मुझे दीदी ना कहो
मैं दिन को घर में अकेली होती हूँ। बस घर का काम करती रहती हूँ, मेरा दिल तो यूँ पाक साफ़ रहता है, मेरे दिल में भी कोई बुरे विचार नहीं आते हैं। मेरे पति प्रातः नौ बजे कर्यालय चले जाते हैं फिर संध्या को छः बजे तक लौटते हैं। स्वभाव से मैं बहुत डरपोक और शर्मीली हूँ, थोड़ी थोड़ी बात पर घबरा जाती हूँ।
मेरे पड़ोस में रहने वाला लड़का आलोक अक्सर मुझे घूरता रहता था। यूँ तो वो मुझसे काफ़ी छोटा था। कोई 18-19 साल का रहा होगा और मैं 25 साल कि भरपूर जवान स्त्री थी। कभी कभी मैं उसे देख कर सशंकित हो उठती थी कि यह मुझे ऐसे क्यूँ घूरता रहता है। इसका असर यह हुआ कि मैं भी कभी कभी उसे यहाँ-वहाँ से झांक कर देखने लगी थी कि वो अब क्या कर रहा है। पर हाँ, उसकी जवानी मुझे अपनी तरफ़ खींचती अवश्य थी। आखिर एक मर्द में और एक औरत में आकर्षण तो स्वाभाविक है ना। फिर अगर वो मर्द सुन्दर, कम उम्र का हो तो आकर्षण और ही बढ़ जाता है।
एक दिन आलोक दिन को मेरे घर ही आ धमका। मैं उसे देख कर नर्वस सी हो गई, दिल धड़क गया। पर उसके मृदु बोलों पर सामान्य हो गई। वो एक सुलझा हुआ लड़का था, उसमें लड़कियों से बात करने की तमीज थी।
वो एक पैकेट लेकर आया था, उसने बताया कि मेरे पति ने वो पैकेट भेजा था। मैंने तुरन्त मोबाईल से पति को पूछा तो उन्होंने बताया कि उस पैकेट में उनकी कुछ पुस्तकें हैं, आलोक एक बहुत भला लड़का है, उसे जलपान कराए बिना मत भेजना।
मैंने आलोक को बैठक में बुला लिया और उसे चाय भी पिलाई। वो एक खुश मिज़ाज़ लड़का था, हंसमुख था और सबसे अच्छी बात यह थी उसमें कि वो बहुत सुन्दर भी था। उसकी सदैव चेहरे पर विराजती मुस्कान मुझे भा गई थी। मुझे तो आरम्भ से ही उसमें आकर्षण नजर आता था। मेरे खुशनुमा व्यवहार के कारण धीरे धीरे वो मेरे घर आने जाने लगा। कुछ ही दिनों में वो मेरा अच्छा दोस्त बन गया था।
अब मुझे कोई काम होता तो वो अपनी बाईक पर बाज़ार भी ले जाता था। वो मुझे कामिनी दीदी कहता था। आलोक की नजर अक्सर मेरी चूचियों पर रहती थी या वो मेरे सुडौल चूतड़ों की बाटियों को घूरता रहता था।
आप बाटियाँ समझते हैं ना ... ? अरे वही गाण्ड के सुन्दर सुडौल उभरे हुए दो गोले ...।
मुझे पता था कि मैं जब मेरी पीठ उसकी ओर होगी तो उसकी निगाहें पीछे मेरे चूतड़ों का साड़ी के अन्दर तक जायजा ले रही होंगी और सामने से मेरे झुकते ही उसकी नजर वर्जित क्षेत्र ब्लाऊज के अन्दर सीने के उभारो को टटोल रही होती होंगी। ये सब हरकतें मेरे शरीर में सिरहन सी पैदा कर देती थी। कभी कभी उसका लण्ड भी पैंट के भीतर हल्का सा उठा हुआ मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लेता था।
शायद उसकी यही अदायें मुझे भाने लगी थी इसलिये जब भी वो मेरे घर आता तो मेरा मन उल्लासित हो उठता था। मुझे तो लगता था कि वो रोज आये और फिर वापस नहीं जाये। लालसा शायद यह थी कि शायद वो कभी मेरे पर मेहबान हो जाये और अपना लण्ड मुझे सौंप दे।
छीः छीः ! मैं यह क्या सोचने लगी?
या फिर वो ऐसा कुछ कर दे कि दिल आनन्द की हिलौरें लेने लगे।
एक दिन वो ऐसे समय में आ गया जब मैं नहा रही थी। जब मैं नहा कर बाहर आई तो मैंने देखा आलोक मुझे ऊपर से नीचे तक निहार रहा था। मैं शरमा गई और भाग कर अपने शयनकक्ष में आ गई।
"कामिनी दीदी, आप तो गजब की सुन्दर हैं !" मुझे अपने पीछे से ही आवाज आई तो मैं सिहर उठी।
अरे! यह तो बेड रूम में ही आ गया? फिर भी उसके मुख से ये शब्द सुन कर मैं और शरमा गई पर अपनी तारीफ़ मुझे अच्छी लगी।
"तुम उधर जाओ ना, मैं अभी आती हूँ !" मैंने सिर झुका कर शरमाते हुये कहा।
"दीदी, ऐसा गजब का फ़िगर? तुम्हें तो मिस इन्डिया होना चाहिये था !" वो बोलता ही चला गया।
उसके मुख से अपनी तारीफ़ सुन कर मैं भोली सी लड़की इतरा उठी।
"आपने ऐसा क्या देख लिया मुझ में भैया?" मैं कुछ ऐसी ही और बातें सुनने के लिये मचल उठी।
"गजब के उभार, सुडौल तन, पीछे की मस्त पहाड़ियाँ ... किसी को भी पागल कर देंगी !"
मेरा दिल धड़कने लगा। मेरे मन में उसके लिये प्यार भी उमड़ आया। मैं तो स्वभाव से शर्मीली थी, शर्म के मारे जैसे जमीन में गड़ी जा रही थी। पर अपनी तारीफ़ सुनना मेरी कमजोरी थी।
"भैया... उधर बैठक में जाओ ना ... मुझे शरम आ रही है..." मैंने शर्म से पानी पानी होते हुये कहा।
वो मुझे निहारता हुआ वापस बैठक में आ गया। पर मेरे दिल को जैसे धक्का लगा, अरे ! वो तो मेरी बात बहुत जल्दी ही मान गया ? मान गया ... बेकार ही कहा ... अब मेरी सुन्दरता की तारीफ़ कौन करेगा? मैंने हल्के फ़ुल्के कपड़े पहने और जान कर ब्रा और चड्डी नहीं पहनी, ताकि उसे मेरी ऊँचाइयाँ और स्पष्ट आ नजर आ सके और वो मेरी मस्त तारीफ़ करता ही जाये। बस एक सफ़ेद पाजामा और सफ़ेद टॉप पहन लिया, ताकि उसे पता चले कि मेरे उरोज बिना ब्रा के ही कैसे सुडौल और उभरे हुये हैं और मेरे पीछे का नक्शा उभर कर बिना चड्डी के कितना मस्त लगता है। पर मुझे नहीं पता था कि मेरा यह जलवा उस पर कहर बन कर टूट पड़ेगा।
मैं जैसे ही बैठक में आई, वो मुझे देखते ही खड़ा हो गया।
उफ़्फ़्फ़ !
यह क्या?
उसके साथ उसका लण्ड भी तन कर खड़ा हो गया था। मुझे एक क्षण में पता चल गया कि मैंने यह क्या कर दिया है? पर तब तक देर हो चुकी थी, वो मेरे पास आ गया था।
"दीदी, आह्ह्ह ये उभार, ये तो ईश्वर की महान कलाकृति हैं ..." उसके हाथ अनजाने में मेरे सीने पर चले गये और सहला कर उभारों का जायजा ले लिया। मेरे जिस्म में जैसे हजारों पावर के तड़ तड़ करके झटके लग गये। उसके स्पर्श से मानो मुझे नशा सा आ गया। मेरे गालों पर लालिमा छा गई, मेरी बड़ी बड़ी आँखें धीरे से नीचे झुक गई। तभी मैंने उसके हाथों को धीरे से थाम लिया और अपने गोल गोल उरोजों से हटाने लगी।
"मुझे छोड़ दो आलोक, मैं मर जाऊंगी... मेरी जान निकल जायेगी ... आह्ह !"
"आपकी सुन्दरता मुझे आपकी ओर खींच रही है, बस एक बार चूमने दो !" और उसके अधर मेरे गालों से चिपक गये। मुझे अहसास हुआ कि मेरे गुलाबी गाल जैसे फ़ट जायेंगे ... तभी उसकी बाहें मेरी कमर से लिपट गई। उसके अधर मेरे अधरों से मिल गये। सिर्फ़ मिल ही नहीं गये जोर से चिपक भी गये।
मुझे जैसे होश ही नहीं रहा। यह कैसी सिरहन थी, यह कैसा नशा था, तन में जैसे आग सी लग गई थी।
उसका नीचे से लण्ड तन कर मेरी योनि को छू कर अपनी खुशी का अहसास दिला रहा था। मुझे लगा कि मेरी योनि भी लण्ड का स्पर्श पा कर खिल उठी थी। इन दो प्रेमियों को मिलने से भला कोई रोक पाया है क्या ?
मेरा पजामा नीचे से गीला हो उठा था। दिल में एक प्यारी सी हूक उठ गई। तभी जैसे मैं हकीकत की दुनिया में लौटने लगी। मुझे अहसास हुआ कि हाय रे ! मुझे यह क्या हो गया था? मैंने अपने जिस्म को उसे कैसे छूने दिया... ।
"आलोक, तुम मुझे बहका रहे हो ..." मैंने उसे तिरछी मुस्कान भरी निगाह से देखा। वो भी जैसे होश में आ गया। उसने एक बार अपनी और मेरी हालत देखी ... और उसकी बाहों का कमर में से दबाव हट गया। पर मैं जान कर के उससे चिपकी ही रही। आनन्द जो आ रहा था।
"ओह ! नहीं दीदी, मैं खुद बहक गया था ... मैंने आपके अंग अनजाने में छू लिये ... सॉरी !" उसकी नजरें अब शर्म से नीचे होने लगी थी।
"आलोक, यह तो पाप है, पति के होते हुये कोई दूसरा मुझे छुए !" उसके भोलेपन पर मैंने इतराते हुये कहा।
अन्दर ही अन्दर मेरा मन कुछ करने को तड़पने लग गया था। शायद मुझे एक मर्द की... ना ना ... आलोक की आवश्यकता थी ... जो मुझे आनन्दित कर सके, मस्त कर सके। इतना खुल जाने के बाद मैं आलोक को छोड़ देना नहीं चाह रही थी।
"पर दीदी, यह तो बस हो गया, आपको देख कर मन काबू में नहीं रहा... मुझे माफ़ करना !" कुछ हकलाते हुये वो बोला।
"अच्छा, अब तुम जाओ ..." मेरा मन तो नहीं कर रहा था कि वो जाये, पर शराफ़त का जामा पहनना एक तकाजा था कि वो मुझे कही चालू, छिनाल या रण्डी ना समझ ले। मैं मुड़ कर अपने शयनकक्ष में आ गई। मुझे घोर निराशा हुई कि वो मेरे पीछे पीछे नहीं आया।
फिर जैसे एक झटके में सब कुछ हो गया। वो वास्तव में कमरे में आ गया था और मेरी तरफ़ बढ़ने लगा और वास्तव में जैसा होना चाहिये था वैसा होने लगा। मुझे अपनी जवानी पर गर्व हो उठा कि मैंने एक जवां मर्द को मजबूर कर दिया वो मुझे छोड़ ना सके। मैं धीरे धीरे पीछे हटती गई और अपने बिस्तर से टकरा गई, वो मेरे समीप आ गया।
"दीदी, आज मैं आपको नहीं छोड़ूंगा ... मेरी हालत आपने ही ऐसी कर दी है..." आलोक की आँखों में एक नशा सा था।
"नहीं आलोक, प्लीज दूर रहो ... मैं एक पतिव्रता नारी हूँ ... मुझे पति के अलावा किसी ने नहीं छुआ है।" मन में मैं खुश होती हुई उसे ऐसा करने मजबूर करते हुये उसे लुभाने लगी। पर मुझे पता था कि अब मेरी चुदाई बस होने ही वाली है। बस मेरे नखरे देख कर कहीं यह चला ना जाये। उसकी वासना भरी गुलाबी आँखें यह बता रही थी कि वो अब मुझे चोदे बिना कहीं नहीं जाने वाला है।
उसने अपनी बाहें मेरी कमर में डाल कर मुझे दबा लिया और अपने अधरों से मेरे अधर दबा लिये। मैं जान करके घू घू करती रही। उसने मेरे होंठ काट लिये और अधरपान करने लगा। एक क्षण को तो
मैं सुध बुध भूल गई और उसका साथ देने लगी।
उसके हाथ मेरे ब्लाऊज को खोलने में लगे थे ... मैंने अपने होंठ झटक दिये।
"यह क्या कर रहे हो ...? प्लीज ! बस अब बहुत हो गया ... अब जाओ तुम !"
हिन्दी सेक्सी कहानियाँ
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उसने अपनी बाहें मेरी कमर में डाल कर मुझे दबा लिया और अपने अधरों से मेरे अधर दबा लिये। मैं जान करके घू घू करती रही। उसने मेरे होंठ काट लिये और अधरपान करने लगा। एक क्षण को तो मैं सुध बुध भूल गई और उसका साथ देने लगी।
उसके हाथ मेरे ब्लाऊज को खोलने में लगे थे ... मैंने अपने होंठ झटक दिये।
"यह क्या कर रहे हो ...? प्लीज ! बस अब बहुत हो गया ... अब जाओ तुम !" मेरे नखरे और बढ़ने लगे।
पर मेरे दोनों कबूतर उसकी गिरफ़्त में थे। वो उसे सहला सहला कर दबा रहा था। मेरी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। मेरे दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी। बस जुबान पर इन्कार था, मैंने उसके हाथ अपने नर्म कबूतरों से हटाने की कोशिश नहीं की। उसने मेरा टॉप ऊपर खींच दिया, मैं ऊपर से नंगी हो चुकी थी। मेरे सुडौल स्तन तन कर बाहर उभर आये। उनमें कठोरता बढ़ती जा रही थी। मेरे चुचूक सीधे होकर कड़े हो गये थे। मैं अपने हाथों से अपना तन छिपाने की कोशिश करने लगी।
तभी उसने बेशर्म होकर अपनी पैंट उतार दी और साथ ही अपनी चड्डी भी। यह मेरे मादक जोबन की जीत थी। उसका लण्ड 120 डिग्री पर तना हुआ था और उसके ऊपर उसके पेट को छू रहा था। बेताबी का मस्त आलम था। उसका लण्ड लम्बा था पर टेढा था। मेरा मन हुआ कि उसे अपने मुख में दबा लूँ और चुसक चुसक कर उसका माल निकाल दूँ। उसने एक झटके में मुझे खींच कर मेरी पीठ अपने से चिपका ली। मेरे चूतड़ों के मध्य में पजामे के ऊपर से ही लण्ड घुसाने लगा। आह्ह ! कैसा मधुर स्पर्श था ... घुसा दे मेरे राजा जी ... मैंने सामने से अपनी चूचियाँ और उभार दी। उसका कड़क लण्ड गाण्ड में घुस कर अपनी मौजूदगी दर्शा रहा था।
"वो क्या है? ... उसमें क्या तेल है ...?"
"हाँ है ... पर ये ऐसे क्या घुसाये जा रहा है ... ?"
उसने मेरी गर्दन पकड़ी और मुझे बिस्तर पर उल्टा लेटा दिया। एक हाथ बढ़ा कर उसने तेल की शीशी उठा ली। एक ही झटके में मेरा पाजामा उसने उतार दिया,"बस अब ऐसे ही पड़े रहना ... नहीं तो ध्यान रहे मेरे पास चाकू है ... पूरा घुसेड़ दूँगा।"
मैं उसकी बात से सन्न रह गई। यह क्या ... उसने मेरे चूतड़ों को खींच कर खोल दिया और तेल मेरे गाण्ड के फ़ूल पर लगाने लगा। उसने धीरे से अंगुली दबाई और अन्दर सरका दी। वो बार बार तेल लेकर मेरी गाण्ड के छेद में अपनी अंगुली घुमा रहा था। मेरे पति ने तो ऐसा कभी नहीं किया था। उफ़्फ़्फ़्... कितना मजा आ रहा था।
"आलोक, देख चाकू मत घुसेड़ना, लग जायेगी ..." मैंने मस्ती में, पर सशंकित होकर कहा।
पर उसने मेरी एक ना सुनी और दो तकिये नीचे रख दिये। मेरी टांगें खोल कर मेरे छेद को ऊपर उठा दिया और अपना सुपाड़ा उसमें दबा दिया।
"देख चाकू गया ना अन्दर ..."
"आह, यह तो तुम्हारा वो है, चाकू थोड़े ही है?"
"तो तुम क्या समझी थी सचमुच का चाकू है मेरे पास ... देखो यह भी तो अन्दर घुस गया ना ?"
उसका लण्ड मेरी गाण्ड में उतर गया था।
"देख भैया, अब बहुत हो गया ना ... तूने मुझे नहीं छोड़ा तो मैं चिल्लाऊँगी ..." मैंने अब जानबूझ कर उसे छेड़ा।
पर उसने अब धक्के लगाने शुरू कर दिये थे, लण्ड अन्दर बाहर आ जा रहा था, उसका लण्ड मेरी चूत को भी गुदगुदा रहा था। मेरी चूत की मांसपेशियाँ भी सम्भोग के तैयार हो कर अन्दर से खिंच कर कड़ी हो गई थी।
"नहीं दीदी चिल्लाना नहीं ... नहीं तो मर जाऊँगा ..." वो जल्दी जल्दी मेरी गाण्ड चोदने लगा पर मैंने अपने नखरे जारी रखे,"तो फिर हट जा ... मेरे ऊपर से... आह्ह ... मर गई मैं तो !" मैंने उसे बड़ी मस्त नजर से पीछे मुड़ कर देखा।
"बस हो गया दीदी ... दो मिनट और ..." वो हांफ़ता हुआ बोला।
"आह्ह ... हट ना ... क्या भीतर ही अपना माल निकाल देगा?" मुझे अब चुदने की लग रही थी। चूत बहुत ही गीली हो गई थी और पानी भी टपकाने लगी। इस बार वो सच में डर गया और रुक गया। मुझे नहीं मालूम था कि गाण्ड मारते मारते सच में हट जायेगा।
"अच्छा दीदी ... पर किसी को बताना नहीं..." वो हांफ़ते हुये बोला।
अरे यह क्या ... यह तो सच में पागल है ... यह तो डर गया... ओह... कैसा आशिक है ये?
"अच्छा, चल पूरा कर ले ... अब नहीं चिल्लाऊंगी..." मैंने उसे नरमाई से कहा। मैंने बात बनाने की कोशिश की- साला ! हरामजादा ... भला ऐसे भी कोई चोदना छोड़ देता है ... मेरी सारी मस्ती रह जाती ना !
उसने खुशी से उत्साहित होकर फिर से लण्ड पूरा घुसा दिया और चोदने लगा। आनन्द के मारे मेरी चूत से पानी और ही निकलने लगा। उसमे भी जोर की खुजली होने लगी ... अचानक वो चिल्ला उठा और उसका लण्ड पूरा तले तक घुस पड़ा और उसका वीर्य निकलने को होने लगा। उसने अपना लण्ड बाहर खींच लिया और अपने मुठ में भर लिया। फिर एक जोर से पिचकारी निकाल दी, उसका पूरा वीर्य मेरी पीठ पर फ़ैलता जा रहा था। कुछ ही समय में वो पूरा झड़ चुका था।
"दीदी, थेन्क्स, और सॉरी भी ... मैंने ये सब कर दिया ..." उसकी नजरें झुकी हुई थी।
पर अब मेरा क्या होगा ? मेरी चूत में तो साले ने आग भर दी थी। वो तो जाने को होने लगा, मैं तड़प सी उठी।
"रुक जाओ आलोक ... दूध पी कर जाना !" मैंने उसे रोका। वो कपड़े पहन कर वही बैठ गया। मैं अन्दर से दूध गरम करके ले आई। उसने दूध पी लिया और जाने लगा।
"अभी यहीं बिस्तर पर लेट जाओ, थोड़ा आराम कर लो ... फिर चले जाना !" मैंने उसे उलझाये रखने की कोशिश की। मैंने उसे वही लेटा दिया। उसकी नजरें शरम से झुकी हुई थी। इसके विपरीत मैं वासना की आग में जली जा रही थी। ऐसे कैसे मुझे छोड़ कर चला जायेगा। मेरी पनियाती चूत का क्या होगा।
"दीदी अब कपड़े तो पहन लूँ ... ऐसे तो शरम आ रही है।" वो बनियान पहनता हुआ बोला।
"क्यूँ भैया ... मेरी मारते समय शरम नहीं आई ?... मेरी तो बजा कर रख दी..." मैंने अपनी आँखें तरेरी।
"दीदी, ऐसा मत बोलो ... वो तो बस हो गया !" वो और भी शरमा गया।
"और अब ... ये फिर से खड़ा हो रहा है तो अब क्या करोगे..." उसका लण्ड एक बार फिर से मेरे यौवन को देख कर पुलकित होने लगा था।
"ओह, नहीं दीदी इस बार नहीं होने दूंगा..." उसने अपना लण्ड दबा लिया पर वो तो दूने जोर से अकड़ गया।
"भैया, मेरी सुनो ... तुम कहो तो मैं इसकी अकड़ दो मिनट में निकाल दूंगी..." मैंने उसे आँख मारते हुये कहा।
"वो कैसे भला ...?" उसने प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखा।
"वो ऐसे ... हाथ तो हटाओ..." मैं मुस्करा उठी।
मैंने बड़े ही प्यार से उसे थाम लिया, उसकी चमड़ी हटा कर सुपाड़ा खोल दिया। उसकी गर्दन पकड़ ली। मैंने झुक कर सुपाड़े को अपने मुख में भर लिया और उसकी गर्दन दबाने लगी। अब आलोक की बारी थी चिल्लाने की। बीच बीच में उसकी गोलियों को भी खींच खींच कर दबा रही थी। उसने चादर को अपनी मुठ्ठी में भर कर कस लिया था और अपने दांत भीच कर कमर को उछालने लगा था।
"दीदी, यह क्या कर रही हो ...?" उसका सुपाड़ा मेरे मुख में दब रहा था, मैं दांतों से उसे काट रही थी। उसके लण्ड के मोटे डण्डे को जोर से झटक झटक कर मुठ मार रही थी।
"भैया , यह तो मानता ही नहीं है ... एक इलाज और है मेरे पास..." मैंने उसके तड़पते हुये लण्ड को और मसलते हुये कहा। मैं उछल कर उसके लण्ड के पास बैठ गई। उसका तगड़ा लण्ड जो कि टेढा खड़ा हुआ था, उसे पकड़ लिया और उसे चूत के निशाने पर ले लिया। उसका लम्बा टेढा लण्ड बहुत खूबसूरत था। जैसे ही योनि ने सुपाड़े का स्पर्श पाया वो लपलपा उठी ... मचल उठी, उसका साथी जो जाने कब से उसकी राह देख रहा था ... प्यार से सुपाड़े को अपनी गोद में छुपा लिया और उसकी एक इन्च के कटे हुये अधर में से दो बूंद बाहर चू पड़ी।
आनन्द भरा मिलन था। योनि जैसे अपने प्रीतम को कस के अपने में समाहित करना चाह रही थी, उसे अन्दर ही अन्दर समाती जा रही थी यहा तक कि पूरा ही समेट लिया। आलोक ने अपने चूतड़ों को मेरी चूत की तरफ़ जोर लगा कर उठा दिया।
... मेरी चूत लण्ड को पूरी लील चुकी थी। दोनों ही अब खेल रहे थे। लण्ड कभी बाहर आता तो चूत उसे फिर से अन्दर खींच लेती। यह मधुर लण्ड चूत का घर्षण तेज हो उठा। मैं उत्तेजना से सरोबार अपनी चूत लण्ड पर जोर जोर पटकने लगी।
दोनो मस्त हो कर चीखने-चिल्लाने लगे थे। मस्ती का भरपूर आलम था। मेरी लटकती हुई चूचियाँ उसके कठोर मर्दाने हाथों में मचली जा रही थी, मसली जा रही थी, लाल सुर्ख हो उठी थी। चुचूक जैसे कड़कने लगे थे। उन्हें तो आलोक ने खींच खींच कर जैसे तड़का दिये थे। मैंने बालों को बार बार झटक कर उसके चेहरे पर मार रही थी। उसकी हाथ के एक अंगुली मेरी गाण्ड के छेद में गोल गोल घूम रही थी। जो मुझे और तेज उत्तेजना से भर रही थी। मैं आलोक पर लेटी अपनी कमर से उसके लण्ड को दबाये जा रही थी। उसे चोदे जा रही थी। हाय, शानदार चुदाई हो रही थी।
तभी मैंने प्यासी निगाहों से आलोक को देखा और उसके लण्ड पर पूरा जोर लगा दिया। ... और आह्ह्ह ... मेरा पानी निकल पड़ा ... मैं झड़ने लगी। झड़ने का सुहाना अहसास ... उसका लण्ड तना हुआ मुझे झड़ने में सहायता कर रहा था। उसका कड़ापन मुझे गुदगुदी के साथ सन्तुष्टि की ओर ले जा रहा था। मैं शनैः शनैः ढीली पड़ती जा रही थी। उस पर अपना भार बढ़ाती जा रही थी। उसके लण्ड अब तेजी से नहीं चल रहा था। मैंने धीरे से अपनी चूत ऊँची करके लण्ड को बाहर निकाल दिया।
"आलोक, तेरे इस अकड़ू ने तो मेरी ही अकड़ निकाल दी..."
फिर मैंने उसके लण्ड की एक बार फिर से गर्दन पकड़ ली, उसके सुपाड़े की जैसे नसें तन गई। जैसे उसे फ़ांसी देने वाली थी। उसे फिर एक बार अपने मुख के हवाले किया और सुपाड़े की जैसे शामत आ गई। मेरे हाथ उसे घुमा घुमा कर मुठ मारने लगे। सुपाड़े को दांतों से कुचल कुचल कर उसे लाल कर दिया। डण्डा बहुत ही कड़क लोहे जैसा हो चुका था। आलोक की आनन्द के मारे जैसे जान निकली जा रही थी। तभी उसके लौड़े की सारी अकड़ निकल गई। उसका रस निकल पड़ा ... मैंने इस बार वीर्य का जायजा पहली बार लिया। उसका चिकना रस रह रह कर मेरे मुख में भरता रहा। मैं उसे स्वाद ले ले कर पीती रही। लन्ड को निचोड़ निचोड़ कर सारा रस निकाल लिया और उसे पूरा साफ़ कर दिया।
"देखा निकल गई ना अकड़......... साला बहुत इतरा रहा था ..." मैंने तमक कर कहा।
"दीदी, आप तो मना कर रही थी और फिर ... दो बार चुद ली?" उसने प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा।
"क्या भैया ... लण्ड की अकड़ भी तो निकालनी थी ना ... घुस गई ना सारी अकड़ मेरी चूत में !"
"दीदी आपने तो लण्ड की नहीं मेरी अकड़ भी निकाल दी ... बस अब मैं जाऊँ ...?"
"अब कभी अकड़ निकालनी हो तो अपनी दीदी को जरूर बताना ... अभी और अकड़ निकालनी है क्या ?"
"ओह दीदी ... ऐसा मत कहो ... उफ़्फ़्फ़ ये तो फिर अकड़ गया ..." आलोक अपने लण्ड को दबा कर बैठाता हुआ बोला। तो अब देर किस बात की थी, हम दोनों इस बार शरम छोड़ कर फिर से भिड़ गये। भैया और दीदी के रिश्तों के चीथड़े उड़ने लगे ... मेरा कहना था कि वो तो मेरा मात्र एक पड़ोसी था ना कि कोई भैया। अरे कोई भी मुझे क्या ऐसे ही दीदी कहने लग जायेगा, आप ही कहें, तो क्या मैं उसे भैया मान लूँ? फिर तो चुद ली मैं ? ये साले दीदी बना कर घर तक पहुँच तो जाते है और अन्त होता है इस बेचारी दीदी की चुदाई से। सभी अगर मुझे दीदी कहेंगे तो फिर मुझे चोदेगा कौन ? क्या मेरा सचमुच का भैया ... !!! फिर वो कहेंगे ना कि 'सैंया मेरे राखी के बन्धन को निभाना ...'
उसके हाथ मेरे ब्लाऊज को खोलने में लगे थे ... मैंने अपने होंठ झटक दिये।
"यह क्या कर रहे हो ...? प्लीज ! बस अब बहुत हो गया ... अब जाओ तुम !" मेरे नखरे और बढ़ने लगे।
पर मेरे दोनों कबूतर उसकी गिरफ़्त में थे। वो उसे सहला सहला कर दबा रहा था। मेरी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। मेरे दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी। बस जुबान पर इन्कार था, मैंने उसके हाथ अपने नर्म कबूतरों से हटाने की कोशिश नहीं की। उसने मेरा टॉप ऊपर खींच दिया, मैं ऊपर से नंगी हो चुकी थी। मेरे सुडौल स्तन तन कर बाहर उभर आये। उनमें कठोरता बढ़ती जा रही थी। मेरे चुचूक सीधे होकर कड़े हो गये थे। मैं अपने हाथों से अपना तन छिपाने की कोशिश करने लगी।
तभी उसने बेशर्म होकर अपनी पैंट उतार दी और साथ ही अपनी चड्डी भी। यह मेरे मादक जोबन की जीत थी। उसका लण्ड 120 डिग्री पर तना हुआ था और उसके ऊपर उसके पेट को छू रहा था। बेताबी का मस्त आलम था। उसका लण्ड लम्बा था पर टेढा था। मेरा मन हुआ कि उसे अपने मुख में दबा लूँ और चुसक चुसक कर उसका माल निकाल दूँ। उसने एक झटके में मुझे खींच कर मेरी पीठ अपने से चिपका ली। मेरे चूतड़ों के मध्य में पजामे के ऊपर से ही लण्ड घुसाने लगा। आह्ह ! कैसा मधुर स्पर्श था ... घुसा दे मेरे राजा जी ... मैंने सामने से अपनी चूचियाँ और उभार दी। उसका कड़क लण्ड गाण्ड में घुस कर अपनी मौजूदगी दर्शा रहा था।
"वो क्या है? ... उसमें क्या तेल है ...?"
"हाँ है ... पर ये ऐसे क्या घुसाये जा रहा है ... ?"
उसने मेरी गर्दन पकड़ी और मुझे बिस्तर पर उल्टा लेटा दिया। एक हाथ बढ़ा कर उसने तेल की शीशी उठा ली। एक ही झटके में मेरा पाजामा उसने उतार दिया,"बस अब ऐसे ही पड़े रहना ... नहीं तो ध्यान रहे मेरे पास चाकू है ... पूरा घुसेड़ दूँगा।"
मैं उसकी बात से सन्न रह गई। यह क्या ... उसने मेरे चूतड़ों को खींच कर खोल दिया और तेल मेरे गाण्ड के फ़ूल पर लगाने लगा। उसने धीरे से अंगुली दबाई और अन्दर सरका दी। वो बार बार तेल लेकर मेरी गाण्ड के छेद में अपनी अंगुली घुमा रहा था। मेरे पति ने तो ऐसा कभी नहीं किया था। उफ़्फ़्फ़्... कितना मजा आ रहा था।
"आलोक, देख चाकू मत घुसेड़ना, लग जायेगी ..." मैंने मस्ती में, पर सशंकित होकर कहा।
पर उसने मेरी एक ना सुनी और दो तकिये नीचे रख दिये। मेरी टांगें खोल कर मेरे छेद को ऊपर उठा दिया और अपना सुपाड़ा उसमें दबा दिया।
"देख चाकू गया ना अन्दर ..."
"आह, यह तो तुम्हारा वो है, चाकू थोड़े ही है?"
"तो तुम क्या समझी थी सचमुच का चाकू है मेरे पास ... देखो यह भी तो अन्दर घुस गया ना ?"
उसका लण्ड मेरी गाण्ड में उतर गया था।
"देख भैया, अब बहुत हो गया ना ... तूने मुझे नहीं छोड़ा तो मैं चिल्लाऊँगी ..." मैंने अब जानबूझ कर उसे छेड़ा।
पर उसने अब धक्के लगाने शुरू कर दिये थे, लण्ड अन्दर बाहर आ जा रहा था, उसका लण्ड मेरी चूत को भी गुदगुदा रहा था। मेरी चूत की मांसपेशियाँ भी सम्भोग के तैयार हो कर अन्दर से खिंच कर कड़ी हो गई थी।
"नहीं दीदी चिल्लाना नहीं ... नहीं तो मर जाऊँगा ..." वो जल्दी जल्दी मेरी गाण्ड चोदने लगा पर मैंने अपने नखरे जारी रखे,"तो फिर हट जा ... मेरे ऊपर से... आह्ह ... मर गई मैं तो !" मैंने उसे बड़ी मस्त नजर से पीछे मुड़ कर देखा।
"बस हो गया दीदी ... दो मिनट और ..." वो हांफ़ता हुआ बोला।
"आह्ह ... हट ना ... क्या भीतर ही अपना माल निकाल देगा?" मुझे अब चुदने की लग रही थी। चूत बहुत ही गीली हो गई थी और पानी भी टपकाने लगी। इस बार वो सच में डर गया और रुक गया। मुझे नहीं मालूम था कि गाण्ड मारते मारते सच में हट जायेगा।
"अच्छा दीदी ... पर किसी को बताना नहीं..." वो हांफ़ते हुये बोला।
अरे यह क्या ... यह तो सच में पागल है ... यह तो डर गया... ओह... कैसा आशिक है ये?
"अच्छा, चल पूरा कर ले ... अब नहीं चिल्लाऊंगी..." मैंने उसे नरमाई से कहा। मैंने बात बनाने की कोशिश की- साला ! हरामजादा ... भला ऐसे भी कोई चोदना छोड़ देता है ... मेरी सारी मस्ती रह जाती ना !
उसने खुशी से उत्साहित होकर फिर से लण्ड पूरा घुसा दिया और चोदने लगा। आनन्द के मारे मेरी चूत से पानी और ही निकलने लगा। उसमे भी जोर की खुजली होने लगी ... अचानक वो चिल्ला उठा और उसका लण्ड पूरा तले तक घुस पड़ा और उसका वीर्य निकलने को होने लगा। उसने अपना लण्ड बाहर खींच लिया और अपने मुठ में भर लिया। फिर एक जोर से पिचकारी निकाल दी, उसका पूरा वीर्य मेरी पीठ पर फ़ैलता जा रहा था। कुछ ही समय में वो पूरा झड़ चुका था।
"दीदी, थेन्क्स, और सॉरी भी ... मैंने ये सब कर दिया ..." उसकी नजरें झुकी हुई थी।
पर अब मेरा क्या होगा ? मेरी चूत में तो साले ने आग भर दी थी। वो तो जाने को होने लगा, मैं तड़प सी उठी।
"रुक जाओ आलोक ... दूध पी कर जाना !" मैंने उसे रोका। वो कपड़े पहन कर वही बैठ गया। मैं अन्दर से दूध गरम करके ले आई। उसने दूध पी लिया और जाने लगा।
"अभी यहीं बिस्तर पर लेट जाओ, थोड़ा आराम कर लो ... फिर चले जाना !" मैंने उसे उलझाये रखने की कोशिश की। मैंने उसे वही लेटा दिया। उसकी नजरें शरम से झुकी हुई थी। इसके विपरीत मैं वासना की आग में जली जा रही थी। ऐसे कैसे मुझे छोड़ कर चला जायेगा। मेरी पनियाती चूत का क्या होगा।
"दीदी अब कपड़े तो पहन लूँ ... ऐसे तो शरम आ रही है।" वो बनियान पहनता हुआ बोला।
"क्यूँ भैया ... मेरी मारते समय शरम नहीं आई ?... मेरी तो बजा कर रख दी..." मैंने अपनी आँखें तरेरी।
"दीदी, ऐसा मत बोलो ... वो तो बस हो गया !" वो और भी शरमा गया।
"और अब ... ये फिर से खड़ा हो रहा है तो अब क्या करोगे..." उसका लण्ड एक बार फिर से मेरे यौवन को देख कर पुलकित होने लगा था।
"ओह, नहीं दीदी इस बार नहीं होने दूंगा..." उसने अपना लण्ड दबा लिया पर वो तो दूने जोर से अकड़ गया।
"भैया, मेरी सुनो ... तुम कहो तो मैं इसकी अकड़ दो मिनट में निकाल दूंगी..." मैंने उसे आँख मारते हुये कहा।
"वो कैसे भला ...?" उसने प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखा।
"वो ऐसे ... हाथ तो हटाओ..." मैं मुस्करा उठी।
मैंने बड़े ही प्यार से उसे थाम लिया, उसकी चमड़ी हटा कर सुपाड़ा खोल दिया। उसकी गर्दन पकड़ ली। मैंने झुक कर सुपाड़े को अपने मुख में भर लिया और उसकी गर्दन दबाने लगी। अब आलोक की बारी थी चिल्लाने की। बीच बीच में उसकी गोलियों को भी खींच खींच कर दबा रही थी। उसने चादर को अपनी मुठ्ठी में भर कर कस लिया था और अपने दांत भीच कर कमर को उछालने लगा था।
"दीदी, यह क्या कर रही हो ...?" उसका सुपाड़ा मेरे मुख में दब रहा था, मैं दांतों से उसे काट रही थी। उसके लण्ड के मोटे डण्डे को जोर से झटक झटक कर मुठ मार रही थी।
"भैया , यह तो मानता ही नहीं है ... एक इलाज और है मेरे पास..." मैंने उसके तड़पते हुये लण्ड को और मसलते हुये कहा। मैं उछल कर उसके लण्ड के पास बैठ गई। उसका तगड़ा लण्ड जो कि टेढा खड़ा हुआ था, उसे पकड़ लिया और उसे चूत के निशाने पर ले लिया। उसका लम्बा टेढा लण्ड बहुत खूबसूरत था। जैसे ही योनि ने सुपाड़े का स्पर्श पाया वो लपलपा उठी ... मचल उठी, उसका साथी जो जाने कब से उसकी राह देख रहा था ... प्यार से सुपाड़े को अपनी गोद में छुपा लिया और उसकी एक इन्च के कटे हुये अधर में से दो बूंद बाहर चू पड़ी।
आनन्द भरा मिलन था। योनि जैसे अपने प्रीतम को कस के अपने में समाहित करना चाह रही थी, उसे अन्दर ही अन्दर समाती जा रही थी यहा तक कि पूरा ही समेट लिया। आलोक ने अपने चूतड़ों को मेरी चूत की तरफ़ जोर लगा कर उठा दिया।
... मेरी चूत लण्ड को पूरी लील चुकी थी। दोनों ही अब खेल रहे थे। लण्ड कभी बाहर आता तो चूत उसे फिर से अन्दर खींच लेती। यह मधुर लण्ड चूत का घर्षण तेज हो उठा। मैं उत्तेजना से सरोबार अपनी चूत लण्ड पर जोर जोर पटकने लगी।
दोनो मस्त हो कर चीखने-चिल्लाने लगे थे। मस्ती का भरपूर आलम था। मेरी लटकती हुई चूचियाँ उसके कठोर मर्दाने हाथों में मचली जा रही थी, मसली जा रही थी, लाल सुर्ख हो उठी थी। चुचूक जैसे कड़कने लगे थे। उन्हें तो आलोक ने खींच खींच कर जैसे तड़का दिये थे। मैंने बालों को बार बार झटक कर उसके चेहरे पर मार रही थी। उसकी हाथ के एक अंगुली मेरी गाण्ड के छेद में गोल गोल घूम रही थी। जो मुझे और तेज उत्तेजना से भर रही थी। मैं आलोक पर लेटी अपनी कमर से उसके लण्ड को दबाये जा रही थी। उसे चोदे जा रही थी। हाय, शानदार चुदाई हो रही थी।
तभी मैंने प्यासी निगाहों से आलोक को देखा और उसके लण्ड पर पूरा जोर लगा दिया। ... और आह्ह्ह ... मेरा पानी निकल पड़ा ... मैं झड़ने लगी। झड़ने का सुहाना अहसास ... उसका लण्ड तना हुआ मुझे झड़ने में सहायता कर रहा था। उसका कड़ापन मुझे गुदगुदी के साथ सन्तुष्टि की ओर ले जा रहा था। मैं शनैः शनैः ढीली पड़ती जा रही थी। उस पर अपना भार बढ़ाती जा रही थी। उसके लण्ड अब तेजी से नहीं चल रहा था। मैंने धीरे से अपनी चूत ऊँची करके लण्ड को बाहर निकाल दिया।
"आलोक, तेरे इस अकड़ू ने तो मेरी ही अकड़ निकाल दी..."
फिर मैंने उसके लण्ड की एक बार फिर से गर्दन पकड़ ली, उसके सुपाड़े की जैसे नसें तन गई। जैसे उसे फ़ांसी देने वाली थी। उसे फिर एक बार अपने मुख के हवाले किया और सुपाड़े की जैसे शामत आ गई। मेरे हाथ उसे घुमा घुमा कर मुठ मारने लगे। सुपाड़े को दांतों से कुचल कुचल कर उसे लाल कर दिया। डण्डा बहुत ही कड़क लोहे जैसा हो चुका था। आलोक की आनन्द के मारे जैसे जान निकली जा रही थी। तभी उसके लौड़े की सारी अकड़ निकल गई। उसका रस निकल पड़ा ... मैंने इस बार वीर्य का जायजा पहली बार लिया। उसका चिकना रस रह रह कर मेरे मुख में भरता रहा। मैं उसे स्वाद ले ले कर पीती रही। लन्ड को निचोड़ निचोड़ कर सारा रस निकाल लिया और उसे पूरा साफ़ कर दिया।
"देखा निकल गई ना अकड़......... साला बहुत इतरा रहा था ..." मैंने तमक कर कहा।
"दीदी, आप तो मना कर रही थी और फिर ... दो बार चुद ली?" उसने प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा।
"क्या भैया ... लण्ड की अकड़ भी तो निकालनी थी ना ... घुस गई ना सारी अकड़ मेरी चूत में !"
"दीदी आपने तो लण्ड की नहीं मेरी अकड़ भी निकाल दी ... बस अब मैं जाऊँ ...?"
"अब कभी अकड़ निकालनी हो तो अपनी दीदी को जरूर बताना ... अभी और अकड़ निकालनी है क्या ?"
"ओह दीदी ... ऐसा मत कहो ... उफ़्फ़्फ़ ये तो फिर अकड़ गया ..." आलोक अपने लण्ड को दबा कर बैठाता हुआ बोला। तो अब देर किस बात की थी, हम दोनों इस बार शरम छोड़ कर फिर से भिड़ गये। भैया और दीदी के रिश्तों के चीथड़े उड़ने लगे ... मेरा कहना था कि वो तो मेरा मात्र एक पड़ोसी था ना कि कोई भैया। अरे कोई भी मुझे क्या ऐसे ही दीदी कहने लग जायेगा, आप ही कहें, तो क्या मैं उसे भैया मान लूँ? फिर तो चुद ली मैं ? ये साले दीदी बना कर घर तक पहुँच तो जाते है और अन्त होता है इस बेचारी दीदी की चुदाई से। सभी अगर मुझे दीदी कहेंगे तो फिर मुझे चोदेगा कौन ? क्या मेरा सचमुच का भैया ... !!! फिर वो कहेंगे ना कि 'सैंया मेरे राखी के बन्धन को निभाना ...'
Re: हिन्दी सेक्सी कहानियाँ
बेचैन निगाहे
मेरी शादी हुए दो साल हो चुके हैं। मेरी पढ़ाई बीच में ही रुक गई थी। मेरे पति बहुत ही अच्छे हैं, वो मेरी हर इच्छा को ध्यान में रखते हैं। मेरी पढ़ाई की इच्छा के कारण मेरे पति ने मुझे कॉलेज में फिर से प्रवेश दिला दिया था। उन्हें मेरे वास्तविक इरादों का पता नहीं था कि इस बहाने मैं नए मित्र बनाना चाहती हूँ। मैं कॉलेज में एडमिशन लेकर बहुत खुश हूँ। मेरे पति बी.एच.ई.एल. में कार्य करते हैं। उन्हें कभी कभी उनके मुख्य कार्यालय में कार्य हेतु शहर भी बुला लिया जाता है। उन दिनों मुझे बहुत अकेलापन लगता है। कॉलेज जाने से मेरी पढ़ाई भी हो जाती है और समय भी अच्छा निकल जाता है। धीरे धीरे मैंने अपने कई पुरुष मित्र भी बना लिए हैं।
कई बार मेरे मन में भी आता था कि अन्य लड़कियों की तरह मैं भी उन मित्रों लड़को के साथ मस्ती करूँ, पर मैं सोचती थी कि यह काम इतना आसान नहीं है। ऐसा काम बहुत सावधानी से करना पड़ता है, जरा सी चूक होने पर बदनामी हो जाती है। फिर क्या लड़के यूँ ही चक्कर में आ जाते है, हाँ, लड़के फ़ंस तो जाते ही है। छुप छुप के मिलना और कहीं एकान्त मिल गया तो पता नहीं लड़के क्या न कर गुजरें। उन्हें क्या ... हम तो चुद ही जायेंगी ना। आह !फिर भी जाने क्यूँ कुछ ऐसा वैसा करने को मन मचल ही उठता है, शायद नए लण्ड खाने के विचार से। लगता है जवानी में वो सब कुछ कर गुजरें जिसकी मन में तमन्ना हो। पराये मर्द से शरीर के गुप्त अंगों का मर्दन करवाना, पराये मर्द का लण्ड मसलना, मौका पाकर गाण्ड मरवाना, प्यासी चूत का अलग अलग लण्डों से चुदवाना ...। फिर मेरे मस्त उभारों का बेदर्दी से मर्दन करवाना ...
धत्त ! यह क्या सोचने लगी मैं? भला ऐसा कहीं होता है ? मैंने अपना सर झटका और पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करने लगी। पर एक बार चूत को लण्ड का चस्का लग जाए तो चूत बिना लण्ड लिए नहीं मानती है, वो भी पराये मर्दों के लिए तरसने लगती है, जैसे मैं ... अब आपको कैसे समझाऊँ, दिल है कि मानता ही नहीं है। यह तो आप सभी ही समझते हैं।
मेरी कक्षा में एक सुन्दर सा लड़का था, उसका नाम संजय था, जो हमेशा पढ़ाई में अव्वल आता था। मैंने मदद के लिए उससे दोस्ती कर ली थी। उससे मैं नोट्स भी लिया करती थी।
एक बार मैं संजय से नोट्स लेकर आई और उसे मैंने मेज़ पर रख दिए। भोजन वगैरह तैयार करके मैं पढ़ने बैठी। कॉपी के कुछ ही पन्ने उलटने के बाद मुझे उसमें एक पत्र मिला। उसे देखते ही मेरे शरीर में एक झुरझुरी सी चल गई। क्या प्रेम पत्र होगा... जी हाँ... संजय ने वो पत्र मुझे लिखा था। मेरा मन एक बार तो खुशी से भर गया।
जैसा मैंने सोचा था ... उसमें उसने अपने प्यार का इज़हार किया था। बहुत सी दिलकश बातें भी लिखी थी। मेरी सुन्दरता और मेरी सेक्सी अदाओं के बारे में खुल कर लिखा था। उसे पढ़ते समय मैं तो उसके ख्यालों में डूब गई। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई मुझसे प्यार करने लगेगा और यूँ पत्रों के द्वारा मुझे अपने दिल की बात कहेगा।
मेरे जिस्म में खलबली सी मचने लगी। चूत में मीठा सा रस निकल आया। फिर मुझे लगा कि मेरे दिल में यह आने लगा ... मैं तो शादीशुदा हूँ, पराये मर्द के बारे में भला कैसे सोच सकती हूँ। पर हे राम, इस चूत का क्या करूँ। वो पराया सा भी तो नहीं लग रहा था।
तभी अचानक घर की घण्टी बजी। बाहर देखा तो संजय था ... मेरा दिल धक से रह गया। यह क्या ... यह तो घर तक आ गया, पर उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थी।
"क्या हुआ संजय?" मैं भी उसके हाल देख कर बौखला गई।
"वो नोट्स कहाँ हैं शीला?" उसने उखड़ती आवाज में कहा।
"वो रखे हुए हैं ... क्यों क्या हो गया?"
वो जल्दी से अन्दर आ गया और कॉपी देखने लगा। जैसे ही उसकी नजर मेज़ पर रखे पत्र पर पड़ी ... वो कांप सा गया। उसने झट से उसे उठा लिया और अपनी जेब में रख लिया।
"शीलू, इसे देखा तो नहीं ना ... ?"
"हाँ देखा है ... क्यूँ, क्या हुआ ...? अच्छा लिखते हो !"
"सॉरी ... सॉरी ... शीलू, मेरा वो मतलब नहीं था, ये तो मैंने यूँ ही लिख दिया था।" उसका मुख रुआंसा सा हो गया था।
"इसमें सॉरी की क्या बात है ... तुम्हारे दिल में जो था... बस लिख दिया...। अच्छा लिखा था ... कोई मेरी इतनी तारीफ़ करे ... थैंकयू यार, मुझे तो बहुत मजा आया अपनी तारीफ़ पढ़कर !"
"सॉरी ... शीला !" उसे कुछ समझ में नहीं आया। वो सर झुका कर चला गया।
मैं उसके भोलेपन पर मुस्करा उठी। उसके दिल में मेरे लिए क्या भावना है मुझे पता चल गया था। रात भर बस मुझे संजय का ही ख्याल आता रहा। हाय राम, कितना कशिश भरा था संजय... काश ! वो मेरी बाहों में होता। मेरी चूत इस सोच से जाने कब गीली हो गई थी।
संजय ने मेरे स्तन दबा लिए और मेरे चूतड़ो में अपना लण्ड घुस दिया। मैं तड़प उठी। वो मुझसे चिपका जा रहा था, मुझे चुदने की बेताबी होने लगी।
'क्या कर रहे हो संजू ... जरा मस्ती से ... धीरे से...'
मैंने घूम कर उसे पकड़ लिया और बिस्तर पर गिरा दिया। उसका लण्ड मेरी चूत में घुस गया। मेरा शरीर ठण्ड से कांप उठा। मैंने उसके शरीर को और जोर से दबा लिया। मेरी नींद अचानक खुल गई। जाने कब मेरी आँख लग गई थी ... ठण्ड के मारे मैं रज़ाई खींच रही थी ... और एक मोहक सा सपना टूट गया। मैंने अपने कपड़े बदले और रज़ाई में घुस कर सो गई। सवेरे मेरे पति नाईट ड्यूटी करके आ चुके थे और वो चाय बना रहे थे। मैंने जल्दी से उठ कर बाकी काम पूरा किया और चाय के लिए बैठ गई।
कॉलेज में आज संजय मुझसे दूर-दूर भाग रहा था, पर कैन्टीन में मैंने उसे पकड़ ही लिया। उसकी झिझक मैंने दूर कर दी। मेरे दिल में उसके लिए प्रेम भाव उत्पन्न हो चुका था। वो मुझे अपना सा लगने लगा था। मेरे मन में उसके लिए भावनाएँ पैदा होने लगी थी।
"मैंने आप से माफ़ी तो मांग ली थी ना?" उसने मायूसी से सर झुकाए हुए कहा।
"सुनो संजय, तुम तो बहुत प्यारा लिखते हो, लो मैंने भी लिखा है, देखो अकेले में पढ़ना !" मैंने उसकी ओर देख कर शर्माते हुए कहा।
उसे मैंने एक कॉपी दी, और उठ कर चली आई। काऊन्टर पर पैसे दिए और घूम कर संजय को देखा। वो कॉपी में से मेरा पत्र निकाल कर अपनी जेब में रख रहा था। हम दोनों की दूर से ही नजरें मिली और मैं शर्मा गई।
उसमें मर्दानगी जाग गई ... और फिर एक मर्द की तरह वो उठा और काऊन्टर पर आकर उसने मेरे पैसे वापस लौटाए औए स्वयं सारे पैसे दिए। मैं सर झुकाए तेजी से कक्षा में चली आई। पूरा दिन मेरा दिल कक्षा में नहीं लगा, बस एक मीठी सी गुदगुदी दिल में उठती रही। जाने वो पत्र पढ़ कर क्या सोचेगा।
रात को मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई, मैं अनमनी सी हो उठी। हाय ... उसे मैंने रात को क्यों बुला लिया ? यह तो गलत है ना ! क्या मैं संजय पर मरने लगी हूँ? क्या यही प्यार है? हाय ! वो पत्र पढ़ कर क्या सोचेगा, क्या मुझे चरित्रहीन कहेगा? या मुझे भला बुरा कहेगा। जैसे जैसे उसके आने का समय नजदीक आता जा रहा था, मेरी दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। मुझे लगा कि मैं पड़ोसी के यहाँ भाग जाऊँ, दरवाजा बन्द देख कर वह स्वतः ही चला जायेगा। बस ! मुझे यही समझ में आया और मैंने ताला लिया और चल दी।[
जैसे ही मैंने दरवाजा खोला तो दिल धक से रह गया। संजय सामने खड़ा था। मेरा दिल जैसे बैठने सा लगा।
"अरे मुझे बुला कर कहाँ जा रही हो?"
"क्... क... कहां भला... कही नहीं ... मैं तो ... मैं तो ..." मैं बदहवास सी हो उठी थी।
"ओ के, मैं कभी कभी आ जाऊँगा ... चलता हूँ !" मेरी चेहरे पर पड़ी लटों को उंगली से एक तरफ़ हटाते हुए बोला।
"अरे नहीं... आओ ना... वो बात यह है कि अभी घर में कोई नहीं है..." मैं हड़बड़ा सी गई। सच तो यह था कि मुझे पसीना छूटने लगा था।
"ओह्ह ... आपकी हालत कह रही है कि मुझे चला जाना चाहिए !"
मैंने उसे अन्दर लेकर जल्दी से दरवाजा बन्द कर दिया और दरवाजे पर पीठ लगा कर गहरी सांसें लेने लगी।
"देखो संजू, वो खत तो मैंने ऐसे ही लिख दिया था ... बुरा मत मानना..." मैंने सर झुका कर कहा।
उसका सर भी झुक गया। मैंने भी शर्म से घूम कर उसकी ओर अपनी पीठ कर ली।
"पर आपके और मेरे दिल की बात तो एक ही है ना ..." उसने झिझकते हुए कहा।
मुझे बहुत ही कोफ़्त हो रही थी कि मैंने ऐसा क्यूँ लिख दिया। अब एक पराया मर्द मेरे सामने खड़ा था। मुझे बार बार कुछ करने को उकसा रहा था। उसकी भी भला क्या गलती थी। तभी संजय के हाथों का मधुर सा स्पर्श मेरी बाहों पर हुआ।
"शीलू जी, आप मुझे बहुत अच्छी लगती हो...!" उसने प्रणय निवेदन कर डाला।
यह सुनते ही मेरे शरीर में बर्फ़ सी लहरा गई। मेरी आँखें बन्द सी हो गई।"य... यह ... क्या कह रहे हो? ऐसा मत कहो ..." मेरे नाजुक होंठ थरथरा उठे।
"मैं ... मैं ... आपसे प्यार करने लगा हूँ शीलू जी ... आप मेरे दिल में बस गई हो !" उसका प्रणय निवेदन मेरी नसों में उतरता जा रहा था। वो अपने प्यार का इजहार कर रहा था। उसकी हिम्मत की दाद देनी होगी।
"मैं शादीशुदा हूँ, सन्जू ... यह तो पाप... अह्ह्ह्... पाप है ... " मैं उसकी ओर पलट कर उसे निहारते हुए बोली।
उसने मुझे प्यार भरी नजरों से देखा और मेरी बाहों को पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। मैं उसकी बलिष्ठ बाहों में कस गई।
"पत्र में आपने तो अपना दिल ही निकाल कर रख दिया था ... है ना ! यही दिल की आवाज है, आपको मेरे बाल, मेरा चेहरा, सभी कुछ तो अच्छा लगता है ना?" उसने प्यार से मुझे देखा।
"आह्ह्ह ... छोड़ो ना ... मेरी बांह !" मैं जानबूझ कर उसकी बाहों में झूलती हुए बोली।
"शीलू जी, दिल को खुला छोड़ दो, वो सब हो जाने दो, जिसका हमें इन्तज़ार है।"
उसने अपने से मुझे चिपका लिया था। उसके दिल की धड़कन मुझे अपने दिल तक महसूस होने लगी थी। पर मेरा दिल अब कुछ ओर कहने लगा था। यह सुहानी सी अनुभूति मुझे बेहोश सी किए जा रही थी। सच में एक पराये मर्द का स्पर्श में कितना मधुर आनन्द आता है ... यह अनैतिक कार्य मुझे अधिक रोमांचित कर रहा था ... । उसके अधर मेरे गुलाबी गोरे गालों को चूमने लगे थे। मैं बस अपने आप को छुड़ाने की जानकर नाकामयाब कोशिश बस यूँ ही कर रही थी। वास्तव में मेरा अंग अंग कुचले और मसले जाने को बेताब होने लगा था। अब उसके पतले पतले होंठ मेरे होंठों से चिपक गए थे।
आह्ह्ह्ह ...... उसकी खुशबूदार सांसें ...
उसके मुख से एक मधुर सी सुगंध मेरी सांसों में घुल गई। धीरे धीरे मैं अपने आप को उसको समर्पण करने लगी थी। उसके अधर मेरे नीचे के अधर को चूसने लगे थे। फिर उसकी लपलपाती जीभ मेरे मुख द्वार में प्रवेश कर गई और मेरी जीभ से टकरा गई। मैंने धीरे से उसकी जीभ मुख में दबा ली और चूसने लगी। मैं तो शादीशुदा थी... मुझे इन सेक्सी कार्यों का बहुत अच्छा अनुभव था... और वो मैं कुशलता से कर लेती थी। उसके हाथ मेरे जिस्म पर लिपट गए और मेरी पीठ, कमर और चूतड़ों को सहलाने लगे। मेरे शरीर में बिजलियाँ तड़कने लगी। उसका लण्ड भी कड़क उठा और मेरे कूल्हों से टकराने लगा। मेरा धड़कता सीना उसके हाथों में दब गया। मेरे मुख से सिसकारी फ़ूट पड़ी। मैंने उसे धीरे से अपने से अलग कर दिया।
"यह क्या करने लगे थे हम ...?" मैं अपनी उखड़ी सांसें समेटते हुई जान करके शर्माते हुए नीचे देखते हुए बोली।
"वही जो दिल की आवाज थी ... " उसकी आवाज जैसे बहुत दूर से आ रही हो।
"मैं अपने पति का विश्वास तोड़ रही हूँ ना ... बताओ ना?" मेरा असमंजस चरम सीमा पर थी, पर सिर्फ़ उसे दर्शाने के लिए कि कहीं वो मुझे चालू ना समझ ले।
"नहीं, विश्वास अपनी जगह है ... जिससे पाने से खुशी लगे, उसमें कोई पाप नहीं है, खुशी पाना तो सबका अधिकार है ... दो पल की खुशी पाना विश्वास तोड़ना नहीं होता है।"
"तुम्हारी बातें तो मानने को मन कर रहा है ... तुम्हारे साथ मुझे बहुत आनन्द आ रहा है, पर प्लीज संजू किसी कहना नहीं..." मैंने जैसे समर्पण भाव से कहा।
"तो शर्म काहे की ... दो पल का सुख उठा लो ... किसी को पता भी नहीं चलेगा... आओ !"
मैं बहक उठी, उसने मुझे लिपटा लिया। मेरा भी उसके लण्ड को पकड़ने का दिल कर रहा था। मैंने भी हिम्मत करके उसके पैंट की ज़िप में हाथ घुसा दिया। उसका लण्ड का आकार भांप कर मैं डर सी गई। वो मुझे बहुत मोटा लगा। फिर मैं उसे पकड़ने का लालच मैं नहीं छोड़ पाई। उसे मैंने अपनी मुट्ठी में दबा लिया। मैं उसे अब दबाने-कुचलने लगी। लण्ड बहुत ही कड़ा हो गया था। वो मेरी चूचियाँ सहलाने लगा ...
एक एक कर के उसने मेरे ब्लाऊज के बटन खोल दिये। मेरी स्तन कठोर हो गए थे। चुचूक भी कड़े हो कर फ़ूल गए थे। ब्रा के हुक भी उसने खोल दिए थे। ब्रा के खुलते ही मेरे उभार जैसे फ़ड़फ़ड़ा कर बाहर निकल कर तन गये। जवानी का तकाजा था ... मस्त हो कर मेरा एक एक अंग अंग फ़ड़क उठा। मेरे कड़े स्तनाग्रों को संजू बार बार हल्के से घुमा कर दबा देता था।
मेरे मन में एक मीठी सी टीस उठ जाती थी। चूत में से धीरे धीरे पानी रिसने लगा था। भरी जवानी चुदने को तैयार थी। मेरी साड़ी उतर चुकी थी, पेटिकोट का नाड़ा भी खुल चुका था। मुझे भला कहाँ होश था ... उसने भी अपने कपड़े उतार दिए थे। उसका लण्ड देख देख कर ही मुझे मस्ती चढ़ रही थी।
उसके लण्ड की चमड़ी धीरे से खोल कर मैंने ऊपर खींच दी। उसका लाल फ़ूला हुआ मस्त सुपाड़ा बाहर आ गया, मैंने पहली बार किसी का इस तरह लाल सुर्ख सुपाड़ा देखा था। मेरे पति तो बस रात को अंधेरे में मुझे चोद कर सो जाया करते थे, इन सब चीज़ों का आनन्द मेरी किस्मत में नहीं था। आज मौका मिला था जिसे मैं जी भर कर भोग लेना चाहती थी।
इस मोटे लण्ड का भोग का आनन्द पहले मैं अपनी गाण्ड से आरम्भ करना चाहती थी, सो मैंने उसका लण्ड मसलते हुए अपनी गाण्ड उसकी ओर कर दी।
"संजय, 19 साल का मुन्ना, मेरे 21 साल के गोलों को मस्त करेगा क्या?"
"शीलू ... इतने सुन्दर, आकर्षक गोलों के बीच छिपी हुई मस्ती भला कौन नहीं लूटना चाहेगा, ये चिकने, गोरे और मस्त गाण्ड के गोले मारने में बहुत मजा आयेगा।"
मैं अपने हाथ पलंग पर रख कर झुक गई और अपनी गाण्ड को मैंने पीछे उभार दिया। उसके लाल सुपाड़े का स्पर्श होते ही मेरे जिस्म में कंपकंपी सी फ़ैल गई। बिजलियाँ सी लहरा गई। उसका सुपाड़े का गद्दा मेरे कोमल चूतड़ों के फ़िसलता हुआ छेद पर आ कर टिक गया। कैसा अच्छा सा लग रहा था उसके लण्ड का स्पर्श। उसके लण्ड पर शायद चिकनाई उभर आई थी, हल्के से जोर लगाने पर ही फ़क से अन्दर उतर गया था। मुझे बहुत ही कसक भरा सुन्दर सा आनन्द आया। मैंने अपनी गाण्ड ढीली कर दी ... और अन्दर उतरने की आज्ञा दे दी। मेरे कूल्हों को थाम कर और थपथपा कर उसने मेरे चूतड़ों के पट को और भी खींच कर खोल दिया और लण्ड भीतर उतारने लगा।
"शीलू जी, आनन्द आया ना ... " संजू मेरी मस्ती को भांप कर कहा।
"ऐसा आनन्द तो मुझे पहली बार आया है ... तूने तो मेरी आँखें खोल दी है यार... और यह शीलू जी-शीलू जी क्या लगा रखा है ... सीधे से शीलू बोल ना।"
मैंने अपने दिल की बात सीधे ही कह दी। वो बहुत खुश हो गया कि इन सभी कामों में मुझे आनन्द आ रहा है।
"ले अब और मस्त हो जा..." उसका लण्ड मेरी गाण्ड में पूरा उतर चुका था। मोटा लण्ड था पर उतना भी नहीं मोटा, हाँ पर मेरे पति से तो मोटा ही था। मंथर गति से वो मेरी गाण्ड चोदने लगा। उजाले में मुझे एक आनन्दित करती हुई एक मधुर लहर आने लगी थी। मेरे शरीर में इस संपूर्ण चुदाई से एक मीठी सी लहर उठने लगी ... एक आनन्ददायक अनुभूति होने लगी। जवान गाण्ड के चुदने का मजा आने लगा। दोनों चूतड़ों के पट खिले हुये, लण्ड उसमें घुसा हुआ, यह सोच ही मुझे पागल किए दे रही थी। वो रह रह कर मेरे कठोर स्तनों को दबाने का आनन्द ले रहा था ... उससे मेरी चूत की खुजली भी बढ़ती जा रही थी। चुदाई तेज हो चली थी पर मेरी गाण्ड की मस्ती भी और बढ़ती जा रही थी। मुझे लगा कि कही संजय झड़ ना जाए सो मैंने उसे चूत मारने को कहा।
"संजू, हाय रे अब मुझे मुनिया भी तड़पाने लगी है ... देख कैसी चू रही है..." मैंने संजय की तरफ़ देख कर चूत का इशारा किया।
"शीलू, गाण्ड मारने से जी नहीं भर रहा है ... पर तेरी मुनिया भी प्यासी लग रही है।"
उसने अपना हाथ मेरी चूत पर लगाया तो मेरा मटर का फ़ूला हुआ मोटा दाना उसके हाथ से टकरा गया।
"यह तो बहुत मोटा सा है ... " और उसको हल्के से पकड़ कर हिला दिया।
"हाय्य्य , ना कर, मैं मर जाऊँगी ... कैसी मीठी सी जलन होती है..." मैंने जोर की सिसकी भरी।
उसका लण्ड मेरी गाण्ड से निकल चुका था। उसका हाथ चूत की चिकनाई से गीला हो गया था। उसने नीचे झुक कर मेरी चूत को देखा और अंगुलियों से उसकी पलकें अलग अलग कर दी और खींच कर उसे खोल दिया।
"एकदम गुलाबी ... रस भरी ... मेरे मुन्ने से मिलने दे अब मुनिया को !"
उसने मेरी गुलाबी खुली हुई चूत में अपना लाल सुपाड़ा रख दिया। हाय कैसा गद्देदार नर्म सा अहसास ... फिर उसे चूत की गोद में उसे समर्पित कर दिया। उसका लण्ड बड़े प्यार से दीवारों पर कसता हुआ अन्दर उतरता गया, और मैं सिसकारी भरती रही। चूंकि मैं घोड़ी बनी हुई थी अतः उसका लण्ड पूरा जड़ तक पहुँच गया। बीच बीच में उसका हाथ, मेरे दाने को भी छेड़ देता था और मेरी चूत में मजा दुगना हो जाता था। वो मेरा दाना भी जोर जोर से हिलाता जा रहा था। लण्ड के जड़ में गड़ते ही मुझे तेज मजा आ गया और दो तीन झटकों में ही, जाने क्या हुआ मैं झड़ने लगी। मैं चुप ही रही, क्योंकि वो जल्दी झड़ने वाला नहीं लगा।
उसने धक्के तेज कर दिए ... शनैः शनैः मैं फिर से वासना के नशे में खोने लगी। मैंने मस्ती से अपनी टांगें फ़ैला ली और उसका लण्ड फ़्री स्टाईल में इन्जन के पिस्टन की तरह चलने लगा। रस से भरी चूत चप-चप करने लगी थी। मुझे बहुत खुशी हो रही थी कि थोड़ी सी हिम्मत करने से मुझे इतना सारा सुख नसीब हो रहा है, मेरे दिल की तमन्ना पूरी हो रही है। मेरी आँखें खुल चुकी थी... चुदने का आसान सा रास्ता था ... थोड़ी सी हिम्मत करो और मस्ती से नया लण्ड खाओ, ढेर सारा आनन्द पाओ। मुझे बस यही विचार आनन्दित कर रहा था ... कि भविष्य में नए नए लण्ड का स्वाद चखो और जवानी को भली भांति भोग लो।
"अरे धीरे ना ... क्या फ़ाड़ ही दोगे मुनिया को...?"
वो झड़ने की कग़ार पर था, मैं एक बार फिर झड़ चुकी थी। अब मुझे चूत में लगने लगी थी। तभी मुझे आराम मिल गया ... उसका वीर्य निकल गया। उसने लण्ड बाहर निकाल लिया और सारा वीर्य जमीन पर गिराने लगा। वो अपना लण्ड मसल मसल कर पूरा वीर्य निकालने में लगा था। मैं उसे अब खड़े हो कर निहार रही थी। वो अपने लण्ड को कैसे मसल मसल कर बचा हुआ वीर्य नीचे टपका रहा था।
"देखा, संजू तुमने मुझे बहका ही दिया और मेरा फ़ायदा उठा लिया?"
"काश तुम रोज ही बहका करो तो मजा आ जाए..." वो झड़ने के बाद जाने की तैयारी करने लगा। रात के ग्यारह बजने को थे। वो बाहर निकला और यहाँ-वहाँ देखा, फिर चुपके से निकल कर सूनी सड़क पर आगे निकल गया।
सन्जय के साथ मेरे काफ़ी दिनो तक सम्बन्ध रहे थे। उसके पापा की बदली होने से वो एक दिन मुझसे अलग हो गया। मुझे बहुत दुख हुआ। बहुत दिनो तक उसकी याद आती रही।
]मैंने अब राहुल से दोस्ती कर ली। वह एक सुन्दर, बलिष्ठ शरीर का मालिक है। उसे जिम जाने का शौक है। पढ़ने में वो कोई खास नहीं, पर ऐसा लगता था वो मुझे भरपूर मजा देगा। उसकी वासनायुक्त नजर मुझसे छुपी नहीं रही। मैं उसे अब अपने जाल में लपेटने लगी हूँ। वो उसे अपनी सफ़लता समझ रहा है। आज मेरे पास राहुल के नोट्स आ चुके हैं ... मैं इन्तज़ार कर रही हूँ कि कब उसका भी कोई प्रेम पत्र नोट्स के साथ आ जाए ... जी हाँ ... जल्द ही एक दिन पत्र भी आ ही गया ...।
प्रिय पाठको ! मैं नहीं जानती हूँ कि आपने अपने छात्र-जीवन में कितना मज़ा किया होगा। यह तरीका बहुत ही साधारण है पर है कारगर। ध्यान रहे सुख भोगने से पति के विश्वास का कोई सम्बन्ध नहीं है। सुख पर सबका अधिकार है, पर हाँ, इस चक्कर में अपने पति को मत भूल जाना, वो कामचलाऊ नहीं है वो तो जिन्दगी भर के लिए है।
मेरी शादी हुए दो साल हो चुके हैं। मेरी पढ़ाई बीच में ही रुक गई थी। मेरे पति बहुत ही अच्छे हैं, वो मेरी हर इच्छा को ध्यान में रखते हैं। मेरी पढ़ाई की इच्छा के कारण मेरे पति ने मुझे कॉलेज में फिर से प्रवेश दिला दिया था। उन्हें मेरे वास्तविक इरादों का पता नहीं था कि इस बहाने मैं नए मित्र बनाना चाहती हूँ। मैं कॉलेज में एडमिशन लेकर बहुत खुश हूँ। मेरे पति बी.एच.ई.एल. में कार्य करते हैं। उन्हें कभी कभी उनके मुख्य कार्यालय में कार्य हेतु शहर भी बुला लिया जाता है। उन दिनों मुझे बहुत अकेलापन लगता है। कॉलेज जाने से मेरी पढ़ाई भी हो जाती है और समय भी अच्छा निकल जाता है। धीरे धीरे मैंने अपने कई पुरुष मित्र भी बना लिए हैं।
कई बार मेरे मन में भी आता था कि अन्य लड़कियों की तरह मैं भी उन मित्रों लड़को के साथ मस्ती करूँ, पर मैं सोचती थी कि यह काम इतना आसान नहीं है। ऐसा काम बहुत सावधानी से करना पड़ता है, जरा सी चूक होने पर बदनामी हो जाती है। फिर क्या लड़के यूँ ही चक्कर में आ जाते है, हाँ, लड़के फ़ंस तो जाते ही है। छुप छुप के मिलना और कहीं एकान्त मिल गया तो पता नहीं लड़के क्या न कर गुजरें। उन्हें क्या ... हम तो चुद ही जायेंगी ना। आह !फिर भी जाने क्यूँ कुछ ऐसा वैसा करने को मन मचल ही उठता है, शायद नए लण्ड खाने के विचार से। लगता है जवानी में वो सब कुछ कर गुजरें जिसकी मन में तमन्ना हो। पराये मर्द से शरीर के गुप्त अंगों का मर्दन करवाना, पराये मर्द का लण्ड मसलना, मौका पाकर गाण्ड मरवाना, प्यासी चूत का अलग अलग लण्डों से चुदवाना ...। फिर मेरे मस्त उभारों का बेदर्दी से मर्दन करवाना ...
धत्त ! यह क्या सोचने लगी मैं? भला ऐसा कहीं होता है ? मैंने अपना सर झटका और पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करने लगी। पर एक बार चूत को लण्ड का चस्का लग जाए तो चूत बिना लण्ड लिए नहीं मानती है, वो भी पराये मर्दों के लिए तरसने लगती है, जैसे मैं ... अब आपको कैसे समझाऊँ, दिल है कि मानता ही नहीं है। यह तो आप सभी ही समझते हैं।
मेरी कक्षा में एक सुन्दर सा लड़का था, उसका नाम संजय था, जो हमेशा पढ़ाई में अव्वल आता था। मैंने मदद के लिए उससे दोस्ती कर ली थी। उससे मैं नोट्स भी लिया करती थी।
एक बार मैं संजय से नोट्स लेकर आई और उसे मैंने मेज़ पर रख दिए। भोजन वगैरह तैयार करके मैं पढ़ने बैठी। कॉपी के कुछ ही पन्ने उलटने के बाद मुझे उसमें एक पत्र मिला। उसे देखते ही मेरे शरीर में एक झुरझुरी सी चल गई। क्या प्रेम पत्र होगा... जी हाँ... संजय ने वो पत्र मुझे लिखा था। मेरा मन एक बार तो खुशी से भर गया।
जैसा मैंने सोचा था ... उसमें उसने अपने प्यार का इज़हार किया था। बहुत सी दिलकश बातें भी लिखी थी। मेरी सुन्दरता और मेरी सेक्सी अदाओं के बारे में खुल कर लिखा था। उसे पढ़ते समय मैं तो उसके ख्यालों में डूब गई। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई मुझसे प्यार करने लगेगा और यूँ पत्रों के द्वारा मुझे अपने दिल की बात कहेगा।
मेरे जिस्म में खलबली सी मचने लगी। चूत में मीठा सा रस निकल आया। फिर मुझे लगा कि मेरे दिल में यह आने लगा ... मैं तो शादीशुदा हूँ, पराये मर्द के बारे में भला कैसे सोच सकती हूँ। पर हे राम, इस चूत का क्या करूँ। वो पराया सा भी तो नहीं लग रहा था।
तभी अचानक घर की घण्टी बजी। बाहर देखा तो संजय था ... मेरा दिल धक से रह गया। यह क्या ... यह तो घर तक आ गया, पर उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थी।
"क्या हुआ संजय?" मैं भी उसके हाल देख कर बौखला गई।
"वो नोट्स कहाँ हैं शीला?" उसने उखड़ती आवाज में कहा।
"वो रखे हुए हैं ... क्यों क्या हो गया?"
वो जल्दी से अन्दर आ गया और कॉपी देखने लगा। जैसे ही उसकी नजर मेज़ पर रखे पत्र पर पड़ी ... वो कांप सा गया। उसने झट से उसे उठा लिया और अपनी जेब में रख लिया।
"शीलू, इसे देखा तो नहीं ना ... ?"
"हाँ देखा है ... क्यूँ, क्या हुआ ...? अच्छा लिखते हो !"
"सॉरी ... सॉरी ... शीलू, मेरा वो मतलब नहीं था, ये तो मैंने यूँ ही लिख दिया था।" उसका मुख रुआंसा सा हो गया था।
"इसमें सॉरी की क्या बात है ... तुम्हारे दिल में जो था... बस लिख दिया...। अच्छा लिखा था ... कोई मेरी इतनी तारीफ़ करे ... थैंकयू यार, मुझे तो बहुत मजा आया अपनी तारीफ़ पढ़कर !"
"सॉरी ... शीला !" उसे कुछ समझ में नहीं आया। वो सर झुका कर चला गया।
मैं उसके भोलेपन पर मुस्करा उठी। उसके दिल में मेरे लिए क्या भावना है मुझे पता चल गया था। रात भर बस मुझे संजय का ही ख्याल आता रहा। हाय राम, कितना कशिश भरा था संजय... काश ! वो मेरी बाहों में होता। मेरी चूत इस सोच से जाने कब गीली हो गई थी।
संजय ने मेरे स्तन दबा लिए और मेरे चूतड़ो में अपना लण्ड घुस दिया। मैं तड़प उठी। वो मुझसे चिपका जा रहा था, मुझे चुदने की बेताबी होने लगी।
'क्या कर रहे हो संजू ... जरा मस्ती से ... धीरे से...'
मैंने घूम कर उसे पकड़ लिया और बिस्तर पर गिरा दिया। उसका लण्ड मेरी चूत में घुस गया। मेरा शरीर ठण्ड से कांप उठा। मैंने उसके शरीर को और जोर से दबा लिया। मेरी नींद अचानक खुल गई। जाने कब मेरी आँख लग गई थी ... ठण्ड के मारे मैं रज़ाई खींच रही थी ... और एक मोहक सा सपना टूट गया। मैंने अपने कपड़े बदले और रज़ाई में घुस कर सो गई। सवेरे मेरे पति नाईट ड्यूटी करके आ चुके थे और वो चाय बना रहे थे। मैंने जल्दी से उठ कर बाकी काम पूरा किया और चाय के लिए बैठ गई।
कॉलेज में आज संजय मुझसे दूर-दूर भाग रहा था, पर कैन्टीन में मैंने उसे पकड़ ही लिया। उसकी झिझक मैंने दूर कर दी। मेरे दिल में उसके लिए प्रेम भाव उत्पन्न हो चुका था। वो मुझे अपना सा लगने लगा था। मेरे मन में उसके लिए भावनाएँ पैदा होने लगी थी।
"मैंने आप से माफ़ी तो मांग ली थी ना?" उसने मायूसी से सर झुकाए हुए कहा।
"सुनो संजय, तुम तो बहुत प्यारा लिखते हो, लो मैंने भी लिखा है, देखो अकेले में पढ़ना !" मैंने उसकी ओर देख कर शर्माते हुए कहा।
उसे मैंने एक कॉपी दी, और उठ कर चली आई। काऊन्टर पर पैसे दिए और घूम कर संजय को देखा। वो कॉपी में से मेरा पत्र निकाल कर अपनी जेब में रख रहा था। हम दोनों की दूर से ही नजरें मिली और मैं शर्मा गई।
उसमें मर्दानगी जाग गई ... और फिर एक मर्द की तरह वो उठा और काऊन्टर पर आकर उसने मेरे पैसे वापस लौटाए औए स्वयं सारे पैसे दिए। मैं सर झुकाए तेजी से कक्षा में चली आई। पूरा दिन मेरा दिल कक्षा में नहीं लगा, बस एक मीठी सी गुदगुदी दिल में उठती रही। जाने वो पत्र पढ़ कर क्या सोचेगा।
रात को मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई, मैं अनमनी सी हो उठी। हाय ... उसे मैंने रात को क्यों बुला लिया ? यह तो गलत है ना ! क्या मैं संजय पर मरने लगी हूँ? क्या यही प्यार है? हाय ! वो पत्र पढ़ कर क्या सोचेगा, क्या मुझे चरित्रहीन कहेगा? या मुझे भला बुरा कहेगा। जैसे जैसे उसके आने का समय नजदीक आता जा रहा था, मेरी दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। मुझे लगा कि मैं पड़ोसी के यहाँ भाग जाऊँ, दरवाजा बन्द देख कर वह स्वतः ही चला जायेगा। बस ! मुझे यही समझ में आया और मैंने ताला लिया और चल दी।[
जैसे ही मैंने दरवाजा खोला तो दिल धक से रह गया। संजय सामने खड़ा था। मेरा दिल जैसे बैठने सा लगा।
"अरे मुझे बुला कर कहाँ जा रही हो?"
"क्... क... कहां भला... कही नहीं ... मैं तो ... मैं तो ..." मैं बदहवास सी हो उठी थी।
"ओ के, मैं कभी कभी आ जाऊँगा ... चलता हूँ !" मेरी चेहरे पर पड़ी लटों को उंगली से एक तरफ़ हटाते हुए बोला।
"अरे नहीं... आओ ना... वो बात यह है कि अभी घर में कोई नहीं है..." मैं हड़बड़ा सी गई। सच तो यह था कि मुझे पसीना छूटने लगा था।
"ओह्ह ... आपकी हालत कह रही है कि मुझे चला जाना चाहिए !"
मैंने उसे अन्दर लेकर जल्दी से दरवाजा बन्द कर दिया और दरवाजे पर पीठ लगा कर गहरी सांसें लेने लगी।
"देखो संजू, वो खत तो मैंने ऐसे ही लिख दिया था ... बुरा मत मानना..." मैंने सर झुका कर कहा।
उसका सर भी झुक गया। मैंने भी शर्म से घूम कर उसकी ओर अपनी पीठ कर ली।
"पर आपके और मेरे दिल की बात तो एक ही है ना ..." उसने झिझकते हुए कहा।
मुझे बहुत ही कोफ़्त हो रही थी कि मैंने ऐसा क्यूँ लिख दिया। अब एक पराया मर्द मेरे सामने खड़ा था। मुझे बार बार कुछ करने को उकसा रहा था। उसकी भी भला क्या गलती थी। तभी संजय के हाथों का मधुर सा स्पर्श मेरी बाहों पर हुआ।
"शीलू जी, आप मुझे बहुत अच्छी लगती हो...!" उसने प्रणय निवेदन कर डाला।
यह सुनते ही मेरे शरीर में बर्फ़ सी लहरा गई। मेरी आँखें बन्द सी हो गई।"य... यह ... क्या कह रहे हो? ऐसा मत कहो ..." मेरे नाजुक होंठ थरथरा उठे।
"मैं ... मैं ... आपसे प्यार करने लगा हूँ शीलू जी ... आप मेरे दिल में बस गई हो !" उसका प्रणय निवेदन मेरी नसों में उतरता जा रहा था। वो अपने प्यार का इजहार कर रहा था। उसकी हिम्मत की दाद देनी होगी।
"मैं शादीशुदा हूँ, सन्जू ... यह तो पाप... अह्ह्ह्... पाप है ... " मैं उसकी ओर पलट कर उसे निहारते हुए बोली।
उसने मुझे प्यार भरी नजरों से देखा और मेरी बाहों को पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। मैं उसकी बलिष्ठ बाहों में कस गई।
"पत्र में आपने तो अपना दिल ही निकाल कर रख दिया था ... है ना ! यही दिल की आवाज है, आपको मेरे बाल, मेरा चेहरा, सभी कुछ तो अच्छा लगता है ना?" उसने प्यार से मुझे देखा।
"आह्ह्ह ... छोड़ो ना ... मेरी बांह !" मैं जानबूझ कर उसकी बाहों में झूलती हुए बोली।
"शीलू जी, दिल को खुला छोड़ दो, वो सब हो जाने दो, जिसका हमें इन्तज़ार है।"
उसने अपने से मुझे चिपका लिया था। उसके दिल की धड़कन मुझे अपने दिल तक महसूस होने लगी थी। पर मेरा दिल अब कुछ ओर कहने लगा था। यह सुहानी सी अनुभूति मुझे बेहोश सी किए जा रही थी। सच में एक पराये मर्द का स्पर्श में कितना मधुर आनन्द आता है ... यह अनैतिक कार्य मुझे अधिक रोमांचित कर रहा था ... । उसके अधर मेरे गुलाबी गोरे गालों को चूमने लगे थे। मैं बस अपने आप को छुड़ाने की जानकर नाकामयाब कोशिश बस यूँ ही कर रही थी। वास्तव में मेरा अंग अंग कुचले और मसले जाने को बेताब होने लगा था। अब उसके पतले पतले होंठ मेरे होंठों से चिपक गए थे।
आह्ह्ह्ह ...... उसकी खुशबूदार सांसें ...
उसके मुख से एक मधुर सी सुगंध मेरी सांसों में घुल गई। धीरे धीरे मैं अपने आप को उसको समर्पण करने लगी थी। उसके अधर मेरे नीचे के अधर को चूसने लगे थे। फिर उसकी लपलपाती जीभ मेरे मुख द्वार में प्रवेश कर गई और मेरी जीभ से टकरा गई। मैंने धीरे से उसकी जीभ मुख में दबा ली और चूसने लगी। मैं तो शादीशुदा थी... मुझे इन सेक्सी कार्यों का बहुत अच्छा अनुभव था... और वो मैं कुशलता से कर लेती थी। उसके हाथ मेरे जिस्म पर लिपट गए और मेरी पीठ, कमर और चूतड़ों को सहलाने लगे। मेरे शरीर में बिजलियाँ तड़कने लगी। उसका लण्ड भी कड़क उठा और मेरे कूल्हों से टकराने लगा। मेरा धड़कता सीना उसके हाथों में दब गया। मेरे मुख से सिसकारी फ़ूट पड़ी। मैंने उसे धीरे से अपने से अलग कर दिया।
"यह क्या करने लगे थे हम ...?" मैं अपनी उखड़ी सांसें समेटते हुई जान करके शर्माते हुए नीचे देखते हुए बोली।
"वही जो दिल की आवाज थी ... " उसकी आवाज जैसे बहुत दूर से आ रही हो।
"मैं अपने पति का विश्वास तोड़ रही हूँ ना ... बताओ ना?" मेरा असमंजस चरम सीमा पर थी, पर सिर्फ़ उसे दर्शाने के लिए कि कहीं वो मुझे चालू ना समझ ले।
"नहीं, विश्वास अपनी जगह है ... जिससे पाने से खुशी लगे, उसमें कोई पाप नहीं है, खुशी पाना तो सबका अधिकार है ... दो पल की खुशी पाना विश्वास तोड़ना नहीं होता है।"
"तुम्हारी बातें तो मानने को मन कर रहा है ... तुम्हारे साथ मुझे बहुत आनन्द आ रहा है, पर प्लीज संजू किसी कहना नहीं..." मैंने जैसे समर्पण भाव से कहा।
"तो शर्म काहे की ... दो पल का सुख उठा लो ... किसी को पता भी नहीं चलेगा... आओ !"
मैं बहक उठी, उसने मुझे लिपटा लिया। मेरा भी उसके लण्ड को पकड़ने का दिल कर रहा था। मैंने भी हिम्मत करके उसके पैंट की ज़िप में हाथ घुसा दिया। उसका लण्ड का आकार भांप कर मैं डर सी गई। वो मुझे बहुत मोटा लगा। फिर मैं उसे पकड़ने का लालच मैं नहीं छोड़ पाई। उसे मैंने अपनी मुट्ठी में दबा लिया। मैं उसे अब दबाने-कुचलने लगी। लण्ड बहुत ही कड़ा हो गया था। वो मेरी चूचियाँ सहलाने लगा ...
एक एक कर के उसने मेरे ब्लाऊज के बटन खोल दिये। मेरी स्तन कठोर हो गए थे। चुचूक भी कड़े हो कर फ़ूल गए थे। ब्रा के हुक भी उसने खोल दिए थे। ब्रा के खुलते ही मेरे उभार जैसे फ़ड़फ़ड़ा कर बाहर निकल कर तन गये। जवानी का तकाजा था ... मस्त हो कर मेरा एक एक अंग अंग फ़ड़क उठा। मेरे कड़े स्तनाग्रों को संजू बार बार हल्के से घुमा कर दबा देता था।
मेरे मन में एक मीठी सी टीस उठ जाती थी। चूत में से धीरे धीरे पानी रिसने लगा था। भरी जवानी चुदने को तैयार थी। मेरी साड़ी उतर चुकी थी, पेटिकोट का नाड़ा भी खुल चुका था। मुझे भला कहाँ होश था ... उसने भी अपने कपड़े उतार दिए थे। उसका लण्ड देख देख कर ही मुझे मस्ती चढ़ रही थी।
उसके लण्ड की चमड़ी धीरे से खोल कर मैंने ऊपर खींच दी। उसका लाल फ़ूला हुआ मस्त सुपाड़ा बाहर आ गया, मैंने पहली बार किसी का इस तरह लाल सुर्ख सुपाड़ा देखा था। मेरे पति तो बस रात को अंधेरे में मुझे चोद कर सो जाया करते थे, इन सब चीज़ों का आनन्द मेरी किस्मत में नहीं था। आज मौका मिला था जिसे मैं जी भर कर भोग लेना चाहती थी।
इस मोटे लण्ड का भोग का आनन्द पहले मैं अपनी गाण्ड से आरम्भ करना चाहती थी, सो मैंने उसका लण्ड मसलते हुए अपनी गाण्ड उसकी ओर कर दी।
"संजय, 19 साल का मुन्ना, मेरे 21 साल के गोलों को मस्त करेगा क्या?"
"शीलू ... इतने सुन्दर, आकर्षक गोलों के बीच छिपी हुई मस्ती भला कौन नहीं लूटना चाहेगा, ये चिकने, गोरे और मस्त गाण्ड के गोले मारने में बहुत मजा आयेगा।"
मैं अपने हाथ पलंग पर रख कर झुक गई और अपनी गाण्ड को मैंने पीछे उभार दिया। उसके लाल सुपाड़े का स्पर्श होते ही मेरे जिस्म में कंपकंपी सी फ़ैल गई। बिजलियाँ सी लहरा गई। उसका सुपाड़े का गद्दा मेरे कोमल चूतड़ों के फ़िसलता हुआ छेद पर आ कर टिक गया। कैसा अच्छा सा लग रहा था उसके लण्ड का स्पर्श। उसके लण्ड पर शायद चिकनाई उभर आई थी, हल्के से जोर लगाने पर ही फ़क से अन्दर उतर गया था। मुझे बहुत ही कसक भरा सुन्दर सा आनन्द आया। मैंने अपनी गाण्ड ढीली कर दी ... और अन्दर उतरने की आज्ञा दे दी। मेरे कूल्हों को थाम कर और थपथपा कर उसने मेरे चूतड़ों के पट को और भी खींच कर खोल दिया और लण्ड भीतर उतारने लगा।
"शीलू जी, आनन्द आया ना ... " संजू मेरी मस्ती को भांप कर कहा।
"ऐसा आनन्द तो मुझे पहली बार आया है ... तूने तो मेरी आँखें खोल दी है यार... और यह शीलू जी-शीलू जी क्या लगा रखा है ... सीधे से शीलू बोल ना।"
मैंने अपने दिल की बात सीधे ही कह दी। वो बहुत खुश हो गया कि इन सभी कामों में मुझे आनन्द आ रहा है।
"ले अब और मस्त हो जा..." उसका लण्ड मेरी गाण्ड में पूरा उतर चुका था। मोटा लण्ड था पर उतना भी नहीं मोटा, हाँ पर मेरे पति से तो मोटा ही था। मंथर गति से वो मेरी गाण्ड चोदने लगा। उजाले में मुझे एक आनन्दित करती हुई एक मधुर लहर आने लगी थी। मेरे शरीर में इस संपूर्ण चुदाई से एक मीठी सी लहर उठने लगी ... एक आनन्ददायक अनुभूति होने लगी। जवान गाण्ड के चुदने का मजा आने लगा। दोनों चूतड़ों के पट खिले हुये, लण्ड उसमें घुसा हुआ, यह सोच ही मुझे पागल किए दे रही थी। वो रह रह कर मेरे कठोर स्तनों को दबाने का आनन्द ले रहा था ... उससे मेरी चूत की खुजली भी बढ़ती जा रही थी। चुदाई तेज हो चली थी पर मेरी गाण्ड की मस्ती भी और बढ़ती जा रही थी। मुझे लगा कि कही संजय झड़ ना जाए सो मैंने उसे चूत मारने को कहा।
"संजू, हाय रे अब मुझे मुनिया भी तड़पाने लगी है ... देख कैसी चू रही है..." मैंने संजय की तरफ़ देख कर चूत का इशारा किया।
"शीलू, गाण्ड मारने से जी नहीं भर रहा है ... पर तेरी मुनिया भी प्यासी लग रही है।"
उसने अपना हाथ मेरी चूत पर लगाया तो मेरा मटर का फ़ूला हुआ मोटा दाना उसके हाथ से टकरा गया।
"यह तो बहुत मोटा सा है ... " और उसको हल्के से पकड़ कर हिला दिया।
"हाय्य्य , ना कर, मैं मर जाऊँगी ... कैसी मीठी सी जलन होती है..." मैंने जोर की सिसकी भरी।
उसका लण्ड मेरी गाण्ड से निकल चुका था। उसका हाथ चूत की चिकनाई से गीला हो गया था। उसने नीचे झुक कर मेरी चूत को देखा और अंगुलियों से उसकी पलकें अलग अलग कर दी और खींच कर उसे खोल दिया।
"एकदम गुलाबी ... रस भरी ... मेरे मुन्ने से मिलने दे अब मुनिया को !"
उसने मेरी गुलाबी खुली हुई चूत में अपना लाल सुपाड़ा रख दिया। हाय कैसा गद्देदार नर्म सा अहसास ... फिर उसे चूत की गोद में उसे समर्पित कर दिया। उसका लण्ड बड़े प्यार से दीवारों पर कसता हुआ अन्दर उतरता गया, और मैं सिसकारी भरती रही। चूंकि मैं घोड़ी बनी हुई थी अतः उसका लण्ड पूरा जड़ तक पहुँच गया। बीच बीच में उसका हाथ, मेरे दाने को भी छेड़ देता था और मेरी चूत में मजा दुगना हो जाता था। वो मेरा दाना भी जोर जोर से हिलाता जा रहा था। लण्ड के जड़ में गड़ते ही मुझे तेज मजा आ गया और दो तीन झटकों में ही, जाने क्या हुआ मैं झड़ने लगी। मैं चुप ही रही, क्योंकि वो जल्दी झड़ने वाला नहीं लगा।
उसने धक्के तेज कर दिए ... शनैः शनैः मैं फिर से वासना के नशे में खोने लगी। मैंने मस्ती से अपनी टांगें फ़ैला ली और उसका लण्ड फ़्री स्टाईल में इन्जन के पिस्टन की तरह चलने लगा। रस से भरी चूत चप-चप करने लगी थी। मुझे बहुत खुशी हो रही थी कि थोड़ी सी हिम्मत करने से मुझे इतना सारा सुख नसीब हो रहा है, मेरे दिल की तमन्ना पूरी हो रही है। मेरी आँखें खुल चुकी थी... चुदने का आसान सा रास्ता था ... थोड़ी सी हिम्मत करो और मस्ती से नया लण्ड खाओ, ढेर सारा आनन्द पाओ। मुझे बस यही विचार आनन्दित कर रहा था ... कि भविष्य में नए नए लण्ड का स्वाद चखो और जवानी को भली भांति भोग लो।
"अरे धीरे ना ... क्या फ़ाड़ ही दोगे मुनिया को...?"
वो झड़ने की कग़ार पर था, मैं एक बार फिर झड़ चुकी थी। अब मुझे चूत में लगने लगी थी। तभी मुझे आराम मिल गया ... उसका वीर्य निकल गया। उसने लण्ड बाहर निकाल लिया और सारा वीर्य जमीन पर गिराने लगा। वो अपना लण्ड मसल मसल कर पूरा वीर्य निकालने में लगा था। मैं उसे अब खड़े हो कर निहार रही थी। वो अपने लण्ड को कैसे मसल मसल कर बचा हुआ वीर्य नीचे टपका रहा था।
"देखा, संजू तुमने मुझे बहका ही दिया और मेरा फ़ायदा उठा लिया?"
"काश तुम रोज ही बहका करो तो मजा आ जाए..." वो झड़ने के बाद जाने की तैयारी करने लगा। रात के ग्यारह बजने को थे। वो बाहर निकला और यहाँ-वहाँ देखा, फिर चुपके से निकल कर सूनी सड़क पर आगे निकल गया।
सन्जय के साथ मेरे काफ़ी दिनो तक सम्बन्ध रहे थे। उसके पापा की बदली होने से वो एक दिन मुझसे अलग हो गया। मुझे बहुत दुख हुआ। बहुत दिनो तक उसकी याद आती रही।
]मैंने अब राहुल से दोस्ती कर ली। वह एक सुन्दर, बलिष्ठ शरीर का मालिक है। उसे जिम जाने का शौक है। पढ़ने में वो कोई खास नहीं, पर ऐसा लगता था वो मुझे भरपूर मजा देगा। उसकी वासनायुक्त नजर मुझसे छुपी नहीं रही। मैं उसे अब अपने जाल में लपेटने लगी हूँ। वो उसे अपनी सफ़लता समझ रहा है। आज मेरे पास राहुल के नोट्स आ चुके हैं ... मैं इन्तज़ार कर रही हूँ कि कब उसका भी कोई प्रेम पत्र नोट्स के साथ आ जाए ... जी हाँ ... जल्द ही एक दिन पत्र भी आ ही गया ...।
प्रिय पाठको ! मैं नहीं जानती हूँ कि आपने अपने छात्र-जीवन में कितना मज़ा किया होगा। यह तरीका बहुत ही साधारण है पर है कारगर। ध्यान रहे सुख भोगने से पति के विश्वास का कोई सम्बन्ध नहीं है। सुख पर सबका अधिकार है, पर हाँ, इस चक्कर में अपने पति को मत भूल जाना, वो कामचलाऊ नहीं है वो तो जिन्दगी भर के लिए है।