. अभी संध्या से इस विषय में चर्चा करूँगा।’ मैंने सोचा।
घर आकर देखा की आस पास की पाँच-छः स्त्रियाँ आकर रसोई घर में कार्यरत थी। पता चला की आज भी कुछ पकवान बनेंगे! मैंने सवेरे जो मैती आन्दोलन के लिए जिस प्रकार का सहयोग दिया था, उससे प्रभावित होकर स्त्रियाँ कर-सेवा करने आई थी और साझे में खाना बना रही थी। वो सारे परिवार आ कर एक साथ खाना खायेंगे। मैंने संध्या से गुजारिश करी की कुछ स्थानीय और रोज़मर्रा का खाना बनाए। वो तो तुरंत ही शुरू ही किया गया था, इसलिए मेरी यह विनती मान ली गयी।
खाने के पहले करीबी लोग साथ बैठ कर हंसी मजाक कर रहे थे। एक भाई साहब अपने घर से म्यूजिक सिस्टम ले आये थे और उस पर ‘गोल्डन ओल्डीस’ वाले गीत बजा रहे थे। उन्होंने ने ही बताया की संध्या गाती भी है, और बहुत अच्छा गाती है। उसकी यह कला तो खैर मुझे मालूम नहीं थी। वैसे भी, हमको एक दूसरे के बारे में मालूम ही क्या था? मुझे उसके बारे में बस यह मालूम था की उसको देखते ही मेरे दिल ने आवाज़ दी की यही वह लड़की है जिसके साथ तुम्हे पूरी उम्र गुजारनी है।
मेरे अनुरोध करने पर संध्या ने गाना आरम्भ किया —
‘तेरा मेरा प्यार अमर, फिर क्यो मुझ को लगता हैं डर ,
मेरे जीवन साथी बता, क्यो दिल धड़के रह रह कर’
उसकी आवाज़ का भोलापन और सच्चाई मेरे दिल को सीधा छू गया। उसकी आवाज़ लता जी जैसी तो नहीं थी, लेकिन उसकी मिठास उनकी आवाज़ से सौ गुना अधिक थी। मेरा मन उस आवाज़ के सागर में गोते लगाने लगा।
‘कह रहा हैं मेरा दिल अब ये रात ना ढले,
खुशियों का ये सिलसिला, ऐसे ही चला चले”
मेरे मन में हमारे साथ बिताये हुए इन दो दिनों की घटनाएं और दृश्य चलचित्र की भाँति चलने लगे। मन में एक हूक सी हो गयी। संध्या के बगैर एक भी पल नहीं चाहिए मुझे मेरे जीवन में!
‘चलती हू मैं तारों पर, फिर क्यो मुझ को लगता हैं डर’
वही डर जो मुझे भी लगता है। प्यार में होना, जहाँ अत्यधिक संतोषप्रद और परिपूरक होता है, वहीँ अपने प्रेम को खोने का डर भी लगता है। गाना ख़तम हो गया था, और मैं संध्या की आँखों में देख रहा था – और वो मुझे! उसकी आँखों में यकीन दिलाने वाली चमक थी – इस बात का यकीन की मैं तुम्हारे साथ हूँ, हमेशा! मेरे ह्रदय में एक धमक सी हो गयी। ऐसा कभी नहीं हुआ। हमारा प्रेम बढ़ता ही जा रहा था, और हमारे साथ के प्रत्येक पल के साथ और प्रगाढ़ होता जा रहा था।
जब थाली परोसी गयी तो मैं घबरा गया – ये रोज़मर्रा की थाली है?! मुझको जो परोसा गया वह था – पुलाव, राजमा दाल, स्वांटे के पकौड़े, स्वाले (एक तरह के परांठे), और खीर – जो संध्या ने बनायी। सबसे अच्छी बात मुझको यह लगी की सभी लोग टाट-पट्टी पर साथ में बैठ कर साथ में खाना खा रहे थे। यहाँ लगता है की स्त्रियाँ अपने पतियों के साथ बैठ कर खाना नहीं खाती, लेकिन मेरे दबाव में संध्या मेरे साथ ही खाने बैठ गयी। वह सलज्ज, लेकिन संयत लग रही थी। पहले तो शादी होने के बाद भी शलवार-कुर्ता पहनना, फिर खुलेआम एक रोमांटिक गाना, और अब साथ में बैठ कर खाना – इस छोटी सी जगह के लिए बहुत बड़ा अपवाद था।
पहाड़ पर चढ़ने, और ठंडक में इतनी देर तक अनावृत रहने से मेरी भूख काफी बढ़ गयी थी, इसलिए मैंने छक कर खाया, और संध्या को भी आग्रह कर के खिलाया। खाने के बाद कस्बे के बड़े-बूढ़े लोग भी साथ आ गए – हम लोग अलाव जला कर उसके इर्द-गिर्द बैठे और कुछ देर यूँ ही इधर उधर की बात की। यहाँ पर कल और रहना था और परसों वापस अपने शहर – कंक्रीट जंगल – को! मेरे पास वैसे तो छुट्टियाँ काफी थीं, लेकिन अभी तक हनीमून का कोई प्लान नहीं बनाया था।
मैंने संध्या से शादी के पहले पूछा था की वो कहाँ जाना पसंद करेगी, लेकिन यह प्रतीत होता था की उसको हनीमून जैसी चीज़ के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। और उस समय हम दोनों इतनी कम बाते करते थे की यह संभव नहीं था की इसके बारे में संध्या को तफसील से बता पाऊँ! मुझे यह अचानक ही याद आया की हनीमून का तो कोई प्लान ही नहीं बनाया है।
‘ठीक है …. अभी संध्या से इस विषय में चर्चा करूँगा।’ मैंने सोचा।