लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
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Re: लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
मंदिर आ गया था। बाहर लम्बा चौड़ा प्रांगण सा बना था। थोड़ी दूर एक काले रंग के पत्थर की आदमकद मूर्ति बनी थी। हाथ में खांडा पकड़े हुए और शक्ल से तो यह कोई दैत्य जैसा सैनिक लग रहा था। उसकी मुंडी नीचे लटकी थी जैसे किसी ने काट दी हो पर धड़ से अलग नहीं हुई थी। ओह … इसकी शक्ल तो उस कालू हब्शी से मिल रही थी जो उस फिरंगन के पीछे लट्टू की तरह घूम रहा था। उसके निकट ही एक चोकोर सी वेदी बनी थी जिसके पास पत्थर की एक मोटी सी शिला पड़ी थी जो बीच में से अंग्रेजी के यू आकार की बनी थी। वीरभान ने बताया कि यह वध स्थल है। अपराधियों और राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को यहीं मृत्यु दंड दिया जाता था। "ओह …" मेरे मुँह से तो बस इतना ही निकला। "और वो सामने थोड़ी ऊंचाई पर रंगमहल बना है मैंने आपको बताया था ना ?" वीर भान ने उस गढ़ी की ओर इशारा करते हुए कहा। "हूँ …" मैंने कहा। सामने ही कुछ सीढ़ियां सी बनी थी जो नीचे जा रही थी। मुझे उसकी ओर देखता पाकर वीरभान बोला "श्रीमान यह नीचे बने कारागृह की सीढियां हैं।" बाकी सभी तो आगे मंदिर में चले गए थे मैं उन सीढियों की ओर बढ़ गया। नीचे खंडहर सा बना था। घास फूस और झाड झंखाड़ से उगे थे। मैं अपने आप को नहीं रोक पाया और सीढ़ियों से नीचे उतर गया। सामने कारागृह का मुख्य द्वार बना था। अन्दर छोटे छोटे कक्ष बने थे जिन में लोहे के जंगले लगे थे। मुझे लगा कुछ अँधेरा सा होने लगा है। पर अभी तो दिन के 2 ही बजे हैं दोपहर के समय इतना अँधेरा कैसे हो सकता है ? विचित्र सा सन्नाटा पसरा है यहाँ। मैंने वीरभान को आवाज दी "वीरभान ?" मैं सोच रहा था वो भी मेरे पीछे पीछे नीचे आ गया होगा पर उसका तो कोई अता पता ही नहीं था। मैंने उसे इधर उधर देखा। वो तो नहीं मिला पर सामने से सैनिकों जैसी वेश भूषा पहने एक व्यक्ति कमर पर तलवार बांधे आता दिखाई दिया। उसने सिर पर पगड़ी सी पहन रखी थी। हो सकता है यहाँ का चौकीदार या सेवक हो। वो मेरे पास आ गया और उसने 3 बार झुक कर हाथ से कोर्निश की। मैं हैरान हुआ उसे देखते ही रह गया। अरे इसकी शक्ल तो उस होटल वाले चश्मू क्लर्क से मिलती जुलती लग रही थी ! इसका चश्मा कहाँ गया ? यह यहाँ कैसे पहुँच गया ? इससे पहले कि मैं उसे कुछ पूछता वो उसी तरह सिर झुकाए बोला "कुमार आपको महारानी कनिष्क ने स्मरण किया है !" पहले तो मैं कुछ समझा नहीं। मैंने इधर उधर देखा शायद यह किसी और को बुला रहा होगा पर वहाँ तो मेरे अलावा कोई नहीं था। "महारानी बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं आप शीघ्रता पूर्वक चलें !" वो तो मुझे ही पुनः संबोधित कर रहा था। मैं बिना कुछ समझे और बोले उसके पीछे चल पड़ा। वो मेरे आगे चल कर रास्ता दिखा रहा था। थोड़ी दूर चलने पर देखा तो सामने रंगमहल दूधिया रोशनी में जगमगा रहा था। दिन में इतनी रोशनी ? ओह… यह तो रात का समय हो चला है। दो गलियारे पार करने के उपरान्त रंगमहल का मुख्य द्वार दृष्टिगोचर हुआ। इस से पहले कि मैं उस सेवक से कुछ पूछूं वह मुख्य द्वार की सांकल (कुण्डी) खटखटाने लगा। "प्रतिहारी कुमार चन्द्र रंगमहल में प्रवेश की अनुमति चाहते हैं !" "उदय सिंह तुम इन्हें छोड़ कर जा सकते हो !" अन्दर से कोई नारी स्वर सुनाई दिया। उदय सिंह मुझे वहीं छोड़ कर चला गया। अब मैंने आस पास अपनी दृष्टि दौड़ाई, वहाँ कोई नहीं था। अब मेरी दृष्टि अपने पहने वस्त्रों पर पड़ी। वो तो अब राजसी लग रहे थे। सिर पर पगड़ी पता नहीं कहाँ से आ गई थी। गले में मोतियों की माला। अँगुलियों में रत्नजडित अंगूठियाँ। बड़े विस्मय की बात थी। अचानक मुख्य द्वार के एक किवाड़ में बना एक झरोखा सा आधा खुला और उसी युवती का मधुर स्वर पुनः सुनाई पड़ा,"कुमार चन्द्र आपका स्वागत है ! आप अन्दर आ सकते हैं !" मैं अचंभित हुआ अपना सिर झुका कर अन्दर प्रवेश कर गया। गुलाब और चमेली की भीनी सुगंध मेरे नथुनों में समा गई। अन्दर घुंघरुओं की झंकार के साथ मधुर संगीत गूँज रहा था। फर्श कालीन बिछे थे और उन पर गुलाब की पत्तियां बिखरी थी। सामने एक प्रतिहारी नग्न अवस्था में खड़ी थी। इसका चहरे को देख कर तो इस कि आयु 14-15 साल ही लग रही थी पर उसके उन्नत और पुष्ट वक्ष और नितम्बों को देख कर तो लगता था यह किशोरी नहीं पूर्ण युवती है। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि यह नग्न अवस्था में क्यों खड़ी है। प्रतिहारी मुझे महारानी के शयन कक्ष की ओर ले आई। उसने बाहर से कक्ष का द्वार खटखटाते हुए कहा,"कुमार चन्द्र आ गए हैं ! द्वार खोलिए !" अन्दर का दृश्य तो और भी चकित कर देने वाला ही था। महारानी कनिष्क मात्र एक झीना और ढीला सा रेशमी चोगा (गाउन) पहने खड़ी थी जिसमें उसके सारे अंग प्रत्यंग स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। उन्होंने अन्दर कोई अधोवस्त्र नहीं पहना था पर कमर में नाभि के थोड़ा नीचे सोने का एक भारी कमरबंद पहना था जिसकी लटकती झालरों ने उसके गुप्तांग को मात्र ढक रखा था वर्ना तो वो नितांत नग्नावस्था में ही थी। सिर पर मुकुट, गले में रत्नजड़ित हार, सभी अँगुलियों में अंगूठियाँ और पैरों में पायल पहनी थी। उनके निकट ही 4-5 शोडषियाँ अपना सिर झुकाए नग्न अवस्था में चुप खड़ी थीं। थोड़ी दूरी पर ही राजशी वस्त्र पहने एक कृषकाय सा एक व्यक्ति खड़ा था जिसे दो सैनिकों ने बाजुओं से पकड़ रखा था। अरे ... इसका चेहरा तो प्रोफ़ेसर नील चन्द्र राणा से मिलता जुलता लग रहा था। "सत्यव्रत ! महाराज चित्रसेन को इनके शयन कक्ष में ले जाओ। आज से ये राज बंदी हैं !" महारानी ने कड़कते स्वर में कहा। पास में एक घुटनों तक लम्बे जूते और सैनिकों जैसी पोशाक पहने एक और सैनिक खड़ा था जो इनका प्रमुख लग रहा था उसने सिर झुकाए ही कहा,"जो आज्ञा महारानी !" उसकी बोली सुनकर मैं चोंका ? अरे... यह सत्यजीत यहाँ कैसे आ गया ? उसका चेहरा तो सत्यजीत से हूबहू मिल रहा था। इससे पहले कि मैं कुछ पूछता, सैनिक महाराज को ले गए। महारानी ने अपने हाथों से ताली बजाई और एक बार पुनः कड़कते स्वर में कहा,"एकांत …!" जब सभी सेविकाएं सिर झुकाए कक्ष से बाहर चली गईं तो महारानी मेरी ओर मुखातिब हुई। मैं तो अचंभित खड़ा या सब देखता ही रह गया। मेरे मुँह से अस्फुट सा स्वर निकला "अ ... अरे … कनिका ... तुम ?" आज यह मोटी कुछ पतली सी लग रही थी। "कुमार आप राजकीय शिष्टाचार भूल रहे हैं ! और आप यह उज्जड़ और गंवारु भाषा कैसे बोल रहे हैं ?" "ओह … म ... …" "चलिए आप इन व्यर्थ बातों को छोड़ें … आइये … कुमार चन्द्र। अपनी इस प्रेयसी को अपनी बाहों में भर लीजिए। मैं कब से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ !" उसने अपनी बाहें मेरी ओर बढ़ा दी। "ओह... पर आ... आप …?" "कुमार चन्द्र व्यर्थ समय मत गंवाओ ! मैं जन्म-जन्मान्तर की तुम्हारे प्रेम की प्यासी हूँ। मुझे अपनी बाहों में भर लो मेरे चन्द्र ! मैं सदियों से पत्थर की मूर्ति बनी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ … आओ मेरे प्रेम … देव …!" उसकी आँखों में तो जैसे काम का ज्वार ही आया था। उसकी साँसें तेज हो रही थी और अधर काँप रहे थे।
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मैं हतप्रभ उसे देखता ही रह गया। मैं तो जैसे जड़ ही हो गया था कुछ भी करने और कहने की स्थिति में नहीं था। इतने में कक्ष के बाहर से प्रतिहारी का स्वर सुनाई दिया,"महारानीजी ! महाराज चित्रसेन ने उपद्रव मचा दिया है।" "यह महाराज ... भी !" महारानी पैर पटकते हुए जैसे चीखी,"ओह … प्रतिहारी, तुम वहीं ठहरो मैं अभी आती हूँ !" महारानी कनिष्क की आँखों से तो जैसे चिंगारियां ही निकलने लगी थी। वह तत्काल कक्ष से बाहर चली गई। मैं भी उनके पीछे पीछे कक्ष से बाहर आ गया। निकट ही एक और कक्ष बना था जिसका द्वार खुला था। बाहर खड़ी नग्न सेविका से मैंने इस कक्ष के बारे में पूछा तो उसने सिर झुकाए हुए ही उत्तर दिया "कुमार ! यह राज कुमारी स्वर्ण नैना (सुनैना) का शयन कक्ष है। वो भी आप ही को स्मरण कर रही थी ! आपका स्वागत है कुमार आप अन्दर प्रवेश करें, आइये !" मैं कक्ष के अन्दर आ गया। कक्ष में एक बड़ा सा पलंग पड़ा था जिस पर पर रेशमी गद्दे, चद्दर और कामदार सिरहाने पड़े थे। झरोखों पर सुन्दर कढ़ाई किये रत्नजड़ित परदे लगे थे। पलंग पर नग्न अवस्था में सुनैना बैठी जैसे मेरी ही राह देख रही थी। उसके पास ही 3-4 और नग्न युवतियां बैठी एक दूसरे के काम अंगों को छेड़ती हुई परिहास और अठखेलियाँ कर रही थी। अरे… यह मधु और रूपल जैसी सूरत वाली युवतियां यहाँ कैसे आ गई ? मैं तो उनके रूप सौन्दर्य को निहारता ही रह गया। अरे यह सुनैना तो सलोनी जैसी … नहीं … सिमरन जैसी … नहीं मधु जैसी … ओह उसका दमकता चेहरा तो जैसे इन तीनों में ही गडमड हो गया था। सलोनी तो 14-15 वर्ष की आयु की रही होगी पर यह तो पूरी युवती ही लग रही थी। कमान सी तनी पतली भोहें और मोटी मोटी नील स्वर्ण जैसी (बिल्लोरी) आँखों के कारण ही संभवतया इसका नाम स्वर्ण नैना (सुनैना) रखा गया होगा। गुलाब के फूलों जैसे कपोल, अधरों का रंग गहरा लाल, सुराहीदार गर्दन, लम्बी केश राशि वाली चोटी उसके उन्नत वक्ष स्थलों के बीच झूल रही थी। पतला कटि-प्रदेश (कमर), भारी नितम्ब, गहरी नाभि, उभरा श्रोणी प्रदेश (पेडू), मोटी मोटी केले के तने जैसी पुष्ट और कोमल जांघें और रोम विहीन गुलाबी रंग का मदनमंदिर जिसे स्वर्ण के कमरबंद से ललकते रत्नजड़ित लोलक (पैंडुलम) ने थोड़ा सा ढक रखा था। कानों में सोने के कर्ण फूल, गले में रत्नजड़ित हार, बाजुओं पर बाजूबंद, पांवों में पायल, हाथों में स्वर्ण वलय और सभी अँगुलियों में रत्नजड़ित अंगूठियाँ। जैसी रति (कामदेव की पत्नी) ही मेरे सम्मुख निर्वस्त्र खड़ी थी। मैं तो उस रूप की देवी जैसी देहयष्टि को अपलक निहारता ही रह गया। वह दौड़ती हुई आई और मेरे गले में अपनी बाहें डाल कर लिपट गई। मैं तो उसके स्पर्श मात्र से ही रोमांचित और उत्तेजित हो गया। जब उसने अपने शुष्क अधरों को मेरे कांपते होंठों पर रखा तो मुझे भी उसे अपनी बाहों में भर लेने के अतिरिक्त कुछ सूझा ही नहीं। मैं तो जैसे किसी जादू से बंधा उसे अपने बाहुपाश में जकड़े खड़ा ही रह गया। आह… उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे रसीले और कोमल अधर तो ऐसे लग रहे थे कि अगर मैंने इन्हें जरा भी चूमा तो इन से रक्त ही निकलने लगेगा। उसके कठोर कुच (स्तन) मेरी छाती से लग कर जैसे पिस ही रहे थे। उनके स्तनाग्र तो किसी भाले की नोक की तरह मेरे सीने से चुभ रहे प्रतीत हो रहे थे। उसकी स्निग्ध त्वचा का स्पर्श और आभास पाते ही मेरे कामदण्ड में रक्त संचार बढ़ने लगा और वो फूलने सा लगा। "ओह … कुमार अपने वस्त्र उतारिये ना ?" कामरस में डूबे मधुर स्वर में सुनैना बोली। मैंने जब उन युवतियों की ओर देखा तो उसने आँखों से उन्हें बाहर प्रस्थान करने का संकेत कर दिया। वो सभी सिर झुकाए कोर्निश करती हुई शीघ्रता से कक्ष से बाहर प्रस्थान कर गईं। हम दोनों पलंग की ओर आ गए। मैंने झट से अपने वस्त्र उतार दिए और सुनैना को अपनी बाहों में भर लिया। वह तो मेरे साथ इस प्रकार चिपक गई जैसे कोई लता किसी पेड़ से लिपटी हो। उसके कमनीय शरीर से आती सुगंध उसके अक्षत-यौवना होने की साक्षी थी। मैंने उसके कटि-प्रदेश, पीठ और नितम्बों को सहलाना आरम्भ कर दिया। उसकी मीठी और कामुक सीत्कार अब कक्ष में गूंजने लगी थी। उसके स्तनाग्र (चूचक) तो इतने कठोर हो चले थे जैसे कोई लाल रंग का मूंगा (मोती) ही हो। मैंने अपने शुष्क होंठ उन पर लगा दिए और उन्हें चूमना और चूसना प्रारम्भ कर दिया। आह… इतने उन्नत और पुष्ट वक्ष तो मैंने आज तक अपने जीवन में नहीं देखे थे। मैं तो उसके कपोलों, अधरों, नासिका, कंठ और दोनों अमृत कलशों के बीच की घाटी को चूमता ही चला गया। वो मुझे अपनी कोमल बाहों में भरे नीचे होकर पलंग पर लेट सी गई। उसके रोम रोम में फूटते काम आनंद से उसकी पलकें जैसे बंद ही होती जा रही थी। मैं उसके ऊपर था और मेरा पूरा शरीर भी कामवेग से रोमांचित और तरंगित सा हो रहा था। उसने अपनी जांघें चौड़ी कर दी। इससे आगे की कहानी अगले और अन्तिम भाग में !
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मैं उसे चूमता हुआ नीचे मदनमंदिर की ओर आने लगा। पहले उसके सपाट पेट को उसके पश्चात उसकी नाभि और श्रोणी प्रदेश को चूमता चला गया। उसके योनि प्रदेश तक पहुंचते पहुँचते मेरा कामदण्ड (लिंग) तनकर जैसे खूंटा ही बन गया था। रोम विहीन रतिद्वार देख कर तो मैं मंत्र मुग्ध हुआ देखता ही रह गया। काम रस से लबालब भरी उसकी योनि तो ऐसे लग रही थी जैसे कोई मधुरस (शहद) की छोटी सी कुप्पी ही हो। बीच में दो पतली सी गहरे गुलाबी रंग की रेखाएं। मैं उसके तितली के पंखों जैसी छोटी छोटी गुलाबी कलिकाओं को चूमने से अपने आप को नहीं रोक पाया। सुनैना की मीठी सीत्कार निकल गई और उसने मेरा सिर अपने कोमल हाथों में पकड़ कर अपने मदनमंदिर (योनि) की ओर दबा दिया। एक मीठी और कामुक महक से मेरा सारा स्नायु तंत्र भर उठा। अब मैंने अपनी काम प्रेरित जिह्वा उसके रतिद्वार पर लगा दी। उसके पश्चात उसे अपने मुँह में भर लिया। पूरी योनि ही मेरे मुँह में समा गई। उसकी योनि में तो जैसे काम द्रव्य का उबाल ही आया था। सुनैना की मीठी किलकारी निकल गई। मैंने 3-4 बार चुस्की लगाई और पुनः अपनी जिव्हा का घर्षण उसकी कलिकाओं पर करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ पलों तक उसे चुभलाने और चूसने के उपरान्त मैंने अपना मुँह वहाँ से हटा लिया। अब मेरी दृष्टि उसकी पुष्ट जंघाओं पर गई। उसकी जाँघों पर भी मेहंदी के फू्ल-बूटे बने थे जैसे उसकी हथेलियों पर बने थे। मेरे लिए तो यह स्वप्न जैसा और कल्पनातीत ही था। जब मैंने उसकी जाँघों को चूमना प्रारम्भ किया तो सुनैना बोली,"मेरे प्रियतम अब और प्रतीक्षा ना करवाओ ! मुझे एक बार पुनः अपनी बाहों में ले लो ! मेरा अंग अंग काम वेग की मीठी जलन से फड़क रहा है इनका मर्दन करो मेरे प्रियतम !" मैंने उसके ऊपर आते हुए कस कर अपनी बाहों में भर लिया। अब उसने मेरे खड़े कामदण्ड को पकड़ लिया और सहलाने लगी। इसके पश्चात उसने अपने एक हाथ से अपनी योनि की कलिकाओं को खोल कर मेरा तना हुआ कामदण्ड अपने रतिद्वार के छोटे से छिद्र पर लगा लिया। मैंने धीरे से एक प्रहार किया तो मेरा कामदण्ड उसकी अक्षत योनि में आधे से अधिक प्रविष्ट हो गया। सुनैना की मीठी चीत्कार निकल गई। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई कोसा (थोड़ा गर्म) सा द्रव्य मेरे कामदण्ड के चारों ओर लग गया है। संभवतया प्रथम सम्भोग में यह उसके कुंवारे और अक्षत योनि पटल (कौमार्य झिल्ली) के टूटने से निकला रक्त था। कुछ पलों तक हम दोनों इसी अवस्था में पड़े रहे। उसके चेहरे पर वेदना झलक रही थी। पर वह आँखें बंद किये उसी प्रकार लेटी रही। कुछ क्षणों के उपरान्त मैंने पुनः उसके अधरों और कपोलों को चूमना और उसके कठोर होते रस कूपों का मर्दन प्रारम्भ कर दिया। अब उसकी भी मीठी और कामुक सीत्कार निकलने लगी थी। अब ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे उसकी वेदना कुछ कम हो रही थी। उसने अब मेरे तेज होते लिंग प्रहारों का प्रत्युत्तर अपने नितम्बों को उचका कर देना प्रारम्भ कर दिया था। मैं उसे अधरों और तने हुए स्तानाग्रों को चूमता जा रहा था। सुनैना मेरे लगातार लिंग प्रहारों से उत्तेजना के शिखर पर पहुँचने लगी थी। वह अप्रत्याशित रूप से मेरा साथ दे रही थी। उसका सहयोग पाकर मैंने भी अपने प्रहारों की गति तीव्र कर दी। मेरे लिंग के घर्षण से उसके अंग प्रत्यंग में जैसे नई ऊर्जा का संचार हो गया था। मेरा लिंग उसकी मदनमणि को भी छूने लगा था। इस नए अनुभव से तो उसकी मीठी किलकारियां ही गूंजने लगी थी। उसका तो जैसे रोम रोम ही पुलकित और स्पंदित हो रहा था। उसकी आँखें मुंदी थी, अधर कंपकंपा रहे थे और साँसें तेज चल रही थी। वह तो आत्मविभोर हुई जैसे स्वर्ग लोक में ही विचरण कर रही थी। मुझे लगा उसकी योनि का संकुचन बढ़ने लगा है और पूरा शरीर अकड़ने सा लगा है। उसकी कोमल बाहों की जकड़न कदाचित अब बढ़ गई थी। उसके मुँह से अस्फुट सा स्वर निकला,"कुमार मुझे यह क्या होता जा रहा है ? विचित्र सी अनुभूति हो रही है। मेरा रोम रोम फड़क रहा है, मेरा अंग अंग तरंगित सा हो रहा है …ओह … आह…" "हाँ... प्रिय … मेरी भी यही स्थिति है… मैं भी काम आनंद में डूबा हूँ … आह…" "ओह … कुमार ...आपने तो मुझे तृप्त ही कर दिया। इस मीठी चुभन और पीड़ा में भी कितना आनंद समाया है … आह... !" उसके मुँह से एक कामरस में डूबी मधुर किलकारी सी निकल गई। मुझे लगा उसकी योनि के अन्दर कुछ चिकनापन और आर्द्रता बढ़ गई है। संभवतया वह रोमांच के चरम शिखर पर पहुँच कर तृप्त हो गई थी। "हाँ प्रिय मैं भी आपको पाकर तृप्त और धन्य हो गया हूँ !" मैंने अपने धीमे प्रहारों को चालू रखा। कुछ क्षणों के उपरान्त वह बोली,"कुमार आपको स्मरण है ना हम कैसे उस पहाड़ी के पीछे और कभी उस उद्यान और झील के किनारे छुप छुप कर किलोल किया करते थे। आपने तो मुझे विस्मृत (भुला) ही कर दिया। आपने आने में इतना विलम्ब क्यों किया ? क्या आपको कभी मेरा स्मरण ही नहीं आया ?" "नहीं ... मेरी प्रियतमा मुझे सब याद आ है पर मैं क्या करता आपकी यह विमाता (सौतेली माँ) ही मुझे अपने रूप जाल में उलझा लेना चाहती थी। मैं डर के मारे आप से से मिल नहीं पा रहा था।" "ओह... कुमार अब समय व्यर्थ ना गंवाइए मुझे इसी प्रकार प्रेम करते रहिये … आह... कदाचित हमारे जीवन में ये पल पुनः ना लौटें !" मैंने एक बार पुनः उसे कस कर अपनी बाहों में जकड़ लिया और अपने लिंग के प्रहारों की गति तीव्र कर दी। उसने अपने पाँव थोड़े से ऊपर कर लिए तो उसकी पायल की झंकार जैसे हमारे प्रहारों के साथ ही लयबद्ध ढंग से बजने लगी। सुनैना ने लाज के मारे अपनी आँखें बंद कर ली और अपने पाँव भी नीचे कर लिए। मैंने अपने धक्कों को गतिशील रखते हुए पुनः उसके अधरों को चूमना प्रारम्भ कर दिया। अब मुझे लगने लगा था कि मेरे लिंग का तनाव कुछ और बढ़ गया है। मैंने शीघ्रता से 3-4 धक्के और लगा दिए। कुछ ही क्षणों में मेरा वीर्य निकल कर उसकी योनि में भर गया। हम दोनों की ही मीठी सीत्कारें गूंजने लगी थी। एक दूसरे की बाहों में जकड़े हम पता नहीं कितने समय तक उसी अवस्था में पड़े रहे। अब बाहर कुछ आहट सी सुनाई दी। पहले प्रतिहारी आई और उसके पश्चात महारानी कनिष्क ने कक्ष में प्रवेश किया। उसका मुँह क्रोधाग्नि से मानो धधक रहा था। "कुमार … तुमने राज कन्या से दुष्कर्म किया है… तुम राज अपराधी हो … तुमने मेरी भावनाओं का रत्ती भर भी सम्मान नहीं किया ? अब तुम्हें मृत्यु दंड से कोई नहीं बचा सकता !" महारानी क्रोध से काँप रही थी। उसने ताली बजाते हुए आवाज लगाई,"सत्यव्रत !" "जी महारानी ?" "कुमार को यहाँ से ले जाओ और कारागृह में डाल दो !" "जो आज्ञा महारानी !" "और हाँ उस काल भैरवी को तैयार करो, आज सूर्योदय से पहले इस दुष्ट कुमार की बलि देनी है !" महारानी कुछ पलों के लिए रुकीं। उसने क्रोधित नेत्रों से सुनैना को घूरा और पुनः बोली,"और हाँ सुनो ! कुमारी स्वर्ण नैना के लिए भी अब यह राज कक्ष नहीं कारावास का कक्ष उपयुक्त रहेगा !"