गोदान -प्रेमचंद

Contains all kind of sex novels in Hindi and English.
Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 18:47

गाँव में खबर फैल गई कि रायसाहब ने पंचों को बुला कर खूब डाँटा और इन लोगों ने जितने रुपए वसूल किए थे, वह सब इनके पेट से निकाल लिए। वह तो इन लोगों को जेहल भेजवा रहे थे, लेकिन इन लोगों ने हाथ-पाँव जोड़े, थूक कर चाटा, तब जाके उन्होंने छोड़ा। धनिया का कलेजा शीतल हो गया, गाँव में घूम-घूम कर पंचों को लज्जित करती फिरती थी - आदमी न सुने गरीबों की पुकार, भगवान तो सुनते हैं। लोगों ने सोचा था, इनसे डाँड़ ले कर मजे से फुलौड़ियाँ खाएँगे। भगवान ने ऐसा तमाचा लगाया कि फुलौड़ियाँ मुँह से निकल पड़ीं। एक-एक के दो-दो भरने पड़े। अब चाटो मेरा मकान ले कर।

मगर बैलों के बिना खेती कैसे हो? गाँवों में बोआई शुरू हो गई। कार्तिक के महीने में किसान के बैल मर जायँ, तो उसके दोनों हाथ कट जाते हैं। होरी के दोनों हाथ कट गए थे। और सब लोगों के खेतों में हल चल रहे थे। बीज डाले जा रहे थे। कहीं-कहीं गीत की तानें सुनाई देती थीं। होरी के खेत किसी अनाथ अबला के घर की भाँति सूने पड़े थे। पुनिया के पास भी गोई थी, सोभा के पास भी गोई थी, मगर उन्हें अपने खेतों की बुआई से कहाँ फुरसत कि होरी की बुआई करें। होरी दिन-भर इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। कहीं इसके खेत में जा बैठता, कहीं उसकी बोआई करा देता। इस तरह कुछ अनाज मिल जाता। धनिया, रूपा, सोना सभी दूसरों की बोआई में लगी रहती थीं। जब तक बुआई रही, पेट की रोटियाँ मिलती गईं, विशेष कष्ट न हुआ। मानसिक वेदना तो अवश्य होती थी, पर खाने भर को मिल जाता था। रात को नित्य स्त्री-पुरुष में थोड़ी-सी लड़ाई हो जाती थी।

यहाँ तक कि कातिक का महीना बीत गया और गाँव में मजदूरी मिलनी भी कठिन हो गई। अब सारा दारमदार ऊख पर था, जो खेतों में खड़ी थी।

रात का समय था। सर्दी खूब पड़ रही थी। होरी के घर में आज कुछ खाने को न था। दिन को तो थोड़ा-सा भुना हुआ मटर मिल गया था, पर इस वक्त चूल्हा जलने का कोई डौल न था और रूपा भूख के मारे व्याकुल थी और द्वार पर कौड़े के सामने बैठी रो रही थी। घर में जब अनाज का एक दाना भी नहीं है, तो क्या माँगे, क्या कहे!

जब भूख न सही गई तो वह आग माँगने के बहाने पुनिया के घर गई। पुनिया बाजरे की रोटियाँ और बथुए का साग पका रही थी। सुगंध से रूपा के मुँह में पानी भर आया।

पुनिया ने पूछा - क्या अभी तेरे घर आग नहीं जली, क्या री?

रूपा ने दीनता से कहा - आज तो घर में कुछ था ही नहीं, आग कहाँ से जलती?

'तो फिर आग काहे को माँगने आई है?'

'दादा तमाखू पिएँगे।'

पुनिया ने उपले की आग उसकी ओर फेंक दी, मगर रूपा ने आग उठाई नहीं और समीप जा कर बोली - तुम्हारी रोटियाँ महक रही हैं काकी! मुझे बाजरे की रोटियाँ बड़ी अच्छी लगती हैं।

पुनिया ने मुस्करा कर पूछा - खाएगी?

'अम्माँ डाँटेंगी।'

'अम्माँ से कौन कहने जायगा?'

रूपा ने पेट-भर रोटियाँ खाईं और जूठे मुँह भागी हुई घर चली गई।

होरी मन-मारे बैठा था कि पंडित दातादीन ने जा कर पुकारा। होरी की छाती धड़कने लगी। क्या कोई नई विपत्ति आने वाली है? आ कर उनके चरण छुए और कौड़े के सामने उनके लिए माँची रख दी।

दातादीन ने बैठते हुए अनुग्रह भाव से कहा - अबकी तो तुम्हारे खेत परती पड़ गए होरी! तुमने गाँव में किसी से कुछ कहा नहीं, नहीं भोला की मजाल थी कि तुम्हारे द्वार से बैल खोल ले जाता। यहीं लहास गिर जाती। मैं तुमसे जनेऊ हाथ में ले कर कहता हूँ होरी, मैंने तुम्हारे ऊपर डाँड़ न लगाया था। धनिया मुझे नाहक बदनाम करती फिरती है। यह सब लाला पटेश्वरी और झिंगुरीसिंह की कारस्तानी है। मैं तो लोगों के कहने से पंचायत में बैठ भर गया था। वह लोग तो और कड़ा दंड लगा रहे थे। मैंने कह-सुन के कम कराया, मगर अब सब जने सिर पर हाथ धरे रो रहे हैं। समझे थे, यहाँ उन्हीं का राज है। यह न जानते थे कि गाँव का राजा कोई और है। तो अब अपने खेतों की बोआई का क्या इंतजाम कर रहे हो?

'होरी ने करुण-कंठ से कहा - क्या बताऊँ महाराज, परती रहेंगे।

'परती रहेंगे? यह तो बड़ा अनर्थ होगा।'

'भगवान की यही इच्छा है, तो अपना क्या बस।'

'मेरे देखते तुम्हारे खेत कैसे परती रहेंगे? कल मैं तुम्हारी बोआई करा दूँगा। अभी खेतों में कुछ तरी है। उपज दस दिन पीछे होगी, इसके सिवा और कोई बात नहीं। हमारा-तुम्हारा आधा साझा रहेगा। इसमें न तुम्हें कोई टोटा है, न मुझे। मैंने आज बैठे-बैठे सोचा, तो चित्त बड़ा दुखी हुआ कि जुते-जुताए खेत परती रहे जाते हैं।'

होरी सोच में पड़ गया। चौमासे-भर इन खेतों में खाद डाली, जोता और आज केवल बोआई के लिए आधी फसल देनी पड़ रही है। उस पर एहसान कैसा जता रहे हैं, लेकिन इससे तो अच्छा यही है कि खेत परती पड़ जायँ। और कुछ न मिलेगा, लगान तो निकल ही आएगा। नहीं, अबकी बेबाकी न हुई, तो बेदखली आई धरी है।

उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

दातादीन प्रसन्न हो कर बोले - तो चलो, मैं अभी बीज तौल दूँ, जिससे सबेरे का झंझट न रहे। रोटी तो खा ली है न?

होरी ने लजाते हुए आज घर में चूल्हा न जलने की कथा कही।

दातादीन ने मीठे उलाहने के भाव से कहा - अरे! तुम्हारे घर में चूल्हा नहीं जला और तुमने मुझसे कहा भी नहीं। हम तुम्हारे बैरी तो नहीं थे। इसी बात पर तुमसे मेरा जी कुढ़ता है। अरे भले आदमी, इसमें लाज-सरम की कौन बात है! हम सब एक ही तो हैं। तुम सूद्र हुए तो क्या, हम बाम्हन हुए तो क्या, हैं तो सब एक ही घर के। दिन सबके बराबर नहीं जाते। कौन जाने, कल मेरे ही ऊपर कोई संकट आ पड़े, तो मैं तुमसे अपना दु:ख न कहूँगा तो किससे कहूँगा? अच्छा जो हुआ, चलो, बेंग ही के साथ तुम्हें मन-दो-मन अनाज खाने को भी तौल दूँगा।

आधा घंटे में होरी मन-भर जौ का टोकरा सिर पर रखे आया और घर की चक्की चलने लगी। धनिया रोती थी और सोना के साथ जौ पीसती थी। भगवान उसे किस कुकर्म का यह दंड दे रहे हैं!

दूसरे दिन से बोआई शुरू हुई। होरी का सारा परिवार इस तरह काम में जुटा हुआ था, मानो सब कुछ अपना ही है। कई दिन के बाद सिंचाई भी इसी तरह हुई। दातादीन को सेंत-मेंत के मजूर मिल गए। अब कभी-कभी उनका लड़का मातादीन भी घर में आने लगा। जवान आदमी था, बड़ा रसिक और बातचीत का मीठा। दातादीन जो कुछ छीन-झपट कर लाते थे, वह उसे भांग बूटी में उड़ाता था। एक चमारिन से उसकी आशनाई हो गई थी, इसलिए अभी तक ब्याह न हुआ था। वह रहती अलग थी, पर सारा गाँव यह रहस्य जानते हुए भी कुछ न बोल सकता था। हमारा धर्म है हमारा भोजन। भोजन पवित्र रहे, फिर हमारे धर्म पर कोई आँच नहीं आ सकती। रोटियाँ ढाल बन कर अधर्म से हमारी रक्षा करती हैं।

अब साझे की खेती होने से मातादीन को झुनिया से बातचीत करने का अवसर मिलने लगा। वह ऐसे दाँव से आता, जब घर में झुनिया के सिवा और कोई न होता, कभी किसी बहाने से, कभी किसी बहाने से। झुनिया रूपवती न थी, लेकिन जवान थी और उसकी चमारिन प्रेमिका से अच्छी थी। कुछ दिन शहर में रह चुकी थी, पहनना-ओढ़ना, बोलना-चालना जानती थी और लज्जाशील भी थी, जो स्त्री का सबसे बड़ा आकर्षण है। मातादीन कभी-कभी उसके बच्चे को गोद में उठा लेता और प्यार करता। झुनिया निहाल हो जाती थी।

एक दिन उसने झुनिया से कहा - तुम क्या देख कर गोबर के साथ आईं झूना?

झुनिया ने लजाते हुए कहा - भाग खींच लाया महराज, और क्या कहूँ।

मातादीन दु:खी मन से बोला - बड़ा बेवफा आदमी है। तुम जैसी लच्छमी को छोड़ कर न जाने कहाँ मारा-मारा फिर रहा है। चंचल सुभाव का आदमी है, इसी से मुझे संका होती है कि कहीं और न फँस गया हो। ऐसे आदमियों को तो गोली मार देनी चाहिए। आदमी का धरम है, जिसकी बाँह पकडे, उसे निभाए। यह क्या कि एक आदमी की जिंदगानी खराब कर दी और दूसरा घर ताकने लगे।

युवती रोने लगी। मातादीन ने इधर-उधर ताक कर उसका हाथ पकड़ लिया और समझाने लगा - तुम उसकी क्यों परवा करती हो झूना, चला गया, चला जाने दो। तुम्हारे लिए किस बात की कमी है - रूपया-पैसा, गहना-कपड़ा, जो चाहो मुझसे लो।

झुनिया ने धीरे से हाथ छुड़ा लिया और पीछे हट कर बोली - सब तुम्हारी दया है महराज! मैं तो कहीं की न रही। घर से भी गई, यहाँ से भी गई। न माया मिली, न राम ही हाथ आए। दुनिया का रंग-ढंग न जानती थी। इसकी मीठी-मीठी बातें सुन कर जाल में फँस गई।

मातादीन ने गोबर की बुराई करनी शुरू की - वह तो निरा लफंगा है, घर का न घाट का। जब देखो, माँ-बाप से लड़ाई। कहीं पैसा पा जाय, चट जुआ खेल डालेगा, चरस और गाँजे में उसकी जान बसती थी, सोहदों के साथ घूमना, बहू-बेटियों को छेड़ना, यही उसका काम था। थानेदार साहब बदमासी में उसका चालान करने वाले थे, हम लोगों ने बहुत खुसामद की, तब जा कर छोड़ा। दूसरों के खेत-खलिहान से अनाज उड़ा लिया करता। कई बार तो खुद उसी ने पकड़ा था, पर गाँव-घर का समझ कर छोड़ दिया।

सोना ने बाहर आ कर कहा - भाभी, अम्माँ ने कहा है, अनाज निकाल कर धूप में डाल दो, नहीं चोकर बहुत निकलेगा। पंडित ने जैसे बखार में पानी डाल दिया हो।

मातादीन ने अपने सफाई दी - मालूम होता है, तेरे घर में बरसात नहीं हुई। चौमासे में लकड़ी तक गीली हो जाती है, अनाज तो अनाज ही है।

यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। सोना ने आ कर उसका खेल बिगाड़ दिया।

सोना ने झुनिया से पूछा - मातादीन क्या करने आए थे?

झुनिया ने माथा सिकोड़ कर कहा - पगहिया माँग रहे थे। मैंने कह दिया, यहाँ पगहिया नहीं है।

'यह सब बहाना है। बड़ा खराब आदमी है।'

'मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है। क्या खराबी है उसमें?'

'तुम नहीं जानतीं - सिलिया चमारिन को रखे हुए है।'

'तो इसी से खराब आदमी हो गया?'

'और काहे से आदमी खराब कहा जाता है?'

तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाए हैं। वह भी खराब आदमी हैं?'

सोना ने इसका जवाब न दे कर कहा - मेरे घर में फिर कभी आएगा, तो दुतकार दूँगी।

'और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जाय?'

'सोना लजा गई - तुम तो भाभी, गाली देती हो।

'क्यों, इसमें गाली की क्या बात है?'

'मुझसे बोले, तो मुँह झुलस दूँ।'

तो क्या तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा। गाँव में ऐसा सुंदर, सजीला जवान दूसरा कौन है?'

'तो तुम चली जाओ उसके साथ, सिलिया से लाख दर्जे अच्छी हो।'

'मैं क्यों चली जाऊँ? मैं तो एक के साथ चली आई। अच्छा है या बुरा।'

'तो मैं भी जिसके साथ ब्याह होगा, उसके साथ चली जाऊँगी, अच्छा हो या बुरा।'

'और जो किसी बूढ़े के साथ ब्याह हो गया?'

सोना हँसी - मैं उसके लिए नरम-नरम रोटियाँ पकाऊँगी, उसकी दवाइयाँ कूटूँगी-छानूँगी, उसे हाथ पकड़ कर उठाऊँगी, जब मर जायगा तो मुँह ढाँप कर रोऊँगी।

'और जो किसी जवान के साथ हुआ?'

तब तुम्हारा सिर, हाँ नहीं तो!'

'अच्छा बताओ, तुम्हें बूढ़ा अच्छा लगता है कि जवान!'

'जो अपने को चाहे, वही जवान है, न चाहे वही बूढ़ा है।'

'दैव करे, तुम्हारा ब्याह किसी बूढ़े से हो जाय, तो देखूँ, तुम उसे कैसे चाहती हो। तब मनाओगी, किसी तरह यह निगोड़ा मर जाय, तो किसी जवान को ले कर बैठ जाऊँ।'

'मुझे तो उस बूढ़े पर दया आए।'

इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिंदे और दलाल गाँव-गाँव घूम कर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था, जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिंदा इस गाँव में भी आया। किसानों ने जो उससे भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है। जब घर में ऊख पेर कर भी यही दाम मिलता है, तो पेरने की मेहनत क्यों उठाई जाय? सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया। अगर कुछ कम भी मिले, तो परवाह नहीं। तत्काल तो मिलेगा। किसी को बैल लेना था, किसी को बाकी चुकाना था, कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोई लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी, इसलिए यह डर भी था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगी, तो गुड़ लेगा ही कौन? सभी ने बयाने ले लिए। होरी को कम-से-कम सौ रुपए की आशा थी। इतने में एक मामूली गोई आ जायगी, लेकिन महाजनों को क्या करे! दातादीन, मँगरू, दुलारी, झिंगुरीसिंह सभी तो प्राण खा रहे थे। अगर महाजनों को देने लगेगा, तो सौ रुपए सूद-भर को भी न होंगे। कोई ऐसी जुगत न सूझती थी कि ऊख के रुपए हाथ में आ जायँ और किसी को खबर न हो। जब बैल घर आ जाएँगे, तो कोई क्या कर लेगा? गाड़ी लदेगी, तो सारा गाँव देखेगा ही, तौल पर जो रुपए मिलेंगे, वह सबको मालूम हो जाएँगे। संभव है, मँगरू और दातादीन हमारे साथ-साथ रहें। इधर रुपए मिले, उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी।

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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 18:48

शाम को गिरधर ने पूछा- तुम्हारी ऊख कब तक जायगी होरी काका?

होरी ने झाँसा दिया - अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाई, तुम कब तक ले जाओगे?

गिरधर ने भी झाँसा दिया - अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका!

और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ बताते थे, किसी को किसी पर विश्वास न था। झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ थे, और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपए न पड़ने पाएँ, नहीं वह सब-का-सब हजम कर जायगा। और जब दूसरे दिन असामी फिर रुपए माँगने जायगा तो नया कागज, नया नजराना, नई तहरीर। दूसरे दिन शोभा आ कर बोला - दादा, कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरीसिंह को हैजा हो जाए। ऐसा गिरे कि फिर न उठे।

होरी ने मुस्करा कर कहा - क्यों, उसके बाल-बच्चे नहीं हैं?

'उसके बाल-बच्चों को देखें कि अपने बाल-बच्चों को देखें? वह तो दो-दो मेहरियों को आराम से रखता है, यहाँ तो एक को रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं। सारी जमा ले लेगा। एक पैसा भी घर न लाने देगा।'

'मेरी तो हालत और भी खराब है भाई, अगर रुपए हाथ से निकल गए, तो तबाह हो जाऊँगा। गोई के बिना तो काम न चलेगा।'

अभी तो दो-तीन दिन ऊख ढोते लगेंगे। ज्यों ही सारी ऊख पहुँच जाय, जमादार से कहें कि भैया कुछ ले ले, मगर ऊख झटपट तौल दे, दाम पीछे देना। इधर झिंगुरी से कह देंगे, अभी रुपए नहीं मिले।'

होरी ने विचार करके कहा - झिंगुरीसिंह हमसे-तुमसे कई गुना चतुर है सोभा! जा कर मुनीम से मिलेगा और उसी से रुपए ले लेगा। हम-तुम ताकते रह जाएँगे। जिस खन्ना बाबू का मिल है, उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है। दोनों एक हैं।

सोभा निराश हो कर बोला - न जाने इन महाजनों से कभी गला छूटेगा कि नहीं।

होरी बोला - इस जनम में तो कोई आसा नहीं है भाई! हम राज नहीं चाहते, भोग-विलास नहीं चाहते, खाली मोटा-झोटा पहनना, और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वह भी नहीं सकोता।

सोभा ने धूर्तता के साथ कहा - मैं तो दादा, इन सबों को अबकी चकमा दूँगा। जमादार को कुछ दे-दिला कर इस बात पर राजी कर लूँगा कि रुपए के लिए हमें खूब दौड़ाएँ। झिंगुरी कहाँ तक दौड़ेंगे।

होरी ने हँस कर कहा - यह सब कुछ न होगा भैया! कुसल इसी में है कि झिंगुरीसिंह के हाथ-पाँव जोड़ो। हम जाल में फँसे हुए हैं। जितना ही फड़फड़ाओगे, उतना ही और जकड़ते जाओगे।

तुम तो दादा, बूढ़ों की-सी बातें कर रहे हो। कठघरे में फँसे बैठे रहना तो कायरता है। फंदा और जकड़ जाय बला से, पर गला छुड़ाने के लिए जोर तो लगाना ही पड़ेगा। यही तो होगा झिंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लेंगे, करा लें नीलाम! मैं तो चाहता हूँ कि हमें कोई रुपए न दे, हमें भूखों मरने दे, लातें खाने दे, एक पैसा भी उधार न दे, लेकिन पैसा वाले उधार न दें तो सूद कहाँ से पाएँ? एक हमारे ऊपर दावा करता है, तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपए उधार दे कर अपने जाल में फँसा लेता है। मैं तो उसी दिन रुपए लेने जाऊँगा, जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।

होरी का मन भी विचलित हुआ - हाँ, यह ठीक है।

'ऊख तुलवा देंगे। रुपए दाँव-घात देख कर ले आएँगे।'

'बस-बस, यही चाल चलो।'

दूसरे दिन प्रात:काल गाँव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गँड़ासा ले कर पहुँचा। उधर से सोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनिया, झुनिया, कोनिया, सोना सभी खेत में जा पहुँचीं। कोई ऊख काटता था, कोई छीलता था, कोई पूले बाँधता था। महाजनों ने जो ऊख कटते देखी, तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ से मँगरू साह, तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के पियादे। दुलारी हाथ-पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े पहने, कानों में सोने का झुमका, आँखों में काजल लगाए, बूढ़े यौवन को रंगे-रंगाए आ कर बोली - पहले मेरे रुपए दे दो, तब ऊख काटने दूँगी। मैं जितना गम खाती हूँ, उतना ही तुम शेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया, पचास तो मेरे सूद के होते हैं।

होरी ने घिघिया कर कहा - भाभी, ऊख काट लेने दो, इसके रुपए मिलते हैं, तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूँगा। न गाँव छोड़ कर भागा जाता हूँ, न इतनी जल्दी मौत ही आई जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपए न देगी?

दुलारी ने उसके हाथ से गँड़ासा छीन कर कहा - नीयत इतनी खराब हो गई है तुम लोगों की, तभी तो बरक्कत नहीं होती।

आज पाँच साल हुए, होरी ने दुलारी से तीस रुपए लिए थे। तीन साल में उसके सौ रुपए हो गए, तब स्टांप लिखा गया। दो साल में उस पर पचास रूपया सूद चढ़ गया था।

होरी बोला - सहुआइन, नीयत तो कभी खराब नहीं की, और भगवान चाहेंगे, तो पाई-पाई चुका दूँगा। हाँ, आजकल तंग हो गया हूँ, जो चाहे कह लो।

सहुआइन को जाते देर नहीं हुई कि मँगरू साह पहुँचे। काला रंग, तोंद कमर के नीचे लटकती हुई, दो बड़े-बड़े दाँत सामने जैसे काट खाने को निकले हुए, सिर पर टोपी, गले में चादर, उम्र अभी पचास से ज्यादा नहीं, पर लाठी के सहारे चलते थे। गठिया का मरज हो गया था। खाँसी भी आती थी। लाठी टेक कर खड़े हो गए और होरी को डाँट बताई - पहले हमारे रुपए दे दो होरी, तब ऊख काटो। हमने रुपए उधार दिए थे, खैरात नहीं थे। तीन-तीन साल हो गए, न सूद न ब्याज, मगर यह न समझना कि तुम मेरे रुपए हजम कर जाओगे। मैं तुम्हारे मुर्दे से भी वसूल कर लूँगा।

सोभा मसखरा था। बोला - तब काहे को घबड़ाते हो साहजी, इनके मुर्दे ही से वसूल कर लेना। नहीं, एक-दो साल के आगे-पीछे दोनों ही सरग में पहुँचोगे। वहीं भगवान के सामने अपना हिसाब चुका लेना।

मँगरू ने सोभा को बहुत बुरा-भला कहा - जमामार, बेईमान इत्यादि। लेने की बेर तो दुम हिलाते हो, जब देने की बारी आती है, तो गुर्राते हो। घर बिकवा लूँगा, बैल-बधिए नीलाम करा लूँगा।

सोभा ने फिर छेड़ा - अच्छा, ईमान से बताओ साह, कितने रुपए दिए थे, जिसके अब तीन सौ रुपए हो गए हैं?

'जब तुम साल के साल सूद न दोगे, तो आप ही बढ़ेंगे।'

'पहले-पहल कितने रुपए दिए थे तुमने? पचास ही तो।'

'कितने दिन हुए, यह भी तो देख।'

'पाँच-छ: साल हुए होंगे?'

'दस साल हो गए पूरे, ग्यारहवाँ जा रहा है।'

'पचास रुपए के तीन सौ रुपए लेते तुम्हें जरा भी सरम नहीं आती।'

'सरम कैसी, रुपए दिए हैं कि खैरात माँगते हैं।'

होरी ने इन्हें भी चिरौरी-विनती करके विदा किया। दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी। बीज दे कर आधी फसल ले लेंगे। इस वक्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीति-विरुद्ध था। झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवा कर नाव पर पहुँचा रहे थे। नदी गाँव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी। और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह किफायत पड़ती थी। इस सुविधा का इंतजाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाके को एहसान से दबा दिया था।

तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हर एक की ऊख तौलाते थे, दाम का पुरजा लेते थे। खजांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काट कर असामी को देते थे। असामी कितना ही रोए, चीखे, किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उनका क्या बस!

होरी को एक सौ बीस रुपए मिले! उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपए सूद समेत काट कर कोई पचीस रुपए होरी के हवाले किए।

होरी ने रुपए की ओर उदासीन भाव से देख कर कहा - यह ले कर मैं क्या करूँगा ठाकुर, यह भी तुम्हीं ले लो। मेरी लिए मजूरी बहुत मिलेगी।

झिंगुरी ने पचीसों रुपए जमीन पर फेंक कर कहा - लो या फेंक दो, तुम्हारी खुसी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ खाईं और अभी रायसाहब सिर पर सवार हैं कि डाँड़ के रुपए अदा करो। तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने रुपए दिए देता हूँ, नहीं एक धोला भी न देता। अगर रायसाहब ने सख्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे।

होरी ने धीरे से रुपए उठा लिए और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जा कर पचीसों रुपए उनके हाथ पर रख दिए, और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था।

सोभा को इतने ही रुपए मिले थे। वह बाहर निकला, तो पटेश्वरी ने घेरा।

सोभा बरस पड़ा। बोला - मेरे पास रुपए नहीं हैं, तुम्हें जो कुछ करना हो, कर लो।

पटेश्वरी ने गरम हो कर कहा - ऊख बेची है कि नहीं?

'हाँ, बेची है।'

'तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेच कर रूपया दूँगा!'

'हाँ, था तो।'

'फिर क्यों नहीं देते! और सब लोगों को दिए हैं कि नहीं?'

'हाँ, दिए हैं।'

'तो मुझे क्यों नहीं देते?'

'मेरे पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है।'

पटेश्वरी ने बिगड़ कर कहा - तुम रुपए दोगे, सोभा और हाथ जोड़ कर और आज ही। हाँ, अभी जितना चाहो, बहक लो। एक रपट में जाओगे छ: महीने को, पूरे छ: महीने को, न एक दिन बेस, न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते हो, वह एक रपट में निकल जायगा। मैं जमींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया-भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और जमींदार दोनों का मालिक है।

पटेश्वरीलाल आगे बढ़ गए। सोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तब होरी ने कहा - सोभा, इसके रुपए दे दो। समझ लो, ऊख में आग लग गई थी। मैंने भी यही सोच कर, मन को समझाया है।

सोभा ने आहत कंठ से कहा - हाँ, दे दूँगा दादा! न दूँगा तो जाऊँगा कहाँ?

सामने से गिरधर ताड़ी पिए झूमता चला आ रहा था। दोनों को देख कर बोला - झिंगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चबेना को भी एक पैसा न छोड़ा! हत्यारा कहीं का! रोया, गिड़गिड़ाया, पर इस पापी को दया न आई।

शोभा ने कहा - ताड़ी तो पिए हुए हो, उस पर कहते हो, एक पैसा भी न छोड़ा।

गिरधर ने पेट दिखा कर कहा - साँझ हो गई, जो पानी की बूँद भी कंठ तले गई हो, तो गो-माँस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा, साल-भर पसीना गारा है, तो एक दिन ताड़ी तो पी लूँ, मगर सच कहता हूँ, नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगा? हाँ, झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझें, खूब पिए हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाकी हो गई। बीस लिए, उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है!

होरी घर पहुँचा, तो रूपा पानी ले कर दौड़ी, सोना चिलम भर लाई, धनिया ने चबेना और नमक ला कर रख दिया और सभी आशा-भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुँह-हाथ धोए, कैसे चबेना खाए। ऐसा लज्जित और ग्लानित था, मानो हत्या करके आया हो।

धनिया ने पूछा - कितने की तौल हुई?

'एक सौ बीस मिले, पर सब वहीं लुट गए, धेला भी न बचा।'

धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुँह नोंच ले। बोली - तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान ने क्यों रचा, कहीं मिलते तो उनसे पूछती। तुम्हारे साथ सारी जिंदगी तलख हो गई, भगवान मौत भी नहीं देते कि जंजाल से जान छूटे। उठा कर सारे रुपए बहनोइयों को दे दिए। अब और कौन आमदनी है, जिससे गोई आएगी? हल में क्या मुझे जोतोगे, या आप जुतोगे? मैं कहती हूँ, तुम बूढ़े हुए, तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोई-भर के रुपए तो निकाल लेते! कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की यह ठंड और किसी की देह पर लत्ता नहीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सिसक-सिसक कर मरने से तो एक दिन मर जाना फिर भी अच्छा है। कब तक पुआल में घुस कर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें, तो पुआल खा कर रहा तो न जायगा। तुम्हारी इच्छा हो, घास ही खाओ, हमसे तो घास न खाई जायगी।

यह कहते-कहते वह मुस्करा पड़ी। इतनी देर में उसकी समझ में यह बात आने लगी थी कि महाजन जब सिर पर सवार हो जाय, और अपने हाथ में रुपए हों और महाजन जानता हो कि इसके पास रुपए हैं, तो असामी कैसे अपनी जान बचा सकता है!

होरी सिर नीचा किए अपने भाग्य को रो रहा था। धनिया का मुस्कराना उसे न दिखाई दिया। बोला - मजूरी तो मिलेगी। मजूरी करके खाएँगे। धनिया ने पूछा - कहाँ है इस गाँव में मजूरी? और कौन मुँह ले कर मजूरी करोगे? महतो नहीं कहलाते!

होरी ने चिलम के कई कश लगा कर कहा - मजूरी करना कोई पाप नहीं। मजूर बन जाय, तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है। मजूरी करना भाग्य में न होता हो यह सब विपत क्यों आती? क्यों गाय मरती? क्यों लड़का नालायक निकल जाता?

धनिया ने बहू और बेटियों की ओर देख कर कहा - तुम सब-की-सब क्यों घेरे खड़ी हो, जा कर अपना-अपना काम देखो। वह और हैं जो हाट-बाजार से आते हैं, तो बाल-बच्चों के लिए दो-चार पैसे की कोई चीज लिए आते हैं। यहाँ तो यह लोभ लग रहा होगा कि रुपए तुड़ाएँ कैसे? एक कम न हो जायगा इसी से इनकी कमाई में बरक्कत नहीं होती। जो खरच करते हैं, उन्हें मिलता है। जो न खा सकें, उन्हें रुपए मिलें ही क्यों? जमीन में गाड़ने के लिए?

होरी ने खिलखिला कर कहा - कहाँ है वह गाड़ी हुई थाती?

जहाँ रखी है, वहीं होगी। रोना तो यही है कि यह जानते हुए भी पैसे के लिए मरते हो! चार पैसे की कोई चीज ला कर बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी में न पड़ जाते। झिंगुरी से तुम कह देते कि एक रूपया मुझे दे दो, नहीं मैं तुम्हें एक पैसा न दूँगा, जा कर अदालत में लेना, तो वह जरूर दे देता।'

होरी लज्जित हो गया। अगर वह झल्ला कर पचीसों रुपए नोखेराम को न दे देता, तो नोखे क्या कर लेते? बहुत होता बकाया पर दो-चार आना सूद ले लेते, मगर अब तो चूक हो गई।

झुनिया ने भीतर जा कर सोना से कहा - मुझे तो दादा पर बड़ी दया आती है। बेचारे दिन-भर के थके-माँदे घर आए, तो अम्माँ कोसने लगीं। महाजन गला दबाए था, तो क्या करते बेचारे!

'तो बैल कहाँ से आयँगे?'

'महाजन अपने रुपए चाहता है। उसे तुम्हारे घर के दुखड़ों से क्या मतलब?'

अम्माँ वहाँ होतीं, तो महाजन को मजा चखा देतीं। अभागा रो कर रह जाता।'

झुनिया ने दिल्लगी की तो यहाँ रुपए की कौन कमी है - तुम महाजन से जरा हँस कर बोल दो, देखो सारे रुपए छोड़ देता है कि नहीं। सच कहती हूँ, दादा का सारा दुख-दलिदर दूर हो जाए।

सोना ने दोनों हाथों से उसका मुँह दबा कर कहा - बस, चुप ही रहना, नहीं कहे देती हूँ। अभी जा कर अम्माँ से मातादीन की सारी कलई खोल दूँ तो रोने लगो।

झुनिया ने पूछा - क्या कह दोगी अम्माँ से? कहने को कोई बात भी हो। जब वह किसी बहाने से घर में आ जाते हैं, तो क्या कह दूँ कि निकल जाओ, फिर मुझसे कुछ ले तो नहीं जाते? कुछ अपना ही दे जाते हैं। सिवाय मीठी-मीठी बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं पा सकते! और अपनी मीठी बातों को महँगे दामों पर बेचना भी मुझे आता है। मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ कि किसी के झाँसे में आ जाऊँ। हाँ, जब जान जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वहाँ किसी को रख लिया है, तब की नहीं चलाती। तब मेरे ऊपर किसी का कोई बंधन न रहेगा। अभी तो मुझे विस्वास है कि वह मेरे हैं और मेरे कारन उन्हें गली-गली ठोकर खाना पड़ रहा है। हँसने-बोलने की बात न्यारी है, पर मैं उनसे विस्वासघात न करूँगी। जो एक से दो का हुआ, वह किसी का नहीं रहता।

सोभा ने आ कर होरी को पुकारा और पटेश्वरी के रुपए उसके हाथ में रख कर बोला - भैया, तुम जा कर ये रुपए लाला को दे दो, मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था।

होरी रुपए ले कर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आई। गाँव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे। पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुए, दस साल के बाद रजा ले कर आए थे। बगदाद, अदन, सिंगापुर, बर्मा - चारों तरफ घूम चुके थे। अब ब्याह करने की धुन में थे। इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे।

होरी ने कहा - जान पड़ता है, सातों अध्याय पूरे हो गए। आरती हो रही है।

सोभा बोला - हाँ, जान तो पड़ता है, चलो आरती ले लें।

होरी ने चिंतित भाव से कहा - तुम जाओ, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।

ध्यानसिंह जिस दिन आए थे, सबके घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी। होरी से जब कभी रास्ते में मिल जाते, कुशल पूछते। उनकी कथा में जा कर आरती में कुछ न देना अपमान की बात थी।

आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा। उनके सामने होरी कैसे खाली हाथ आरती ले लेगा। इससे तो कहीं अच्छा है वह कथा में जाय ही नहीं। इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आएगी कि होरी नहीं आया। कोई रजिस्टर लिए तो बैठा नहीं है कि कौन आया, कौन नहीं आया। वह जा कर खाट पर लेट रहा।

मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं है! तांबे का एक पैसा। आरती के पुण्य और माहात्म्य का उसे बिलकुल ध्यान था। बात थी केवल व्यवहार की। ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट दे कर ले सकता था, लेकिन मर्यादा कैसे तोड़े, सबकी आँखों में हेठा कैसे बने!

सहसा वह उठ बैठा। क्यों मर्यादा की गुलामी करे? मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़े? लोग हँसेंगे, हँस लें। उसे परवा नहीं है। भगवान उसे कुकर्म से बचाए रखें, और वह कुछ नहीं चाहता।

वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।

Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 18:49

खन्ना और गोविंदी में नहीं पटती। क्यों नहीं पटती, यह बताना कठिन है। ज्योतिष के हिसाब से उनके ग्रहों में कोई विरोध है, हालाँकि विवाह के समय ग्रह और नक्षत्र खूब मिला लिए गए थे। कामशास्त्र के हिसाब से इस अनबन का और कोई रहस्य हो सकता है, और मनोविज्ञान वाले कुछ और ही कारण खोज सकते हैं। हम तो इतना ही जानते हैं कि उनमें नहीं पटती। खन्ना धनवान हैं, रसिक हैं, मिलनसार हैं, रूपवान हैं, अच्छे खासे-पढ़े-लिखे हैं और नगर के विशिष्ट पुरुषों में हैं। गोविंदी अप्सरा न हो, पर रूपवती अवश्य है। गेहुंआ रंग, लज्जाशील आँखें, जो एक बार सामने उठ कर फिर झुक जाती हैं, कपोलों पर लाली न हो, पर चिकनापन है। गात कोमल, अंगविन्यास सुडौल, गोल बाँहे, मुख पर एक प्रकार की अरुचि, जिसमें कुछ गर्व की झलक भी है, मानो संसार के व्यवहार और व्यापार को हेय समझती है। खन्ना के पास विलास के ऊपरी साधनों की कमी नहीं, अव्वल दरजे का बँगला है, अव्वल दरजे का फर्नीचर, अव्वल दरजे की कार और अपार धन! पर गोविंदी की दृष्टि में जैसे इन चीजों का कोई मूल्य नहीं। इस खारे सागर में वह प्यासी पड़ी रहती है। बच्चों का लालन-पालन और गृहस्थी के छोटे-मोटे काम ही उसके लिए सब कुछ हैं। वह इनमें इतनी व्यस्त रहती है कि भोग की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। आकर्षण क्या वस्तु है और कैसे उत्पन्न हो सकता है, इसकी ओर उसने कभी विचार नहीं किया। वह पुरुष का खिलौना नहीं है, न उसके भोग की वस्तु, फिर क्यों आकर्षक बनने की चेष्टा करे? अगर पुरुष उसका असली सौंदर्य देखने के लिए आँखें नहीं रखता, कामिनियों के पीछे मारा-मारा फिरता है, तो वह उसका दुर्भाग्य है। वह उसी प्रेम और निष्ठा से पति की सेवा किए जाती है, जैसे द्वेष और मोह-जैसी भावनाओं को उसने जीत लिया है। और यह अपार संपत्ति तो जैसे उसकी आत्मा को कुचलती रहती है, दबाती रहती है। इन आडंबरों और पाखंडों से मुक्त होने के लिए उसका मन सदैव ललचाया करता है। अपनी सरल और स्वाभाविक जीवन में वह कितनी सुखी रह सकती थी, इसका वह नित्य स्वप्न देखती रहती है। तब क्यों मालती उसके मार्ग में आ कर बाधक हो जाती। क्यों वेश्याओं के मुजरे होते, क्यों यह संदेह और बनावट और अशांति उसके जीवन-पथ में काँटा बनती! बहुत पहले जब वह बालिका-विद्यालय में पढ़ती थी, उसे कविता का रोग लग गया था, जहाँ दु:ख और वेदना ही जीवन का तत्व है, संपत्ति और विलास तो केवल इसलिए है कि उसकी होली जलाई जाय, जो मनुष्य को असत्य और अशांति की ओर ले जाता है। वह अब भी कभी-कभी कविता रचती थी, लेकिन सुनाए किसे? उसकी कविता केवल मन की तरंग या भावना की उड़ान न थी, उसके एक-एक शब्द में उसके जीवन की व्यथा और उसके आँसुओं की ठंडी जलन भरी होती थी! किसी ऐसे प्रदेश में जा बसने की लालसा, जहाँ वह पाखंडों और वासनाओं से दूर अपने शांत कुटिया में सरल आनंद का उपभोग करे। खन्ना उसकी कविताएँ देखते, तो उनका मजाक उड़ाते और कभी-कभी फाड़ कर फेंक देते। और संपत्ति की यह दीवार दिन-दिन ऊँची होती जाती थी और दंपति को एक दूसरे से दूर और पृथक करती जाती थी। खन्ना अपने ग्राहकों के साथ जितना ही मीठा और नम्र था, घर में उतना ही कटु और उद्दंड। अक्सर क्रोध में गोविंदी को अपशब्द कह बैठता। शिष्टता उसके लिए दुनिया को ठगने का एक साधन थी, मन का संस्कार नहीं। ऐसे अवसरों पर गोविंदी अपने एकांत कमरे में जा बैठती और रात की रात रोया करती और खन्ना दीवानखाने में मुजरे सुनता या क्लब में जा कर शराबें उड़ाता। लेकिन यह सब कुछ होने पर भी खन्ना उसके सर्वस्व थे। वह दलित और अपमानित हो कर भी खन्ना की लौंडी थी। उनसे लड़ेगी, जलेगी, रोएगी, पर रहेगी उन्हीं की। उनसे पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकती थी।

आज मिस्टर खन्ना किसी बुरे आदमी का मुँह देख कर उठे थे। सवेरे ही पत्र खोला, तो उनके कई स्टाकों का दर गिर गया था, जिसमें उन्हें कई हजार की हानि होती थी। शक्कर मिल के मजदूरों ने हड़ताल कर दी थी और दंगा-फसाद करने पर आमादा थे। नफे की आशा से चाँदी खरीदी थी, मगर उसका दर आज और भी ज्यादा गिर गया था। रायसाहब से जो सौदा हो रहा था और जिसमें उन्हें खासे नफे की आशा थी, वह कुछ दिनों के लिए टलता हुआ जान पड़ता था। फिर रात को बहुत पी जाने के कारण इस वक्त सिर भारी था और देह टूट रही थी। उधर शोफर ने कार के इंजन में कुछ खराबी पैदा हो जाने की बात कही थी और लाहौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मुकदमा दायर हो जाने का समाचार भी मिला था। बैठे मन में झुँझला रहे थे कि उसी वक्त गोविंदी ने आ कर कहा - भीष्म का ज्वर आज भी नहीं उतरा, किसी डाक्टर को बुला दो।

भीष्म उनका सबसे छोटा पुत्र था, और जन्म से ही दुर्बल होने के कारण उसे रोज एक-न-एक शिकायत बनी रहती थी। आज खाँसी है, तो कल बुखार, कभी पसली चल रही है, कभी हरे-पीले दस्त आ रहे हैं। दस महीने का हो गया था, पर लगता था, पाँच-छ: महीने का। खन्ना की धारणा हो गई थी कि यह लड़का बचेगा नहीं, इसलिए उसकी ओर से उदासीन रहते थे, पर गोविंदी इसी कारण उसे और सब बच्चों से ज्यादा चाहती थी।

खन्ना ने पिता के स्नेह का भाव दिखाते हुए कहा - बच्चों को दवाओं का आदी बना देना ठीक नहीं, और तुम्हें दवा पिलाने का मरज है। जरा कुछ हुआ और डाक्टर बुलाओ। एक रोज देखो, आज तीसरा ही दिन तो है। शायद आज आप-ही-आप उतर जाए।

गोविंदी ने आग्रह किया - तीन दिन से नहीं उतरा। घरेलू दवाएँ करके हार गई।

खन्ना ने पूछा - अच्छी बात है, बुला देता हूँ, किसे बुलाऊँ?

'बुला लो डाक्टर नाग को।'

'अच्छी बात है, उन्हीं को बुलाती हूँ, मगर यह समझ लो नाम हो जाने से ही कोई अच्छा डाक्टर नहीं हो जाता। नाग फीस चाहे जितनी चाहे ले लें, उनकी दवा से किसी को अच्छा होते नहीं देखा। वह तो मरीजों को स्वर्ग भेजने के लिए मशहूर हैं।'

'तो जिसे चाहो बुला लो, मैंने तो नाग को इसलिए कहा था कि वह कई बार आ चुके हैं।'

'मिस मालती को क्यों न बुला लूँ? फीस भी कम और बच्चों का हाल लेडी डाक्टर जैसा समझेगी, कोई मर्द डाक्टर नहीं समझ सकता।'

गोविंदी ने जल कर कहा - मैं मिस मालती को डाक्टर नहीं समझती।

खन्ना ने भी तेज आँखों से देख कर कहा - तो वह इंग्लैंड घास खोदने गई थी, और हजारों आदमियों को आज जीवनदान दे रही है, यह सब कुछ नहीं है?

'होगा, मुझे उन पर भरोसा नहीं है। वह मरदों के दिल का इलाज कर लें। और किसी की दवा उनके पास नहीं है।'

बस ठन गई। खन्ना गरजने लगे। गोविंदी बरसने लगी। उनके बीच में मालती का नाम आ जाना मानो लड़ाई का अल्टिमेटम था।

खन्ना ने सारे कागजों को जमीन पर फेंक कर कहा - तुम्हारे साथ जिंदगी तलख हो गई।

गोविंदी ने नुकीले स्वर में कहा - तो मालती से ब्याह कर लो न! अभी क्या बिगड़ा है, अगर वहाँ दाल गले।

'तुम मुझे क्या समझती हो?'

'यही कि मालती तुम-जैसों को अपना गुलाम बना कर रखना चाहती है, पति बना कर नहीं।'

'तुम्हारी निगाह में मैं इतना जलील हूँ?'

और उन्होंने इसके विरुद्ध प्रमाण देना शुरू किया। मालती जितना उनका आदर करती है, उतना शायद ही किसी का करती हो। रायसाहब और राजा साहब को मुँह तक नहीं लगाती, लेकिन उनसे एक दिन भी मुलाकात न हो, तो शिकायत करती है?

गोविंदी ने इन प्रमाणों को एक फूँक में उड़ा दिया - इसीलिए कि वह तुम्हें सबसे बड़ा आँखों का अंधा समझती है, दूसरों को इतनी आसानी से बेवकूफ नहीं बना सकती।

खन्ना ने डींग मारी - वह चाहें तो आज मालती से विवाह कर सकते हैं। आज, अभी?

मगर गोविंदी को बिलकुल विश्वास नहीं - तुम सात जन्म नाक रगड़ो, तो भी वह तुमसे विवाह न करेगी। तुम उसके टट्टू हो, तुम्हें घास खिलाएगी, कभी-कभी तुम्हारा मुँह सहलाएगी, तुम्हारे पुट्ठों पर हाथ फेरेगी, लेकिन इसीलिए कि तुम्हारे ऊपर सवारी गाँठे। तुम्हारे जैसे एक हजार बुद्धू उसकी जेब में हैं।

गोविंदी आज बहुत बढ़ी जाती थी। मालूम होता है, आज वह उनसे लड़ने पर तैयार हो कर आई है। डाक्टर के बुलाने का तो केवल बहाना था। खन्ना अपने योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकते थे!

'तुम्हारे खयाल में मैं बुद्धू और मूर्ख हूँ, तो ये हजारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते हैं? कौन राजा या ताल्लुकेदार है, जो मुझे दंडवत नहीं करता? सैकड़ों को उल्लू बना कर छोड़ दिया।'

'यही तो मालती की विशेषता है कि जो औरों को सीधे उस्तरे से मूँड़ता है, उसे वह उल्टे छुरे से मूँड़ती है।'

'तुम मालती की चाहे जितनी बुराई करो, तुम उसकी पाँव की धूल भी नहीं हो।'

'मेरी दृष्टि में वह वेश्याओं से भी गई-बीती है, क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है।'

दोनों ने अपने-अपने अग्निबाण छोड़ दिए। खन्ना ने गोविंदी को चाहे कोई दूसरी कठोर से कठोर बात कही होती, उसे इतनी बुरी न लगती, पर मालती से उसकी यह घृणित तुलना उसकी सहिष्णुता के लिए भी असह्य थी। गोविंदी ने भी खन्ना को चाहे जो कुछ कहा होता, वह इतने गर्म न होते, लेकिन मालती का यह अपमान वह नहीं सह सकते। दोनों एक-दूसरे के कोमल स्थलों से परिचित थे। दोनों के निशाने ठीक बैठे और दोनों तिलमिला उठे। खन्ना की आँखें लाल हो गईं। गोविंदी का मुँह लाल हो गया। खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान पकड़ कर जोर से ऐंठे और तीन तमाचे लगा दिए। गोविंदी रोती हुई अंदर चली गई।

जरा देर में डाक्टर नाग आए और सिविल सर्जन मि. टाड आए और भिषगाचार्य नीलकंठ शास्त्री आए, पर गोविंदी बच्चे को लिए अपने कमरे में बैठी रही। किसने क्या कहा, क्या तशखीस की, उसे कुछ मालूम नहीं। जिस विपत्ति की कल्पना वह कर रही थी, वह आज उसके सिर पर आ गई। खन्ना ने आज जैसे उससे नाता तोड़ लिया, जैसे उसे घर से खदेड़ कर द्वार बंद कर लिया। जो रूप का बाजार लगा कर बैठती है, जिसकी परछाईं भी वह अपने ऊपर पड़ने नहीं देना चाहती वह… उस पर परोक्ष रूप से शासन करे? यह न होगा। खन्ना उसके पति हैं, उन्हें उसको समझाने-बुझाने का अधिकार है, उनकी मार को भी वह शिरोधार्य कर सकती है; पर मालती का शासन? असंभव! मगर बच्चे का ज्वर जब तक शांत न हो जाय, वह हिल नहीं सकती। आत्माभिमान को भी कर्तव्य के सामने सिर झुकाना पड़ेगा।

दूसरे दिन बच्चे का ज्वर उतर गया था। गोविंदी ने एक ताँगा मँगवाया और घर से निकली। जहाँ उसका इतना अनादर है, वहाँ अब वह नहीं रह सकती। आघात इतना कठोर था कि बच्चों का मोह भी टूट गया था। उनके प्रति उसका जो धर्म था, उसे वह पूरा कर चुकी है। शेष जो कुछ है, वह खन्ना का धर्म है। हाँ, गोद के बालक को वह किसी तरह नहीं छोड़ सकती। वह उसकी जान के साथ है। और इस घर से वह केवल अपने प्राण ले कर निकलेगी। और कोई चीज उसकी नहीं है। इन्हें यह दावा है कि वह उसका पालन करते हैं। गोविंदी दिखा देगी कि वह उनके आश्रय से निकल कर भी जिंदा रह सकती है। तीनों बच्चे उस समय खेलने गए थे। गोविंदी का मन हुआ, एक बार उन्हें प्यार कर ले, मगर वह कहीं भागी तो नहीं जाती। बच्चों को उससे प्रेम होगा, तो उसके पास आएँगे, उसके घर में खेलेंगे। वह जब जरूरत समझेगी, खुद बच्चों को देख जाया करेगी। केवल खन्ना का आश्रय नहीं लेना चाहती।

साँझ हो गई थी। पार्क में खूब रौनक थी। लोग हरी घास पर लेटे हवा का आनंद लूट रहे थे। गोविंदी हजरतगंज होती हुई चिड़ियाघर की तरफ मुड़ी ही थी कि कार पर मालती और खन्ना सामने से आते हुए दिखाई दिए। उसे मालूम हुआ, खन्ना ने उसकी तरफ इशारा करके कुछ कहा - और मालती मुस्कराई। नहीं, शायद यह उसका भ्रम हो। खन्ना मालती से उसकी निंदा न करेंगे, मगर कितनी बेशर्म है। सुना है, इसकी अच्छी प्रैक्टिस है, घर की भी संपन्न है, फिर भी यों अपने को बेचती फिरती है। न जाने क्यों ब्याह नहीं कर लेती, लेकिन उससे ब्याह करेगा ही कौन? नहीं, यह बात नहीं। पुरुषों में ऐसे बहुत से गधे हैं, जो उसे पा कर अपने को धन्य मानेंगे। लेकिन मालती खुद तो किसी को पसंद करे? और ब्याह में कौन-सा सुख रखा हुआ है? बहुत अच्छा करती है, जो ब्याह नहीं करती। अभी सब उसके गुलाम हैं। तब वह एक की लौंड़ी हो कर रह जायगी। बहुत अच्छा कर रही है। अभी तो यह महाशय भी उसके तलवे चाटते हैं, कहीं इनसे ब्याह कर ले, तो उस पर शासन करने लगें, मगर इनसे वह क्यों ब्याह करेगी? और समाज में दो-चार ऐसी स्त्रियाँ बनी रहें, तो अच्छा, पुरुषों के कान तो गर्म करती रहें।

आज गोविंदी के मन में मालती के प्रति बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। वह मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है। क्या मेरी दशा को देख कर उसकी आँखें न खुलती होंगी? विवाहित जीवन की दुर्दशा आँखों देख कर अगर वह इस जाल में नहीं फँसती, तो क्या बुरा करती है!

चिड़ियाघर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविंदी ने ताँगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ चली, मगर दो ही तीन कदम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गए। अभी थोड़ी देर पहले लॉन सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिर कर एक कदम और आगे रखा तो पाँव कीचड़ में सन गए। उसने पाँव की ओर देखा। अब यहाँ पाँव धोने के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गई। पाँव धो कर साफ करने की नई चिंता हुई। उसकी विचारधारा रूक गई। जब तक पाँव साफ न हो जायँ, वह कुछ नहीं सोच सकती।

सहसा उसे एक लंबा पाइप घास में छिपा नजर आया, जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जा कर पाँव धोए, चप्पल धोए, हाथ-मुँह धोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में ले कर पिया और पाइप के उस पार सूखी जमीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरंत आती है। कहीं वह यहीं बैठे-बैठे मर जाय, तो क्या हो? ताँगे वाला तुरंत जा कर खन्ना को खबर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेंगे, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आँखों पर रूमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे माँ से प्यारे हैं। यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूँद आँसू बहाने वाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आया, जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंकू न हुए थे। तब उसे सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था, आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला हुआ जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलार कर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे, किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़ कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होती, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डाल कर वह रो लेती। लेकिन नहीं, वह रोएगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दु:खी न बनाएगी। मेरे लिए वह जो कुछ ज्यादा से ज्यादा कर सकती थी, वह कर गई! मेरे कमोऊ की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोए? वह अब किसी के अधीन नहीं है। वह अपने गुजर-भर को कमा सकती है। वह कल ही गांधी-आश्रम से चीजें ले कर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखा कर कहेंगे - वह जा रही है खन्ना की बीबी। लेकिन इस शहर में रहूँ ही क्यों? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमाएगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिजाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब खुद अपना पालन करूँगी।

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