कायाकल्प - Hindi sex novel

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sexy
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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 03 Oct 2015 08:55

हमको अगले दिन बड़े सवेरे ही निकलना था, इसलिए विदाई देने के लिए मिलने वाले लोग दोपहर बाद से ही आने लगे। मेरे दोस्त लोग तो खैर कब के वापस चले गए थे, अतः ड्राइविंग करने का सारा दारोमदार मुझ पर ही था। दोपहर का भोजन समाप्त करने तक हमारे लिए ससुराल वालों ने न जाने क्या-क्या पैक कर दिया था, जिसका पता मुझे दो-ढाई बजे हुआ। इसलिए बैठ कर मैंने बड़ी मेहनत से पैक किया हुआ सारा फालतू का सामान बाहर निकाला और सिर्फ बहुत ही आवश्यक वस्तुएँ ही रखी। संध्या का शादी का जोड़ा, दो जोड़ी शलवार कुरता और एक स्वेटर रखा। मुझे उसकी सारी साड़ियाँ बाहर निकालते देख कर मेरी सासू माँ विस्मित हो गयी।

‘ससुराल (?) में क्या पहनेगी?… शादी के बाद कोई शलवार-कुरता पहनता है क्या!!… विवाहिता को साड़ी पहननी चाहिए… संस्कार भी कोई चीज़ होते हैं!… विधर्मी लड़की!…’ इत्यादि इत्यादि प्रकार की उन्होंने हाय तौबा मचाई! उनको मनाने में कुछ समय और चला गया। मैंने समझाया की संध्या के ससुराल में सिर्फ पति है – ससुर नहीं! तो ससुराल नहीं, पाताल बोलिए! यह भी समझाया की साड़ी अत्यंत अव्यावहारिक परिधान है… मानिए किसी स्त्री को कोई सड़क-छाप कुत्ता दौड़ा ले, तो साड़ी में वह तो भाग ही न पाएगी! और तो और शरीर भी पूरा नहीं ढकता है, और छः-सात मीटर कपड़ा यूँ ही वेस्ट हो जाता है!! मेरी दलीलों से मरी सासू माँ चुप तो हो गईं, लेकिन मन ही मन उन्होंने मुझे खूब कोसा होगा, क्योंकि सब मेरी बात पर हँस-हँस कर लोट-पोट हो गए!

खैर, आवश्यकता की समस्त वस्तुएँ जैसे विवाह प्रमाणपत्र, संध्या का हाई-स्कूल प्रमाणपत्र और स्कूल पहचान-पत्र, मेरा पासपोर्ट, हवाई टिकट इत्यादि सबसे पहले ही रख ली; उसके बाद में कपड़े, आवश्यकतानुसार अन्य सामग्री, और तत्पश्चात कुछ वैवाहिक भेंट! कुल मिलकर दो बैग बने! मेरे बैग मिलाकर चार! सासू माँ इसी बात से दुखी थी की हम लोगो ने कुछ रखा ही नहीं और यह की लोग क्या कहेंगे की ससुराल वालों ने कुछ भेंट ही नहीं दी। उनको और समझाना मेरे लिए न केवल बेकार था, बल्कि मेरी खुद की क्षमता से बाहर भी था।

शाम को कोई चार – साढ़े चार बजे किसी ने बताया की भारी बारिश का अंदेशा है – केदार घाटी और बद्रीनाथ में हिमपात हो रहा था और उसके नीचे बारिश। ऐसे में भूस्खलन की संभावना हो सकती है। कुछ देर के विचार विमर्श के पश्चात सबने यह निर्णय लिया की मैं और संध्या तुरंत ही नीचे की तरफ निकल लेते हैं, जिससे आगे ड्राइव करने में आसानी रहे। सासू माँ को यह ख़याल अच्छा नहीं लगा, लेकिन ससुर जी व्यवहारिक व्यक्ति थे, अतः मान गए। वैसे भी आठ-दस घंटो में ऐसा क्या ही अलग होने वाला था। इस अप्रत्याशित व्यवस्था के लिए कोई भी तैयार नहीं था – एक तरह से यह अच्छी बात साबित हुई। क्योंकि विदाई के नाम पर अनावश्यक रोने-धोने का कार्यक्रम करने के लिए किसी को मौका ही नहीं मिला। एक दो महिलाओं ने कोशिश तो ज़रूर करी की मगरमच्छी आंसू बहाए जायँ, लेकिन ससुर जी ने उनको डांट-डपट कर चुप करा दिया। हम दोनों ने सारे बुजुर्गों के पांव छुए और उनसे आशीर्वाद लिया। मैंने नीलम को छेड़ने के लिए (आखिर जीजा हूँ उसका!) दोनों गालों पर ज़ोर से पप्पी ली, और उसको एक लिफ़ाफ़ा दिया, जो मैं सिर्फ उसके लिए पहले से लाया था। नीलम को बाद में मालूम पड़ेगा की उसमें क्या है, लेकिन उसके पहले ही आपको बता दूं की उसमें बीस हज़ार एक रुपए का चेक था। इसी बहाने नीलम के नाम में एक बैंक अकाउंट खुल जाएगा और उसके पढाई, और ज़रुरत के कुछ सामान आ जायेंगे।

एक संछिप्त विदाई के साथ ही संध्या और मैंने वापस देहरादून के लिए प्रस्थान आरम्भ किया। वैसे भी आज देहरादून पहुँचना संभव नहीं था – इसलिए कोई दो तीन घंटे के ड्राइव के बाद कहीं ठहरने, और फिर सुबह देहरादून को निकलने का प्रोग्राम था। मेरी किराए की कार एक SUV थी – न जाने क्या सोच कर लिया था। लेकिन, मौसम की ऐसी संभावनाओं में SUV बहुत ही कारगर सिद्ध होती है। वैसे भी पहाड़ों पर ड्राइव करने में मुझे कोई ख़ास अनुभव तो था नहीं, इसलिए धीरे ही चलना था। यात्रा आरम्भ करने के पंद्रह मिनट में ही मुझे अपनी कार के फायदे दिखने लगे – एक तो काफी बड़ी गाड़ी है, तो सामान रखने और आराम से बैठने में आसानी थी। बड़े पहिये होने के कारण खराब सड़क पर आसानी से चल रही थी। शाम होते होते ठंडक काफी बढ़ गई थी, तो कार का वातानुकूलक अन्दर गर्मी भी दे रहा था। मैंने संध्या से कुछ कुछ बातें करनी चाही, लेकिन वो अभी अपने परिवार वालो के बिछोह के दुःख से बात नहीं कर रही थी – ऐसे में गाड़ी का संगीत तंत्र मेरा साथ दे रहा था।

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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 03 Oct 2015 08:55

बारिश अचानक ही आई, और वह भी बहुत ही भारी – सांझ और बादलों का रंग मिल कर बहुत ही अशुभ प्रतीत हो रहा था। एक मद्धम बूंदा-बांदी न जाने कब भारी बारिश में तब्दील हो गयी। न जाने किस मूर्खता में मैं गाड़ी चालाये ही जा रहा था – जबकि सड़क से यातायात लगभग गायब ही हो गया था। भगवान् की दया से वर्षा का यह अत्याचार कोई दस मिनट ही चला होगा – उसके बाद से सिर्फ हलकी बूंदा-बांदी ही होती रही। घर से निकलने के कोई एक घंटे बाद बारिश काफी रुक गई। संध्या का मन बहलाने के लिए मैंने उसको अपने घर फोन करने के लिए कहा। उसने ख़ुश हो कर घर पे कॉल लगाया और सबसे बात करी – हम लोग कहाँ है, उसकी भी जानकारी दी और देर तक बारिश के बारे में बताया। और इतनी ही देर में घुप अँधेरा हो गया था, और अब मेरे हिसाब से गाड़ी चलाना बहुत सुरक्षित नहीं था।

“आगे कोई धर्मशाला आये, तो रोक लीजियेगा”, संध्या ने कहा, “काफी अँधेरा है, और बारिश भी! अगर कहीं फंस गए तो बहुत परेशान हो जायेंगे।“

“बिलकुल! वैसे भी आज रात में ड्राइव करते रहने का कोई इरादा नहीं है मेरा। कोई ढंग का होटल आएगा तो रोक लूँगा। आज दिन की भाग-दौड़ से वैसे भी थक गया हूँ।“

ऐसे ही बात करते करते मुझे एक बंगला, जिसको होटल बना दिया गया था, दिखाई दिया। बाहर से देखने पर साफ़ सुथरा और सुरक्षित लग रहा था। इस समय रात के लगभग आठ बज रहे थे, और इतनी रात गए और आगे जाने में काफी अनिश्चितता थी – की न जाने कब होटल मिले? देखने भालने में ठीक लगा, तो वहीँ रुकने का सोचा। यह एक विक्टोरियन शैली में बनाया गया बंगला था, जिसमें चार कमरे थे – कमरे क्या, कहिये हाल थे। ऊंची-ऊंची छतें, उनको सम्हालती मोटे-मोटे लकड़ी की शहतीरें, दो कमरों में अलाव भी लगे हुए थे। साफ़ सुथरे बिस्तर। रात भर चैन से सोने के लिए और भला क्या चाहिए? होटल में हमसे पहले सिर्फ एक ही गेस्ट ठहरे हुए थे – इसलिए वहां का माहौल बहुत शांत, या यूँ कह लीजिये की निर्जन लग रहा था। गाड़ी पार्क कर के संध्या और मैं कमरे के अन्दर आ गए। पता चला की वहां पर खाना नहीं बनाते (मतलब कोई रेस्त्राँ नहीं है, और खाना बाहर से मंगाना पड़ेगा)। मैंने परिचारक को कुछ रुपये दिए और गरमा-गरम खाना बाहर से लाने को कह भेजा। मेनेजर को यह कहला दिया की सवेरे नहाने के लिए गरम पानी का बंदोबस्त कर दें!

एक परिचारक गया, तो दूसरा अन्दर आ गया। उसने कमरे के अलाव में लकड़ियाँ सुलगा दी, जिससे कुछ ही देर में थोड़ी थोड़ी ऊष्मा होने लगी और कमरे के अन्दर का तापमान शनैः-शनैः सुहाना होने लगा। इस पूरी यात्रा के दौरान न तो मैं संध्या से ठीक से बात कर पाया, और न ही उसकी ठीक से देख-भाल ही कर पाया। उसकी शकल देख कर साफ़ लग रहा था की वह बहुत ही उद्विग्न थी। सम्भंतः बिछोह का दुःख और बीच की भीषण वर्षा का सम्मिलित प्रभाव हो!

“हनी! थक गई?” मैंने पूछा। संध्या ने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो फिर? तबियत तो ठीक है?”

संध्या ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“अरे तो कुछ बात तो करो! या फिर साइन लैंग्वेज में बात करेंगे हम दोनों?”

अपना वाक्य ख़तम करते करते मुझे एक तुकबंदी गाना याद आ गया, तो मैंने उसको भी जोड़ दिया,

“साइन लैंग्वेज में बात करेंगे हम दोनों!
इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों!
खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों!”

संध्या मुस्कुराई, “सबकी बहुत याद आ रही है – और शायद थोड़ा थक गयी हूँ और…… डर भी गई! ऐसी बारिश में हमको रुक जाना चाहिए था!” उसने बोला।

“अरे! बस इतनी सी बात? लाओ, मैं तुम्हारे पांव दबा देता हूँ।“

“नहीं नहीं! क्यों मुझे पाप लगवाएंगे मेरे पैर छू कर?”

“अरे यार! तुम थोड़ा कम बकवास करो!” मैंने मजाकिए लहजे में संध्या को झिड़की लगाई। “शादी करते ही तुम अब मेरी हो – मतलब तन, और मन दोनों से! मतलब तुम्हारा तन अब मेरा है – और इसका मतलब तुम्हारा पांव भी मेरा है। और मेरे पांव में दर्द हो रहा है! समझ में आई बात?”

“आप माँ वाली दलीलें मुझे भी दे रहे हैं! आपने आज उनको बहुत सताया!”

“आपको भी सताऊँ?”

और कोई चार-पांच मिनट तक मनुहार करने के बाद वो राज़ी हो गई।

मैंने संध्या को कुर्सी पर बैठाया और सबसे पहले उसकी सैंडल उतार दी – यह कोई कामुक क्रिया नहीं थी (हांलाकि मैंने पढ़ा है की कुछ लोग इस प्रकार की जड़ासक्ति रखते हैं और इसको foot-fetish भी कहा जाता है), लेकिन फिर भी मुझे, और संध्या को भी ऐसा लगा की जैसे उसको एक प्रकार से निर्वस्त्र किया जा रहा हो। संध्या की उद्विग्नता इतने में ही शांत होती दिखी। चाहे कैसी भी तकलीफ हो, पांव की मालिश उसको दूर कर ही देती है। मैंने संध्या के दाहिने पांव के तलवे के नीचे के मांसल हिस्से को अपने अंगूठे से घुमावदार तरीके से मालिश करना आरम्भ किया। कुछ देर में उसके पांव की उँगलियों के बीच के हिस्से, तलवे और एड़ी को क्रमबद्ध तरीके से मसलना और दबाना जारी रखा। पांच मिनट के बाद, ऐसा ही बाएँ पांव को भी यही उपचार दिया। इस क्रिया के दौरान मैंने संध्या को देखा भी नहीं था, लेकिन मैंने जब दूसरे पांव की मालिश समाप्त की, तो मैंने देखा की संध्या की आँखें बंद हैं, और उसकी साँसे तेज़ हो चली थीं।

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Re: कायाकल्प - Hindi sex novel

Unread post by sexy » 13 Oct 2015 10:00

संध्या की अवस्था तनाव-मुक्ति से आगे की ओर जा रही थी – वह उत्तेजित हो रही थी। संध्या के दोनों निप्पल कड़े हो गए थे और उनका उठान उसके कुरते के वस्त्र से साफ़ दिखाई दे रहा था। उसके होंठों पर एक बहुत ही हल्की मुस्कान भी दिख रही थी – मैं जो भी कुछ कर रहा था, बिलकुल सही कर रहा था। मैंने अब उसके दोनों टखनों को एक साथ अपनी उंगली और अंगूठे से पकड़ कर दबाना जारी रखा, और कुछ देर मसलने के बाद वापस उसके अंगूठों और तलवों की मालिश करी। अब तक मालिश के करीब पंद्रह मिनट हो गए थे। मैंने मालिश रोक दी, और बारी बारी से संध्या के दोनों अंगूठों को चूमा। संध्या की साँसे अब तक काफी उथली हो चली थीं। संभवतः यह मेरा भ्रम हो, लेकिन मुझे ऐसा लगा की मानो हवा में संध्या की ‘महक’ घुल गई हो।

संध्या की आँखें अभी भी बंद थी। इस परिस्थिति का लाभ उठाया मेरी उँगलियों ने, जिन्होंने उसकी शलवार के नाड़े को ढूंढ कर ढीला कर दिया। अगले पांच सेकंड में उसकी शलवार उसके घुटनों से नीचे उतर चुकी थी, और मेरी उंगलियाँ उसकी योनि रस से गीली हो चली चड्ढी के ऊपर से उसकी योनि का मर्दन कर रही थीं। मेरी इस हरकत से संध्या की योनि से और ज्यादा रस निकलने लगा।

मैं और भी कुछ आगे करता की दरवाजे पर दस्तक हुई। संध्या मानो मूर्छा से जागी हो। उसने झटपट अपनी शलवार सम्हाली और पुनः बाँध ली, और कुर्सी में और सिमट कर बैठ गयी। दरवाजे पर परिचारक था, जो हमारे लिए खाना लाया था। उसने टेबल पर खाना और प्लेटें व्यवस्थित कर के सजा दिया – मैंने देखा की उसने दो प्लेट रसगुल्ले, और पानी की बोतल भी लाई थी। इस बात से ख़ुश हो कर मैंने उसको अच्छी टिप दी और उससे विदा ली। जाते-जाते उसने मुझको खाने के बाद ट्रे को दरवाज़े के बाहर रख देने को कह दिया।

“आप मुझको कितनी आसानी से बहका देते हैं!” मेरे वापस आने पर संध्या ने लजाते, सकुचाते कहा।

“बहका देता हूँ?” मैंने बनावटी आश्चर्य में कहा, “जानेमन, इसको बहकाना नहीं कहते – यह तो मेरा प्यार है। और आप अभी नई-नई जवान हुई हैं, इतनी सेक्सी और हॉट हैं, इसलिए आपकी सेक्स-ड्राइव, मेरा मतलब सेक्स में दिलचस्पी, थोड़ी अधिक है। अच्छा है न? सीखने की उम्र है – जो मन करे, जितना मन करे, सब सीख लो।“ मैंने आँख मारते हुए कहा।

“आप हैं न मुझे सिखाने के लिए!” संध्या की लज्जा अभी भी कम नहीं हुई थी। “आप के जैसे ओपन माइंडेड तो नहीं हूँ, लेकिन जितना भी हो सकेगा, आपको ख़ुश रखूंगी।”

“जानू, सिर्फ मुझे ही नहीं, हम दोनों को ही ख़ुश रहना है। ओके? अरे भाई – हमारे शास्त्रों में भी यही बताया गया है!”

“शास्त्रों में यह सब बाते होती है?”

“बिलकुल! यह सुनो… यह मनु ने कहा है –

संतुष्टो भार्यया भर्ता भर्ता भार्या तथैव च:। यस्मिन्नैव कुले नित्यं कल्याण तत्रेव ध्रुवम्।।

जिस कुल – मतलब घर या परिवार – में, पुरुष स्त्री से प्रसन्न रहता है, और पुरुष से स्त्री, उस परिवार का अवश्य ही कल्याण होता है! कहने का मतलब बस यह, की एक दूसरे को पूरी तरह से ख़ुश करने की हम दोनों की ही बराबर की जिम्मेदारी है। न किसी एक की ज्यादा, न कम! समझ गयी?”

मेरी बात सुन कर संध्या ने ‘हां’ में सर हिलाया और फिर हमने खाना आरम्भ किया। गरमागरम खाना और रसगुल्ले खा कर पेट अच्छे से भर गया। दिन भर की थकावट के कारण खाना ख़तम करते करते नींद आने लग गयी। मैंने ट्रे बाहर रखी और वापस आ आकर बिस्तर पर ढेर हो गया।

संध्या का सपना

रूद्र ने तेल से चुपड़ी अपनी दोनों हथेलियाँ मेरे स्तनों पर रख दी। उनके हाथों की छुवन मात्र से ही मेरे दोनों चूचक तन कर खड़े हो गए। रूद्र जितनी भी बार मेरे स्तनों को छूते हैं, लगता है की पहली बार ही छू रहे हों। उनके छूते ही मेरे पूरे शरीर में झुरझुरी दौड़ जाती है। मेरी साँसें तुरंत तेज़ हो गई – लाज के मारे मैंने अपनी आँखें बंद कर ली, और आगे होने वाले आक्रमण के लिए अपने मन को मज़बूत कर लिया।

उन्होंने पहले मेरे स्तनों पर अच्छे से हाथ फिराया, जिससे वे तेल से पूरी तरह से सन जाएं, और फिर धीरे धीरे स्तनों को अपनी मुट्ठी में भर कर दबाना आरम्भ कर दिया। मुझे ऐसा लगा की सिर्फ चूचक ही नहीं, पूरे स्तन ही अपनी नाज़ुकता खोकर कड़े होते जा रहे हैं! रूद्र तो जैसे इन सब बातों से बेखबर थे – उनकी मेरे स्तनों पर हाथ फिराने, उनको सहलाने और मसलने की गतिविधि बढती ही जा रही थी। न चाहते हुए भी मेरी सिसकियाँ छूट गईं! मैं कितनी कोशिश करती हूँ की रूद्र के सामने मैं बेबस न होऊँ, लेकिन उनकी उपस्थिति, उनकी छुवन, उनकी बातें – मानो उनकी हर एक गतिविधि प्रेम भरा दंश हो। उनके प्रेमालाप आरम्भ करने मात्र से मेरे पूरे शरीर में काम का मीठा ज़हर फैलने लगता है। मैं अब तक अपना आपा खो चुकी थी और काम के सागर में आनन्द भरे गोते लगा रही थी। मुझे लूटने के तो उनके पास जैसे हज़ार बहाने हों – आज मालिश का है!

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